SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ग ३ अध्ययन २ ७५ विवेचन - ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र देव की दिव्य ऋद्धि आदि का कारण पूर्वभव-अंगति अनगार द्वारा तप संयम की विराधना की गई है। अंगति अनगार दीर्घ तपस्या के बाद पन्द्रह दिन की संलेखना संथारा कर चन्द्रावतंसक विमान में चन्द्ररूप से उत्पन्न हुए। चन्द्रदेव की स्थिति पूर्ण कर वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगे और वहाँ से सिद्ध, बुद्ध मुक्त हो सभी दुःखों का अन्त करेंगे। इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका का प्रथम अध्ययन फरमाया है। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त॥ बिइयं अज्झयणं द्वितीय अध्ययन जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव पुफियाणं पढमस्स अज्मयणस्स अयमढे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुष्फियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते? ____ एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। समोसरणं। जहा चंदो तहा सूरोवि आगओ जाव णट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ। पुव्वभवपुच्छा। सावत्थी णयरी। सुपइटे णामं गाहावई होत्था, अड्डे जहेव अंगई जाव विहरइ। पासो समोसढो, जहा अंगई पव्वइए, तहेव विराहियसामण्णे जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंतं करेहिइ। णिक्खेवओ॥३॥ बिइयं अज्झयणं समत्तं ॥३॥२॥ भावार्थ - जम्बूस्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा-हे भगवन्! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पुष्पिका के प्रथम अध्ययन का पूर्वोक्तानुसार निरूपण किया है तो हे भगवन्! पुष्पिका के द्वितीय अध्ययन में मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या भाव फरमाये हैं? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy