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________________ १४८ ............ वृष्णिदशा सूत्र www.rr.......................................... कठिन शब्दार्थ - जायसले - जिज्ञासा उत्पन्न हुई, उवगिज्जमाणे - उपगीयमानः-उपभोग करते हुए, पाउसवरिसारत्तसरयहेमंतवसंत-गिम्ह-पज्जते - प्रावृड्रत्रशरद्हेमन्तग्रीष्म वसंतान्पावस, वर्षा, शरद्, हेमन्त, ग्रीष्म और बसन्त, उऊ - ऋतुएं, जहाविभवेणं - यथाविभवेन-वैभव के अनुरूप। भावार्थ - उस काल और उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि के अंतेवासी (प्रमुख शिष्य) वरदत्त नामक अनगार विचरण कर रहे थे। उन वरदत्त अनगार ने निषधकुमार को देखा, देखकर जिज्ञासा हुई यावत् भगवान् की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले - अहो भगवन्! यह निषधकुमार इष्ट, इष्टरूप, कांत, कांतरूप एवं प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञ रूप, मनाम, मनामरूप, सौम्य, सौम्यरूप प्रियदर्शन और सुरूप है। हे भगवन्! इस निषधकुमार को इस प्रकार की मानवीय ऋद्धि किस प्रकार उपलब्ध हुई, किस प्रकार प्राप्त हुई इत्यादि सूर्याभदेव के समान वरदत्त मुनि ने पूछा। ___ भगवान् अरिष्टनेमि ने फरमाया - हे वरदत्त! उस काल और उस समय में इस जंबूद्वीप के भरत : क्षेत्र में रोहीतक नामक नगर था जो ऋद्धि समृद्धि से युक्त था। उस नगर में मेघवन नामक उद्यान था, मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था। उस रोहीतक नगर में महाबल राजा का राज्य था। उसकी रानी का नाम पद्मावती था। किसी एक रात्रि को पद्मावती रानी ने शुभ शय्या पर सोते हुए सिंह का स्वप्न देखा यावत् महाबल के समान पुत्र जन्म का सारा वर्णन समझना चाहिये। विशेषता यह है कि पुत्र का नाम वीरांगद रखा गया यावत् उसे बत्तीस बत्तीस वस्तुएं दहेज में दी और बत्तीस श्रेष्ठ कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ यावत् वैभव के अनुरूप पावस, वर्षा, शरद्, हेमन्त, ग्रीष्म और बसन्त इन छहों ऋतुओं के योग्य इष्ट शब्द यावत् पांच प्रकार के मानवीय काम भोगों का उपभोग करते हुए समय व्यतीत करने लगा। सिद्धार्थ नामक आचार्य का पर्दापण तेणं कालेणं तेणं समएणं सिद्धत्था णाम आयरिया जाइसंपण्णा जहा केसी, णवरं बहुस्सुया बहुपरिवारा जेणेव रोहीडए णयरे जेणेव मेहवण्णे उज्जाणे जेणेव मणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागया अहापडिरूवं जाव विहरंति। परिसा णिग्गया॥१७१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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