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________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सोमा का धार्मिक चिंतन ११६ प्रवेश करेगा। तब वह सोमा ब्राह्मणी उन साध्वियों को आते देख कर हृष्ट तुष्ट होगी और शीघ्र अपने आसन. से उठ कर सात आठ कदम उनके सामने जायेगी। तदनन्तर वंदन नमस्कार करेगी और विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से प्रतिलाभित कर उनसे इस प्रकार कहेगी-'हे आर्याओ! राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को भोगती हुई मैंने प्रत्येक वर्ष में युगल बच्चों को जन्म देकर सोलह वर्षों में बत्तीस बच्चों को जन्म दिया है। मैं उन दुर्जन्मा बहुत से बालक बालिकाओं यावत् बच्चे बच्चियों में किसी के उत्तान शयन यावत् पेशाब करने से उन बच्चों के मलमूत्र और वमन आदि से सनी-लिपी पुती अत्यंत दुर्गन्धित शरीर वाली हो अपने पति राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को नहीं भोग पाती हूँ। हे आर्याओ! मैं आपके समीप धर्म सुनना चाहती हूँ। तब वे आर्याएं सोमा ब्राह्मणी को विचित्र-विविध प्रकार के यावत् केवली प्ररूपित धर्म का उपदेश देंगी। सोमा का धार्मिक चिंतन 'तए णं सा सोमा माहणी तासिं अज्जाणं अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव हियया ताओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सदहामि णं अज्जाओ! णिग्गंथं पावयणं जाव अब्भुढेमि णं अजाओ!णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं अज्जाओ! जाव से जहेयं तुब्भे वयह, जं णवरं अजाओ! रटकूडं आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुण्डा जाव पव्वयामि। अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंधं....। तए णं सा सोमा माहणी ताओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जेइ॥ १३५॥ - भावार्थ - उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओं से धर्म सुन कर उसे हृदय में धारण कर हृष्ट तुष्ट हो यावत् हर्ष युक्त हृदय से उन आर्याओं को वंदन नमस्कार कर इस प्रकार कहेगी'हे आर्याओ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ यावत् उसे अंगीकार करने के लिए उद्यत हूँ। हे आर्याओ! निर्ग्रन्थ प्रवचन ऐसा ही है जैसा आपने प्रतिपादन किया है। मैं राष्ट्रकूट से पूछूगी तत्पश्चात् आपके पास मुंडित होकर प्रव्रजित होऊँगी।' यह सुन कर उन आर्याओं ने सोमा ब्राह्मणी से कहा-'हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो, किन्तु धर्म कार्य में प्रमाद मत करो।' इसके बाद सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओं को वंदन नमस्कार करके उन्हें विसर्जित करेगी। तए णं सा सोमा माहणी जेणेव रटकूडे तेणेव उवागया करयल०....एवं वयासी-एवं खलु मए देवाणुप्पिया! अजाणं अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य णं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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