SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ पुष्पिका सूत्र अंगीकार कर उन आर्याओं को वंदन नमस्कार किया, वंदन नमस्कार करके उन्हें विदा किया। तदनन्तर वह सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका होकर यावत् विचरण करने लगी। सुभद्रा द्वारा दीक्षा का संकल्प तए णं तीसे सुभद्दाए समणोवासियाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्थाएवं खलु अहं भद्देणं सत्यवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं जाव विहरामि, णो चेव णं अहं दारगं वा...., तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव जलंते भद्दस्स आपुच्छित्ता सुव्वयाणं अजाणं अंतिए अन्जा भवित्ता आगाराओ जाव पव्वइत्तए, एवं संपेहेइ संपेहिता कल्ले....जेणेव भद्दे सत्यवाहे तेणेव उवागया करयल जाव एवं वयासीएवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं सद्धिं बहूई वासाई विउलाई भोगभोगाई जाव विहरामि, णो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयायामि, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पव्वइत्तए॥११८॥ ____भावार्थ - तदनन्तर उस सुभद्रा श्रमणोपासिका को किसी दिन मध्य रात्रि में कुटुम्ब जागरणा करते हुए इस प्रकार का मनःसंकल्प-यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि - मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगों को भोगती हुई विचर रही हूँ किंतु मैंने अभी तक एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया है अतः मुझे यह उचित है कि मैं कल सूर्योदय होने पर भद्र सार्थवाह से आज्ञा लेकर सुव्रता आर्या के पास गृह त्याग कर यावत् प्रव्रजित हो जाऊँ। उसने इस प्रकार का विचार किया, विचार करके जहां भद्र सार्थवाह था वहां आई आकर दोनों हाथों को जोड़ कर यावत् इस प्रकार बोली - हे देवानुप्रिय! मैं आपके साथ बहुत वर्षों से विपुल भोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूँ किंतु मैंने एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया है। अब मैं आप देवानुप्रिय की आज्ञा प्राप्त कर सुव्रता आर्या के पास यावत् दीक्षित होना चाहती हूँ। भद्र द्वारा दीक्षा की आज्ञा तए णं से भद्दे सत्यवाहे सुभदं सत्यवाहिं एवं वयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिए! इयाणिं मुण्डा जाव पव्वयाहि, भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए! मए सद्धिं विउलाई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy