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________________ निरयावलिका सूत्र चेड राया कालं कुमारं एजमाणं पासइ पासित्ता आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे धणुं परामुसइ परामुसित्ता उसुं परामुसइ परामुसित्ता वइसाहं ठाणं ठाइ ठाइत्ता आययकण्णाययं उसुं करेइ करेत्ता कालं कुमारं एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोवेइ, तं कालगए णं काली! काले कुमारे, णो चेव णं तुमं कालं कुमारं जीवमाणं पासिहिसि ॥ ११ ॥ १४ कठिन शब्दार्थ - हयमहियपवरवीरघाइयणिवडिय - चिंधज्झयपडागे - वीरवरों को आहत, मर्दित, घातित करते हुए उनकी चिह्न रूप ध्वजा पताकाओं को छिन्न-भिन्न करते हुए गिराते हुए, मिसिमिसेमाणे - मिसमिसाते हुए । भावार्थ - इसके बाद उस काली देवी ने श्रमण भगवान् महावीर के पास से धर्म श्रमण कर उसे हृदय में धारण कर हर्षित, संतुष्ट यावत् विकसित हृदय होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार वंदन नमस्कार कर इस प्रकार कहा - "हे भगवन् ! मेरा पुत्र कालकुमार तीन हजार हाथियों के साथ यावत् रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ है तो हे भगवन् ! वह विजयी होगा या विजयी नहीं होगा यावत् क्या मैं कालकुमार को जीवित देखूंगी ?" 'हे काली!' इस प्रकार संबोधित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने काली देवी से. कहा- 'हे काली! तुम्हारा पुत्र कालकुमार जो तीन हजार हाथियों यावत् कोणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम में युद्ध करता हुआ वीरवरों को आहत, मर्दित, घातित करते हुए उनकी संकेत सूचक ध्वजा पताकाओं को भूमिसात् करते हुए गिराते हुए दिशाओं को निस्तेज करता हुआ रथ से रथ को अडाते हुए चेटक राजा के सामने आया । तदनन्तर चेटक राजा ने कालकुमार को आते हुए देखा, कालकुमार को देख कर क्रोधाधिभूत हो यावत् मिसमिसाते हुए धनुष उठाया। धनुष उठाकर बाण हाथ में लिया, लेकर धनुष पर बाण चढाया, चढा कर उसे कान तक खींचा और खींच कर एक ही बार में आहत करके उसे जीवन से अलग कर देता है अर्थात् मार डालता है। अतः हे काली! वह कुमार मरण को प्राप्त हो गया है अतः अब तुम कालकुमार को जीवित नहीं देख सकोगी।' विवेचन - क्रोध रूप अग्नि जीवन रस को जला देती है । यही बात चेटक राजा के साथ हुई। कालकुमार को सामने देखते ही वे क्रोधित हो गये । क्रोधावेश से उन्होंने रौद्र रूप धारण किया, ललाट पर आवेश से तीन सल चढा कर अपने अमोघ बाण को कान तक खींच कर उसे बड़ी शक्ति से कालकुमार पर छोड़ा। महाराजा चेटक के अप्रतिहत बाण के प्रहार से कालकुमार धराशायी हो गये, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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