SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ । निरयावलिका सूत्र .......................................................... तए णं से सेणिए राया तालपुडगविसंसि आसगंसि पक्खित्ते समाणे मुहुत्तंतरेणं परिणममाणंसि णिप्पाणे णिच्चे? जीवविप्पजढे ओइण्णे॥४२॥ कठिन शब्दार्थ - अपत्थिय पत्थिए - अप्रार्थित पार्थिक, हिरिसिरिपरिवजिए - लज्जा, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी से परिवर्जित, तालपुडगं विसं - ताल पुटक नामक विष को, आसगंसि - मुख में, णिप्पाणे - निष्प्राण, णिच्चिद्वे - निष्चेष्ट-चेष्टा रहित, जीवविप्पजढे - जीव रहित। भावार्थ - राजा श्रेणिक ने हाथ में परशु (कुल्हाड़ी) लिये कोणिककुमार को अपनी ओर आते देखा तो मन ही मन में विचार किया-यह कोणिककुमार अप्रार्थित-मौत की प्रार्थना (इच्छा) करने वाला यावत् लज्जा, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी से परिवर्जित हाथ में कुल्हाड़ी लेकर मेरी ओर शीघ्रता . ' से आ रहा है। न जाने यह मुझे किस मौत से मारे? इस विचार से भयभीत हो राजा श्रेणिक ने तालपुट नामक विष अपने मुख में डाल दिया। तदनन्तर श्रेणिक राजा के तालपुट विष को मुंह में डालते ही एक मुहूर्त में वह विष सारे शरीर में व्याप्त हो गया। परिणाम स्वरूप राजा निष्प्राण - प्राण रहित, निष्चेष्ट-चेष्टा रहित और निर्जीव जीव रहित हो गिर पड़ा। कोणिक का शोक और चंपागमन , तए णं से कूणिए कुमारे जेणेव चारगसाला तेणेव उवागए, सेणियं रायं णिप्पाणं णिच्चेद्वं जीवविष्पजढं ओइण्णं पासइ पासित्ता महया पिइसोएणं अप्फुण्णे समाणे परसुणियत्ते विव चम्पगवरपायवे धसत्ति धरणीयलंसि सव्वंगेहिं संणिवडिए। तए णं से कूणिए कुमारे मुहत्तंतरेणं आसत्ये समाणे रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे विलवमाणे एवं वयासी-अहो णं मए अधण्णेणं अपुण्णेणं अकयपुण्णेणं दुट्ठकयं सेणियं रायं पियं देवयं अचंतणेहाणुरागरत्तं णियलबंधणं करतेणं, मममूलार्ग चेव णं सेणिए राया कालगएत्तिकट्ट राईसरतलवर जाव संधिवालसद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे विलवमाणे महया इडीसक्कारसमुदएणं सेणियस्स रण्णो णीहरणं करेइ करेत्ता बहूई लोइयाई मयकिच्चाई करेइ। ___तए णं से कूणिए कुमारे एएणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अण्णया कयाइ अंतेउरपरियालसंपरिवुडे सभण्डमत्तोवगरणमायाए रायगिहाओ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy