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________________ ७१ वर्ग ३ अध्ययन १ गौतम स्वामी की जिज्ञासा ........................................................... भावार्थ - हे भगवन्! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र द्वारा वह विकुर्वित दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव द्युति दिव्य देव प्रभाव कहां चले गये? कहां प्रविष्ट हो गये? भगवान् ने कूटाकार शाला का दृष्टान्त देते हुए फरमाया कि हे गौतम! चन्द्र द्वारा विकुर्वित वह सब दिव्य ऋद्धि आदि उसके शरीर में चली गयी, शरीर में प्रविष्ट हो गई। ___इस दिव्य देवर्द्धि का कारण जानने के लिए गौतम स्वामी ने उसके पूर्व भव को जानने की जिज्ञासा की तो प्रभु ने फरमाया-हे गौतम! उस काल और उस समय में श्रावस्ती नगरी में अंगति नामक एक गाथापति रहता था जो ऋद्धि संपन्न यावत् अपरिभूत था। आनंद श्रावक के समान वह अंगति गाथापति भी श्रावस्ती नगरी के बहुत से नगर निवासी व्यापारी श्रेष्ठी आदि के बहुत से कार्यों आदि में पूछने योग्य, परामर्श करने योग्य यावत् सभी कार्यों में अग्रसर था। ___विवेचन - चन्द्रदेव के नाटक दिखा कर लौटने के बाद गौतम स्वामी की जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् ने कूटाकार शाला का दृष्टान्त इस प्रकार दिया - .... हे गौतम! जैसे कोई एक भीतर-बाहर गोबर आदि से लिपी-पुती, बाहर चारों ओर एक परकोटे से घिरी हुई गुप्त द्वारों वाली और उनमें भी सघन किवाड़ लगे हुए हैं अतः जिसमें वायु का प्रवेश भी होना अशक्य है ऐसी गहरी विशाल कुटाकार-पर्वत-शिखर के आकार वाली शाला हो और उस कूटाकार शाला के समीप विशाल जनसमुदाय बैठा हुआ हो। अपनी ओर आते हुए बहुत बड़े मेघपटल को अथवा जल वर्षक बादल को अथवा प्रचंड आंधी को देख कर जैसे वह जन समूह उस कूटाकार शाला में समा जाता है उसी प्रकार हे आयुष्मन् गौतम! चन्द्रदेव की वह दिव्य देव ऋद्धि आदि उसी के शरीर में प्रविष्ट हो गई-समा गई। __ यह सुन कर गौतम स्वामी को पुनः जिज्ञासा हुई कि चन्द्र देव को यह दिव्य ऋद्धि यावत् दिव्य देवानुभाव कैसे प्राप्त हुआ? इसके समाधान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अंगति गाथापति का वर्णन किया है। उपासकदशांग सूत्र में वर्णित आनंद श्रावक के समान ही अंगति गाथापति का वर्णन समझ लेना चाहिए। जो इस प्रकार है___ अंगति गाथापति बहुत बड़ी ऋद्धि आदि से युक्त था, कीर्ति से उज्ज्वल था। उसके पास बहुत से घर, शय्या, आसन, गाड़ी, घोड़े आदि थे और वह बहुत से धन तथा बहुत से सोना चांदी आदि का लेनदेन करता था। उसके घर में खाने के बाद बहुत-सा अन्न पान आदि खाने पीने का सामान रहता था जो अनाथ-गरीब मनुष्यों को व पशु पक्षियों को दिया जाता था। उसके यहाँ बहुत-सी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004191
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size17 MB
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