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________________ वर्ग ३ अध्ययन ५ पूर्णभद्र अनगार की साधना १२५ ........................................................... स्वामी से पूर्णभद्र देव की देव ऋद्धि आदि के विषय में पूछ। भगवान् ने पूर्ववत् कूटाकारशाला के दृष्टान्त से उन्हें प्रतिबोधित किया तत्पश्चात् उसके पूर्वभव के विषय में गौतम स्वामी द्वारा पूछे जाने पर प्रभु ने फरमाया हे गौतम! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मणिपदिका नाम की नगरी थी। जो ऋद्धि समृद्धि आदि से युक्त थी। उस नगरी में चन्द्र नामक राजा राज्य करता था। वहाँ ताराकीर्ण नामक उद्यान था। उस मणिपदिका नगरी में पूर्णभद्र नामक गाथापति रहता था जो ऋद्धि संपन्न था। ____ उस काल उस समय में जाति एवं कुल से संपन्न यावत् जीवन की आशा और मरण भय से रहित, बहुश्रुत स्थविर भगवंत बहुत मुनि परिवार से युक्त पूर्वानुपूर्वी क्रम से विचरण करते हुए मणिपदिका नगरी में पधारे। परिषद् उनके दर्शनार्थ निकली। पूर्णभद्र गाथापति उन स्थविरभगन्तों के नगर आगमन का समाचार सुन कर हर्षित एवं संतुष्ट हुआ यावत् भगवती सूत्र में वर्णित गंगदत्त के समान प्रभु के दर्शन करने के लिए गया और धर्मकथा सुनकर यावत् प्रव्रजित हो गया यावत् ईर्या समिति आदि से युक्त होकर गुप्त ब्रह्मचारी हो गया। __ पूर्णभद्र अनगार की साधना तए णं से पुण्णभद्दे अणगारे भगवंताणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थछट्टट्ठम जाव भावित्ता बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सर्द्धि भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे उववायसभाए देवसयणिजंसि जाव भासामणपञ्जत्तीए॥१४२.॥ भावार्थ - तदनन्तर पूर्णभद्र अनगार ने उन स्थविर भगवंतों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम भक्त रूप तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया। श्रामण्य पर्याय का पालन करते हुए मासिक संलेखना से साठ भक्तों को अनशन से छेद कर आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक समाधि भावों में काल के समय काल करके सौधर्म कल्प के पूर्णभद्र विमान की उपपात सभा में देव शय्या में देव रूप से उत्पन्न हुआ यावत् भाषा मनःपर्याप्ति से पर्याप्त भाव को प्राप्त किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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