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वृष्णिदशा सूत्र .......................................................... चक्रवाक, मैना और कोयल आदि पशु पक्षी वृन्द से सुशोभित, तडकडगवियर-ओझर-पवायपन्भार-सिहरपउरे - तट-कटक-विवरावज्झर-प्रपात-प्राग्भार शिखर प्रचुरः-तट (किनारें) कटक (पर्वत का रमणीय भाग) विवर (गुफाएं) अवज्झर (सुंदर झरने), प्रपात (झरनों के गिरने का स्थान), प्राग्भार (पर्वत का झुका हुआ रम्य प्रदेश) और अनेक शिखर, अच्छर-गणदेवसंघचारणविज्जाहरमिहुण संणिचिण्णे - अप्सरोगणदेवसंघ चारण विद्याधर मिथुन सन्निचीर्णःअप्सराओं के समूहों, देवों के समुदायों, चारणों और विद्याधरों के युगलों से व्याप्त, णिच्चच्छणए - . नित्यक्षणक:-जहां नित्य उत्सव होते हैं, दसारवरवीरपुरिसतेल्लोकबलवगाणं - दशाहवरवीरपुरुषत्रैलोक्य बलवतां-तीन लोक में श्रेष्ठ बलवीर दशार्मों का, सोमे - सोम-आह्नांद उत्पन्न करने वाला, सुभए - शुभ-मंगलकारी, पियदसणे - प्रियदर्शन-नेत्रों को सुख देने वाला, सुरुवे - सुरूप-सुहावना।
भावार्थ - उस द्वारिका नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिशा (ईशानकोण) में रैवतक नामक पर्वत था जो बहुत ऊंचा था, उसके शिखर गगनतल को स्पर्श करते थे। वह नाना प्रकार के वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से युक्त था। हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मैना, कोयल आदि पशु पक्षियों के समूह से व्याप्त अभिराम था। उसमें अनेक तट, कटक, गुफाएँ, झरने, प्रपात, प्राग्भार और शिखर थे। वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देव संघों, चारणों, विद्याधरों के युगलों से व्याप्त था। तीनों लोकों में बलशाली दशार्ह वीरपुरुषों द्वारा वहां नित्य उत्सव मनाएं जाते थे। वह पर्वत सौम्य, आह्लाद उत्पन्न करने वाला, शुभ (सुभग) देखने में प्रिय, सुरूप, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था।
नंदनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्षायतन
वनखण्ड और पृथ्वी शिलापट्टक का वर्णन तस्स णं रेवयगस्स पव्वयस्स अदूरसामंते एत्य णं गंदणवणे णामं उज्जाणे होत्या, सव्वोउयपुष्फ० जाव दरिसणिज्जे, तत्य गं गंदणवणे उज्जाणे सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था चिराइए जाव बहुजणे आगम्ममचेइ सुरप्पियं
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