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________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सोमा का चिंतन ११७ ........................................................... के उत्तान शयन करने से, किसी के चिल्लाने से, किसी को जन्म चूंटी आदि दवाई पिलाने से, किसी के घुटने-घुटने चलने से, किसी के पैरों पर खड़े होने में प्रवृत्त होने से, किसी के चलते-चलते गिर , जाने से, किसी के स्तन को ढूंढने से, किसी के दूध मांगने से, किसी के खिलौना मांगने से, किसी के खाजा आदि मांगने से, किसी के कूर (भात) मांगने से, किसी के पानी मांगने से, किसी के हंसने से, किसी के रुठने से, गुस्सा करने से, झगड़ने से, मारपीट करने से, मार कर भाग जाने से, पीछा करने से, किसी के रोने से, आक्रंदन करने से, विलाप करने से, छीना-झपटी करने से, कराहने से, ऊँघने से, प्रलाप करने से, किसी के पेशाब करने से, किसी के उलटी कर देने से, किसी के छेरने से, किसी के मूतने आदि से सदैव उन बच्चे बच्चियों के मल-मूत्र वमन से लिपटे शरीर वाली तथा मैले कुचले कपड़ों से कांतिहीन यावत् अशुचि से भरी हुई होने से देखने में बीभत्स और अत्यंत दुर्गन्धित होने के कारण राष्ट्रकूट के साथ विपुल कामभोगों को भोगने में समर्थ नहीं हो सकेगी। सोमा का चिंतन तए णं तीसे सोमाए माहणीए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं इमेहिं बहूहिं दारगेहि य जाव डिम्भियाहि य अप्पेगइएहिं उत्ताणसेज्जएहिं य जाव अप्पेगइएहिं मुत्तमाणेहिं दुज्जाएहिं दुज्जम्मएहिं हयविप्पहयभग्गेहिं एगप्पहारपडिएहिं जेणं मुत्तपुरीसवमियसुलित्तोवलित्ता जाव परमदुम्मिगंधा णो संचाएमि रडकूडेणं सद्धिं जाव भुंजमाणी विहरित्तए, तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जीवियफले जाओ णं वंझाओ अवियाउरीओ जाणुकोप्परमायाओ सुरभिसुगंधगंधियाओ विउलाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणीओ विहरंति, अहं णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा णो संचाएमि रटकूडेणं सद्धिं विउलाई जाव विहरित्तए॥१३३॥ ___कठिन शब्दार्थ - दुजाएहिं - दुतैिः-दुष्टजातं-अभागे दुःखदायी, दुजम्मएहिं - दुर्जन्मभिःदुर्जन्मा-कुत्सित जन्म वाले, हयविप्पहयभग्गेहिं - हतविप्रहतभाग्यैः-सर्वथा भाग्यहीन, एगप्पहारपडिएहि-एकप्रहार पतितैः-अल्पकाल में उत्पन्न होने वाले-थोड़े-थोड़े दिनों के बाद उत्पन्न हुए। भावार्थ - तत्पश्चात् किसी समय रात्रि के पिछले प्रहर में कुटुम्ब जागरणा करती हुई उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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