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________________ १५० वृष्णिदशा सूत्र ........................................................... का अध्ययन किया और अध्ययन करके बहुत से चतुर्थभक्त यावत् अपनी आत्मा को तप संयम से भावित करते हुए पैंतालीस वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया। दो माह की संलेखना से आत्मा को शुद्ध करके एक सौ बीस भक्तों का अनशन से छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक समाधि भावों में काल के समय काल कर ब्रह्मलोक कल्प के मनोरम विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए। वहां कितनेक देवों की दस सागरोपम की स्थिति कही गई है। उस वीरांगद देव की भी दस सागरोपम की स्थिति थी। वीरांगद देव का निषध रूप में जन्म से णं वीरंगए देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव अणंतरं चयं चइत्ता इहेव बारवईए णयरीए बलदेवस्स रण्णो रेवईए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववण्णे। तए णं सा रेवई देवी तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सुमिणदंसणं जाव उप्पिं पासायवरगए विहरइ। तं एवं खलु वरदत्ता! णिसढेणं कुमारेणं अयमेयारूवा उराला मणुयइड्डी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया॥१७४॥ भावार्थ - वह वीरांगद देव, उस देवलोक से आयु आदि का क्षय होने पर वहां से च्यव कर इस द्वारिका नगरी में बलदेव राजा की रेवती रानी की कुक्षि से पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। ___ उस समय रेवती देवी ने सुखद शय्या पर सोते हुए स्वप्न देखा, यावत् उत्तम प्रासाद में भोग भोगते हुए यह निषध कुमार समय व्यतीत कर रहा है। ___ इस प्रकार हे वरदत्त! इस निषधकुमार को यह उत्तम मनुष्य ऋद्धि लब्ध हुई है, प्राप्त हुई है, अभिसमन्वागत हुई है। ____ भगवान् अरिष्टनेमि का विहार पभू णं भंते! णिसढे कुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वइत्तए? हंता! पभू। से एवं भंते! २ इय वरदत्ते अणगारे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरइ। तएणं अरहा अरिट्ठणेमी अण्णया कयाइ बारवईओ णयरीओ जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ। णिसढे कुमारे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ॥१७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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