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________________ [4] अन्तकृत दशा का उपांग निरयावलिका, अनुत्तरोपपातिक दशा का उपांग कल्पावंतसिका, इसी प्रकार प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद के उपांग क्रमशः पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा को प्रतिष्ठापित किया गया है, पर ये उपांग सम्बन्धित अंगों के पूरक नहीं हैं । आगम-मनीषियों ने किस आधार से इनकी प्रतिष्ठापना की है, यह चिंतन का विषय है। प्रस्तुत निरयावलिया (निरयावलिका) श्रुतस्कन्ध में पांच उपांग समाविष्ट हैं । १. निरयावलिका (कल्पिका) २. कल्पावतंसिका ३. पुष्पिका ४. पुष्पचूलिका और ५. वृष्णिदशा। पांचों ही उपांगों की विषय सामग्री पृथक्-पृथक् है । निरयावलिया के प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैं, इसमें श्रेणिक राजा के दस पुत्रों के नरक में जाने का वर्णन है । श्रेणिक की महारानी चेलना का अगंजात कणिक, उसके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग इस आगम में संकलित है। कूणिक महत्त्वाकांक्षी राजकुमार था, उसने सोचा कि पिता के रहते उसे राज्य मिलने वाला नहीं है। अतएव उसने अपने लघुभ्राता कालकुमार, सुकालकुमार आदि के सहयोग से अपने पिता श्रेणिक को बंदी बना कर कारागृह में डाल कर स्वयं राजसिंहासन पर आरूढ़ हो गया तथा राज्य को ग्यारह हिस्सों में बांटकर राज्य करने लगा। राजसिंहासन पर आरूढ़ होने के पश्चात् वह खुश होकर अपनी माता चेलना के पास नमस्कार करने आया, किन्तु माता ने उसकी ओर देखा तक नहीं, वह चिन्तातुर थी । कूणिक ने कहा- 'माँ! तुम चिंतातुर क्यों हो? मैं ( आपका पुत्र) राजा बन गया हूँ फिर आपको चिन्ता करने की कहाँ आवश्यकता है? तब माता ने कहा- तुझे धिक्कार है, जो तूने अपने परम उपकारी पिता को कैद कर बंदीगृह में डाला है। तुम्हारे पिता का तुम पर कितना स्नेह था । उसने उसके गर्भ अवस्था में उत्पन्न दोहद जिसमें उसे पिता के उदर का मांस खाने की भावना जिसकी पूर्ति महाराज श्रेणिक ने राजकुमार अभयकुमार के सहयोग से किस प्रकार की, उस का ब्यौरा एवं उसके बाद जब तुम्हारा जन्म हुआ तो मैंने सोचा कि जिस जीव के गर्भ से पिता के मांस खाने की भावना जागृत हुई वह जीव भविष्य में पिता के लिए कितना अनिष्टकर होगा। अतएव तेरे जन्म लेने पर मैंने तुझे रोड़ी पर फिकवा दिया। जब इस बात की जानकारी राजा श्रेणिक को हुई तो वे मेरे पर बहुत कुपित हुए, उन्होंने तुरन्त रोड़ी पर से तुझे मंगवाया। कुछ समय रोड़ी पर पड़े रहने पर कुक्कुट ने अपनी चौंच से तुम्हारी अंगुली जख्मी कर दी थी. जिस कारण उसमें मवाद पड़ गई। उस मवाद कारण तुझे अपार कष्ट होता था। तेरी उस वेदना को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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