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________________ वर्ग ४ अध्ययन १ पुष्पचूलिका आर्या द्वारा समझाना ........................................................... उवस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। तए णं सा भूया अजा अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्ये धोवइ जाव चेएइ ॥१५८॥ भावार्य - तब वह पुष्पचूलिका आर्या भूता आर्या से इस प्रकार बोली-'हे देवानुप्रिये! हम श्रमणी निर्ग्रन्थी हैं। ईर्या समिति आदि से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं अतः हमें शरीरबकुशिका होना नहीं कल्पता है। किन्तु हे देवानुप्रिय! तुम शरीर बकुशिका होकर हाथ धोती हो यावत् पानी छिड़क कर बैठती यावत् स्वाध्याय करती हो। अतः हे देवानुप्रिये! तुम इस स्थान-पाप कार्य की आलोचना करो।' इत्यादि सारा वर्णन सुभद्रा आर्या के समान समझना चाहिये यावत् वह उपाश्रय से निकल कर अकेली स्वेच्छाचारी हो विचरण करने लगी। तत्पश्चात् वह भूता आर्या निरंकुशअंकुश रहित बिना किसी की रोक टोक के स्वच्छंद मति हो कर बारबार हाथ धोने लगी यावत् पानी छिड़क कर बैठती-स्वाध्याय करती। · विवेचन - जहाँ गृहस्थों को भी शरीर श्रृंगार का त्याग कर आत्म-श्रृंगार की प्रेरणा दी जाती है वहाँ त्यागी वर्ग के लिए और भी कठिन नियम है। शरीर को श्रृंगार भाव से सजाने के 'लिए हाथ पैर धोना, स्नान आदि करना संत सती के लिए वर्ण्य है। प्रभु ने दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ६ की गाथा ६६-६७ में फरमाया है - विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं। संसार सायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे॥६६॥ ___- शरीर की विभूषा एवं शोभा-श्रृंगार करने से साधु को ऐसे चिकने कर्मों का बंध होता है जिससे वह जन्म जरा मरण के भय से भयंकर कठिनता से पार किये जाने वाले संसार रूपी सागर में गिर पड़ता है। विभूसावत्तियं चेयं, बुद्धा मण्णंति तारिसं। सावज्जबहुलं चेयं, णेयं ताईहिं सेवियं ॥६७॥ - ज्ञानी पुरुष शरीर की विभूषा संबंधी संकल्प-विकल्प करने वाले मन को चिकने कर्म बंध का कारण और बहुत पापों की उत्पत्ति का हेतु मानते हैं इसलिए छह काय जीवों के रक्षक मुनियों को शरीर की विभूषा का सेवन नहीं करना चाहिये। भूता आर्या शरीर बकुशिका बन गयी। आर्या पुष्पचूलिका के समझाने पर भी वह नहीं समझी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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