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________________ निरयावलिका सूत्र ........................................................... सिप्पियाइण्ण-णिव्वुयसुहा सिंघाडग-तिग-चउक्कचच्चर-पणियावण विविहवत्थुपरिमंडिया सुरम्मा णरवइपविइण्णमहिवइपहा अणेग-वरतुरग-मत्तकुंजररहपहकरसीय-संदमाणी आइण्णजाणजुग्गा विमउल-णव-णलिणिसोभियजला पंडुरवरभवण सण्णिमहिया उत्ताण-णयण-पेच्छणिज्जा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा।" ‘वण्णओं' पद वर्णक का बोधक है। वर्णक पद की व्याख्या करते हुए टीकाकार लिखते हैं - 'वर्ण्यते, प्रकाश्यते अर्थो येनस वर्णः, वर्ण एव र्णकः वर्णन प्रकरणम्। वर्णयतीति वर्णकः' अर्थात् जिसके द्वारा अर्थ प्रकट होता है, उस पर प्रकाश पड़ता है, उस स्थल को वर्णन कहते हैं। वर्णन करने वाला प्रकरण भी वर्णक शब्द से व्यवहृत होता है। प्रस्तुत में वर्णक पद सूत्रकार ने . "गुणसीलए चेइए" के आगे दिया है। औपपातिक सूत्र में वर्णित पूर्णभद्र चैत्य की तरह गुणशीलक चैत्य का वर्णन समझ लेना चाहिये। उस गुणशीलक चैत्य के चारों ओर एक वनखण्ड था। उस वनखण्ड के बीचोबीच एक विशाल एवं रमणीय अशोक वृक्ष था। वह उत्तम मूल, कंद, स्कंध, शाखाओं, प्रशाखाओं, प्रवालों, पत्तों, पुष्पों और फलों से सम्पन्न था। उस अशोक वृक्ष के नीचे स्कंध से सटा हुआ एक पृथ्वीशिलापट्टक था यावत् वह मनोरम, दर्शनीय, मोहक और मनोहर था। राजगृह नगर, गुणशीलक चैत्य, पृथ्वीशिलापट्टक के विस्तृत वर्णन के लिये जिज्ञासुओं को संघ द्वारा प्रकाशित औपपातिक सूत्र (सूत्र क्रमांक पृष्ठ १ से १८ तथा २७ से २९) देखना चाहिये। .. सुधर्मा स्वामी का पदार्पण तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अजसुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपण्णे जहा केसी जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे....जेणेव रायगिहे णयरे जाव अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं जाव विहरइ। परिसा णिग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया॥२॥ भावार्थ - उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य जाति कुल आदि से संपन्न आर्य सुधर्मा नामक अनगार केशी स्वामी की तरह यावत् पांच सौ अनगारों के साथ पूर्वानुपूर्वी क्रम से चलते हुए जहां राजगृह नगर था, वहां पधारे यावत् यथोचित अवग्रह को ग्रहण करके तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उस नगर से परिषद् निकली। आर्य सुधर्मा स्वामी ने धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुन कर परिषद् लौट गई। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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