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निरयावलका सूत्र
देवाप्पिया ! वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रण्णो असंविदिएणं सेयणगं० अट्ठारसवंकं च हारं गहाय इहं हव्वमागए, तए णं कूणिएणं सेयणगस्स अट्ठारसवंकस्स य अट्ठाए तओ दूया पेसिया, ते य मए इमेणं कारणेणं पडिसेहिया, तए णं से कूणिए ममं एयम अपडिसुणमाणे चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे जुज्झसज्जे इहं हव्वमागच्छइ, तं किं णं देवाणुपिया ! सेयणगं अट्ठारसवंकं (च) कूणियस्स रण्णो पञ्चप्पिणामो? वेहल्लं कुमारं पेसेमो ? उदाहु जुज्झित्था ॥ ६५ ॥
भावार्थ - तदनन्तर चेटक राजा ने कोणिक की चढ़ाई के समाचार सुनकर काशी और कोशल, देश के नौ मल्लवी नौ लिच्छवी इन अठारह गणराजाओं को परामर्श करने हेतु आमंत्रित किया और उन्हें इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रियो ! कोणिक राजा को बिना बताए वेहल्लकुमार सेचनक गंध हस्ती और अठारह लड़ी वाला हार लेकर यहाँ आ गया। कोणिक ने सेचनकहस्ती और हार को वापिस लेने के लिए तीन दूत भेजें किन्तु मैंने इस कारण से उन दूतों को मना कर दिया कि स्वयं राजा श्रेणिक ने जीवितावस्था में ये दोनों रत्न दिये हैं अतः हार और हाथी चाहते हो तो उसे आधा राज्य दे दो । कोणिक मेरी इस बात को न मान कर चतुरंगिणी सेना के साथ सज्जित हो युद्ध के लिए यहाँ आ रहा है तो क्या हे देवानुप्रियो ! सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार राजा कोणिक को लौटा दें, वेहल्लकुमार को उसके पास भेज दें अथवा उससे युद्ध करें ? "
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तए णं णव मल्लई णव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो चेडगं रायं एवं वयासी-ण एवं सामी! जुंत्तं वा पत्तं वा रायसरिसं वा जं णं सेयणगं अट्ठारसवंकं कूणियस्स रण्णो पञ्चप्पिणिज्जइ वेहल्ले य कुमारे सरणागए पेसिज्जइ, तं जणं कूणिए राया चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे जुज्झसज्जे इहं हव्वमागच्छइ, तणं अम्हे कूणिणं रण्णा सद्धिं जुज्झामो ॥ ६६ ॥
कठिन शब्दार्थ - सरणागए - शरणागत, जुत्तं युक्त, पत्तं - अवसरोचित, रायसरिसं - राजा के अनुरूप, पेसिज भेज दिया जाय, जुज्झामो - युद्ध करें।
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भावार्थ तब नौ मल्लवी नौलिच्छवी इन अठारह गणराजाओं ने इस प्रकार कहा - 'हे
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स्वामिन्! यह न तो युक्त उचित है न अवसरोचित है और न राजा के अनुरूप ही है कि सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ी वाला हार कोणिक राजा को लौटा दिया जाय और शरणागत
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