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________________ २२ निरयावलिका सूत्र ........................................................... आप से छुपाई जाय और जिसे आप सुनने के योग्य न हों अर्थात् आप उसे सर्वथा सुन सकते हो। निश्चित ही हे स्वामी! उस उदार स्वप्न के फलस्वरूप गर्भ के तीसरे माह के अन्त में मुझे इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएं धन्य हैं जो अपने पति के उदरवलिका मांस पका करके, तल करके और अग्नि में सेक भून कर मदिरा के साथ हर्ष पूर्वक आस्वादन करती हुई, दूसरों को बांटती हुई अपना दोहद पूर्ण करती है। मुझे भी ऐसा ही दोहद उत्पन्न हुआ है लेकिन हे स्वामिन्! वह दोहद पूर्ण नहीं होने से मैं शुष्क शरीरी, भूखी-सी यावत् चिंता ग्रस्त हो रही हूँ।" श्लेणिक का आश्वासन तए णं से सेणिए राया चेल्लणं देविं एव वयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिए! ओहय० जाव झियाहि, अहं णं तहा जत्तिहामि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ तिकट्ट चेल्लणं देविं ताहिं इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगल्लाहिं मियमहुरसस्सिरीयाहिं वग्गूहिं समासासेइ २ ता चेल्लणाए देवीए अंतियाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे णिसीयइ णिसीयित्ता तस्स दोहलस्स संपत्तिणिमित्तं बहूहिं आएहिं उवाएहि य उप्पत्तियाए य वेणइयाए य कम्मियाए य पारिणामियाए य परिणामेमाणे परिणामेमाणे तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा (बियक्कं) ठिई वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियाइ॥२१॥ कठिन शब्दार्थ - संपत्ती - संपूर्ति, इटाहिं - इष्ट (अभिलषित), कंताहिं - कान्त (इच्छित), पियाहिं - प्रिय, मणुग्णाहिं - मनोज्ञ, मणामाहिं - मनाम-मन को प्रिय, ओरालाहिं - प्रभावक, कल्लाणाहिं - कल्याणप्रद, सिवाहिं - शिव, धण्णाहिं - धन्य, मंगल्लाहिं - मंगल रूप, मियमहुरसस्सिरीयाहिं - मित मधुर और सुन्दर, वग्गूहि - वचनों से, समासासेइ - आश्वस्त करता है, आएहिं - आयों (लाभों) से, उवाएहि - उपायों से। भावार्थ - तत्पश्चात् श्रेणिक राजा चेलना देवी से इस प्रकार बोला-“हे देवानुप्रिये! तुम भग्न . मनोरथ होकर चिंता मत करो। मैं वैसा ही यत्न करूँगा जिससे तुम्हारे दोहद की पूर्ति हो जायगी। इस प्रकार कह कर चेलना देवी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनाम, उदार, कल्याण, शिव, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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