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________________ ७६ पुष्पिका सूत्र ........................................................... सुधर्मा स्वामी ने फरमाया - हे जम्बू! उस काल उस समय में राजगृह नाम की नगरी थी। उस नगरी में गुणशिलक नामक चैत्य था। श्रेणिक नाम के राजा थे। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का राजगृह पदार्पण हुआ। जिस प्रकार चन्द्र इन्द्र भगवान् की पर्युपासना करने आया उसी प्रकार सूर्य इन्द्र भी आया यावत् नाट्य विधि दिखा कर लौट गया। ___तत्पश्चात् गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से पूछा-हे भगवन्! सूर्य, पूर्व भव में कौन था? प्रभु ने समाधान करते हुए फरमाया- हे गौतम! श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उस नगरी में सुप्रतिष्ठ नामक गाथापति रहता था। वह भी अंगति के समान ही आढ्य ऋद्धि संपन्न, धनाढ्य यावत् अपरिभूत (प्रभावशाली) था। श्रावस्ती नगरी में भगवान् पार्श्व प्रभु समवसृत हुए-पधारे। जिस प्रकार अंगति दीक्षित हुआ उसी प्रकार सुप्रतिष्ठ भी प्रव्रजित हुए। उसी प्रकार संयम की विराधना करके काल के समय काल कर सूर्य विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। सूर्य देव वहाँ से आयु क्षय होने पर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःखों का अंत करेगा। हे जम्बू! इस प्रकार मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका का द्वितीय अध्ययन फरमाया है। ऐसा मैं कहता हूँ। _ विवेचन - प्रथम अध्ययन में चन्द्र देव का वर्णन करने के बाद पुष्पिका के इस दूसरे अध्ययन में सूर्य देव का वर्णन है। चन्द्र देव के समान सूर्य द्वारा भी नाटक दिखाने के बाद गौतम स्वामी ने अपनी जिज्ञासा की उपशांति के लिए प्रभु से प्रश्न किया-हे प्रभो! यह सूर्य पूर्व भव में कौन था? इसने क्या दान दिया, क्या भोग किया, क्या तप आदि किया जिससे इसे यह दिव्य देव ऋद्धि आदि प्राप्त भगवान् ने गौतम स्वामी की जिज्ञासा का समाधान करते हुए फरमाया-हे गौतम! उस काल उस समय में श्रावस्ती नामक नगरी थी। उस नगरी में सुप्रतिष्ठ नामक गाथापति निवास करता था। जो अंगति गाथापति के समान ही ऋद्धि समृद्धि से युक्त और प्रभावशाली था। किसी समय भगवान् पार्श्वप्रभु श्रावस्ती नगरी में पधारे। परिषद् दर्शनार्थ निकली। सुप्रतिष्ठ गाथापति भी प्रभु आगमन के शुभ समाचार सुन कर सेवा में पहुँचा। भगवान् पार्श्व के मुखारविंद से अमोघ जिनवाणी का रसास्वादन करके सुप्रतिष्ठ संसार से विरक्त हो गया और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर प्रभु के पास प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। दीक्षित होकर तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए काल के समय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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