SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ भद्र द्वारा दीक्षा की आज्ञा .......................................................... ......... भोगभोगाई, तओ पच्छा भुत्तभोई सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पव्वयाहि। तए णं सुभद्दा सत्यवाही भद्दस्स० एयमढे णो० परियाणइ। दोच्चंपि तच्चंपि सुभद्दा सत्यवाही भई सत्थवाहं एवं वयासी-इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी जाव पव्वइत्तए। तए णं से भद्दे सत्थवाहे जाहे णो संचाएइ बहूहिं आघवणाहि य एवं पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा जाव विण्णवित्तए वा ताहे अकामए चेव सुभद्दाए णिक्खमणं अणुमण्णित्था॥११९॥ _____ कठिन शब्दार्थ - भुत्तभोई - भुक्त भोगी, आघवणाहि - आख्यापनाओं-युक्तियों-सामान्य कथनों से, पण्णवणाहि - प्रज्ञापनाओं-प्रज्ञप्तियों विशेष कथनों से, सण्णवणाहि - संज्ञापनाओसंज्ञप्तियों-समझाइशों से, विष्णवणाहि - विज्ञप्तियों-विनययुक्त निवेदनों से, णिक्खमणं - निष्क्रमण की-दीक्षा लेने की, अणुमण्णित्था - आज्ञा प्रदान की। ___भावार्थ - तब भद्र सार्थवाह ने सुभद्रा सार्थवाही से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिये! तुम मुंडित होकर यावत् प्रव्रजित मत होओ, मेरे साथ विपुल भोगोपभोगों का भोग करो और भुक्तभोगीभोगों को भोगने के पश्चात् सुव्रता आर्या के पास मुण्डित होकर यावत् गृह त्याग कर प्रव्रज्या अंगीकार करना। भद्र सार्थवाह के इस प्रकार कहे जाने पर सुभद्रा सार्थवाही ने उनके वचनों का आदर नहीं किया, उन्हें स्वीकार नहीं किया। दूसरी बार और तीसरी बार भी सुभद्रा सार्थवाही ने भद्र सार्थवाह से यही कहा - 'हे देवानुप्रिय! आपकी आज्ञा प्राप्त कर मैं सुव्रता आर्या के पास प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूं।' ____ जब भद्र सार्थवाह बहुत प्रकार की अनुकूल और प्रतिकूल युक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों से सुभद्रा सार्थवाही को समझाने, बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुआ तो अनिच्छा पूर्वक उसे दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान कर दी। - विवेचन - मूल पाठ में आये आघवणाहिं' आदि शब्दों के विशेष अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये। . १. आख्यापना - 'घर में रहना ही श्रेयस्कर है'-इस प्रकार उसकी परीक्षा के लिए सामान्य कथन। २. प्रज्ञापना - 'तुम प्रव्रजित मत होओ, संयम का आचरण दुष्कर हैं' - इस प्रकार विशेष रूप से कथन। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy