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________________ वर्ग ३ अध्ययन ३ देव द्वारा प्रतिबोध ६३ .................................................... पुरिसादाणीयस्स अंतियं पंचाणुव्वए सत्तसिक्खावए दुवालसविहे सावयधम्मे पडिवण्णे, तए णं तव अण्णया कयाइ असाहुदसणेण० पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जाव पुव्वचिंतियं देवो उच्चारेइ जाव जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छसि उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं जाव तुसिणीए संचिट्ठसि, तए णं पुव्वरत्तावरत्तकाले तव अंतियं पाउन्भवामि, हं भो सोमिला! पव्वइया! दुष्पव्वइयं ते, तह चेव देवो णियवयणं भणइ जाव पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उम्बरपायवे तेणेव उवागए किढिणसंकाइयं ठवेसि, वेइं वड्ढेसि, उवलेवणं० करेसि करेत्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधेसि बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठसि, तं एवं खलु देवाणुप्पिया! तव दुप्पव्वइयं ॥१०६॥ • कठिन शब्दार्थ - उम्बरपायवे - उदुम्बर (गूलर) वृक्ष। भावार्थ - तदनन्तर वह सोमिल ब्राह्मण पांचवें दिन के अपराह्न काल (चौथे प्रहर) में जहाँ इदुम्बर का वृक्ष था वहाँ आता है और उदुम्बर वृक्ष के नीचे कावड़ रखता है, वेदी बनाता है यावत् काष्ठ मुद्रा से मुख बांधता है। इसके बाद मध्य रात्रि में उस सोमिल ब्राह्मण के समक्ष एक देव प्रकट हुआ और यावत् इस प्रकार पहली बार उस देव के मुख से वाणी सुन कर वह सोमिल मौन रहता है तत्पश्चात् देव द्वारा दूसरी तीसरी बार भी इसी प्रकार कहे जाने पर सोमिल ने देव से कहा-'हे देवानुप्रिय! मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है?' ___ तब देव ने सोमिल से इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिय! तुमने पुरुषादानीय पार्श्वप्रभु से पूर्व में पांच अणुव्रत और सात शिक्षा रूप बारह प्रकार का श्रावक धर्म स्वीकार किया था किन्तु इसके बाद असाधुओं के दर्शन से - सुसाधुओं के दर्शन नहीं होने से तुमने इस श्रावक धर्म को त्याग दिया। तदनन्तर किसी समय मध्य रात्रि में कुटुम्ब जागरणा करते हुए तुम्हारे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि 'गंगा के किनारे तपस्या करने वाले विविध प्रकार के तापसों में जो दिशा-प्रोक्षक तापस हैं उनके पास लोहे की कडाहियां कुडछियां और ताम्बे के तापस योग्य पात्र बनवा कर उन्हें लेकर जाऊँ और दिशा-प्रोक्षक तापस बनूं।' इत्यादि सोमिल ब्राह्मण के द्वारा पूर्व चिंतित विचारों को देव ने दुहराया और कहा कि - बाद में तुमने दिशा प्रोक्षक प्रव्रज्या धारण की और अभिग्रह लिया यावत् जहाँ अशोक वृक्ष था, वहाँ आये और कावड़ रख कर यावत् मौन हो गए। बाद में मध्य रात्रि के समय मैं तुम्हारे पास आया और कहा-'हे प्रव्रजित सोमिल! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या हैं।' इस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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