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________________ वर्ग ४ अध्ययन १ भूता द्वारा प्रभु की पर्युपासना १३३ ........................................................... पासित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरु(भि) हइ पच्चोरुहित्ता चेडी चक्कवालपरिकिण्णा जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो वंदित्ता णमंसित्ता जाव पज्जुवासइ॥१५०॥ कठिन शब्दार्थ - चेडीचक्कवालपरिकिण्णा - चेटी चक्रवाल परिकीर्णा-दासियों के परिवार (समूह) से परिवृत, उवट्ठाणसाला - उपस्थान शाला(सभा भवन बैठक), णिययपरिवारपरिवुडानिजपरिवार परिवृत्ता-अपने स्वजन परिवार से परिवृत, छत्ताईए - छत्रादीन-छत्र आदि, तित्थयराइसए - तीर्थंकरातिशयान्-तीर्थंकरों के अतिशयों को। ___ भावार्थ - तत्पश्चात् भूता दारिका ने स्नान किया यावत् शरीर को अलंकृत करके दासियों के समूह के साथ अपने घर से निकली और निकल कर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी वहाँ आई और आकर उत्तम धार्मिक यान (रथ) पर सवार हुई। तदनन्तर वह भूता दारिका अपने स्वजन परिवार वालों के साथ राजगृह नगर के मध्यभाग से निकली, निकल कर जहाँ गुणशीलक चैत्य था वहाँ आई, आकर छत्र आदि तीर्थंकरों के अतिशयों को देखा, देख कर धार्मिक श्रेष्ठ यान (रथ) से उतरी और उतर कर दासियों आदि के समूह के साथ जहाँ अर्हत् पुरुषादानीय पार्श्वप्रभु थे वहाँ आई, आकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके प्रभु को वंदन नमस्कार किया यावत् पर्युपासना करने लगी। ____ तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए भूयाए दारियाए तीसे महइ० धम्मकहा, धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ठ० वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सद्दहामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं जाव अब्भुढेमि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं, से जहेयं तुम्भे वयह, जं णवरं भंते! अम्मापियरो आपुच्छामि, तए णं अहं जाव पव्वइत्तए। अहासुहं देवाणुप्पिए!०॥१५१॥ भावार्थ - तत्पश्चात् अर्हत् पुरुषादानीय पार्श्व प्रभु ने उस भूता दारिका और आगत परिषद् को धर्मदेशना दी। धर्मदेशना सुन कर, अवधारण कर भूता दारिका हृष्ट तुष्ट हुई और प्रभु को वंदन नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया - 'हे भगवन्! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ यावत् निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करने के लिए तत्पर हूँ। जिस प्रकार आप फरमाते हैं वैसा ही है किन्तु हे भगवन्! मैं अपने माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर यावत् आपके पास प्रव्रज्या अंगीकार करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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