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________________ ॥णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स। णिरयावलियाओ (कप्पिया) निरयावलिका (कल्पिका) (मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ और विवेचन सहित) पढमस्स वग्गस्स पढमं अज्झयणं प्रथम वर्ग का प्रथम अध्ययन प्रस्तावना अनादिकाल से कालचक्र चलता आ रहा है। उसका एक चक्र का समय बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। उसके दो विभाग होते हैं - उत्सर्पिणीकाल और अवसर्पिणी काल। उत्सर्पिणीकाल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है इसी तरह अवसर्पिणी काल भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल में तरेसट-तरेसट (६३-६३) श्लाघ्य (शलाका) पुरुष होते हैं। यथा - चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेव। ___ तीर्थंकर राजपाट आदि ऋद्धि सम्पदा को छोड़कर दीक्षित होते हैं। दीक्षा लेकर तप संयम के द्वारा घाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध श्रमण संघ की स्थापना करते हैं। जिस तीर्थंकर के जितने गणधर होने होते हैं उतने गणधर प्रथम देशना में हो जाते हैं फिर तीर्थंकर भगवान् अर्थ रूप से द्वादशांग की प्ररूपणा करते हैं और गणधर उस अर्थ को सूत्र रूप से गूंथन करते हैं। यथा - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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