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धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला
[देवनागरी]
सुत्तपिटके दीघनिकायो
ततियो भागो पाथिकवग्गपाळि
विपश्यना विशोधन विन्यास
इगतपुरी १९९८
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धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला-३ [देवनागरी] दीघनिकाय एवं तत्संबंधित पालि साहित्य ग्यारह ग्रंथों में प्रकाशित किया गया है।
प्रथम आवृत्ति: १९९८ ताइवान में मुद्रित, १२०० प्रतियां
मूल्य : अनमोल यह ग्रंथ निःशुल्क वितरण हेतु है, विक्रयार्थ नहीं । सर्वाधिकार मुक्त। पुनर्मुद्रण का स्वागत है। इस ग्रंथ के किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन के लिए लिखित अनुमति आवश्यक नहीं ।
ISBN 81-7414-052-2
यह ग्रंथ छट्ठ संगायन संस्करण के पालि ग्रंथ से लिप्यंतरित है। इस ग्रंथ को विपश्यना विशोधन विन्यास के भारत एवं म्यंमा स्थित पालि विद्वानों ने देवनागरी में लिप्यंतरित कर संपादित किया। कंप्यूटर में निवेशन और पेज-सेटिंग का कार्य विपश्यना विशोधन विन्यास, भारत में हुआ।
प्रकाशक: विपश्यना विशोधन विन्यास धम्मगिरि, इगतपुरी, महाराष्ट्र- ४२२ ४०३, भारत फोन : (९१-२५५३) ८४०७६, ८४०८६ फैक्स : (९१-२५५३) ८४१७६
सह-प्रकाशक, मुद्रक एवं दायक : दि कारपोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउंडेशन ११ वीं मंजिल, ५५ हंग चाउ एस. रोड, सेक्टर १, ताइपे, ताइवान आर.ओ.सी. फोन : (८८६-२)२३९५-११९८, फैक्स : (८८६-२)२३९१-३४१५
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā
[Devanagari]
Suttapiţake
Dīghanikāyo
Tatiyo Bhāgo
Pāthikavaggapāli
Devanāgarī edition of the Pāli text of the Chattha Sangāyana
Published by Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri -422403, India
Co-published, Printed and Donated by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C.
Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā—3 [Devanāgari ]
The Digha Nikāya and related literature is being published together in eleven volumes.
First Edition: 1998 Printed in Taiwan, 1200 copies
Price: Priceless This set of books is for free distribution, not to be sold. No Copyright-Reproduction Welcome. All parts of this set of books may be freely reproduced without prior permission.
ISBN 81-7414-052-2
This volume is prepared from the Pāli text of the Chattha Sangāyana edition. Typing and typesetting on computers have been done by Vipassana Research Institute, India. MS was transcribed into Devanagari and thoroughly examined by the scholars of Vipassana Research Institute in Myanmar and India.
Publisher: Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri, Maharashtra - 422 403, India Tel: (91-2553) 84076, 84086, 84302 Fax: (91-2553) 84176
Co-publisher, Printer and Donor: The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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विसय-सूची
प्रस्तुत ग्रंथ सुत्त-सार Present Text
रररर
४६
४७
५२
५४
१. पाथिकसुत्तं
सुनक्खत्तवत्थु कोरक्खत्तियवत्थु अचेलकळारमट्टकवत्थु अचेलपाथिकपुत्तवत्थु इद्धिपाटिहारियकथा
अग्गजपत्तिकथा २. उदुम्बरिकसुत्तं निग्रोधपरिब्बाजकवत्थु तपोजिगुच्छावादो उपक्किलेसो परिसुद्धपपटिकप्पत्तकथा परिसुद्धतचप्पत्तकथा परिसुद्धफेग्गुप्पत्तकथा परिसुद्धअग्गप्पत्तसारप्पत्तकथा निग्रोधस्स पज्झायनं ब्रह्मचरियपरियोसानसच्छिकिरिया परिब्बाजकानं पज्झायनं
३. चक्कवत्तिसुत्तं
अत्तदीपसरणता दळहनेमिचक्कवत्तिराजा चक्कवत्तिअरियवत्तं चक्करतनपातुभावो दुतियादिचक्कवत्तिकथा आयुवण्णादिपरियानिकथा दसवस्सायुकसमयो आयुवण्णादिवड्डनकथा सङ्घराजउप्पत्ति मेत्तेय्यबुद्धप्पादो भिक्खुनोआयुवण्णादिवड्डनकथा ४. अग्गझसुत्तं वासेट्ठभारद्वाजा चतुवण्णसुद्धि रसपथविपातुभावो चन्दिमसूरियादिपातुभावो भूमिपप्पटकपातुभावो पदालतापातुभावो अकट्ठपाकसालिपातुभावो इत्थिपुरिसलिङ्गपातुभावो मेथुनधम्मसमाचारो सालिविभागो
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१०१ १०२
१०४
महासम्मतराजा ब्राह्मणमण्डलं वेस्समण्डलं सुद्दमण्डलं दुच्चरितादिकथा
बोधिपक्खियभावना ५. सम्पसादनीयसुत्तं
सारिपुत्तसीहनादो कुसलधम्मदेसना आयतनपण्णत्तिदेसना गब्भावक्कन्तिदेसना आदेसनविधादेसना दस्सनसमापत्तिदेसना पुग्गलपण्णत्तिदेसना पधानदेसना पटिपदादेसना भस्ससमाचारादिदेसना अनुसासनविधादेसना परपुग्गलविमुत्तित्राणदेसना सस्सतवाददेसना पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणदेसना चुतूपपाताणदेसना इद्धिविधदेसना अञथासत्थुगुणदस्सनं अनुयोगदानप्पकारो
अच्छरियअब्भुतं ६. पासादिकसुत्तं निगण्ठनाटपुत्तकालङ्किरिया असम्मासम्बुद्धप्पवेदितधम्मविनयो सम्मासम्बुद्धप्पवेदितधम्मविनयो
सावकानुतप्पसत्थु सावकाननुतप्पसत्थु ब्रह्मचरियअपरिपूरादिकथा सङ्गायितब्बधम्मो सञापेतब्बविधि पच्चयानुञातकारणं सुखल्लिकानुयोगो सुखल्लिकानुयोगानिसंसो खीणासवअभब्बठानं पञ्हाब्याकरणं
१०० अब्याकतट्ठानं ब्याकतट्टानं पुब्बन्तसहगतदिट्ठिनिस्सया १०२
अपरन्तसहगतदिट्ठिनिस्सया ७. लक्खणसुत्तं
१०६ द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि १०६ (१) सुप्पतिट्टितपादतालक्खणं १०८ (२) पादतलचक्कलक्खणं १०९ (३-५) आयतपण्हितादितिलक्खणं १११ (६) सत्तुस्सदतालक्खणं
११२ (७-८) करचरणमुदुजालतालक्खणानि ११४ (९-१०) उस्सङ्खपादउद्धग्गलोमतालक्खणानि
११५ (११) एणिजङ्घलक्खणं
११६ (१२) सुखुमच्छविलक्खणं ११७ (१३) सुवण्णवण्णलक्खणं (१४) कोसोहितवत्थगुय्हलक्खणं १२० (१५-१६)परिमण्डलअनोनमजण्णुपरिमसन
लक्खणानि १२२ (१७-१९) सीहपुब्बद्धकायादिति
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१२३
दुतियभाणवारो १२४ | १०. सङ्गीतिसुत्तं
उब्भतकनवसन्धागारं १२५ भिन्ननिगण्ठवत्थु १२६
दुकं १२८
१५६ १६६ १६६ १६७ १६८ १६९
एककं
तिकं चतुक्कं
१७१ १७६ १८६
१३०
१९२ १९८
१३२
२०१
लक्खणं (२०) रसग्गसग्गितालक्खणं (२१-२२) अभिनीलनेत्तगोपखुम
लक्खणानि (२३) उण्हीससीसलक्खणं (२४-२५) एकेकलोमताउण्णा
लक्खणानि (२६-२७) चत्तालीसअविरळदन्त
लक्खणानि (२८-२९) पहूतजिव्हाब्रह्मस्सर
लक्खणानि (३०) सीहहनुलक्खणं (३१-३२) समदन्तसुसुक्कदाठा
लक्खणानि ८. सिङ्गालसुत्तं
छ दिसा चत्तारोकम्मकिलेसा चतुट्ठानं छ अपायमुखानि सुरामेरयस्स छ आदीनवा विकालचरियाय छ आदीनवा समज्जाभिचरणस्स छ आदीनवा जूतप्पमादस्स छ आदीनवा पापमित्तताय छ आदीनवा आलस्यस्स छ आदीनवा मित्तपतिरूपका सुहदमित्तो
छद्दिसापटिच्छादनकण्डं ९. आटानाटियसुत्तं
पठमभाणवारो
२०८ २१२ २१७ २१७ २१८ २२०
१३६ १३७
३
१२९ पञ्चकं
छक्कं सत्तकं अट्ठकं
नवकं १३३
दसकं १३६ ११. दसुत्तरसुत्तं
एकोधम्मो
द्वेधम्मा १३७ तयोधम्मा
चत्तारोधम्मा १३८ पञ्चधम्मा १३८
छधम्मा
सत्तधम्मा १३९
अट्ठधम्मा १३९
नवधम्मा १३९
दसधम्मा
तस्सुद्दानं | सद्दानुक्कमणिका १४३
गाथानुक्कमणिका १४७
संदर्भ-सूची १४७
१३८
१३८
२२३ २२७ २३१ २३४ २४३ २४७ २५२
१४१ १४२
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चिरं तिद्वतु सद्धम्मो! चिरस्थायी हो सद्धर्म !
द्वेमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति। कतमे द्वे ? सुनिक्खित्तञ्च पदव्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो। सनिक्खित्तस्स. भिक्खवे, पदव्यञ्जनस्स अत्थोपि सनयो होति। अ० नि० १.२.२१, अधिकरणवग्ग
भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म के कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें ? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय
और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जांय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं |
...ये वो मया धम्मा अभिज्ञा देसिता, तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं व्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्भनियं अस्स चिरद्वितिकं...।
दी०नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त
...जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है, उसे अर्थ और ब्यंजन सहित सब मिल-जुल कर, बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो...।
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प्रस्तुत ग्रंथ प्रस्तुत ग्रंथ दीघनिकाय, भाग-३ (पाथिकवग्गपाळि) सुत्तपिटक के प्रथम निकाय, दीघनिकाय के तीन खंडों में से तृतीय खंड है।
हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा।
निदेशक, विपश्यना विशोधन विन्यास
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सुत्त-सार
१. पाथिकसुत्त एक समय भगवान मल्ल देश में अनुपिय नाम के निगम में विहार करते थे। एक दिन भिक्षाटन के लिए जाने से पूर्व वे भार्गव-गोत्र परिव्राजक के यहां चले गये । परिव्राजक ने उनसे पूछा क्या यह सही है कि लिच्छवि-पुत्र सुनक्खत्त ने आपको छोड़ दिया है।
भगवान ने कहा सुनक्खत्त ने मुझे कहा था कि मैं आपको छोड़ता हूं। मैं अब आप के धर्म-विनय याने अनुशासन को नहीं मानता । आप मुझे अलौकिक ऋद्धि-बल नहीं दिखलाते । आप मुझे लोगों में आगे करके उपदेश नहीं देते ।
यह सुन कर मैंने उसे ही पूछा था कि क्या मैंने कभी तुझे कहा कि आ कर मेरे धर्म को स्वीकार कर, मैं तुझे अलौकिक ऋद्धि-बल दिखलाऊंगा, मैं तुझे लोगों में आगे करके उपदेश दूंगा । तूने ही वज्जिगाम में अनेक प्रकार से मेरी, धर्म की तथा संघ की प्रशंसा की थी। अब लोग तुम्हें ही दोष देंगे कि तुम श्रमण गौतम के शासन में ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ रहे। मेरे ऐसा कहने पर वह आपायिक के समान इस धर्म-विनय से चला गया ।
तत्पश्चात भगवान ने कहा कि सुनक्खत्त के सामने अचेल कोरक्खत्तिय, अचेल कळारमट्टक तथा अचेल पाथिक के ऐसे प्रसंग भी उपस्थित हुए जिनमें इन लोगों के बारे में मैंने जो-जो भविष्यवाणी की थी वह वैसी की वैसी सही निकली । यह अलौकिक ऋद्धि-बल ही थे, फिर भी वह यही कहता रहा कि भगवान मुझे अलौकिक ऋद्धि-बल नहीं दिखलाते और वह इस धर्म-विनय से चला गया ।
तदनंतर भगवान ने लोगों की इस मान्यता के बारे में प्रकाश डाला कि सृष्टि ईश्वर अथवा ब्रह्मा की बनायी हुई है। उन्होंने बतलाया कि कोई समय ऐसा आता है जब इस लोक का प्रलय
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हो जाता है। उस काल में भी आभस्सर योनि में जन्मे हुए प्राणी मनोमय, प्रीति-भोजी, स्वयं-प्रभ, अंतरिक्ष-गामी और शुभ-स्थायी होकर चिरकाल तक बने रहते हैं। बहुत समय के बाद फिर लोक की उत्पत्ति होती है। उस समय शून्य ब्रह्म-विमान प्रकट होता है। तब आभस्सर लोक का कोई प्राणी उस लोक से च्युत हो कर इस विमान में उत्पन्न होता है । वह मनोमय, प्रीति-भोजी, स्वयं-प्रभ, अंतरिक्ष-गामी और शुभ-स्थायी बना रह कर, बहुत दिनों तक इसमें रहता है। फिर अकेले रह, जी ऊब जाने से दूसरे प्राणियों के आने की कामना करता है । तब आयु अथवा पुण्य के क्षय होने से दूसरे प्राणी भी उस विमान में उत्पन्न होते हैं और मनोमय, प्रीति-भोजी, सवयं-प्रभ, अंतरिक्ष-गामी और शुभ-स्थायी बने रह कर, बहुत दिनों तक वहां टिकते हैं।
तब शून्य ब्रह्म-विमान में पहले उत्पन्न हुआ प्राणी सोचता है कि मैं ही ब्रह्मा, ईश्वर, कर्ता, निर्माता हूं | मेरे चाहने से ही ये दूसरे प्राणी उत्पन्न हुए हैं। बाद में उत्पन्न हुए प्राणी भी सोचते हैं कि यही ब्रह्मा, ईश्वर, कर्ता, निर्माता है क्योंकि हमने इसे यहां पर पहले से ही विद्यमान पाया था ।
उन बाद में उत्पन्न हुए प्राणियों में से जब कोई प्राणी इस लोक में जन्म लेकर, समाधि का अभ्यास कर, अपने उस पूर्वजन्म-विशेष को स्मरण करता है, परंतु उससे पहले के जन्म को स्मरण नहीं करता, तब ऐसा कहने लगता है कि जो वह ब्रह्मा, ईश्वर, कर्ता, निर्माता है; जिसने हमें उत्पन्न किया, वह नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अ-विपरिणामधर्मा है और हम लोग, जो उनसे उत्पन्न हुए; अ-नित्य, अ-ध्रुव, अल्पायु एवं मरणधर्मा हैं ।
इसी प्रकार कितने ही लोग खिड्डापदोसिक, मनपदोसिक अथवा अधिच्चसमुप्पन्न देवता के आदिपुरुष होने के मत को मानते है। ये देवता भी अपनी-अपनी देवकाया छोड़कर इस लोक में उत्पन्न हो, समाधि के अभ्यास द्वारा, अपने पूर्वजन्म-विशेष को स्मरण कर, परंतु उससे पहले के जन्म को स्मरण न कर, गलत धारणा के शिकार हो जाते हैं।
परंतु मैं लोकों की अग्र अवस्था को प्रज्ञा से जानता हूं। मैं इसे तो प्रज्ञा से जानता ही हूं, इससे परे भी प्रज्ञा से जानता हूं, और उस प्रज्ञा से जाने हुए के प्रति आसक्ति नहीं करता हूं, और अनासक्त रह मैं अपने भीतर मुक्ति का अनुभव करता हूं, जिसे हर प्रकार से जान कर तथागत कभी दुःख नहीं पाते हैं।
यह कहने के उपरांत भगवान ने कहा कि कई लोग मुझ पर यह कहने का झूठा दोष लगाते हैं कि जिस समय शुभ विमोक्ष उत्पन्न करके योगी विहार करता है उस समय वह प्रज्ञा से सब कुछ अशुभ ही अशुभ देखता है | वस्तुतः मैं ऐसा नहीं कहता । मेरा कहना तो यह है कि जिस समय
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शुभ विमोक्ष उत्पन्न करके योगी विहार करता है उस समय वह प्रज्ञा से सब कुछ शुभ ही शुभ देखता है।
इस पर परिव्राजक ने भगवान से प्रार्थना की कि आप मुझे उस धर्म का उपदेश करें जिससे मैं शुभ-विमोक्ष को उत्पन्न कर विहार कर सकूँ । परंतु भगवान ने कहा कि दूसरे मत वाले, दूसरे विचार वाले, दूसरी रुचि वाले, दूसरे आयोग वाले, दूसरे आचार्य वाले लोगों के लिये शुभ-विमोक्ष को उत्पन्न कर विहार करना दुष्कर है।
२. उदुम्बरिकसुत्त एक समय भगवान राजगह के गिज्झकूट पर्वत पर विहार करते थे। उस समय निग्रोध नाम का परिव्राजक तीन हजार परिव्राजकों की एक बड़ी मंडली के साथ उदुम्बरिका नामक आराम में वास करता था।
एक दिन निग्रोध नाना प्रकार की निरर्थक कथा-कहानियां कहती, शोर मचाती, अपनी मंडली के साथ बैठा था । इतने में भगवान के सन्धान नाम के श्रावक गृहपति वहां आ पहुँचे । गृहपति के साथ संलाप करते हुए निग्रोध ने भगवान के बारे में अपशब्द कहे कि उनकी बुद्धि मारी गयी है, वे सभा से मुँह चुराते हैं, संवाद करने में असमर्थ हैं, इत्यादि ।
___ इतने में भगवान भी वहां पर आ गये। निग्रोध ने उनका स्वागत कर उनसे पूछा कि वह कौन सा धर्म है जिससे आप अपने श्रावकों को विनीत करते हैं, जिससे विनीत हुए-हुए वे आदि-ब्रह्मचर्य के पालन में आश्वासन पाते हैं। इस पर भगवान ने कहा कि अन्य मत वाले, अन्य सिद्धांत वाले, अन्य रुचि वाले, अन्य आयोग वाले, अन्य आचार्य वाले तुम लोगों को यह समझाना बहुत कठिन है, अतः तुम अपने मत के बारे में ही प्रश्न पूछो।
इस पर निग्रोध ने पूछा कि क्या होने से तप-जुगुप्सा पूरी होती है और क्या होने से पूरी नहीं होती | भगवान ने कहा यदि कोई तपस्वी अपने तप के कारण अपने मन में अहंकार, ईर्ष्या, मात्सर्यादि विकृतियां जगाता है अथवा अपनी मान्यता के प्रति चिपकाव पैदा कर लेता है तो ये उस तपस्वी के उपक्लेश होते हैं और यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह इन मामलों में परिशुद्ध बना रहता है।
फिर भगवान ने इससे आगे से आगे प्रशंसनीय और सार्थक तपों की जानकारी दी। जैसे -
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* कोई व्यक्ति चार संयमों (चातुर्याम संवर) से सुरक्षित हो जाये अर्थात, न जीव-हिंसा करे, न करवाये, न इसमें सहमत हो; और इसी प्रकार चोरी न करने, झूठ न बोलने और पांच कामगुणों में प्रवृत्त न होने के बारे में सजग रहे । फिर प्रव्रज्या को निभाता हुआ, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ, एकांत में स्मृति और संप्रज्ञान के साथ पांचों नीवरणों को दूर कर चित्त के उपक्लेशों को प्रज्ञा से दुर्बल करने के लिए मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षा-युक्त चित्त से सभी दिशाओं में विहार करे ।
* उक्त प्रकार से ब्रह्मविहार करने के बाद अपने पूर्व-जन्मों को स्मरण करने में लगे।
* उक्त प्रकार से अपने पूर्व-जन्मों को स्मरण करने के अनंतर अपने दिव्य-चक्षु से सत्वों की च्युति और उत्पाद को जानने लगे।
यहां पर भगवान ने कहा कि इतने से ही तप-जुगुप्सा श्रेष्ठ और सार्थक हो जाती है परंतु जिस धर्म में मैं अपने श्रावकों को विनीत करता हूं वह इससे बढ़-चढ़ कर है।
यह सुन कर परिव्राजक बहुत हल्ला करने लगे कि हम तो आचार्य-सहित मारे गये क्योंकि हम लोग इससे अधिक कुछ जानते नहीं।
इस अवसर को उचित जान गृहपति सन्धान ने निग्रोध को याद दिलाया कि तुम तो कहते थे कि भगवान की बुद्धि मारी गयी है, वे सभा से मुँह चुराते हैं, संवाद करने में असमर्थ हैं, इत्यादि । अब तुम क्यों नहीं प्रश्न करके उनको चक्कर खिलाते ?
यह सुन कर निग्रोध को अपने कहे पर बहुत पश्चात्ताप हुआ और इसके लिए भगवान से कहा कि संयम न रखने के मेरे अपराध को क्षमा करें । भगवान ने उसे क्षमा करते हुए कहा कि आर्य-विनय में यह बुद्धिमानी ही समझी जाती है कि व्यक्ति भविष्य में संयम रखने के लिए अपने अपराध को स्वयं स्वीकार कर धर्मानुकूल प्रतिकार करे । उन्होंने उसे यह भी समझाया कि 'भगवान' बुद्ध हो बोध के लिए, दांत हो दमन के लिए, शांत हो शमन के लिए, तीर्ण हो तरण के लिए और परिनिवृत्त हो परिनिर्वाण के लिए धर्मोपदेश करते हैं।
भगवान ने यह भी कहा कि यदि कोई सज्जन, निश्छल, सरल स्वभाव वाला, बुद्धिमान मेरे पास आये, मैं उसे धर्म सिखाऊं और वह मेरी शिक्षा के अनुसार काम करे, तो जिस उद्देश्य के लिए कुलपुत्र घर से बेघर हो अनुपम ब्रह्मचर्य के अंतिम लक्ष्य को सात वर्ष में ही स्वयं जान कर,
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साक्षात्कार कर, प्राप्त कर विहार करने लगते हैं वह उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। और सात वर्ष ही क्यों, इससे कहीं कम समय में भी प्राप्त कर सकता है।
भगवान ने निग्रोध को और भी समझाया कि तुम ऐसा मत सोचना कि मैं जो कुछ कह रहा हूं वह अपने चेलों की संख्या बढ़ाने के लिए, तुम्हें अपने उद्देश्य से डिगाने के लिए, तुमसे अपनी आजीविका छुड़वाने के लिए, तुम्हारे मताचार्यों की बुराइयों को दृढ़ करने के लिए अथवा उनकी अच्छाइयों से तुम्हें अलग करने के लिए है । मैं तो चाहता हूं कि अभी जो तुम्हारा आचार्य है, वही तुम्हारा आचार्य रहे, अभी जो तुम्हारा उद्देश्य है, वही तुम्हारा उद्देश्य रहे, अभी जो तुम्हारी आजीविका है, वही तुम्हारी आजीविका रहे, अभी जो अपने आचार्यों के साथ तुम्हारे अकुशल अथवा कुशल धर्म हैं, वे वैसे के वैसे बने रहें । मेरा धर्मोपदेश तो इसलिए है कि जो अ-नष्ट बुराइयां क्लेशों को उत्पन्न करने वाली, आवागमन की कारणभूत, सभी प्रकार की पीड़ाओं को देने वाली, दुःख-परिणाम वाली, जन्म, जरा और मृत्यु की कारण हैं, उनका नाश हो जाये जिससे कि तुम्हारे क्लेश देने वाले धर्म नष्ट हो जाएं और शुद्ध धर्म बढ़ें, और तुम प्रज्ञा की पूर्णता और विपुलता को प्राप्त हो, उसे इसी संसार में जान कर, साक्षात्कार कर, प्राप्त कर विहार करने लगो ।
३. चक्कवत्तिसुत्त
एक समय भगवान मगध के मातुला नामक स्थान पर विहार कर रहे थे। वहां पर उन्होंने भिक्षओं को संबोधित करते हुए कहा कि अपने आपको अपना द्वीप, आ पना आश्रय, बना कर विहार करो; धर्म को अपना द्वीप, अपना आश्रय, बना कर विहार करो; कोई अन्य आश्रय मत देखो।
और यह तब संभव हो पाता है जब कोई व्यक्ति स्मृति और संप्रज्ञान बनाये हुए, उद्योगशील हो, काया में कायानुपश्यना, वेदनाओं में वेदनानुपश्यना, चित्त में चित्तानुपश्यना और धर्मों में धर्मानुपश्यना करने वाला हो।
तत्पश्चात भगवान ने उनको दळहनेमि नामक चक्रवर्ती राजा का वृत्तांत सुनाया । सात रत्नों से युक्त वह इस पृथ्वी को दंड और शस्त्र के बिना ही धर्म से जीत कर इस पर राज्य करता था । समय आने पर वह अपने ज्येष्ठ पुत्र कुमार को राज्य-भार सौंप कर प्रव्रजित हो गया । कुमार ने भी धर्मानुसार शासन किया और चक्रवर्ती राजा हुआ। इसके बाद के छह शासक भी चक्रवर्ती राजा हुए। ये सभी धर्म की रक्षा करने वाले होकर चक्रवती-व्रत का पालन किया करते थे।
इनमें से अंतिम राजा ने बाकी सब कुछ तो किया परंतु निर्धनों को धन नहीं दिया जिससे निर्धनता बहुत बढ़ गयी और लोग एक दूसरे की वस्तुएं चुराने लगे । जब चेतावनी देने पर भी लोग
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इससे विरत नहीं हुए तब राजा ने तेज हथियारों से उनका सिर कटवाना शुरू किया । फिर राजा की देखा-देखी लोग भी तेज-तेज हथियार बनवाने लगे जिससे खून-खराबा बढ़ने लगा। इससे उनकी आयु भी घटने लगी, वर्ण भी घटने लगा । शनैः शनैः झूठ बोलना, चुगली खाना, स्त्रियों से दुराचार, कठोर वचन, निरर्थक प्रलाप, अनुचित लोभ, हिंसाभाव, मिथ्यादृष्टि, माता-पिता के प्रति गौरव का अभाव, श्रमणों-ब्राह्मणों और परिवार के बड़े-बूढ़ों के प्रति श्रद्धा का अभाव- इन बातों को प्रोत्साहन मिलने लगा । इनसे आयु और वर्ण का भी, उत्तरोत्तर ह्रास होने लगा।
अब एक ऐसा समय आयेगा जब सदाचार पूरी तरह लुप्त हो जायेगा और कदाचार खूब बढ़ जायेगा | माता-पिता का सम्मान न करने वालों की प्रशंसा होने लगेगी । माता, मौसी, मामी, गुरुपत्नी या बड़े लोगों की स्त्रियों का कुछ विचार न रहेगा । लोगों में एक दूसरे के प्रति बड़ा तीव्र क्रोध, प्रतिहिंसा, दुर्भावना पैदा होगी और वे तीक्ष्ण शस्त्रों से- 'यह मृग है, यह मृग है' - इस भाव से एक दूसरे के प्राण-लेवा हो जायेंगे।
ऐसी अवस्था आ जाने पर कुछ लोगों के मन में यह होगा कि पाप-कर्म करने से हम इस प्रकार के घोर जाति-विनाश को प्राप्त हुए हैं, अत: पुण्य करना चाहिए। हम लोग जीव-हिंसा से विरत हों। इससे उनकी आयु भी बढ़ने लगेगी, वर्ण भी । इससे वे और कुशल कर्म करने के लिए प्रोत्साहित होंगे, यथा चोरी से विरत रहना, व्यभिचार से विरत रहना, झूठ बोलने से विरत रहना, चुगली खाने से विरत रहना, कठोर वचन से विरत रहना, निरर्थक प्रलाप से विरत रहना, अनुचित लोभ, हिंसाभाव और मिथ्यादृष्टि को छोड़ देना और माता-पिता के प्रति गौरव का भाव तथा श्रमणों-ब्राह्मणों और परिवार के बड़े-बूढ़ों के प्रति श्रद्धा का भाव अपनाना । इससे उनकी आयु और वर्ण की भी, उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जायेगी।
उस समय जम्बु-द्वीप अत्यंत समृद्ध और संपन्न होगा। उसमें सङ्घ नाम का चक्रवर्ती राजा उत्पन्न होगा जो इस पृथ्वी को दंड और शस्त्र के बिना ही धर्म से जीत कर इस पर अधिष्ठित होगा। उस समय मेत्तेय्य नाम के भगवान, अरहंत, सम्यक संबुद्ध संसार में उत्पन्न होंगे। वे भी देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण-ब्राह्मण सहित, देव-मनुष्य-युक्त इस लोक को स्वयं जान और साक्षात्कार कर उपदेश देंगे और अर्थपूर्ण, विशद, केवल परिपूर्ण और परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को प्रज्ञप्त करेंगे। राजा सङ्ख भी घर-बार छोड़ कर, उनके पास प्रव्रजित हुए, अ-प्रमत्त, संयमी और आत्म-निग्रही हो, विहार करते करते. उसी जन्म में ब्रह्मचर्य की चरम उपलब्धि कर लेंगे।
इसके पश्चात भगवान ने फिर एक बार भिक्षुओं को स्वावलंबी बनने का उपदेश दिया, और यह भी समझाया कि
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भिक्षु, इच्छा होने पर, चार ऋद्धिपादों (छंद, वीर्य, चित्त, मीमांसा) की भावना करने
से अपनी आयु कल्प भर या इससे कुछ अधिक, कर सकता है- यही भिक्षु की 'आयु' होती है ।
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जब भिक्षु शीलवान होता है, प्रातिमोक्ष के संयम से संयत होकर विहार करता है, आचार-विचार से युक्त होता है, थोड़े भी बुरे कर्म से भय खाता है, नियमों (शिक्षापदों ) के अनुसार आचरण करता है - यही उसका 'वर्ण' होता है ।
營
* जब भिक्षु प्रथम, द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है. यही उसका 'सुख' होता है ।
*
जब भिक्षु मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा- भरे चित्त से सभी दिशाओं में विहार करता है - यही उसका 'भोग' होता है ।
* जब भिक्षु आस्रवों (चित्त-मलों) के क्षय हो जाने से आस्रव-रहित चित्त की विमुक्ति, प्रज्ञा द्वारा विमुक्ति को इसी जन्म में जान कर, साक्षात्कार कर विहार करता है - यही उसका 'बल' होता है ।
४. अग्गञ्ञसुत्त
एक समय भगवान सावत्थी में पुब्बाराम में विहार करते थे। उस समय वासेट्ठ और भारद्वाज नाम के दो ब्राह्मण प्रव्रज्या लेने की दृष्टि से भिक्षुओं के साथ परिवास करते थे ।
एक दिन भगवान ने वासेट्ठ से पूछा कि तुम ब्राह्मण कुल से प्रव्रज्या लेने के लिए आये हो । क्या इस कारण ब्राह्मण लोग तुम्हारी निंदा अथवा परिहास नहीं करते हैं ?
वाट्ट ने कहा ये लोग कहते हैं कि ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, दूसरे वर्ण हीन हैं; ब्राह्मण ही शुक्ल वर्ण हैं, दूसरे वर्ण कृष्ण हैं; ब्राह्मण ही शुद्ध होते हैं, अ-ब्राह्मण नहीं; ब्राह्मण ही ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए पुत्र, ब्रह्मजात, ब्रह्मनिर्मित तथा ब्रह्मदायाद हैं । ये मुंडे श्रमण नीच, कृष्ण, भ्रष्ट और ब्रह्मा के पैर से उत्पन्न हुए हैं । यह उचित नहीं है कि तुम लोग श्रेष्ठ वर्ण को छोड़ कर नीच वर्ण के हो जाओ। इस प्रकार ये ब्राह्मण लोग हमारी निंदा अथवा परिहास करते रहते हैं ।
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इस पर भगवान ने कहा ये लोग पुरानी बातों को भूल जाने के कारण ही ऐसा कहते हैं। क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र चार वर्ण हैं । इन सभी में कृष्ण और शुक्ल धर्मों को करने वालेदोनों प्रकार के लोग पाये जाते हैं। तो ब्राह्मण यह कैसे कह सकते हैं कि ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण हैं ? विद्वान लोग ऐसा नहीं मानते, क्योंकि इन्हीं चार वर्गों में जो भिक्षु अरहंत, क्षीणाश्रव, ब्रह्मचारी, कृतकृत्य, भारमुक्त, परमार्थ-प्राप्त, शिथिल भव-बंधन वाला और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान के कारण विमुक्त हो जाता है, वह सभी से आगे बढ़ जाता है।
भगवान ने आगे समझाया कि धर्म ही मनुष्य में श्रेष्ठ है। जिस किसी की तथागत में अटूट श्रद्धा होती है, वह किसी भी श्रमण, ब्राह्मण, देव, मार, ब्रह्मा या संसार में अन्य किसी से भी डिगाया नहीं जा सकता और उसका यह कहना ठीक होता है कि मैं भगवान के मुख से उत्पन्न, धर्म से उत्पन्न, धर्म-निर्मित और धर्म-दायाद पुत्र हूं। यह इसलिए, क्योंकि धर्म-काय, ब्रह्म-काय, धर्म-भूत, ब्रह्म-भूत-ये तथागत के ही नाम है।
तत्पश्चात भगवान ने प्रलय के बाद सृष्टि के क्रमिक विकास और प्राणियों की क्रमिक अवनति का विस्तारपूर्वक वर्णन किया । प्राणियों के नैतिक पतन का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जब स्थिति यहां तक बिगड़ गयी कि लोगों ने धान के खेतों का बँटवारा कर इनके इर्द-गिर्द मेड़ बांध दी, तब कोई कोई लोभी सत्व अपने भाग को बचा कर दूसरे के भाग को चुराने लगे। कई बार चेतावनी देने पर भी जब इस प्रवृत्ति में कोई सुधार नहीं हुआ तब लोगों ने हाथ से, ढेले से, लाठी से मारामारी शुरू कर दी। उसी के बाद से चोरी, निंदा, मिथ्या-भाषण और दंड-कर्म होने लगे।
तब प्राणियों को अहसास हुआ कि हम में पाप जागा है जैसा कि हम चोरी, निंदा, मिथ्या-भाषण और दंड-कर्म करते हैं। अतः हम क्यों न एक ऐसे प्राणी का चयन करें जो सचमुच
करने योग्य बात पर क्रोध करे. निंदनीय कर्मों की निंदा करे और निकालने योग्य को निकाल दे। इसके लिए हम उसे अपने धान में से हिस्सा दें।
तत्पश्चात उन प्राणियों ने इस काम के लिए अपने में से सुंदर, सुरूप, प्रासादिक और महाशक्तिशाली व्यक्ति का चयन कर लिया जो ठीक से उचितानुचित का अनुशासन करने लगा और लोग उसे धान का अंश देने लगे । महाजनों द्वारा सम्मत होने से उसका नाम 'महासम्मत' पड़ा, क्षेत्रों का अधिपति होने से उसका नाम 'क्षत्रिय' पड़ा और धर्म से दूसरों का रंजन करने से उसका नाम 'राजा' पड़ा।
तब उन्हीं प्राणियों में से किन्हीं-किन्हीं के मन में यह हुआ कि हम में पाप जागा है जैसा
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कि हम चोरी, निंदा, मिथ्या-भाषण और दंड-कर्म करते हैं । अतः हम पाप करना छोड़ दें। उन लोगों ने पाप करना छोड़ (बाह) दिया, इससे उनका नाम 'ब्राह्मण' पड़ा । वे जंगल में पर्णकुटी बना कर वहां ध्यान करते रहते थे, इससे उनका नाम 'ध्यायक' पड़ा । इन्हीं में से कुछ लोग ध्यान पूरा न कर सकने के कारण ग्राम या निगम के पास आकर ग्रंथ बनाते हुए रहने लगे | ध्यान न करने के कारण इनका नाम 'अ-ध्यायक' पड़ा। उस समय ऐसा व्यक्ति हीन समझा जाता था, आज वह श्रेष्ठ समझा जाता है।
उन्हीं प्राणियों में से कितने ही मैथुन-कर्म करके तरह-तरह के कामों (विष्वक्-कर्मांत) में लग गए। इससे उनका नाम 'वैश्य' पड़ा । बचे हुए जो प्राणी क्षुद्र आचार वाले थे, वे 'शूद्र' कहलाए।
क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र - इन चार मंडलों से ही श्रमण-मंडल की उत्पत्ति हुई। परंतु इहलोक तथा परलोक में मनुष्यों में धर्म ही श्रेष्ठ है।
भले ही कोई क्षत्रिय हो या ब्राह्मण, या वैश्य, या शूद्र, या श्रमण, वह काया, वाणी और मन से दुराचार कर, मिथ्या-दृष्टि वाला हो, मृत्यु के उपरांत नरक में पैदा होता है; काया, वाणी
और मन से सदाचार कर, सम्यक दृष्टि वाला हो, मृत्यु के उपरांत स्वर्ग में पैदा होता है; काया, वाणी और मन से दोनों प्रकार के कर्म कर, मिश्रित दृष्टि वाला हो, मृत्यु के उपरांत सुख-दुःख दोनों भोगता है। और यदि वह सैंतीस बोधि-पाक्षिक धर्मों की भावना करे तो इसी लोक में निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
चारों वर्गों में जो भिक्षु अरहंत, क्षीणाश्रव, ब्रह्मचारी, कृतकृत्य, भारमुक्त, परमार्थ-प्राप्त, शिथिल भव-बन्धन वाला और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान के कारण मुक्त हो जाता है, वही उनमें श्रेष्ठ कहलाता है । धर्म ही मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है - इहलोक में भी, परलोक में भी ।
'गोत्र लेकर चलने वाले लोगों में क्षत्रिय श्रेष्ठ होता है; विद्या और आचरण से युक्त, देवों वा मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है।'
५. सम्पसादनीयसुत्त एक समय नाळन्दा के पावारिक आम्रवन में भगवान के विहार करते समय सारिपुत्त ने उनसे कहा कि 'संबोधि' (परम ज्ञान) में आप से बढ़ कर न कोई हुआ है, न होगा, न है |
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इसके लिए भगवान ने उन्हें ताड़ना दी कि जब तुम्हें न तो अतीत के बुद्धों का ज्ञान है, न अनागत बुद्धों का और न तुम वर्तमान बुद्ध के बारे में ही पूरी तरह जानते हो तो फिर मेरे बारे में ऐसा परम उदार सिंहनाद क्यों ?
इस पर सारिपुत्त ने अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया कि भले सभी बुद्धों का मुझे चेतःपरिज्ञान नहीं है, किन्तु सभी की धर्म-समानता मुझे विदित है । अतीत काल के बुद्धों ने पांचों नीवरणों को दूर कर, प्रज्ञा द्वारा चित्त के मैल हटा, चारों स्मृति - प्रस्थानों में चित्त को सु-प्रतिष्ठित कर, सात बोध्यंगों की यथार्थ से भावना कर, सर्वश्रेष्ठ सम्यक संबोधि को प्राप्त किया था । भविष्य काल में भी बुद्ध ऐसे ही सम्यक संबोधि प्राप्त करेंगे । और आप भगवान ने भी इसे इसी तरह प्राप्त किया है ।
तदनंतर सारिपुत्त ने बुद्ध की विशेषताओं का उल्लेख किया
*
यह भगवान सम्यक संबुद्ध हैं, इनका धर्म अच्छी तरह आख्यात किया हुआ है, इनका श्रावक संघ सु-प्रतिपन्न है ।
* ये चार स्मृति - प्रस्थान, चार सम्यक प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पांच इंद्रिय, पांच बल, सात बोध्यंग, आर्य अष्टांगिक मार्ग - इन कुशल धर्मों का उपदेश देते हैं ।
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ये चक्षु एवं रूप, श्रोत्र एवं शब्द, घ्राण एवं गंध, रसना एवं रस, काया एवं स्पर्श, और मन एवं धर्म- इन आयतन - प्रज्ञप्तियों का उपदेश करते हैं ।
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ये चार प्रकार से प्राणियों के गर्भ-प्रवेश के बारे में उपदेश करते हैं ।
* ये चार प्रकार की आदेशना - विधि का धर्मोपदेश करते हैं ।
* ये चार प्रकार की दर्शन- सभापत्तियों के बारे में बतलाते हैं ।
ये पुलप्रज्ञप्ति - विषयक उपदेश करते हैं ।
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*
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ये प्रधानों के बारे में उपदेश करते हैं ।
*
ये चार प्रकार की प्रतिपदा के बारे में उपदेश करते हैं ।
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* ये वाचिक आचरण के बारे में धर्मोपदेश करते हैं।
* ये शील-संबंधी आचरण के बारे में धर्मोपदेश करते हैं।
* ये सोतापन्न, सकदागामी, अनागामी तथा अरहंत - इनसे संबंधित अनुशासन-विधि का उपदेश करते हैं।
• ये परपुद्गलविमुक्तिज्ञान को उपदेशते हैं।
• ये तीन प्रकार के शाश्वत-वादों को लेकर धर्मोपदेश करते हैं।
* ये अनेक प्रकार के पूर्व-जन्मों को आकार और नाम के साथ स्मरण करते हैं और सत्वों की च्युति तथा उत्पत्ति के बारे में भी धर्मोपदेश करते हैं।
* ये ऋद्धिविध (दिव्य शक्तियों) के बारे में धर्मोपदेश करते हैं।
तत्पश्चात भगवान ने सारिपुत्त के इस कथन को धर्मानुकूल बतलाया कि अतीत काल में जो अरहंत सम्यक संबुद्ध थे वे संबोधि में भगवान के बराबर थे और जो अनागत काल में होंगे वे भी उनके बराबर होंगे। उन्होंने यह भी प्रज्ञप्त किया कि एक ही लोकधातु में एक ही समय दो अरहंत सम्यक संबुद्ध नहीं हो सकते ।
भगवान ने सारिपुत्त से कहा तुम भिक्षु-भिक्षुणियों तथा उपासक-उपासिकाओं को यह धर्मोपदेश देते रहो । इससे जिन अजान व्यक्तियों को तथागत के बारे में कोई संशय अथवा संदेह होगा वह दूर हो जायेगा।
सारिपुत्त द्वारा इस प्रकार भगवान के सम्मुख अपना संप्रसाद (श्रद्धाभाव) व्यक्त करने के कारण इस उपदेश का नाम 'सम्पसादनीय' पड़ा।
६. पासादिकसुत्त
एक समय भगवान शाक्य-देश में वेधा नामक शाक्यों के अम्बवन प्रासाद में विहार करते
थे।
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उस समय निग्रंथ नाटपुत्त की पावा में हाल ही में मृत्यु हुई थी। उनके मरने पर निग्रंथों में फूट पड़ गयी और धर्म-विनय को लेकर आपस में वाग्युद्ध होने लगा । उनके गृहस्थ शिष्य भी धर्म में अन्यमनस्क हो खिन्न और विरक्त रहने लगे।
चुन्द नाम के व्यक्ति से यह समाचार जान कर आयुष्मान आनन्द उसे अपने साथ ले कर भगवान के पास गये और उन्हें भी इसकी जानकारी दी। भगवान ने कहा जहां शास्ता सम्यक संबद्ध नहीं होता, धर्म दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, पार न लगाने वाला, शांति न पहुँचाने वाला होता है और उस धर्म में श्रावक धर्मानुसार मार्गारूढ़ होकर विहार नहीं करते, वहां शास्ता की भी निंदा होती है, धर्म की भी, श्रावक की भी।
इस समय लोक में मैं अरहंत, सम्यक संबुद्ध, शास्ता उत्पन्न हुआ हूं, धर्म स्वाख्यात, सुप्रवेदित, पार लगाने वाला, शांति पहुँचाने वाला है; और मेरे श्रावक सद्धर्म का आशय समझते हैं और उनका ब्रह्मचर्य सांगोपांग तथा सब तरह से परिपूर्ण है। मेरा यह ब्रह्मचर्य समृद्ध, उन्नत, विस्तारित, प्रसिद्ध, विशाल और देवों तथा मनुष्यों में सु-प्रकाशित है।
मैंने स्वयं जान कर जिन धर्मों का उपदेश किया है उनका सभी को मिलजुल कर संगायन करना चाहिए । उनमें विवाद नहीं करना चाहिए। ये धर्म हैं - चार स्मृति-प्रस्थान, चार सम्यक प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पांच इंद्रिय, पांच बल, सात बोध्यंग और आर्य अष्टांगिक मार्ग । मेरा धर्मोपदेश ऐहलौकिक और पारलौकिक- दोनों ही आनवों के संवर और नाश के लिए होता है।
सुखोपभोग दो प्रकार के होते हैं - एक वे जो निकृष्ट, मूंढों द्वारा सेवित, अनर्थयुक्त होते हैं जिनका प्रयोजन न निर्वेद, न विराग, न निरोध, न शांति, न अभिज्ञा, न संबोधि और न निर्वाण होता है; दूसरे वे जो एकांत-निर्वेद, विराग, निरोध, शांति, अभिज्ञा, संबोधि और निर्वाण के लिये होते हैं। पहली प्रकार के सुखोपभोग हैं - जीवों का वध कर, चोरी कर, झूठ बोल, पांच कामगुणों से सेवित हो आनन्द मनाना | दूसरी प्रकार के सुखोपभोग हैं - चारों ध्यानों को प्राप्त कर विहार करना । इसके चार फल हो सकते हैं- १. तीन संयोजनों के नाश से अविनिपातधर्मा, नियत संबोधि-परायण स्रोतापन्न होना; २.तीन संयोजनों के नाश के अतिरिक्त राग, द्वेष और मोह के दुर्बल हो जाने से सकदागामी होना: ३.पांच अवरभागीय संयोजनों के नष्ट हो जाने से औपपातिक देवता हो वहीं निर्वाण पा लेना; और ४.आनवों के क्षय से आम्नव-रहित चेतोविमुक्ति, प्रज्ञाविमुक्ति को यहीं स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर, प्राप्त कर, विहार करना ।
जानन-हार, देखन-हार, अरहंत, सम्यक संबुद्ध अपने श्रावकों को जो धर्म-देशना देते हैं वह
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यावज्जीवन अनुल्लंघनीय रहती है, जैसे नीचे तक अच्छी तरह गड़ा हुआ इंद्रकील अचल और दृढ़ होता है । जो भिक्षु ब्रह्मचर्य को पूरा कर, कृतकृत्य, भारमुक्त, परमार्थ- प्राप्त, सांसारिक बंधनों से मुक्त, क्षीणाश्रव, अरहंत हो जाते हैं वे नौ बातों के अयोग्य हो जाते हैं - १. जान बूझ कर जीव - हिंसा करना; २. चोरी करना; ३. मैथुन सेवन; ४. जान बूझ कर झूठ बोलना; ५. गृहस्थ - काल के सांसारिक भोगों को जोड़ना - बटोरना; ६. राग का मार्ग अपनाना; ७. द्वेष का मार्ग अपनाना; ८. मोह का मार्ग अपनाना; ९. भय का मार्ग अपनाना ।
तथागत अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न धर्मों के विषय में कालोचित वक्ता, सत्य - वक्ता, अर्थवादी, धर्मवादी, विनयवादी होते हैं । उनको वह सब मालूम रहता है जो देवताओं, मार, ब्रह्मा सहित लोक की देव - मनुष्य- श्रमण-ब्राह्मण - सहित जनता ने देखा, सुना, पाया, जाना, खोजा, मन से विचारा होता है । जिस रात्रि को तथागत अनुपम सम्यक संबोधि प्राप्त करते हैं और जिस रात्रि को उपाधि-रहित परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं, इन दो घटनाओं के बीच में जो कुछ कहते हैं, जो निर्देश देते हैं, वह सब वैसा ही होता है, अन्यथा नहीं । इसीलिए तथागत यथावादी तथाकारी और यथाकारी तथावादी होते हैं ।
तत्पश्चात भगवान ने 'अव्याकृत' और 'व्याकृत' विषयों की चर्चा करते हुए कहा कि वही विषय व्याकरणीय (विवेचन - योग्य) होते हैं जो अर्थोपयोगी, धर्मोपयोगी, ब्रह्मचर्योपयोगी अथवा एकांत-निर्वेद, विराग, निरोध, शांति, ज्ञान, संबोधि, निर्वाण के लिए हों, जैसे- 'यह दुःख है', 'यह दुःख का समुदय है', 'यह दुःख का निरोध है', 'यह दु:ख निरोध का उपाय है ।'
तदुपरांत उन्होंने पूर्वांत और अपरांत दृष्टियों की चर्चा करते हुए कहा कि जो लोग केवल अपनी दृष्टि को सच और बाकी सब को झूठ बतलाते हैं, मैं उनसे सहमत नहीं हूं क्योंकि ऐसे मामलों में अलग प्रकार से सोचने वाले लोग भी होते हैं। इस प्रज्ञप्ति में मैं किसी को अपने समान भी नहीं देखता, अपने से बढ़ कर कहां ? बल्कि प्रज्ञप्ति में मैं ही बढ़-चढ़ कर हूं। इन सभी दृष्टियों को दूर करने के लिए मैंने चार स्मृति - प्रस्थान प्रज्ञप्त किये हैं- स्मृति और संप्रज्ञान बनाये हुए, उद्योगशील हो, काया में कायानुपश्यना करना, वेदनाओं में वेदनानुपश्यना करना, चित्त में चित्तानुपश्यना करना, धर्मों में धर्मानुपश्यना करना ।
एक समय भगवान सावत्थी उन्होंने भिक्षुओं को संबोधित करते
७. लक्खणसुत्त
अनाथपिण्डिक के जेतवन आराम में विहार कर रहे थे। वहां हुए कहा कि महापुरुष के बत्तीस शरीर लक्षण होते हैं । इन
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लक्षणों से युक्त व्यक्ति की दो ही गतियां होती हैं, कोई अन्य नहीं । यदि वह घर में रहता है तो धार्मिक, धर्म-राजा, चारों ओर विजय पाने वाला, लोगों की भलाई का संरक्षक, सात रत्नों से युक्त चक्रवर्ती राजा होता है । वह सागर-पर्यंत इस पृथ्वी को दंड और शस्त्र के बिना ही धर्म से जीत कर इस पर प्रतिष्ठित होता है। यदि वह घर से बेघर हो कर प्रव्रजित होता है तो संसार के आवरण को हटाने वाला अरहंत, सम्यक संबुद्ध होता है
तत्पश्चात भगवान ने बत्तीस महापुरुष-लक्षणों का विवरण देते हुए कहा कि इन लक्षणों को बाहर के ऋषि भी जानते हैं, किन्तु वे यह नहीं जानते कि किस-किस कर्म के करने से किस-किस लक्षण का लाभ होता है।
तदनंतर भगवान ने यह स्पष्ट किया कि तथागत द्वारा अपने पूर्व के जन्मों में मनुष्य का जीवन बिताते हुए किस-किस प्रकार के उत्तम कर्म किये जाते हैं जिनके फलस्वरूप वर्तमान जीवन में महापुरुष-लक्षण प्रकट हो जाते हैं, और ऐसे लक्षणों वाला व्यक्ति यदि चक्रवर्ती राजा बने तो उसे किस-किस बात की उपलब्धि होती है और यदि वह सम्यक संबुद्ध बने तो उसे क्या-क्या उपलब्धि होती है।
तथागत द्वारा अपने पूर्व-जन्मों में किये जाने वाले कर्म ऐसे होते हैं, जैसे - सदाचार का जीवन जीना, बहुत लोगों को सुख पहुँचाना, जीव-हिंसा से विरत रहना, उत्तम भोजन का दान, लोगों का परस्पर मेल कराना, अर्थ-धर्म-युत वाणी, श्रद्धापूर्वक कलाएं सीखना, हित-जिज्ञासा, अक्रोध, वस्त्र-दान, बिछुड़े हुओं का मेल कराना, योग्य-अयोग्य पुरुष का विचार, परहित-आकांक्षा, दूसरों को न सताना, प्रिय-दृष्टि, कुशल कर्मों में अगुआपन, सच्ची प्रतिज्ञा करना, कलह मिटाना, मीठा बोलना, भावपूर्ण वचन, सम्यक आजीविका ।
८. सिङ्गालसुत्त
एक समय भगवान राजगह में वेळुवन के कलन्दकनिवाप में विहार करते थे। उन दिनों एक तरुण गृहस्थ सिङ्गाल ने उनसे यह जानना चाहा कि आर्य-विनय में छह दिशाओं को नमस्कार कैसे किया जाता है।
इस पर भगवान ने कहा जब आर्य-श्रावक के चार कर्म-क्लेश नष्ट हो गये होते हैं, वह चार स्थानों से पाप कर्म नहीं करता और छह अपाय-मुखों का सेवन नहीं करता – तब वह चौदह पापों
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से दूर हो, छह दिशाओं को प्रतिच्छादित कर दोनों लोकों की विजय में लग जाता है और मरने पर स्वर्ग - लाभ करता है ।
चार कर्म-क्लेश हैं - जीव-हिंसा, चोरी, व्यभिचार और असत्य भाषण ।
पाप-कर्म न करने वाले चार स्थान हैं- छंद, द्वेष, मोह और भय के रास्ते न जाना ।
छह अपाय- मुख (विनाश के हेतु) हैं- नशे का सेवन, संध्या- समय चौरस्ते की सैर, नाच-तमाशे में लगना, जुआ और दूसरी मस्तिष्क बिगाड़ने वाली प्रवृत्तियों में लगना, बुरे मित्र की मिताई और आलस्य में फँसना ।
तत्पश्चात भगवान ने बतलाया कि इन चार को मित्र के रूप में अ-मित्र जानना चाहिएपरधनहारक, बातूनी, खुशामदी तथा विनाश में सहायक। और इन चार मित्रों से सुहृद जानना चाहिए - उपकार करने वाला, सुख-दुःख समान भाव रखने वाला, अर्थ की प्राप्ति का उपाय बतलाने वाला और अनुकंपा करने वाला ।
तदुपरांत भगवान ने छह दिशाओं के प्रतिच्छादन के बारे में समझाया - माता-पिता को पूर्व-दिशा, आचार्यों को दक्षिण दिशा, पुत्र- स्त्री को पश्चिम दिशा, मित्र - अमात्यों को उत्तर दिशा, दासों - कर्मकरों को नीचे की दिशा और श्रमण-ब्राह्मणों को ऊपर की दिशा जानना चाहिए ।
भगवान ने यह भी प्रज्ञप्त किया कि इन लोगों की सेवा कितने-कितने प्रकार से की जानी चाहिए और सेवा पा कर ये लोग सेवा करने वाले पर किस-किस प्रकार से अनुकंपा करने लगते हैं । ऐसा होने पर विभिन्न दिशाएँ प्रच्छन्न ( ढँकी हुई), क्षेमयुक्त और निरापद हो जाती हैं ।
९. आटानाटियसुत्त
एक काल भगवान राजगह के गिज्झकूट पर्वत पर विहार करते थे। उस समय चारों दिशाओं के अभिपालक महाराजा (वेस्सवण, धतरट्ठ, विरुळ्हक और विरुपक्ख) अपने यक्षों, गंधर्वों, कूष्मांडों तथा नागों की विशाल सेना के साथ उनके पास गये ।
वहां पर वेस्सवण महाराज ने भगवान से कहा कि बहुत यक्ष आपसे प्रसन्न हैं और बहुत से अ-प्रसन्न | आप जीव - हिंसा, चोरी, व्यभिचार, झूठ बोलने और नशे का सेवन करने से विरत
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रहने का धर्मोपदेश करते हैं। जो जो यक्ष इनसे विरत नहीं रहते हैं, उनको आपका धर्मोपदेश सुहाता नहीं है। आपके श्रावक जंगलों में एकांतवास करते हैं। वहां पर बड़े-बड़े यक्ष भी निवास करते हैं, जो आपके इस प्रवचन से अ-प्रसन्न हैं । उनको प्रसन्न रखने के लिए भिक्षुओं, भिक्षुणिओं, उपासकों, उपासिकाओं की रक्षा, अ-विहिंसा और सुख-विहार के लिए आटानाटिय रक्षा (अनुमोदनाथ) ग्रहण करें।
भगवान की मौन-स्वीकृति पा कर वेस्सवण महाराज ने 'आटानाटिय रक्षा' कही ।
इसके अंतर्गत उन्होंने सर्वप्रथम भगवान विपस्सी से लेकर शाक्यपुत्र गोतम तक सातों बुद्धों को नमस्कार किया। तत्पश्चात चारों महाराजाओं और उनके प्रभुत्व का वर्णन किया । तदुपरांत रक्षा न मानने वाले यक्षों को प्राप्त होने वाले दंड का उल्लेख किया और अंततः यह भी बतलाया कि यदि कोई अ-मनुष्य द्वेषयुक्त चित्त से श्रावकों के पीछे लग जाये तो उस समय किन यक्षों, महायक्षों, सेनापतियों, महासेनापतियों को टेर देनी चाहिए ।
तत्पश्चात चारों महाराजा और इसी प्रकार यक्ष भी अपने-अपने आसन से उठ कर और भगवान का अभिवादन कर वहां से अंतर्धान हो गये।
रात बीत जाने पर भगवान ने भिक्षुओं को भी उपरोक्त प्रसंग की जानकारी दी और उनसे कहा आटानाटिय रक्षा को सीखो, इसमें कुशल हो जाओ, इसे धारण करो । आटानाटिय रक्षा भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासकों और उपासिकाओं के बचाव, अभिरक्षण, अविहिंसा एवं सुख-विहार के लिए सार्थक है।
१०. संगीतिसुत्त
एक समय भगवान भिक्षुओं के महासंघ के साथ मल्ल-देश में चारिका करते हुए पावा-नामक नगर में पहुँचे । वहां पर नगरवासियों के अनुरोध पर भगवान ने उनके द्वारा हाल ही में बनाये गये सन्थागार (प्रजातंत्र भवन) में आकर धार्मिक कथा सुना कर उन्हें संप्रहर्षित किया।
नगरवासियों के चले जाने के पश्चात भगवान ने भिक्षु-संघ को धार्मिक कथा कहने के लिए आयुष्मान सारिपुत्त से कहा और स्वयं विश्राम करने के लिए लेट गये ।
आयुष्मान सारिपुत्त ने भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा कि निग्रंथ नाटपुत्त ने पावा में
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अभी-अभी प्राण छोड़े हैं और तभी से निग्रंथों में फूट पड़ गयी है । वे एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं कि तुम धर्म-विनय को नहीं जानते, तुम मिथ्यारूढ़ हो, तुम्हारा कथन अर्थवान नहीं है, तुम पहले कहने वाली बात को पीछे कहते हो और पीछे कहने वाली बात को पहले, तुम्हारा वाद उल्टा है, इत्यादि-इत्यादि । इसका कारण यह है कि नाटपुत्त द्वारा प्रतिपादित धर्म दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, अ-नैर्याणिक, अनुपशम-संवर्तनिक, अ-सम्यक-संबुद्ध-प्रवेदित, प्रतिष्ठा-रहित और आश्रय-रहित था । परंतु हमारे भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म स्वाख्यात (अच्छी प्रकार बतलाया गया), सु-प्रवेदित (ठीक प्रकार से प्रगट किया गया), नैर्याणिक (दुःख से पार ले जाने वाला), उपशम-संवर्तनिक (शांति-दायक), सम्यक-संबुद्ध-प्रवेदित (सम्यक संबुद्ध द्वारा प्रगट किया गया) है । इसे सभी को समान रूप से संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, जिससे यह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी हो, बहुत लोगों के हित-सुख के लिए हो, लोक पर अनुकंपा करने वाला हो, देवताओं तथा मनुष्यों के भले और हित-सुख के लिए हो ।
तत्पश्चात आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्मों को एक से लेकर दस तक की संख्या में वर्गीकृत करते हुए भिक्षुओं को उनका संगायन करते रहने और उनमें विवाद न करने के लिए कहा जिससे ब्रह्मचर्य चिरस्थायी हो। आयुष्मान सारिपुत्त ने बार-बार इस बात को दोहराया है कि इन धर्मों का भली प्रकार आख्यान इनके जानन-हार, देखन-हार, अरहंत-अवस्था प्राप्त, सम्यक संबुद्ध ने किया है।
११. दसुत्तरसुत्त
एक समय भगवान एक बड़े भिक्षु-संघ के साथ चम्पा में गग्गरा पुष्करिणी के तीर पर विहार कर रहे थे | वहां पर आयुष्मान सारिपुत्त ने उन भिक्षुओं को आमंत्रित कर उन्हें सब ग्रंथियों का विमोचन करने वाले ‘दसुत्तर' धर्म का बखान किया जिससे कि वे अपने-अपने दुःखों का अंत कर निर्वाण-लाभ कर सकें।
__ आयुष्मान सारिपुत्त ने प्रज्ञप्त किया है कि 'दसुत्तर' धर्मों में कौन-कौन से धर्म उपकारक, भावनीय, परिज्ञेय, प्रहातव्य, हानभागीय, विशेषभागीय, दुष्प्रतिवेध्य, उत्पादनीय, अभिज्ञेय अथवा साक्षात्कार किये जाने के योग्य हैं।
ये सभी धर्म वास्तविकता पर आधारित, तथ्यपूर्ण, यथार्थ और भगवान तथागत द्वारा सम्यक प्रकार से अपनी बोधि द्वारा जाने गये हैं।
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Suttapitake
Dighanikāyo
Tatiyo Bhāgo
Pathikavaggapāļi
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Ciram Titthatu Saddhammo! May the Truth-based Dhamma Endure for A Long Time!
“Dueme, Bhikkhave, Dhamma saddhammassa thitiya asammosaya anantaradhanaya samvattanti. Katame dve? Sunikkhittańca padabyanjanam attho ca sunito. Sunikkhittassa, Bhikkhave, padabyañjanassa atthopi sunayo boti."
"There are two things, O monks, which A. N. 1. 2. 21, Adhikaraṇavagga make the Truth-based Dhamma endure for a long time, without any distortion and without (fear of) eclipse. Which two? Proper placement of words and their natural interpretation. Words properly placed help also in their natural interpretation."
...ye vo maya dhamma abbiññā desita, tattha sabbeheva sangamma samāgamma atthena attham byañjanena byanjanam sangayitabbam na vivaditabbam, yathayidam brahmacariyam addhaniyam assa ciraṭṭhitikam...
D. N. 3.177, Pāsādikasutta
...the dhammas (truths) which I have taught to you after realizing them with my super-knowledge, should be recited by all, in concert and without dissension, in a uniform version collating meaning with meaning and wording with wording. In this way, this teaching with pure practice will last long and endure for a long time...
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Present Text
The present volume is the Pathikavagga-pāļi : the third of the three volumes of the Digha Nikāya, the first nikāya of the Sutta Pitaka.
We sincerely hope that this publication will provide immense benefit to the practitioners of Vipassana as well as to research scholars.
Director, Vipassana Research Institute,
Igatpuri, India.
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Fins
to
The Pāli alphabets in Devanāgari and Roman characters: Vowels: 37 a 371 à şi $ i Ju Jū ge 390 Consonants with Vowel 37 (a): at ka kha ga घ gha a ca 5 cha ja jha
ta tha 3 da & dha a ta tha ada ध dha 7 na q pa 4 pha a ba bha ma u ya tra i la ava sa ha la One nasal sound (niggahita): 31 am Vowels in combination with consonants "k" and "kh": (exceptions: 5 ru, rū) क ka का ka कि ki की ki कु ku कू kā के ke को ko ख kha खा khā खि khi खी khi खु khu खू khā खे khe खो kho
क्ल
kla
ग्य gya
gva
nga ñña
ण्ड nda
tya
网对司四g wav 毛叫"
Conjunct-consonants: क्क kka क्ख kkha
क्य kya ख्य khya ख्व khva ग्ग gga Inka
nkha च्छ ccha ज्ज jja
y ñcha Sut ñja 3 dda
Iddha Je nta nya ण्ह nha त्त tta
dda 3 ddha
2 dhya 4 dhva nda andra may ndha ẽ nha
प्फ ppha 34 bbha bya bra
mbha म्म mma म्य mya यह yha ल्ल lla ल्य lya stra
स्र sna स्य sya ह्म hma ह्य hya a hva 1 R2 R3 84 45
tva dva
क्र kra ग्घ ggha @ rkhya ज्झ jjha ज्झ hjha ण्ठ ntha स्थ ttha द्म dma न्त nta
5 nna upya म्प mpa म्ह mha ल्ह lha स्स ssa Olha & 6 67
河三 四 五 E可码 四
Nuwe w
क्व kva ग्र gra
ngha ज्ह nha
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nya can bba
mba व्य vya स्त sta स्व sva
प्प ppa
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nya प्ल pla
mpha य्य yya ह vha स्म sma
म्भ
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Notes on the pronunciation of Pali
Pāli was a dialect of northern India in the time of Gotama the Buddha. The earliest known script in which it was written was the Brahmi script of the third century B.C. After that it was preserved in the scripts of the various countries where Pali was maintained. In Roman script, the following set of diacritical marks has been established to indicate the proper pronunciation.
The alphabet consists of forty-one characters: eight vowels, thirty-two consonants and one nasal sound (niggahita).
Vowels (a line over a vowel indicates that it is a long vowel):
a
ā - as the "a" in father
1
as the "a" in about
- as the "i" in mint
u as the "u" in put
-
e is pronounced as the "ay" in day, except before double consonants when it is pronounced as the "e" in bed: deva, metta;
0 is pronounced as the "o" in no, except before double consonants when it is pronounced slightly shorter: loka, photṭhabba.
Consonants are pronounced mostly as in English.
g- as the "g" in get
c
v a very soft -v- or -w
i
ū
-
soft like the "ch" in church
All aspirated consonants are pronounced with an audible expulsion of breath following the normal unaspirated sound.
The nasal sounds:
as the "ee" in
as the "oo" in cool
th - not as in 'three'; rather 't' followed by 'h' (outbreath) ph- not as in 'photo'; rather 'p' followed by 'h' (outbreath)
-
The retroflex consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tip of the tongue turned back; and I is pronounced with the tongue retroflexed, almost a combined 'rl' sound.
n
m
The dental consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tongue touching the upper front teeth.
-
n guttural nasal, like -ng- as in singer
-
ñ
as in Spanish señor
with tongue retroflexed
as in hung, ring
in see
Double consonants are very frequent in Pali and must be strictly pronounced as long consonants, thus -nn- is like the English 'nn' in "unnecessary".
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सुत्तपिटके
दीघनिकायो
ततियो भागो पाथिकवग्गपाळि
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।। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।।
दीघनिकायो पाथिकवग्गपाळि
सुनक्खत्तवत्थु
"
१. एवं मे सुतं एकं समयं भगवा मल्लेसु विहरति अनुपियं नाम मल्लानं निगमो। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय अनुपयं पिण्डाय पाविसि । अथ खो भगवतो एतदहोसि - “ अतिप्पगो खो ताव अनुपियायं पिण्डाय चरितुं । यंनूनाहं येन भग्गवगोत्तस्स परिब्बाजकस्स आरामो, येन भग्गवगोत्तो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमेय्यन्ति ।
१. पाथिकसुत्तं
-
1
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दीघनिकायो-३
(३.१.२-४)
२. अथ खो भगवा येन भग्गवगोत्तस्स परिब्बाजकस्स आरामो, येन भग्गवगोत्तो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि । अथ खो भग्गवगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – “एतु खो, भन्ते, भगवा। स्वागतं, भन्ते, भगवतो । चिरस्सं खो, भन्ते, भगवा इमं परियायमकासि यदिदं इधागमनाय । निसीदतु, भन्ते, भगवा, इदमासनं पञत्त"न्ति । निसीदि भगवा पञत्ते आसने । भग्गवगोत्तोपि खो परिब्बाजको अञ्जतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो भग्गवगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच - "पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं एतदवोच- ‘पच्चक्खातो दानि मया, भग्गव, भगवा । न दानाहं भगवन्तं उद्दिस्स विहरामी'ति । कच्चेतं, भन्ते, तथेव, यथा सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो अवचा"ति ? तथैव खो एतं, भग्गव, यथा सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो अवच ।।
३. “पुरिमानि, भग्गव, दिवसानि पुरिमतरानि सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मं एतदवोच - ‘पच्चक्खामि दानाहं, भन्ते, भगवन्तं । न दानाहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामी'ति । ‘एवं वुत्ते, अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं- 'अपि नु ताहं, सुनक्खत्त, एवं अवचं, एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराही'ति ? 'नो हेतं, भन्ते' । 'त्वं वा पन मं एवं अवच - अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामी'ति ? 'नो हेतं, भन्ते' । 'इति किर, सुनक्खत्त, नेवाहं तं वदामि- 'एहि त्वं, सनक्खत्त, ममं उहिस्स विहराही'ति । नपि किर मं त्वं वदेसि'अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामी'ति । एवं सन्ते, मोघपुरिस, को सन्तो कं पच्चाचिक्खसि ? पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्ध'न्ति ।
४. 'न हि पन मे, भन्ते, भगवा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोती'ति । 'अपि नु ताहं, सुनक्खत्त, एवं अवचं- एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराहि, अहं ते उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सामी'ति ? 'नो हेतं, भन्ते'। 'त्वं वा पन मं एवं अवच - अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामि, भगवा मे उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सती'ति ? 'नो हेतं, भन्ते' । ‘इति किर, सुनक्खत्त, नेवाहं तं वदामि - ‘एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराहि, अहं ते उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सामी'ति; नपि किर मं त्वं वदेसि - ‘अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामि, भगवा मे उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सती'ति । एवं सन्ते,
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(३.१.५-६)
१.पाथिकसुत्तं
मोघपुरिस, को सन्तो कं पच्चाचिक्खसि ? तं किं मञ्जसि, सुनक्खत्त, कते वा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये अकते वा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये यस्सत्थाय मया धम्मो देसितो सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया'ति ? 'कते वा, भन्ते, उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये अकते वा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये यस्सत्थाय भगवता धम्मो देसितो सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया'ति । 'इति किर, सुनक्खत्त, कते वा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये, अकते वा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारिये, यस्सत्थाय मया धम्मो देसितो, सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय । तत्र, सुनक्खत्त, किं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं कतं करिस्सति ? पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्ध'न्ति ।
५. 'न हि पन मे, भन्ते, भगवा अग्गज़ पञपेती'ति ? 'अपि नु ताहं, सुनक्खत्त, एवं अवचं - एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराहि, अहं ते अग्गळं पञपेस्सामी'ति ? 'नो हेतं, भन्ते' | 'त्वं वा पन मं एवं अवच- अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामि, भगवा मे अग्गजं पञपेस्सती'ति ? 'नो हेतं, भन्ते'। 'इति किर, सुनक्खत्त, नेवाहं तं वदामि - ‘एहि त्वं, सुनक्खत्त, ममं उद्दिस्स विहराहि, अहं ते अग्गनं पञपेस्सामी'ति । नपि किर मं त्वं वदेसि - 'अहं, भन्ते, भगवन्तं उद्दिस्स विहरिस्सामि, भगवा मे अग्गजं पञपेस्सतीति । एवं सन्ते, मोघपुरिस, को सन्तो कं पच्चाचिक्खसि ? तं किं मञ्जसि, सुनक्खत्त, पञत्ते वा अग्गञ्ज, अपञ्जत्ते वा अग्गजे, यस्सत्थाय मया धम्मो देसितो, सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया'ति ? ‘पञ्जत्ते वा, भन्ते, अग्गने, अपञत्ते वा अग्गने, यस्सत्थाय भगवता धम्मो देसितो, सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाया'ति । 'इति किर, सुनक्खत्त, पञत्ते वा अग्गने, अपञत्ते वा अग्ग , यस्सत्थाय मया धम्मो देसितो, सो निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय। तत्र, सुनक्खत्त, किं अग्गजं पञत्तं करिस्सति ? पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्धं'।
६. 'अनेकपरियायेन खो ते, सुनक्खत्त, मम वण्णो भासितो वज्जिगामे - ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति । इति खो ते, सुनक्खत्त, अनेकपरियायेन मम वण्णो भासितो वज्जिगामे ।
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दीघनिकायो-३
(३.१.७-७)
'अनेकपरियायेन खो ते, सुनक्खत्त, धम्मस्स वण्णो भासितो वज्जिगामे - 'स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विझूही'ति । इति खो ते, सुनक्खत्त, अनेकपरियायेन धम्मस्स वण्णो भासितो वज्जिगामे ।
‘अनेकपरियायेन खो ते, सुनक्खत्त, सङ्घस्स वण्णो भासितो वज्जिगामे - 'सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, उजुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, सायप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, सामीचिप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानि अट्ठ पुरिसपुग्गला, एस भगवतो सावकसङ्घो, आहुनेय्यो पाहुनेय्यो दक्खिणेय्यो अञ्जलिकरणीयो अनुत्तरं पुञ्जक्खेत्तं लोकस्सा'ति । इति खो ते, सुनक्खत्त, अनेकपरियायेन सङ्घस्स वण्णो भासितो वज्जिगामे |
'आरोचयामि खो ते, सुनक्खत्त, पटिवेदयामि खो ते, सुनक्खत्त । भविस्सन्ति खो ते, सुनक्खत्त, वत्तारो, 'नो विसहि सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो समणे गोतमे ब्रह्मचरियं चरितुं, सो अविसहन्तो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तो'ति । इति खो ते, सुनक्खत्त, भविस्सन्ति वत्तारो'ति । “एवं खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मया वुच्चमानो अपक्कमेव इमस्मा धम्मविनया, यथा तं आपायिको नेरयिको ।
कोरक्खत्तियवत्थु
७. “एकमिदाहं, भग्गव, समयं थूलूसु विहरामि उत्तरका नाम थूलूनं निगमो । अथ ख्वाहं, भग्गव, पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सुनक्खत्तेन लिच्छविपुत्तेन पच्छासमणेन उत्तरकं पिण्डाय पाविसि । तेन खो पन समयेन अचेलो कोरक्खत्तियो कुक्कुरवतिको चतुक्कुण्डिको छमानिकिण्णं भक्खसं मुखेनेव खादति, मुखेनेव भुजति | अद्दसा खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो अचेलं कोरक्खत्तियं कुक्कुरवतिकं चतुक्कुण्डिकं छमानिकिण्णं भक्खसं मुखेनेव खादन्तं मुखेनेव भुञ्जन्तं । दिस्वानस्स एतदहोसि – 'साधुरूपो वत, भो, अयं समणो चतुक्कुण्डिको छमानिकिण्णं भक्खसं मुखेनेव खादति, मुखेनेव भुञ्जती'ति ।
“अथ ख्वाहं, भग्गव, सुनक्खत्तस्स लिच्छविपुत्तस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्जाय
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(३.१.८-८)
१. पाथिकसुत्तं
सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं - ‘त्वम्पि नाम, मोघपुरिस, समणो सक्यपुत्तियो पटिजानिस्ससी'ति! 'किं पन मं, भन्ते, भगवा एवमाह - 'त्वम्पि नाम, मोघपुरिस, समणो सक्यपुत्तियो पटिजानिस्ससी'ति ? 'ननु ते, सुनक्खत्त, इमं अचेलं कोरक्खत्तियं कुक्कुरवतिकं चतुक्कुण्डिकं छमानिकिण्णं भक्खसं मुखेनेव खादन्तं मुखेनेव भुञ्जन्तं दिस्वान एतदहोसि - साधुरूपो वत, भो, अयं समणो चतुक्कुण्डिको छमानिकिण्णं भक्खसं मुखेनेव खादति, मुखेनेव भुञ्जती'ति ? ‘एवं, भन्ते। किं पन, भन्ते, भगवा अरहत्तस्स मच्छरायती'ति ? 'न खो अहं, मोघपुरिस, अरहत्तस्स मच्छरायामि । अपि च, तुम्हेवेतं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं, तं पजह | मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय । यं खो पनेतं, सुनक्खत्त, मञसि अचेलं कोरक्खत्तियं - 'साधुरूपो अयं समणो'ति । सो सत्तमं दिवसं अलसकेन कालङ्करिस्सति । कालङ्कतो च कालकञ्चिका नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्र उपपज्जिस्सति । कालङ्कतञ्च नं बीरणत्थम्बके सुसाने छड्डेस्सन्ति । आकङ्खमानो च त्वं, सुनक्खत्त, अचेलं कोरक्खत्तियं उपसङ्कमित्वा पुच्छेय्यासि- 'जानासि, आवुसो कोरक्खत्तिय, अत्तनो गति'न्ति ? ठानं खो पनेतं, सुनक्खत्त, विज्जति यं ते अचेलो कोरक्खत्तियो ब्याकरिस्सति - ‘जानामि, आवुसो सुनक्खत्त, अत्तनो गतिं; कालकञ्चिका नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्राम्हि उपपन्नोति ।
“अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येन अचेलो कोरक्खत्तियो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अचेलं कोरक्खत्तियं एतदवोच – “ब्याकतो खोसि, आवुसो कोरक्खत्तिय, समणेन गोतमेन – 'अचेलो कोरक्खत्तियो सत्तमं दिवसं अलसकेन कालङ्करिस्सति । कालङ्कतो च कालकञ्चिका नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्र उपपज्जिस्सति । कालङ्कतञ्च नं बीरणथम्बके सुसाने छड्डेस्सन्ती'ति । येन त्वं, आवुसो कोरक्खत्तिय, मत्तं मत्तञ्च भत्तं भुजेय्यासि, मत्तं मत्तञ्च पानीयं पिवेय्यासि । यथा समणस्स गोतमस्स मिच्छा अस्स वचन"न्ति ।
८. “अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो एकद्वीहिकाय सत्तरत्तिन्दिवानि गणेसि, यथा तं तथागतस्स असद्दहमानो । अथ खो, भग्गव, अचेलो कोरक्खत्तियो सत्तमं दिवसं अलसकेन कालमकासि । कालङ्कतो च कालकञ्चिका नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्र उपपज्जि । कालङ्कतञ्च नं बीरणथम्बके सुसाने छड्डेसुं ।
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दीघनिकायो-३
(३.१.९-११)
९. "अस्सोसि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो- 'अचेलो किर कोरक्खत्तियो अलसकेन कालङ्कतो बीरणत्थम्बके सुसाने छड्डितो'ति । अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येन बीरणत्थम्बकं सुसानं, येन अचेलो कोरक्खत्तियो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अचेलं कोरक्खत्तियं तिक्खत्तुं पाणिना आकोटेसि- 'जानासि, आवुसो कोरक्खत्तिय, अत्तनो गति'न्ति ? 'अथ खो, भग्गव, अचेलो कोरक्खत्तियो पाणिना पिट्टि परिपुञ्छन्तो वुढासि । ‘जानामि, आवुसो सुनक्खत्त, अत्तनो गतिं । कालकञ्चिका नाम असुरा सब्बनिहीनो असुरकायो, तत्राम्हि उपपन्नोति वत्वा तत्थेव उत्तानो पपति ।
१०. “अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं - 'तं किं मञ्जसि, सुनक्खत्त, यथेव ते अहं अचेलं कोरक्खत्तियं आरब्भ ब्याकासिं, तथैव तं विपाकं, अञथा वाति ? 'यथेव मे, भन्ते, भगवा अचेलं कोरक्खत्तियं आरब्भ ब्याकासि, तथेव तं विपाकं, नो अञथा'ति | 'तं किं मञ्जसि, सुनक्खत्त, यदि एवं सन्ते कतं वा होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं, अकतं वा'ति ? 'अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते कतं होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं, नो अकतन्ति । ‘एवम्पि खो मं त्वं, मोघपुरिस, उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोन्तं एवं वदेसि - 'न हि पन मे, भन्ते, भगवा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोती'ति । पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्धन्ति । “एवम्पि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मया वुच्चमानो अपक्कमेव इमस्मा धम्मविनया, यथा तं आपायिको नेरयिको ।
अचेलकळारमट्टकवत्थु
११. “एकमिदाहं, भग्गव, समयं वेसालियं विहरामि महावने कूटागारसालायं । तेन खो पन समयेन अचेलो कळारमट्टको वेसालियं पटिवसति लाभग्गप्पत्तो चेव यसग्गप्पत्तो च वज्जिगामे । तस्स सत्तवतपदानि समत्तानि समादिन्नानि होन्ति । 'यावजीवं अचेलको अस्सं, न वत्थं परिदहेय्यं । यावजीवं ब्रह्मचारी अस्सं, न मेथुनं धम्म पटिसेवेय्यं । यावजीवं सुरामंसेनेव यापेय्यं, न ओदनकुम्मासं भुजेय्यं । पुरथिमेन वेसालिं उदेनं नाम चेतियं, तं नातिक्कमेय्यं । दक्खिणेन वेसालिं गोतमकं नाम चेतियं, तं नातिक्कमेय्यं । पच्छिमेन वेसालिं सत्तम्बं नाम चेतियं, तं नातिक्कमेय्यं, उत्तरेन वेसालिं
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(३.१.१२-१४)
१.पाथिकसुत्तं
बहुपुत्तं नाम चेतियं तं नातिक्कमेय्य'न्ति । सो इमेसं सत्तन्नं वतपदानं समादानहेतु लाभग्गप्पत्तो चेव यसग्गप्पत्तो च वज्जिगामे ।
१२. “अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येन अचेलो कळारमट्टको तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अचेलं कळारमट्टकं पञ्हं अपुच्छि । तस्स अचेलो कळारमट्टको पऽहं पुट्ठो न सम्पायासि । असम्पायन्तो कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पात्वाकासि । अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तस्स लिच्छविपुत्तस्स एतदहोसि - ‘साधुरूपं वत भो अरहन्तं समणं आसादिम्हसे | मा वत नो अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया'ति ।
१३. “अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो अहं. भग्गव. सनक्खत्तं लिच्छविपत्तं एतदवोचं- 'त्वम्पि नाम, मोघपूरिस, समणो सक्यपत्तियो पटिजानिस्ससी'ति ! 'किं पन मं, भन्ते, भगवा एवमाह - त्वम्पि नाम, मोघपुरिस, समणो सक्यपुत्तियो पटिजानिस्ससी'ति? 'ननु त्वं, सुनक्खत्त, अचेलं कळारमट्टकं उपसङ्कमित्वा पञ्हं अपुच्छि। तस्स ते अचेलो कळारमट्टको पहं पुट्ठो न सम्पायासि, असम्पायन्तो कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पात्वाकासि । तस्स ते एतदहोसि - 'साधुरूपं वत, भो, अरहन्तं समणं आसादिम्हसे । मा वत नो अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया'ति । ‘एवं, भन्ते । किं पन, भन्ते, भगवा अरहत्तस्स मच्छरायती'ति ?
_ 'न खो अहं, मोघपुरिस, अरहत्तस्स मच्छरायामि, अपि च तुम्हेवेतं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं, तं पजह । मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय । यं खो पनेतं, सुनक्खत्त, मञ्जसि अचेलं कळारमट्टकं - 'साधुरूपो अयं समणो'ति, सो नचिरस्सेव परिहितो सानुचारिको विचरन्तो ओदनकुम्मासं भुञ्जमानो सब्बानेव वेसालियानि चेतियानि समतिक्कमित्वा यसा निहीनो कालं करिस्सती'ति । अथ खो, भग्गव, अचेलो कळारमट्टको नचिरस्सेव परिहितो सानुचारिको विचरन्तो ओदनकुम्मासं भुञ्जमानो सब्बानेव वेसालियानि चेतियानि समतिक्कमित्वा यसा निहीनो कालमकासि ।।
१४. “अस्सोसि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो- 'अचेलो किर कळारमट्टको परिहितो सानुचारिको विचरन्तो ओदनकुम्मासं भुञ्जमानो सब्बानेव वेसालियानि चेतियानि समतिक्कमित्वा यसा निहीनो कालङ्कतो'ति । अथ खो, भग्गव,
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दीघनिकायो-३
सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं - 'तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, यथेव ते अहं अचेलं कळारमट्टकं आरब्भ ब्याकासिं, तथेव तं विपाकं, अञ्ञथा वा'ति ? 'यथेव मे, भन्ते, भगवा अचेलं कळारमट्टकं आरब्भ ब्याकासि, तथेव तं विपाकं, नो अञ्ञथा'ति । तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, यदि एवं सन्ते कतं वा होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहार क 'अद्धा खो, भन्ते,
एवं सन्ते कतं होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं, नो अकत 'न्ति । एवम्पि खो त्वं मोघपुरिस, उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्विपाटिहारियं करोन्तं एवं वदेसि - 'न हि पन मे, भन्ते, भगवा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोतीति । पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्ध'न्ति। “एवम्पि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मया वुच्चमानो अपक्कमेव इमस्मा धम्मविनया, यथा तं आपायिको नेरयिको ।
अचेल पाथिकपुत्तवत्थु
१५. “एकमिदाहं, भग्गव, समयं तत्थेव वेसालियं विहरामि महावने कूटागारसालायं । तेन खो पन समयेन अचेलो पाथिकपुत्तो वेसालियं पटिवसति लाभग्गप्पत्तो चेव यसग्गप्पत्तो च वज्जिगामे । सो वेसालियं परिसति एवं वाचं भासति - 'समणोपि गोतमो आणवादो, अहम्पि आणवादो । आणवादो खो पन आणवादेन अरहति उत्तरमनुस्सधम्मा इद्विपाटिहारियं दस्सेतुं । समणो गोतमो उपड्डपथं आगच्छेय्य, अहम्पि उपढपथं गच्छेय्यं । ते तत्थ उभोपि उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करेय्याम । एकं चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्विपाटिहारियं करिस्सति, द्वाहं करिस्सामि । द्वे चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि करिस्सति, चत्ताराहं करिस्सामि चत्तारि चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि करिस्सति, अट्ठाहं करिस्सामि। इति यावतकं यावतकं समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामी 'ति ।
१६. " अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मं एतदवोच- “अचेलो, भन्ते, पाथिकपुत्तो वेसालियं पटिवसति लाभग्गप्पत्तो चेव यसग्गप्पत्तो च वज्जिगामे । सो वेसालियं परिसति एवं वाचं भासति -
(३.१.१५-१६)
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(३.१.१७-१८)
१.पाथिकसुत्तं
समणोपि गोतमो आणवादो, अहम्पि आणवादो । आणवादो खो पन आणवादेन अरहति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं दस्सेतुं। समणो गोतमो उपड्डपथं आगच्छेय्य, अहम्पि उपड्डपथं गच्छेय्यं । ते तत्थ उभोपि उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करेय्याम । एकं चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, द्वाहं करिस्सामि । द्वे चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि करिस्सति, चत्ताराहं करिस्सामि | चत्तारि चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि करिस्सति, अट्ठाहं करिस्सामि । इति यावतकं यावतकं समणो गोतमो उत्तरि मनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामी''ति ।
__ “एवं वुत्ते, अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं - 'अभब्बो खो, सुनक्खत्त, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिढेि अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या'ति ।
१७. “रक्खतेतं, भन्ते, भगवा वाचं, रक्खतेतं सुगतो वाच"न्ति । “किं पन मं त्वं, सुनक्खत्त, एवं वदेसि - 'रक्खतेतं, भन्ते, भगवा वाचं, रक्खतेतं सुगतो वाच'न्ति ? 'भगवता चस्स, भन्ते, एसा वाचा एकंसेन ओधारिता - अभब्बो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्याति । अचेलो च, भन्ते, पाथिकपुत्तो विरूपरूपेन भगवतो सम्मुखीभावं आगच्छेय्य, तदस्स भगवतो मुसा'ति ।
१८. 'अपि नु, सुनक्खत्त, तथागतो तं वाचं भासेय्य या सा वाचा द्वयगामिनी'ति ? 'किं पन, भन्ते, भगवता अचेलो पाथिकपुत्तो चेतसा चेतो परिच्च विदितो- अभब्बो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्प हाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या'ति ?
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दीघनिकायो-३
(३.१.१९-१९)
'उदाहु, देवता भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं- अभब्बो, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा भगवतो सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या ति ?
१९. 'चेतसा चेतो परिच्च विदितो चेव मे सुनक्खत्त अचेलो पाथिकपुत्तो अभब्बो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिलुि अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या'ति ।
'देवतापि मे एतमत्थं आरोचेसुं- अभब्बो, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिष्टुिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा भगवतो सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स- अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिढिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्य'न्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या'ति ।
'अजितोपि नाम लिच्छवीनं सेनापति अधुना कालङ्कतो तावतिंसकायं उपपन्नो । सोपि में उपसङ्कमित्वा एवमारोचेसि - अलज्जी, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो; मुसावादी, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो। मम्पि, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो ब्याकासि वज्जिगामे - अजितो लिच्छवीनं सेनापति महानिरयं उपपन्नोति । न खो पनाहं, भन्ते, महानिरयं उपपन्नो; तावतिंसकायम्हि उपपन्नो । अलज्जी, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो; मुसावादी, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो; अभब्बो च, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा भगवतो सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स- अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या'ति ।
_ 'इति खो, सुनक्खत्त, चेतसा चेतो परिच्च विदितो चेव मे अचेलो पाथिकपुत्तो अभब्बो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिठिं
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(३.१.२०-२०)
१.पाथिकसुत्तं
अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या'ति । देवतापि मे एतमत्थं आरोचेसुं- अभब्बो, भन्ते, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा भगवतो सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या'ति ।
‘सो खो पनाहं, सुनक्खत्त, वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो येन अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमिस्सामि दिवाविहाराय । यस्सदानि त्वं, सुनक्खत्त, इच्छसि, तस्स आरोचेही'ति ।
इद्धिपाटिहारियकथा २०. “अथ ख्वाहं, भग्गव, पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पाविसिं। वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो येन अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमिं दिवाविहाराय । अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो तरमानरूपो वेसालिं पविसित्वा येन अभिजाता अभिजाता लिच्छवी तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अभिज्ञाते अभिजाते लिच्छवी एतदवोच - ‘एसावुसो, भगवा वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो येन अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय । अभिक्कमथायस्मन्तो अभिक्कमथायस्मन्तो, साधुरूपानं समणानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं भविस्सती'ति । अथ खो, भग्गव, अभिञातानं अभिज्ञातानं लिच्छवीनं एतदहोसि- साधुरूपानं किर, भो, समणानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं भविस्सति; हन्द वत, भो, गच्छामा'ति ।।
“येन च अभिज्ञाता अभिज्ञाता ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा तेनुपसङ्कमि । उपसङ्कमित्वा अभिजाते अभिजाते नानातित्थिये समणब्राह्मणे एतदवोच - ‘एसावुसो, भगवा वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो येन अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय । अभिक्कमथायस्मन्तो अभिक्कमथायस्मन्तो, साधुरूपानं समणानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं भविस्सती'ति ।
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(३.१.२१-२१)
अथ खो, भग्गव, अभिज्ञातानं अभिज्ञातानं नानातित्थियानं समणब्राह्मणानं एतदहोसि - 'साधुरूपानं किर, भो, समणानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं भविस्सति; हन्द वत, भो, गच्छामा 'ति ।
दीघनिकायो-३
" अथ खो, भग्गव, अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता लिच्छवी, अभिज्ञाता अभिञ्ञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा येन अचेलस्स पार्थिकपुत्तस्स आरामो तेनुपसङ्कमिंसु । सा एसा, भग्गव, परिसा महा होति अनेकसता अनेकसहस्सा ।
२१. "अस्सोसि खो, भग्गव, अचेलो पाथिकपुत्तो 'अभिक्कन्ता किर अभिञाता अभिञाता लिच्छवी, अभिक्कन्ता अभिञाता अभिञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा । समणोपि गोतमो मय्हं आरामे दिवाविहारं निसिन्नो 'ति । सुत्वानस्स भयं छम्भितत्तं लोमहंसो उदपादि । अथ खो, भग्गव, अचेलो पाथिकपुत्तो भीतो संविग्गो लोमहट्टजातो येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो तेनुपसङ्कमि ।
"अस्सोसि खो, भग्गव, सा परिसा - 'अचेलो किर पाथिकपुत्तो भीतो संविग्गो लोमहट्ठजातो येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो तेनुपसङ्कन्तो 'ति । अथ खो, भग्गव, सा परिसा अञ्ञतरं पुरिसं आमन्तेसि -
‘एहि त्वं, भो पुरिस, येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो, येन अचैलो पाथिकपुत्तो तेनुपसङ्कम। उपसङ्कमित्वा अचेलं पाथिकपुत्तं एवं वदेहि- अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कन्ता अभिञाता अभिञाता लिच्छवी, अभिक्कन्ता अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा । समणोपि गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो । भासिता खो पन ते एसा, आवुसो पाथिकपुत्त, वेसालियं परिसति वाचा 'समणोपि गोतमो आणवादो, अहम्पि आणवादो । आणवादो खो पन आणवादेन अरहति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं दस्सेतुं । समणो गोतमो उपड्डपथं आगच्छेय्य अहम्पि उपड्डपथं गच्छेय्यं । ते तत्थ उभोपि उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करेय्याम । एकं चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, द्वाहं करिस्सामि। द्वे चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्विपाटिहारियानि करिस्सति, चत्ताराहं करिस्सामि । चत्तारि चे समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियानि
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(३.१.२२-२३)
१.पाथिकसुत्तं
करिस्सति, अट्ठाहं करिस्सामि । इति यावतकं यावतकं समणो गोतमो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामी'ति । अभिक्कमस्सेव खो, आवुसो पाथिकपुत्त, उपड्डपथं । सब्बपठमंयेव आगन्त्वा समणो गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो'ति ।
२२. “एवं, भोति खो, भग्गव, सो पुरिसो तस्सा परिसाय पटिस्सुत्वा येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो, येन अचेलो पाथिकपुत्तो तेनुपसङ्कमि । उपसङ्कमित्वा अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच – 'अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कन्ता अभिज्ञाता अभिजाता लिच्छवी, अभिक्कन्ता अभिञाता अभिञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा । समणोपि गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो । भासिता खो पन ते एसा, आवुसो पाथिकपुत्त, वेसालियं परिसति वाचा - ‘समणोपि गोतमो आणवादो; अहम्पि जाणवादो। आणवादो खो पन आणवादेन अरहति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं दस्सेतुं...पे०... तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामी'ति । अभिक्कमस्सेव खो, आवुसो पाथिकपुत्त, उपड्डपथं । सब्बपठमंयेव आगन्त्वा समणो गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो'ति ।
___ “एवं वुत्ते, भग्गव, अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो'ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुं । अथ खो सो, भग्गव, पुरिसो अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच - ‘किं सु नाम ते, आवुसो पाथिकपुत्त, पावळा सु नाम ते पीठकस्मिं अल्लीना, पीठकं सु नाम ते पावळासु अल्लीनं ? 'आयामि आवुसो, आयामि आवुसो'ति वत्वा तत्थेव संसप्पसि, न सक्कोसि आसनापि वुट्ठातु'न्ति । एवम्पि खो, भग्गव, वुच्चमानो अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो'ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुं ।
२३. “यदा खो सो, भग्गव, पुरिसो अञासि - ‘पराभूतरूपो अयं अचेलो पाथिकपुत्तो । 'आयामि आवुसो, आयामि आवुसो'ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुन्ति । अथ तं परिसं आगन्त्वा एवमारोचेसि - ‘पराभूतरूपो, भो, अचेलो पाथिकपुत्तो । 'आयामि आवुसो, आयामि आवुसो'ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातु'न्ति । एवं वुत्ते, अहं, भग्गव, तं परिसं एतदवोचं- 'अभब्बो खो, आवुसो, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिळिं
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दीघनिकायो-३
(३.१.२४-२४)
अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स- 'अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिष्टुिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्य'न्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या'ति ।
पठमभाणवारो निहितो।
२४. “अथ खो, भग्गव, अञतरो लिच्छविमहामत्तो उट्ठायासना तं परिसं एतदवोच - 'तेन हि, भो, मुहत्तं ताव आगमेथ, यावाहं गच्छामि । अप्पेव नाम अहम्पि सक्कुणेय्यं अचेलं पाथिकपुत्तं इमं परिसं आनेतु'न्ति ।
“अथ खो सो, भग्गव, लिच्छविमहामत्तो येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो, येन अचेलो पाथिकपुत्तो तेनुपसङ्कमि । उपसङ्कमित्वा अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच'अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कन्तं ते सेय्यो, अभिक्कन्ता अभिञाता अभिजाता लिच्छवी, अभिक्कन्ता अभिञाता अभिञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातित्थिया समणब्राह्मणा। समणोपि गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो । भासिता खो पन ते एसा, आवुसो पाथिकपुत्त, वेसालियं परिसति वाचा - समणोपि गोतमो आणवादो...पे०... तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामीति । अभिक्कमस्सेव खो, आवुसो पाथिकपुत्त, उपड्डपथं । सब्बपठमंयेव आगन्त्वा समणो गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो । भासिता खो पनेसा, आवुसो पाथिकपुत्त, समणेन गोतमेन परिसति वाचा - अभब्बो खो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिठिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्याति । अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कमनेनेव ते जयं करिस्साम, समणस्स गोतमस्स पराजय'न्ति ।
“एवं वुत्ते, भग्गव, अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो'ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुं । अथ खो सो, भग्गव, लिच्छविमहामत्तो अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच – 'किं सु नाम ते, आवुसो पाथिकपुत्त, पावळा सु नाम ते पीठकस्मिं अल्लीना, पीठकं सु नाम ते पावळासु अल्लीनं ? 'आयामि आवुसो, आयामि आवुसो ति वत्वा तत्थेव संसप्पसि, न सक्कोसि आसनापि
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(३.१.२५-२६)
१. पाथिकसुत्तं
वुट्ठातु'न्ति । एवम्पि खो, भग्गव, वुच्चमानो अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो'ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुं ।
य
त
२५. “यदा खो सो, भग्गव, लिच्छविमहामत्तो अासि- 'पराभूतरूपो अयं अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो'ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातु'न्ति । अथ तं परिसं आगन्त्वा एवमारोचेसि - ‘पराभूतरूपो, भो, अचेलो पाथिकपुत्तो ‘आयामि आवुसो, आयामि आवुसो'ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातु'न्ति । एवं वुत्ते, अहं, भग्गव, तं परिसं एतदवोचं - 'अभब्बो खो. आवसो. अचेलो पाथिकपत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं। सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिष्टुिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्य'न्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्य । सचे पायस्मन्तानं लिच्छवीनं एवमस्स मयं अचेलं पाथिकपुत्तं वरत्ताहि बन्धित्वा गोयुगेहि आविञ्छेय्यामाति, ता वरत्ता छिज्जेय्युं पाथिकपुत्तो वा। अभब्बो पन अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिळिं अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिहिँ अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या'ति ।
२६. “अथ खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी उट्ठायासना तं परिसं एतदवोच - तेन हि, भो, मुहत्तं ताव आगमेथ, यावाहं गच्छामि; अप्पेव नाम अहम्पि सक्कुणेय्यं अचेलं पाथिकपुत्तं इमं परिसं आनेतु"न्ति ।
___ “अथ खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी येन तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो, येन अचेलो पाथिकपुत्तो तेनुपसङ्कमि । उपसङ्कमित्वा अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच - 'अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कन्तं ते सेय्यो । अभिक्कन्ता अभिञाता अभिञाता लिच्छवी, अभिक्कन्ता अभिञाता अभिञाता च ब्राह्मणमहासाला गहपतिनेचयिका नानातिथिया समणब्राह्मणा। समणोपि गोतमो आयस्मतो आरामे दिवाविहारं निसिन्नो । भासिता खो पन ते एसा, आवुसो पाथिकपुत्त, वेसालियं परिसति वाचा - समणोपि गोतमो जाणवादो...पे०... तद्दिगुणं तद्दिगुणाहं करिस्सामीति । अभिक्कमस्सेव, खो आवुसो पाथिकपुत्त, उपदपथं । सब्बपठमंयेव आगन्त्वा समणो गोतमो आयस्मतो आरामे
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दीघनिकायो-३
दिवाविहारं निसिन्नो । भासिता खो पनेसा, आवुसो पाथिकपुत्त, समणेन गोतमेन परिसति वाचा अभब्बो अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठि अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठि अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्य । सचे पायस्मन्तानं लिच्छवीनं एवमस्स मयं अचेलं पाथिकपुत्तं वरत्ताहि बन्धित्वा गोयुगेहि आविञ्छेय्यामाति । ता वरत्ता छिज्जेय्युं पाथिकपुत्तो वा । अभब्बो पन अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठि अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठि अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं आगच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्याति । अभिक्कमावुसो पाथिकपुत्त, अभिक्कमनेनेव ते जयं करिस्साम, समणस्स गोतमस्स पराजयन्ति ।
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" एवं वुत्ते, भग्गव, अचेलो पाथिकपुत्तो 'आयामि आवुसो, आयामि आसोत वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुं । अथ खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी अचेलं पाथिकपुत्तं एतदवोच - 'किं सु नाम ते, आवुसो पाथिकपुत्त, पावळा सु नाम ते पीठकस्मिं अल्लीना, पीठकं सु नाम ते पावळासु अल्लीनं ? 'आयामि आवुसो, आयामि आवुसो ति वत्वा तत्थेव संसप्पसि, न सक्कोसि आसनापि वुट्टातु 'न्ति । एवम्पि खो, भग्गव, वुच्चमानो अचेलो पाथिकपुत्तो “आयामि आवुसो, आयामि आवसोति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातुन्ति ।
(३.१.२७-२७)
२७. “यदा खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी अञ्ञासि - 'पराभूतरूपो अयं अचेलो पाथिकपुत्तो 'आयामि आवुसो, आयामि आवुसो ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, नसक्कोति आसनापि वुट्ठातुन्ति, अथ नं एतदवोच
-
'भूतपुब्बं, आवुसो पाथिकपुत्त, सीहस्स मिगरञ एतदहोसि - यंनूनाहं अञ्ञतरं वनसण्डं निस्साय आसयं कप्पेय्यं । तत्रासयं कप्पेत्वा सायन्हसमयं आसया निक्खमेय्यं, आसया निक्खमित्वा विजम्भेय्यं, विजम्भित्वा समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेय्यं समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेत्वा तिक्खत्तुं सीहनादं नदेय्यं, तिक्खत्तुं सीहनादं नदित्वा गोचराय पक्कमेय्यं । सो वरं वरं मिगसंघे वधित्वा मुदुमंसानि मुदुमंसानि भक्खयित्वा तमेव आसयं अज्झुपेय्यन्ति ।
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(३.१.२८-२९)
१.पाथिकसुत्तं
'अथ खो, आवुसो, सो सीहो मिगराजा अञ्जतरं वनसण्डं निस्साय आसयं कप्पेसि । तत्रासयं कप्पेत्वा सायन्हसमयं आसया निक्खमि, आसया निक्खमित्वा विजम्भि, विजम्भित्वा समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेसि, समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेत्वा तिक्खत्तुं सीहनादं नदि, तिक्खत्तुं सीहनादं नदित्वा गोचराय पक्कामि । सो वरं वरं मिगसङ्के वधित्वा मुदुमंसानि मुदुमंसानि भक्खयित्वा तमेव आसयं अज्झुपेसि ।
२८. 'तस्सेव खो, आवुसो पाथिकपुत्त, सीहस्स मिगरञो विघाससंवड्डो जरसिङ्गालो दित्तो चेव बलवा च । अथ खो, आवुसो, तस्स जरसिङ्गालस्स एतदहोसि'को चाहं, को सीहो मिगराजा। यंनूनाहम्पि अञ्जतरं वनसण्डं निस्साय आसयं कप्पेय्यं । तत्रासयं कप्पेत्वा सायन्हसमयं आसया निक्खमेय्यं, आसया निक्खमित्वा विजम्भेय्यं, विजम्भित्वा समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेय्यं, समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेत्वा तिक्खत्तुं सीहनादं नदेय्यं, तिक्खत्तुं सीहनादं नदित्वा गोचराय पक्कमेय्यं । सो वरं वरं मिगसङ्घ वधित्वा मुदुमंसानि मुदुमंसानि भक्खयित्वा तमेव आसयं अज्झुपेय्यन्ति ।
'अथ खो सो, आवुसो, जरसिङ्गालो अञ्जतरं वनसण्डं निस्साय आसयं कप्पेसि । तत्रासयं कप्पेत्वा सायन्हसमयं आसया निक्खमि, आसया निक्खमित्वा विजम्भि, विजम्भित्वा समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेसि, समन्ता चतुद्दिसा अनुविलोकेत्वा तिक्खत्तुं 'सीहनादं नदिस्सामी'ति सिङ्गालकंयेव अनदि । भेरण्डकंयेव अनदि, के च छवे सिङ्गाले, के पन सीहनादेति । ‘एवमेव खो त्वं, आवुसो पाथिकपुत्त, सुगतापदानेसु जीवमानो सुगतातिरित्तानि भुञ्जमानो तथागते अरहन्ते सम्मासम्बुद्धे आसादेतब्बं मञ्जसि । के च छवे पाथिकपुत्ते, का च तथागतानं अरहन्तानं सम्मासम्बुद्धानं आसादना'ति ।
२९. “यतो खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी इमिना ओपम्मेन नेव असक्खि अचेलं पाथिकपुत्तं तम्हा आसना चावेतुं । अथ नं एतदवोच -
“सीहोति अत्तानं समेक्खियान,
अमञि कोत्थु मिगराजाहमस्मि । तथेव सो सिङ्गालकं अनदि,
के च छवे सिङ्गाले के पन सीहनादे'ति ।।
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दीघनिकायो-३
(३.१.३०-३१)
‘एवमेव खो त्वं, आवुसो पाथिकपुत्त, सुगतापदानेसु जीवमानो सुगतातिरित्तानि भुञ्जमानो तथागते अरहन्ते सम्मासम्बुद्धे आसादेतब्बं मञ्जसि । के च छवे पाथिकपुत्ते, का च तथागतानं अरहन्तानं सम्मासम्बुद्धानं आसादना'ति ।
३०. “यतो खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी इमिनापि ओपम्मेन नेव असक्खि अचेलं पाथिकपुत्तं तम्हा आसना चावेतुं । अथ नं एतदवोच -
"अगं अनुचङ्कमनं, अत्तानं विघासे समेक्खिय । याव अत्तानं न पस्सति, कोत्थु ताव ब्यग्घोति मञति ।।
तथेव सो सिङ्गालकं अनदि । के च छवे सिङ्गाले के पन सीहनादे''ति ।।
'एवमेव खो त्वं, आवुसो पाथिकपुत्त, सुगतापदानेसु जीवमानो सुगतातिरित्तानि भुञ्जमानो तथागते अरहन्ते सम्मासम्बुद्धे आसादेतब्बं मञ्जसि । के च छवे पाथिकपुत्ते, का च तथागतानं अरहन्तानं सम्मासम्बुद्धानं आसादना'ति ।
___३१. “यतो खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी इमिनापि ओपम्मेन नेव असक्खि अचेलं पाथिकपुत्तं तम्हा आसना चावेतुं । अथ नं एतदवोच -
"भुत्वान भेके खलमूसिकायो,
___ कटसीसु खित्तानि च कोणपानि । महावने सुझवने विवड्डो,
अमञि कोत्थु मिगराजाहमस्मि ।।
तथेव सो सिङ्गालकं अनदि । के च छवे सिङ्गाले के पन सीहनादे''ति ।।
'एवमेव खो त्वं, आवुसो पाथिकपुत्त, सुगतापदानेसु जीवमानो सुगतातिरित्तानि
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१. पाथिकसुत्तं
भुञ्जमानो तथागते अरहन्ते सम्मासम्बुद्धे आसादेतब्बं मञ्ञसि । के च छवे पाथिकपुत्ते, का च तथागतानं अरहन्तानं सम्मासम्बुद्धानं आसादना'ति ।
(३.१.३२-३५)
३२. “ यतो खो, भग्गव, जालियो दारुपत्तिकन्तेवासी इमिनापि ओपम्मेन नेव असक्खि अचेलं पाथिकपुत्तं तम्हा आसना चावेतुं । अथ तं परिसं आगन्त्वा एवमारोचेसि – ‘पराभूतरूपो, भो, अचेलो पाथिकपुत्तो 'आयामि आवुसो, आयामि आवुसो'ति वत्वा तत्थेव संसप्पति, न सक्कोति आसनापि वुट्ठातु 'न्ति ।
३३. “एवं वुत्ते, अहं, भग्गव, तं परिसं एतदवोचं - 'अभब्बो खो, आवुसो, अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठि अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठि अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्य । सचेपायस्मन्तानं लिच्छवीनं एवमस्स- मयं अचेलं पाथिकपुत्तं वरत्ताहि बन्धित्वा नागेहि आविञ्छेय्यामाति । ता वरता छिज्जेय्युं पाथिकपुत्तो वा । अभब्बो पन अचेलो पाथिकपुत्तो तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठि अप्पटिनिस्सज्जित्वा मम सम्मुखीभावं आगन्तुं । सचेपिस्स एवमस्स - अहं तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय तं दिट्ठि अप्पटिनिस्सज्जित्वा समणस्स गोतमस्स सम्मुखीभावं गच्छेय्यन्ति, मुद्धापि तस्स विपतेय्या'ति ।
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३४. “अथ ख्वाहं, भग्गव, तं परिसं धम्मिया कथाय सन्दस्सेसिं समादपेसिं समुत्तेजेसिं सम्पहंसेसिं, तं परिसं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा महाबन्धना मोक्खं करित्वा चतुरासीतिपाणसहस्सानि महाविदुग्गा उद्धरित्वा तेजोधातुं समापज्जित्वा सत्ततालं वेहासं अब्भुग्गन्त्वा अञ्ञ सत्ततालम्पि अच्चिं अभिनिम्मिनित्वा पज्जलित्वा धूमायित्वा महावने कूटागारसालायं पच्चुट्ठासिं ।
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३५. “अथ खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो अहं, भग्गव, सुनक्खत्तं लिच्छविपुत्तं एतदवोचं - 'तं किं मञ्ञसि, सुनक्खत्त, यथेव ते अहं अतेलं पाथिकपुत्तं आरब्भ ब्याकासिं, तथेव तं विपाकं अञ्ञथा वा'ति ? 'यथेव में, भन्ते, भगवा अचेलं पाथिकपुत्तं आरब्भ ब्याकासि, तथेव तं विपाकं. नो अञ्ञथा'ति ।
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दीघनिकायो-३
(३.१.३६-३८)
___ 'तं किं मञ्जसि, सुनक्खत्त, यदि एवं सन्ते कतं वा होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं, अकतं वाति ? 'अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते कतं होति उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं, नो अकत'न्ति । ‘एवम्पि खो मं त्वं, मोघपुरिस, उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोन्तं एवं वदेसि - न हि पन मे, भन्ते, भगवा उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोतीति । पस्स, मोघपुरिस, यावञ्च ते इदं अपरद्धं'ति । “एवम्पि खो, भग्गव, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो मया वुच्चमानो अपक्कमेव इमस्मा धम्मविनया, यथा तं आपायिको नेरयिको।
अग्गजपत्तिकथा
३६. “अग्गज्ञञ्चाहं, भग्गव, पजानामि। तञ्च पजानामि, ततो च उत्तरितरं पजानामि, तञ्च पजानं न परामसामि, अपरामसतो च मे पच्चत्त व निब्बुति विदिता, यदभिजानं तथागतो नो अनयं आपज्जति।
३७. “सन्ति, भग्गव, एके समणब्राह्मणा इस्सरकुत्तं ब्रह्मकुत्तं आचरियकं अग्गजं पञपेन्ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि- 'सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो इस्सरकुत्तं ब्रह्मकुत्तं आचरियकं अग्गजं पञपेथा'ति ? ते च मे एवं पुट्ठा, 'आमो'ति पटिजानन्ति । त्याहं एवं वदामि – 'कथंविहितकं पन तुम्हे आयस्मन्तो इस्सरकुत्तं ब्रह्मकुत्तं आचरियकं अग्गनं पञपेथा'ति ? ते मया पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता मम व पटिपुच्छन्ति । तेसाहं पुट्ठो ब्याकरोमि -
३८. 'होति खो सो, आवुसो, समयो यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धनो अच्चयेन अयं लोको संवट्टति । संवट्टमाने लोके येभुय्येन सत्ता आभस्सरसंवत्तनिका होन्ति । ते तत्थ होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपा अन्तलिक्खचरा सुभट्टायिनो चिरं दीघमद्धानं तिठ्ठन्ति ।
'होति खो सो, आवुसो, समयो यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धनो अच्चयेन अयं लोको विवट्टति । विवट्टमाने लोके सुझं ब्रह्मविमानं पातुभवति । अथ खो अञ्जतरो सत्तो आयुक्खया वा पुञ्जक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा सुझं ब्रह्मविमानं
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(३.१.३९-४०)
१.पाथिकसुत्तं
उपपज्जति । सो तत्थ होति मनोमयो पीतिभक्खो सयंपभो अन्तलिक्खचरो सुभट्ठायी, चिरं दीघमद्धानं तिठ्ठति ।
'तस्स तत्थ एककस्स दीघरत्तं निवुसितत्ता अनभिरति परितस्सना उप्पज्जति - अहो वत अञपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्युन्ति । अथ अञपि सत्ता आयुक्खया वा पुञक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा ब्रह्मविमानं उपपज्जन्ति तस्स सत्तस्स सहब्यतं । तेपि तत्थ होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्टायिनो, चिरं दीघमद्धानं तिठ्ठन्ति ।
३९. 'तत्रावुसो, यो सो सत्तो पठमं उपपन्नो, तस्स एवं होति - अहमस्मि ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं, मया इमे सत्ता निम्मिता । तं किस्स हेतु ? ममहि पुब्बे एतदहोसि - अहो वत अञपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्युन्ति; इति मम च मनोपणिधि । इमे च सत्ता इत्थत्तं आगता'ति ।
'येपि ते सत्ता पच्छा उपपन्ना, तेसम्पि एवं होति- 'अयं खो भवं ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं; इमिना मयं भोता ब्रह्मना निम्मिता । तं किस्स हेतु ? इमहि मयं अद्दसाम इध पठमं उपपन्नं; मयं पनाम्ह पच्छा उपपन्ना'ति ।
४०. 'तत्रावुसो, यो सो सत्तो पठमं उपपन्नो, सो दीघायुकतरो च होति वण्णवन्ततरो च महेसक्खतरो च । ये पन ते सत्ता पच्छा उपपन्ना, ते अप्पायुकतरा च होन्ति दुब्बण्णतरा च अप्पेसक्खतरा च ।
_ 'ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्जति, यं अचतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति । इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति । अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति; ततो परं नानुस्सरति ।
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दीघनिकायो-३
(३.१.४१-४२)
‘सो एवमाह - 'यो खो सो भवं ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं, येन मयं भोता ब्रह्मना निम्मिता | सो निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो सस्सतिसमं तथेव ठस्सति । ये पन मयं अहुम्हा तेन भोता ब्रह्मना निम्मिता, ते मयं अनिच्चा अद्धवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगता'ति । एवंविहितकं नो तुम्हे आयस्मन्तो इस्सरकुत्तं ब्रह्मकुत्तं आचरियकं अग्गनं पञपेथा'ति । ते एवमाहंसु - ‘एवं खो नो, आवुसो गोतम, सुतं, यथेवायस्मा गोतमो आहा'ति । “अग्गञञ्चाहं, भग्गव, पजानामि। तञ्च पजानामि, ततो च उत्तरितरं पजानामि, तञ्च पजानं न परामसामि, अपरामसतो च मे पच्चत्त व निब्बुति विदिता। यदभिजानं तथागतो नो अनयं आपज्जति।
४१. “सन्ति, भग्गव, एके समणब्राह्मणा खिड्डापदोसिकं आचरियकं अग्गधे पञपेन्ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि- 'सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो खिड्डापदोसिकं आचरियकं अग्गञ्चं पञपेथा'ति ? ते च मे एवं पुट्ठा 'आमोति पटिजानन्ति । त्याहं एवं वदामि - ‘कथंविहितकं पन तुम्हे आयस्मन्तो खिड्डापदोसिकं आचरियकं अग्गधे पञपेथा'ति ? ते मया पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता मम व पटिपुच्छन्ति, तेसाहं पुट्ठो ब्याकरोमि -
४२. 'सन्तावुसो, खिड्डापदोसिका नाम देवा। ते अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना विहरन्ति । तेसं अतिवेलं हस्स-खिड्डा-रति-धम्मसमापन्नानं विहरतं सति सम्मुस्सति, सतिया सम्मोसा ते देवा तम्हा काया चवन्ति ।
'ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्जति, यं अञ्जतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति, इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति; ततो परं नानुस्सरति ।
'सो एवमाह - 'ये खो ते भोन्तो देवा न खिड्डापदोसिका। ते न अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना विहरन्ति । तेसं नातिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति न सम्मुस्सति, सतिया असम्मोसा ते देवा तम्हा काया न चवन्ति, निच्चा धुवा
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(३.१.४३-४४)
१.पाथिकसुत्तं
सस्सता अविपरिणामधम्मा सस्सतिसमं तथेव ठस्सन्ति । ये पन मयं अहुम्हा खिड्डापदोसिका। ते मयं अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना विहरिम्हा । तेसं नो अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति सम्मुस्सति, सतिया सम्मोसा एवं मयं तम्हा काया चुता, अनिच्चा अद्धुवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगता'ति । एवंविहितकं नो तुम्हे आयस्मन्तो खिड्डापदोसिकं आचरियकं अग्गनं पञपेथा'ति । ते एवमाहंसु - ‘एवं खो नो, आवुसो गोतम, सुतं, यथेवायस्मा गोतमो आहा'ति । अग्गजञ्चाहं, भग्गव, पजानामि, तञ्च पजानामि, ततो न उत्तरितरं पजानामि, तञ्च पजानं न परामसामि, अपरामसतो च मे पच्चत्त व निब्बुति विदिता। यदभिजानं तथागतो नो अनयं आपज्जति ।
४३. “सन्ति, भग्गव, एके समणब्राह्मणा मनोपदोसिकं आचरियकं अग्गझं पञपेन्ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि- 'सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो मनोपदोसिकं आचरियकं अग्गनं पञपेथा'ति ? ते च मे एवं पुट्ठा ‘आमो'ति पटिजानन्ति | त्याहं एवं वदामि- 'कथंविहितकं पन तुम्हे आयस्मन्तो मनोपदोसिकं आचरियकं अग्गनं पञपेथा'ति ? ते मया पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता मम व पटिपुच्छन्ति । तेसाहं पुट्ठो ब्याकरोमि
४४. 'सन्तावुसो, मनोपदोसिका नाम देवा। ते अतिवेलं अञमचं उपनिज्झायन्ति । ते अतिवेलं अञमनं उपनिज्झायन्ता अचमझम्हि चित्तानि पदूसेन्ति । ते अचमनं पदुट्ठचित्ता किलन्तकाया किलन्तचित्ता। ते देवा तम्हा काया चवन्ति ।
'ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्जति, यं अञ्जतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति । इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति । अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरति ।
‘सो एवमाह - 'ये खो ते भोन्तो देवा न मनोपदोसिका ते नातिवेलं अञमचं उपनिज्झायन्ति । ते नातिवेलं अञमधे उपनिज्झायन्ता अञमञम्हि चित्तानि नप्पदूसेन्ति । ते अञमजं अप्पदुट्ठचित्ता अकिलन्तकाया अकिलन्तचित्ता । ते देवा तम्हा
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दीघनिकायो-३
काया न चवन्ति, निच्चा धुवा सस्सता अविपरिणामधम्मा सस्सतिसमं तथेव ठस्सन्ति । ये पन मयं अहुम्हा मनोपदोसिका, ते मयं अतिवेलं अञ्ञमञ्ञ उपनिज्झायिम्हा । ते मयं अतिवेलं अञ्ञमञ्ञ उपनिज्झायन्ता अञ्ञमञ्ञम्हि चित्तानि पदूसिम्हा । ते मयं अञ्ञमञ्ञ पदुट्ठचित्ता किलन्तकाया किलन्तचित्ता । एवं मयं तम्हा काया चुता, अनिच्चा अद्भुवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थतं आगता 'ति । एवंविहितकं नो तुम्हे आयस्मन्तो मनोपदोसिकं आचरियकं अग्गञ्ञ पञ्ञपेथा'ति । ते एवमाहंसु - ' एवं खो नो, आवुसो गोतम, सुतं, यथेवायस्मा गोतमो आहा 'ति । अग्गञ्ञञ्चाहं, भग्गव, पजानामि, तञ्च पजानामि, ततो च उत्तरितरं पजानामि, तञ्च पजानं न परामसामि, अपरामसतो च मे पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता । यदभिजानं तथागतो नो अनयं आपज्जति ।
४५. “सन्ति, भग्गव, एके समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्नं आचरियकं अग्गञ पञ्ञन्ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि - 'सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो अधिच्चसमुप्पन्नं आचरियकं अग्गञ्ञ पञ्ञपेथा 'ति ? ते च मे एवं पुट्ठा 'आमो' ति पटिजानन्ति। त्याहं एवं वदामि - कथंविहितकं पन तुम्हे आयस्मन्तो अधिच्चसमुप्पन्नं आचरियकं अग्गञ्जं पञ्ञपेथा' ति ? ते मया पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता ममञ्जेव टिपुच्छन्ति । तेसाहं पुट्ठो ब्याकरोमि -
(३.१.४५-४६)
४६. ' सन्तावुसो, असञ्ञसत्ता नाम देवा । सञ्जुप्पादा च पन ते देवा तम्हा काया चवन्ति ।
'ठानं खो पनेतं, आवुसो, विज्जति । यं अञ्ञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति । इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति । अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं सम्पाद अनुसरति, ततो परं नानुसरति ।
'सो एवमाह 'अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको च । तं किस्स हेतु ? अहञ्हि पुब्बे नाहोसिं, सोम्हि एतरहि अहुत्वा सन्तताय परिणतो 'ति । एवंविहितकं नो तुम्हे आयस्मन्तो अधिच्चसमुप्पन्नं आचरियकं अग्गञ्ञ पञ्ञपेथा ति ? ते एवमाहंसु - ' एवं खो नो, आवुसो गोतम, सुतं यथेवायस्मा गोतमो आहा'ति । अग्गञ्ञञ्चाहं, भग्गव, पजानामि
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(३.१.४७-४८)
१. पाथिकसुत्तं
तञ्च पजानामि, ततो च उत्तरितरं पजानामि, तञ्च पजानं न परामसामि, अपरामसतो च मे पच्चत्त व निब्बुति विदिता। यदभिजानं तथागतो नो अनयं आपज्जति ।
४७. “एवंवादिं खो मं, भग्गव, एवमक्खायिं एके समणब्राह्मणा असता तुच्छा मुसा अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति- “विपरीतो समणो गोतमो भिक्खवो च। समणो गोतमो एवमाह - 'यस्मिं समये सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरति, सब्बं तस्मिं समये असुभन्त्वेव पजानाती' "ति । “न खो पनाहं, भग्गव, एवं वदामि – “यस्मिं समये सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरति, सब्बं तस्मिं समये असुभन्त्वेव पजानातीति । एवञ्च ख्वाहं, भग्गव, वदामि- “यस्मिं समये सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरति, सुभन्त्वेव तस्मिं समये पजानातीति ।
"ते च, भन्ते, विपरीता, ये भगवन्तं विपरीततो दहन्ति भिक्खवो च । एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति । पहोति मे भगवा तथा धम्मं देसेतुं, यथा अहं सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरेय्यन्ति ।
४८. "दुक्करं खो एतं, भग्गव, तया अञ्जदिटिकेन अञखन्तिकेन अझरुचिकेन अञ्जनायोगेन अञ्जनाचरियकेन सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरितुं। इव त्वं, भग्गव, यो च ते अयं मयि पसादो, तमेव त्वं साधुकमनुरक्खा'ति । “सचे तं, भन्ते, मया दुक्करं अञ्जदिट्टिकेन अञखन्तिकेन अरुचिकेन अञत्रायोगेन अञत्राचरियकेन सुभं विमोक्खं उपसम्पज्ज विहरितुं । यो च मे अयं, भन्ते, भगवति पसादो, तमेवाह साधुकमनुरक्खिस्सामी''ति । इदमवोच भगवा । अत्तमनो भग्गवगोत्तो परिब्बाजको भगवतो भासितं अभिनन्दीति ।
पाथिकसुत्तं निहितं पठम।
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२. उदुम्बरिकसुत्तं
निग्रोधपरिब्बाजकवत्थु
४९. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते । तेन खो पन समयेन निग्रोधो परिब्बाजको उदुम्बरिकाय परिब्बाजकारामे पटिवसति महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं तिंसमत्तेहि परिब्बाजकसतेहि । अथ खो सन्धानो गहपति दिवा दिवस्स राजगहा निक्खमि भगवन्तं दस्सनाय । अथ खो सन्धानस्स गहपतिस्स एतदहोसि - “अकालो खो भगवन्तं दस्सनाय । पटिसल्लीनो भगवा । मनोभावनीयानम्पि भिक्खूनं असमयो दस्सनाय । पटिसल्लीना मनोभावनीया भिक्खू । यंनूनाहं येन उदुम्बरिकाय परिब्बाजकारामो, येन निग्रोधो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमेय्य"न्ति । अथ खो सन्धानो गहपति येन उदुम्बरिकाय परिब्बाजकारामो, तेनुपसङ्कमि ।
५०. तेन खो पन समयेन निग्रोधो परिब्बाजको महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं निसिन्नो होति उन्नादिनिया उच्चासद्दमहासद्दाय अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया । सेय्यथिदं - राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं आतिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इथिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा ।
५१. अद्दसा खो निग्रोधो परिब्बाजको सन्धानं गहपतिं दूरतोव आगच्छन्तं । दिस्वा सकं परिसं सण्ठापेसि - "अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ । अयं समणस्स गोतमस्स सावको आगच्छति सन्धानो गहपति । यावता खो पन समणस्स गोतमस्स सावका गिही ओदातवसना राजगहे पटिवसन्ति, अयं तेसं अञ्चतरो सन्धानो गहपति ।
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(३.२.५२-५४)
२. उदुम्बरिकसुत्तं
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अप्पसद्दकामा खो पनेते आयस्मन्तो अप्पसद्दविनीता, अप्पसद्दस्स वण्णवादिनो । अप्पेव नाम अप्पसदं परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मझेय्या''ति । एवं वुत्ते ते परिब्बाजका तुण्ही अहेसुं।
५२. अथ खो सन्धानो गहपति येन निग्रोधो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा निग्रोधेन परिब्बाजकेन सद्धिं सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो सन्धानो गहपति निग्रोधं परिब्बाजकं एतदवोच"अञथा खो इमे भोन्तो अञतित्थिया परिब्बाजका सङ्गम्म समागम्म उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अनेकविहितं तिरच्छानकथं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - राजकथं...पे०... इतिभवाभवकथं इति वा। अञथा खो पन सो भगवा अरञ्जवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवति अप्पसद्दानि अप्पनिग्घोसानि विजनवातानि मनुस्सराहस्सेय्यकानि पटिसल्लानसारुप्पानी''ति ।
५३. एवं वुत्ते निग्रोधो परिब्बाजको सन्धानं गहपतिं एतदवोच- “यग्घे गहपति, जानेय्यासि, केन समणो गोतमो सद्धिं सल्लपति, केन साकच्छं समापज्जति, केन पञ्जावेय्यत्तियं समापज्जति ? सुझागारहता समणस्स गोतमस्स पा अपरिसावचरो समणो गोतमो नालं सल्लापाय । सो अन्तमन्तानेव सेवति । सेय्यथापि नाम गोकाणा परियन्तचारिनी अन्तमन्तानेव सेवति । एवमेव सुज्ञागारहता समणस्स गोतमस्स पञ्जा; अपरिसावचरो समणो गोतमो; नालं सल्लापाय। सो अन्तमन्तानेव सेवति । इच, गहपति, समणो गोतमो इमं परिसं आगच्छेय्य, एकपञ्हेनेव नं संसादेय्याम, तुच्छकुम्भीव नं मजे ओरोधेय्यामा''ति ।
५४. अस्सोसि खो भगवा दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय सन्धानस्स गहपतिस्स निग्रोधेन परिब्बाजकेन सद्धिं इमं कथासल्लापं । अथ खो भगवा गिज्झकूटा पब्बता ओरोहित्वा येन सुमागधाय तीरे मोरनिवापो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा सुमागधाय तीरे मोरनिवापे अब्भोकासे चङ्कमि । अद्दसा खो निग्रोधो परिब्बाजको भगवन्तं सुमागधाय तीरे मोरनिवापे अब्भोकासे चङ्कमन्तं । दिस्वान सकं परिसं सण्ठापेसि - “अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ, अयं समणो गोतमो सुमागधाय तीरे मोरनिवापे अब्भोकासे चङ्कमति । अप्पसद्दकामो खो पन सो आयस्मा, अप्पसद्दस्स वण्णवादी । अप्पेव नाम अप्पसदं परिसं विदित्वा उपसमितब् मझेय्य । सचे समणो
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दीघनिकायो-३
(३.२.५५-५७)
गोतमो इमं परिसं आगच्छेय्य, इमं तं पहं पुच्छेय्याम – “को नाम सो, भन्ते, भगवतो धम्मो, येन भगवा सावके विनेति, येन भगवता सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरिय''न्ति ? एवं वुत्ते ते परिब्बाजका तुण्ही अहेसुं ।
तपोजिगुच्छावादो
५५. अथ खो भगवा येन निग्रोधो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि । अथ खो निग्रोधो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच- “एतु खो, भन्ते, भगवा, स्वागतं, भन्ते, भगवतो । चिरस्सं खो, भन्ते, भगवा इमं परियायमकासि यदिदं इधागमनाय । निसीदतु, भन्ते, भगवा, इदमासनं पञत्त''न्ति । निसीदि भगवा पञत्ते आसने। निग्रोधोपि खो परिब्बाजको अञ्जतरं नीचासनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो निग्रोधं परिब्बाजकं भगवा एतदवोच- "काय नुत्थ, निग्रोध, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना, का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता"ति ? एवं वुत्ते, निग्रोधो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच, "इध मयं, भन्ते, अद्दसाम भगवन्तं सुमागधाय तीरे मोरनिवापे अब्भोकासे चङ्गमन्तं. दिस्वान एवं अवोचुम्हा- 'सचे समणो गोतमो इमं परिसं आगच्छेय्य, इमं तं पञ्हं पुच्छेय्याम- को नाम सो, भन्ते, भगवतो धम्मो, येन भगवा सावके विनेति, येन भगवता सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरियन्ति ? अयं खो नो, भन्ते, अन्तराकथा विप्पकता; अथ भगवा अनुप्पत्तो''ति ।
५६. "दुज्जानं खो एतं, निग्रोध, तया अञदिडिकेन अञखन्तिकेन अझरुचिकेन अञ्जनायोगेन अञ्जत्राचरियकेन, येनाहं सावके विनेमि, येन मया सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं । इङ्घ त्वं मं, निग्रोध, सके आचरियके अधिजेगुच्छे पऽहं पुच्छ – “कथं सन्ता नु खो, भन्ते, तपोजिगुच्छा परिपुण्णा होति, कथं अपरिपुण्णा''ति ? एवं वुत्ते ते परिब्बाजका उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अहेसुं“अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, समणस्स गोतमस्स महिद्धिकता महानुभावता, यत्र हि नाम सकवादं ठपेस्सति, परवादेन पवारेस्सती"ति ।
५७. अथ खो निग्रोधो परिब्बाजको ते परिब्बाजके अप्पसद्दे कत्वा भगवन्तं एतदवोच - "मयं खो, भन्ते, तपोजिगुच्छावादा तपोजिगुच्छासारा तपोजिगुच्छाअल्लीना
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(३.२.५७-५७)
२. उदुम्बरिकसुत्तं
विहराम। कथं सन्ता नु खो, भन्ते, तपोजिगुच्छा परिपुण्णा होति, कथं अपरिपुण्णा''ति ?
___ इध, निग्रोध, तपस्सी अचेलको होति मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो, न एहिभद्दन्तिको, न तिट्ठभद्दन्तिको, नाभिहटं, न उद्दिस्सकतं, न निमन्तनं सादियति, सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हाति, न कळोपिमुखा पटिग्गण्हाति, न एळकमन्तरं, न दण्डमन्तरं, न मुसलमन्तरं, न द्विन्नं भुञ्जमानानं, न गब्मिनिया, न पायमानाय, न पुरिसन्तरगताय, न सङ्कित्तीसु, न यत्थ सा उपट्टितो होति, न यत्थ मक्खिका सण्डसण्डचारिनी, न मच्छं, न मंसं, न सुरं, न मेरयं, न थुसोदकं पिवति, सो एकागारिको वा होति एकालोपिको, द्वागारिको वा होति द्वालोपिको, सत्तागारिको वा होति सत्तालोपिको, एकिस्सापि दत्तिया यापेति, द्वीहिपि दत्तीहि यापेति, सत्तहिपि दत्तीहि यापेति; एकाहिकम्पि आहारं आहारेति, द्वीहिकम्पि आहारं आहारेति, सत्ताहिकम्पि आहारं आहारेति, इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति । सो साकभक्खो वा होति, सामाकभक्खो वा होति, नीवारभक्खो वा होति, दडुलभक्खो वा होति, हटभक्खो वा होति, कणभक्खो वा होति, आचामभक्खो वा होति, पिञ्जाकभक्खो वा होति, तिणभक्खो वा होति. गोमयभक्खो वा होति: वनमलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी । सो साणानिपि धारेति, मसाणानिपि धारेति, छवदुस्सानिपि धारेति, पंसुकूलानिपि धारेति, तिरीटानिपि धारेति, अजिनम्पि धारेति, अजिनक्खिपम्पि धारेति, कुसचीरम्पि धारेति, वाकचीरम्पि धारेति, फलकचीरम्पि धारेति, केसकम्बलम्पि धारेति, वाळकम्बलम्पि धारेति, उलूकपक्खम्पि धारेति, केसमस्सुलोचकोपि होति केसमस्सुलोचनानुयोगमनुयुत्तो, उब्भट्ठकोपि होति आसनपटिक्खित्तो, उक्कुटिकोपि होति उक्कुटिकप्पधानमनुयुत्तो, कण्टकापस्सयिकोपि होति कण्टकापस्सये सेय्यं कप्पेति, फलकसेय्यम्पि कप्पेति, थण्डिलसेय्यम्पि कप्पेति, एकपस्सयिकोपि होति रजोजल्लधरो, अब्भोकासिकोपि होति यथासन्थतिको, वेकटिकोपि होति विकटभोजनानुयोगमनुयुत्तो, अपानकोपि होति अपानकत्तमनुयुत्तो, सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति। तं किं मञ्जसि, निग्रोध, यदि एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिपुण्णा वा होति अपरिपुण्णा वा''ति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिपुण्णा होति, नो अपरिपुण्णा'ति । “एवं परिपुण्णायपि खो अहं, निग्रोध, तपोजिगुच्छाय अनेकविहिते उपक्किलेसे वदामी''ति ।
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दीघनिकायो-३
(३.२.५८-५९)
उपक्किलेसो
५८. “यथा कथं पन, भन्ते, भगवा एवं परिपुण्णाय तपोजिगुच्छाय अनेकविहिते उपक्किलेसे वदती''ति ? “इध, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो । यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो । अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति । यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति । अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
___“पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा मज्जति मुच्छति पमादमापज्जति । यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा मज्जति मुच्छति पमादमापज्जति । अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
५९. “पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो । अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति । यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति । अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन मज्जति मुच्छति पमादमापज्जति । यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो
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(३.२.६०-६२)
(३.२.६०-६२)
२. उदुम्बरिकसुतं
२. उदुम्बरिकसुत्तं
तेन लाभसक्कारसिलोकेन मज्जति मुच्छति पमादमापज्जति । अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
६०. “पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी भोजनेसु वोदासं आपज्जति - 'इदं मे खमति, इदं मे नक्खमती'ति । सो यञ्च ख्वस्स नक्खमति, तं सापेक्खो पजहति । यं पनस्स खमति, तं गधितो मुच्छितो अज्झापन्नो अनादीनवदस्सावी अनिस्सरणपञो परिभुजति...पे०... अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति लाभसक्कारसिलोकनिकन्तिहेतु - 'सक्करिस्सन्ति मं राजानो राजमहामत्ता खत्तिया ब्राह्मणा गहपतिका तित्थिया'ति...पे०... अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
६१. “पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी अञ्जतरं समणं वा ब्राह्मणं वा अपसादेता होति- 'किं पनायं सम्बहुलाजीवो सब्बं संभक्खेति । सेय्यथिदं- मूलबीजं खन्धबीजं फळुबीजं अग्गबीजं बीजबीजमेव पञ्चमं, असनिविचक्कं दन्तकूटं, समणप्पवादेना'ति...पे०... अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी पस्सति अञ्जतरं समणं वा ब्राह्मणं वा कुलेसु सक्करियमानं गरुकरियमानं मानियमानं पूजियमानं । दिस्वा तस्स एवं होति- 'इमहि नाम सम्बहुलाजीवं कुलेसु सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति । मं पन तपस्सिं लूखाजीविं कुलेसु न सक्करोन्ति न गरुं करोन्ति न मानेन्ति न पूजेन्ती'ति, इति सो इस्सामच्छरियं कुलेसु उप्पादेता होति...पे०... अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
६२. “पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी आपाथकनिसादी होति...पे०... अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
“पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी अत्तानं अदस्सयमानो कुलेसु चरति - ‘इदम्पि मे तपस्मिं इदम्पि मे तपस्मिन्ति...पे०... अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
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दीघनिकायो-३
my
(३.२.६३-६४)
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी किञ्चिदेव पटिच्छन्नं सेवति । सो ‘खमति ते इदन्ति पुट्ठो समानो अक्खममानं आह - 'खमती'ति । खममानं आह - 'नक्खमती'ति । इति सो सम्पजानमुसा भासिता होति...पे०... अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तथागतस्स वा तथागतसावकस्स वा धम्मं देसेन्तस्स सन्तंयेव परियायं अनुज्ञेय्यं नानुजानाति...पे०... अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
६३. “पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी कोधनो होति उपनाही । यम्पि, निग्रोध, तपस्सी कोधनो होति उपनाही । अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी मक्खी होति पळासी...पे०... इस्सुकी होति मच्छरी । सठो होति मायावी । थद्धो होति अतिमानी । पापिच्छो होति पापिकानं इच्छानं वसं गतो। मिच्छादिट्ठिको होति अन्तग्गाहिकाय दिट्ठिया समन्नागतो। सन्दिट्ठिपरामासी होति आधानग्गाही दुप्पटिनिस्सग्गी । यम्पि, निग्रोध, तपस्सी सन्दिट्ठिपरामासी होति आधानग्गाही दुप्पटिनिस्सग्गी। अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति ।
"तं किं मञ्जसि, निग्रोध, यदिमे तपोजिगुच्छा उपक्किलेसा वा अनुपक्किलेसा वा"ति ? “अद्धा खो इमे, भन्ते, तपोजिगुच्छा उपक्किलेसा, नो अनुपक्किलेसा । ठानं खो पनेतं, भन्ते, विज्जति यं इधेकच्चो तपस्सी सब्बेहेव इमेहि उपक्किलेसेहि समन्नागतो अस्स; को पन वादो अञ्जतरञ्जतरेना''ति ।
परिसुद्धपपटिकप्पत्तकथा ६४. “इध, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो । यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो । एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
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(३.२.६५-६७)
२. उदुम्बरिकसुत्तं
३३
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा न अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा न मज्जति न मुच्छति न पमादमापज्जति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
६५. “पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति न परं वम्भेति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न मज्जति न मुच्छति न पमादमापज्जति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
६६. “पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी भोजनेसु न वोदासं आपज्जति - 'इदं मे खमति, इदं मे नक्खमती'ति । सो यञ्च ख्वस्स नक्खमति, तं अनपेक्खो पजहति । यं पनस्स खमति, तं अगधितो अमुच्छितो अनज्झापन्नो आदीनवदस्सावी निस्सरणपञो परिभुञ्जति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी न तपं समादियति लाभसक्कारसिलोकनिकन्तिहेतु - 'सक्करिस्सन्ति मं राजानो राजमहामत्ता खत्तिया ब्राह्मणा गहपतिका तित्थिया'ति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
६७. “पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी अञतरं समणं वा ब्राह्मणं वा नापसादेता होति- 'किं पनायं सम्बहुलाजीवो सब्बं संभक्खेति । सेय्यथिदं - मूलबीजं खन्धबीजं
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दीघनिकायो-३
(३.२.६८-६९)
दन्तकूट,
फळुबीजं अग्गबीजं बीजबीजमेव पञ्चमं, असनिविचक्कं समणप्पवादेना'ति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
“पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी पस्सति अञ्जतरं समणं वा ब्राह्मणं वा कुलेसु सक्करियमानं गरु करियमानं मानियमानं पूजियमानं । दिस्वा तस्स न एवं होति - 'इमहि नाम सम्बहुलाजीवं कुलेसु सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति । मं पन तपस्सिं लूखाजीविं कुलेसु न सक्करोन्ति न गरुं करोन्ति न मानेन्ति न पूजेन्तीति, इति सो इस्सामच्छरियं कुलेसु नुप्पादेता होति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
६८. “पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी न आपाथकनिसादी होति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी न अत्तानं अदस्सयमानो कुलेसु चरति - 'इदम्पि मे तपस्मिं, इदम्पि मे तपस्मि'न्ति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी न कञ्चिदेव पटिच्छन्नं सेवति, सो- 'खमति ते इद 'न्ति पुट्ठो समानो अक्खममानं आह - 'नक्खमती'ति । खममानं आह - 'खमतीति । इति सो सम्पजानमुसा न भासिता होति...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तथागतस्स वा तथागतसावकस्स वा धम्मं देसेन्तस्स सन्तंयेव परियायं अनुज्ञेय्यं अनुजानाएवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
६९. “पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी अक्कोधनो होति अनुपनाही । यम्पि, निग्रोध, तपस्सी अक्कोधनो होति अनुपनाही...पे०... एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
"पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी अमक्खी होति अपळासी...पे०... अनिस्सुकी होति अमच्छरी । असठो होति अमायावी । अत्थद्धो होति अनतिमानी । न पापिच्छो होति न पापिकानं इच्छानं वसं गतो। न मिच्छादिट्ठिको होति न अन्तग्गाहिकाय दिट्ठिया समन्नागतो । न सन्दिट्ठिपरामासी होति न आधानग्गाही सुप्पटिनिस्सग्गी। यम्पि, निग्रोध,
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(३.२.७०-७०)
२. उदुम्बरिकसुत्तं
तपस्सी न सन्दिट्ठिपरामासी होति न आधानग्गाही सुप्पटिनिस्सग्गी। एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति ।
"तं किं मञ्जसि, निग्रोध, यदि एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा वा होति अपरिसुद्धा वा''ति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा होति नो अपरिसुद्धा, अग्गप्पत्ता च सारप्पत्ता चा"ति । “न खो, निग्रोध, एत्तावता तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च; अपि च खो पपटिकप्पत्ता होती"ति ।
परिसुद्धतचप्पत्तकथा
७०. "कित्तावता पन, भन्ते, तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च ? साधु मे, भन्ते, भगवा तपोजिगुच्छाय अग्ग व पापेतु, सार व पापेतू''ति । “इध, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति । कथञ्च, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति ? इध, निग्रोध, तपस्सी न पाणं अतिपातेति, न पाणं अतिपातयति, न पाणमतिपातयतो समनुञो होति । न अदिन्नं आदियति, न अदिन्नं आदियापेति, न अदिन्नं आदियतो समनुञो होति । न मुसा भणति, न मुसा भणापेति, न मुसा भणतो समनुञो होति। न भावितमासीसति, न भावितमासीसापेति, न भावितमासीसतो समनुञो होति । एवं खो, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति ।
"यतो खो, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति, अदुं चस्स होति तपस्सिताय । सो अभिहरति नो हीनायावत्तति । सो विवित्तं सेनासनं भजति अरखं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुर्ज । सो पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो निसीदति पल्लवं आभुजित्वा उM कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा । सो अभिझं लोके पहाय विगताभिज्झेन चेतसा विहरति, अभिज्झाय चित्तं परिसोधेति । ब्यापादप्पदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो विहरति सब्बपाणभूतहितानुकम्पी, ब्यापादप्पदोसा चित्तं परिसोधेति । थिनमिद्धं पहाय विगतथिनमिद्धो विहरति आलोकसञी सतो सम्पजानो, थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति । उद्धच्चकुक्कुच्चं पहाय अनुद्धतो विहरति अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो, उद्धच्चकुक्कुच्चा चित्तं परिसोधेति । विचिकिच्छं पहाय तिण्णविचिकिच्छो विहरति अकथंकथी कुसलेसु धम्मेसु, विचिकिच्छाय चित्तं परिसोधेति ।
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दीघनिकायो-३
(३.२.७१-७२)
७१. “सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पाय दुब्बलीकरणे मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति । तथा दुतियं । तथा ततियं । तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति । करुणासहगतेन चेतसा...पे०... मुदितासहगतेन चेतसा...पे०... उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति । तथा दुतियं । तथा ततियं । तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति ।
__"तं किं मञ्जसि, निग्रोध । यदि एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा वा होति अपरिसुद्धा वा"ति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा होति नो अपरिसुद्धा, अग्गप्पत्ता च सारप्पत्ता चा"ति | “न खो, निग्रोध, एत्तावता तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च; अपि च खो तचप्पत्ता होती''ति ।
परिसुद्धफेग्गुप्पत्तकथा
७२. “कित्तावता पन, भन्ते, तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च? साधु मे, भन्ते, भगवा तपोजिगुच्छाय अग्ग व पापेतु, सार व पापेतू''ति । "इध, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति । कथञ्च, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति...पे०... यतो खो, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति, अदु चस्स होति तपस्सिताय । सो अभिहरति नो हीनायावत्तति । सो विवित्तं सेनासनं भजति...पे०... सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पाय दुब्बलीकरणे मेत्तासहगतेन चेतसा...पे०... करुणासहगतेन चेतसा...पे०... मुदितासहगतेन चेतसा...पे०... उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति । सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति सेय्यथिदं - एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्जासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे- 'अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादि, तत्रापासिं
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(३.२.७३-७३)
२. उदुम्बरिकसुत्तं
एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो'ति | इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति ।
"तं किं मञ्जसि, निग्रोध, यदि एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा वा होति अपरिसुद्धा वाति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा होति, नो अपरिसुद्धा, अग्गप्पत्ता च सारप्पत्ता चा''ति | “न खो, निग्रोध, एत्तावता तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च; अपि च खो फेग्गुप्पत्ता होती''ति ।
परिसुद्धअग्गप्पत्तसारप्पत्तकथा
७३. “कित्तावता पन, भन्ते, तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च ? साधु मे, भन्ते, भगवा तपोजिगुच्छाय अग्ग व पापेतु, सार व पापेतू''ति । “इध, निग्रोध. तपस्सी चातयामसंवरसंवतो होति । कथञ्च निग्रोध. तपस्सी चातयामसंवरसंवतो होति...पे०... यतो खो. निग्रोध. तपस्सी चातयामसंवरसंवतो होति. अदं चस्स होति तपस्सिताय । सो अभिहरति नो हीनायावत्तति । सो विवित्तं सेनासनं भजति...पे०... सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्जाय दुब्बलीकरणे मेत्तासहगतेन चेतसा...पे०... उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति । सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सेय्यथिदं - एकम्पि जाति द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो...पे०... इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति - ‘इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिठ्ठिका मिच्छादिट्टिकम्मसमादाना । ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना। इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्टिका सम्मादिट्टिकम्मसमादाना। ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना'ति । इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति ।
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दीघनिकायो-३
(३.२.७४-७६)
"तं किं मञ्जसि, निग्रोध, यदि एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा वा होति अपरिसुद्धा वा"ति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा होति नो अपरिसुद्धा, अग्गप्पत्ता च सारप्पत्ता चा''ति ।
७४. “एत्तावता खो, निग्रोध, तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च । इति खो, निग्रोध, यं मं त्वं अवचासि - 'को नाम सो, भन्ते, भगवतो धम्मो, येन भगवा सावके विनेति, येन भगवता सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरिय'न्ति । इति खो तं, निग्रोध, ठानं उत्तरितरञ्च पणीततरञ्च, येनाहं सावके विनेमि, येन मया सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरियन्ति ।
एवं वुत्ते, ते परिब्बाजका उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अहेसुं- “एत्थ मयं अनस्साम साचरियका, न मयं इतो भिय्यो उत्तरितरं पजानामा"ति।
निग्रोधस्स पज्झायनं ७५. यदा अञासि सन्धानो गहपति- “अञदत्थु खो दानिमे अञ्जतित्थिया परिब्बाजका भगवतो भासितं सुस्सूसन्ति, सोतं ओदहन्ति, अञाचित्तं उपट्ठापेन्तीति । अथ निग्रोधं परिब्बाजकं एतदवोच - "इति खो, भन्ते निग्रोध, यं मं त्वं अवचासि - 'यग्घे, गहपति, जानेय्यासि, केन समणो गोतमो सद्धिं सल्लपति, केन साकच्छं समापज्जति, केन पञ्जावेय्यत्तियं समापज्जति, सुझागारहता समणस्स गोतमस्स पञ्जा, अपरिसावचरो समणो गोतमो नालं सल्लापाय, सो अन्तमन्तानेव सेवति; सेय्यथापि नाम गोकाणा परियन्तचारिनी अन्तमन्तानेव सेवति । एवमेव सुझागारहता समणस्स गोतमस्स पञ्जा, अपरिसावचरो समणो गोतमो नालं सल्लापाय; सो अन्तमन्तानेव सेवति; इच, गहपति, समणो गोतमो इमं परिसं आगच्छेय्य, एकपज्हेनेव नं संसादेय्याम, तुच्छकुम्भीव नं मझे ओरोधेय्यामा'ति । अयं खो सो, भन्ते, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो इधानुप्पत्तो, अपरिसावचरं पन नं करोथ, गोकाणं परियन्तचारिनिं करोथ, एकपञ्हेनेव नं संसादेथ, तुच्छकुम्भीव नं ओरोधेथा''ति ।
७६. एवं वुत्ते, निग्रोधो परिब्बाजको तुण्हीभूतो मङ्कुभूतो पत्तक्खन्धो अधोमुखो
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२. उदुम्बरिकसुतं
पज्झायन्तो अप्पटिभानो निसीदि । अथ खो भगवा निग्रोधं परिब्बाजकं तुम्हीभूतं मङ्कुभूतं पत्तक्खन्धं अधोमुखं पज्झायन्तं अप्पटिभानं विदित्वा निग्रोधं परिब्बाजकं एतदवोच"सच्चं किर, निग्रोध, भासिता ते एसा वाचा" ति ? " सच्चं, भन्ते, भासिता मे एसा वाचा, यथाबालेन यथामूळ्हेन यथाअकुसलेना "ति । " तं किं मञ्ञसि, निग्रोध । किन्ति ते सुतं परिब्बाजानं वुड्ढानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं - 'ये ते अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा एवं सु ते भगवन्तो संगम्म समागम्म उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अनेकविहितं तिरच्छानकथं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - राजकथं चोरकथं...पे०... इतिभवाभवकथं इति वा । सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको । उदाहु एवं सु ते भगवन्तो अरञ्ञवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवन्ति अप्पसद्दानि अप्पनिग्घोसानि विजनवातानि मनुस्सराहस्सेय्यकानि पटिसल्लानसारुप्पानि, सेय्यथापाहं एतरही 'ति ।
(३.२.७७-७७)
"सुतं मेतं, भन्ते । परिब्बाजकानं वुड्ढानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं - 'ये ते अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, न एवं सुते भगवन्तो संगम्म समागम्म उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अनेकविहितं तिरच्छानकथं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - राजकथं चोरकथं ... पे०... इतिभवाभवकथं इति वा, सेय्यथापाहं एतरहि साचरियको । एवं सु ते भगवन्तो अरञ्ञवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवन्ति अप्पसद्दान अप्पनिग्घोसानि विजनवातानि मनुस्सराहस्सेय्यकानि पटिसल्लानसारूप्पानि, सेय्यथापि भगवा एतरही "ति ।
I
" तस्स ते, निग्रोध, विञ्ञस्स सतो महल्लकस्स न एतदहोसि - 'बुद्धो सो भगवा बोधाय धम्मं देसेति, दन्तो सो भगवा दमथाय धम्मं देसेति, सन्तो सो भगवा समथाय धम्मं देसेति, तिण्णो सो भगवा तरणाय धम्मं देसेति, परिनिब्बुतो सो भगवा परिनिब्बानाय धम्मं देसेती' "ति ?
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ब्रह्मचरियपरियोसानसच्छिकिरिया
७७. एवं वुत्ते, निग्रोधो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच - “ अच्चयो मं, भन्ते, अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, य्वाहं एवं भगवन्तं अवचासिं । तस्स में, भन्ते, भगवा अच्चयं अच्चयतो पटिग्गण्हातु आयतिं संवराया'ति । " तग्घ त्वं, निग्रोध,
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दीघनिकायो-३
(३.२.७८-७८)
अच्चयो अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, यो मं त्वं एवं अवचासि । यतो च खो त्वं, निग्रोध, अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मं पटिकरोसि, तं ते मयं पटिग्गण्हाम | वुद्धि हेसा, निग्रोध, अरियस्स विनये, यो अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मपटिकरोति आयतिं संवरं आपज्जति । अहं खो पन, निग्रोध, एवं वदामि -
'एतु विजू पुरिसो असठो अमायावी उजुजातिको, अहमनुसासामि अहं धम्म देसेमि। यथानुसिटुं तथा पटिपज्जमानो, यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति सत्तवस्सानि । तिठ्ठन्तु, निग्रोध, सत्त वस्सानि । एतु विञ्जू पुरिसो असठो अमायावी उजुजातिको, अहमनुसासामि अहं धम्म देसेमि । यथानुसिटुं तथा पटिपज्जमानो, यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति छ वस्सानि । पञ्च वस्सानि । चत्तारि वस्सानि । तीणि वस्सानि । द्वे वस्सानि । एकं वस्सं । तिठ्ठतु, निग्रोध, एकं वस्सं । एतु विजू पुरिसो असठो अमायावी उजुजातिको अहमनुसासामि अहं धम्मं देसेमि | यथानुसिटुं तथा पटिपज्जमानो, यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव · अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिढेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति सत्त मासानि । तिट्ठन्तु, निग्रोध, सत्त मासानि । छ मासानि | पञ्च मासानि । चत्तारि मासानि । तीणि मासानि । द्वे मासानि । एकं मासं । अड्डमासं । तिद्वतु, निग्रोध, अड्डमासो, एतु विजू पुरिसो असठो अमायावी उजुजातिको, अहमनुसासामि अहं धम्म देसेमि । यथानुसिटुं तथा पटिपज्जमानो, यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति सत्ताहं ।
परिब्बाजकानं पज्झायनं
७८. “सिया खो पन ते, निग्रोध, एवमस्स - ‘अन्तेवासिकम्यता नो समणो गोतमो एवमाहा'ति । न खो पनेतं, निग्रोध, एवं दट्टब्बं । यो एव वो आचरियो, सो एव वो आचरियो होतु । सिया खो पन ते, निग्रोध, एवमस्स - ‘उद्देसा नो चावेतुकामो समणो गोतमो एवमाहा'ति । न खो पनेतं, निग्रोध, एवं दट्टब्बं । यो एव वो उद्देसो सो एव वो उद्देसो होतु । सिया खो पन ते, निग्रोध, एवमस्स- 'आजीवा नो
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२. उदुम्बरक
चावेतुकामो समणो गोतमो एवमाहा'ति । न खो पनेतं, निग्रोध, एवं दट्ठब्बं । यो एव वो आजीवो, सो एव वो आजीवो होतु । सिया खो पन ते, निग्रोध, एवमस्स - 'ये नो धम्मा अकुसला अकुसलसङ्घाता साचरियकानं, तेसु पतिट्ठापेतुकामो समणो गोतमो एवमाहा'ति । न खो पनेतं, निग्रोध, एवं दट्ठब्बं । अकुसला चेव वो ते धम्मा होन्तु अकुसलसङ्घाता च साचरियकानं । सिया खो पन ते, निग्रोध, एवमस्स - 'ये नो धम्मा कुसला कुसलसङ्घाता साचरियकानं, तेहि विवेचेतुकामो समणो गोतमो एवमाहा'ति । न खो पनेतं, निग्रोध, एवं दट्ठब्बं । कुसला चेव वो ते धम्मा होन्तु कुसलसङ्घाता च साचरियकानं । इति ख्वाहं, निग्रोध, नेव अन्तेवासिकम्यता एवं वदामि, नपि उद्देसा चावेतुकामो एवं वदामि, नपि आजीवा चावेतुकामो एवं वदामि, नपि ये वो धम्मा अकुसला अकुसलसङ्घाता साचरियकानं, तेसु पतिट्ठापेतुकामो एवं वदामि, नपि ये वो धम्मा कुसला कुसलसङ्घाता साचरियकानं, तेहि विवेचेतुकामो एवं वदामि । सन्ति च खो, निग्रोध, अकुसला धम्मा अप्पहीना संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया, येसाहं पहानाय धम्मं देसेमि । यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानीया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञ सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा "ति ।
(३.२.७९-७९)
७९. एवं वुत्ते, ते परिब्बाजका तुम्हीभूता मङ्कुभूता पत्तक्खन्धा अधोमुखा पज्झायन्ता अप्पटिभाना निसीदिंसु यथा तं मारेन परियुट्ठितचित्ता । अथ खो भगवतो एतदहोसि – “सब्बे पिमे मोघपुरिसा फुट्ठा पापिमता । यत्र हि नाम एकस्सपि न एवं भविस्सति- 'हन्द मयं अञ्ञाणत्थम्पि समणे गोतमे ब्रह्मचरियं चराम, किं करिस्सति सत्ताहो' "ति ? अथ खो भगवा उदुम्बरिकाय परिब्बाजकारामे सीहनादं नदित्वा वेहासं अब्भुग्गन्त्वा गिज्झकूटे पब्बते पच्चुपट्टासि । सन्धानो पन गहपति तावदेव राजगहं पाविसीति ।
उदुम्बरिकत्तं नितिं दुतियं ।
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३. चक्कवत्तिसुत्तं
अत्तदीपसरणता
८०. एवं मे सुतं एकं समयं भगवा मगधेसु विहरति मातुलायं । तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - “भिक्खवो 'ति । “भद्दन्ते 'ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच - "अत्तदीपा, भिक्खवे, विहरथ अत्तसरणा अनञ्ञसरणा, धम्मदीपा धम्मसरणा अनञ्ञसरणा । कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्ञसरणी, धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्ञसरणो ? इध, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्ञसरणो, धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्ञसरणो ।
"गोचरे, भिक्खवे, चरथ सके पेत्तिके विसये। गोचरे, भिक्खवे, चरतं सके पेत्तिके विसये न च्छति मारो ओतारं, न लच्छति मारो आरम्मणं । कुसलानं, भिक्खवे, धम्मानं समादान हेतु एवमिदं पुञ पवड्डति ।
दळ्हनेमिचक्कवत्तिराजा
८१. “भूतपुब्बं भिक्खवे, राजा दलहनेमि नाम अहोसि चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो । तस्सिमानि सत्त
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(३.३.८२-८३)
३. चक्कवत्तिसुत्तं
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रतनानि अहेसु सेय्यथिदं - चक्करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं । परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता अहेसुं सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना । सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसि ।
८२. “अथ खो, भिक्खवे, राजा दळहनेमि बहुन्नं वस्सानं बहुन्नं वस्ससतानं बहुन्नं वस्ससहस्सानं अच्चयेन अञ्जतरं पुरिसं आमन्तेसि - ‘यदा त्वं, अम्भो पुरिस, पस्सेय्यासि दिब्बं चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुतं, अथ मे आरोचेय्यासी'ति । ‘एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, सो पुरिसो रओ दळहनेमिस्स पच्चस्सोसि । अद्दसा खो, भिक्खवे, सो पुरिसो बहुन्नं वस्सानं बहुन्नं वस्ससतानं बहुन्नं वस्ससहस्सानं अच्चयेन दिब्बं चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुतं, दिस्वान येन राजा दळहनेमि तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजानं दळहनेमि एतदवोच – 'यग्घे, देव, जानेय्यासि, दिब्बं ते चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुत'न्ति । 'अथ खो, भिक्खवे, राजा दळहनेमि जेट्टपुत्तं कुमारं आमन्तापेत्वा एतदवोच - 'दिब्बं किर मे, तात कुमार, चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुतं । सुतं खो पन मेतं - यस्स रञो चक्कवत्तिस्स दिब्बं चक्करतनं ओसक्कति ठाना चवति, न दानि तेन रञा चिरं जीवितब्बं होती'ति । भुत्ता खो पन मे मानुसका कामा, समयो दानि मे दिब्बे कामे परियेसितुं । एहि त्वं, तात कुमार, इमं समुद्दपरियन्तं पथविं पटिपज्ज । अहं पन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामी'ति ।
८३. “अथ खो, भिक्खवे, राजा दळहनेमि जेठ्ठपुत्तं कुमारं साधुकं रज्जे समनुसासित्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि । सत्ताहपब्बजिते खो पन, भिक्खवे, राजिसिम्हि दिब्बं चक्करतनं अन्तरधायि ।
“अथ खो, भिक्खवे, अञतरो पुरिसो येन राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजानं खत्तियं मुद्धाभिसित्तं एतदवोच - ‘यग्घे, देव, जानेय्यासि, दिब्बं चक्करतनं अन्तरहित'न्ति । अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो दिब्बे चक्करतने अन्तरहिते अनत्तमनो अहोसि, अनत्तमनतञ्च पटिसंवेदेसि । सो येन राजिसि तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजिसिं एतदवोच – 'यग्घे, देव, जानेय्यासि, दिब् चक्करतनं अन्तरहित न्ति । एवं वुत्ते, भिक्खवे, राजिसि राजानं
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दीघनिकायो-३
(३.३.८४-८५)
खत्तियं मुद्धाभिसित्तं एतदवोच - ‘मा खो त्वं, तात, दिब्बे चक्करतने अन्तरहिते अनत्तमनो अहोसि, मा अनत्तमनतञ्च पटिसंवेदेसि, न हि ते, तात, दिब्बं चक्करतनं पेत्तिकं दायज्जं। इङ्घ त्वं, तात, अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्ताहि । ठानं खो पनेतं विज्जति, यं ते अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्तमानस्स तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातस्स उपोसथिकस्स उपरिपासादवरगतस्स दिब्बं चक्करतनं पातुभविस्सति सहस्सारं सनेमिकं सनाभिकं सब्बाकारपरिपूर'न्ति ।
चक्कवत्तिअरियवत्तं ८४. 'कतमं पन तं, देव, अरियं चक्कवत्तिवत्त'न्ति ? 'तेन हि त्वं, तात, धम्मंयेव निस्साय धम्मं सक्करोन्तो धम्मं गरुं करोन्तो धम्मं मानेन्तो धम्मं पूजेन्तो धम्म अपचायमानो धम्मद्धजो धम्मकेतु धम्माधिपतेय्यो धम्मिकं रक्खावरणगुत्तिं संविदहस्सु अन्तोजनस्मिं बलकायस्मिं खत्तियेसु अनुयन्तेसु ब्राह्मणगहपतिकेसु नेगमजानपदेसु समणब्राह्मणेसु मिगपक्खीसु । मा च ते, तात, विजिते अधम्मकारो पवत्तित्थ | ये च ते, तात, विजिते अधना अस्सु, तेसञ्च धनमनुप्पदेय्यासि । ये च ते, तात, विजिते समणब्राह्मणा मदप्पमादा पटिविरता खन्तिसोरच्चे निविठ्ठा एकमत्तानं दमेन्ति, एकमत्तानं समेन्ति, एकमत्तानं परिनिब्बापेन्ति । ते कालेन कालं उपसङ्कमित्वा परिपुच्छेय्यासि परिग्गण्हेय्यासि - किं, भन्ते, कुसलं, किं अकुसलं, किं सावज्जं, किं अनवज्जं, किं सेवितब्बं, किं न सेवितब्ब, किं मे करीयमानं दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय अस्स, किं वा पन मे करीयमानं दीघरत्तं हिताय सुखाय अस्साति ? तेसं सुत्वा यं अकुसलं तं अभिनिवज्जेय्यासि, यं कुसलं तं समादाय वत्तेय्यासि । इदं खो, तात, तं अरियं चक्कवत्तिवत्त'न्ति ।
चक्करतनपातुभावो ८५. “ ‘एवं, देवाति खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो राजिसिस्स पटिस्सुत्वा अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्ति । तस्स अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्तमानस्स तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातस्स उपोसथिकस्स उपरिपासादवरगतस्स दिब्बं चक्करतनं पातुरहोसि सहस्सारं सनेमिकं सनाभिकं सब्बाकारपरिपूरं | दिस्वान रो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स एतदहोसि - 'सुतं खो पन मेतं - यस्स रो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स
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(३.३.८६-८७)
३. चक्कवत्तित्तं
तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातस्स उपोसथिकस्स उपरिपासादवरगतस्स दिब्बं चक्करतनं पातुभवति सहस्सारं सनेमिकं सनाभिकं सब्बाकारपरिपूरं, सो होति राजा चक्कवत्ती 'ति । अस्सं नु खो अहं राजा चक्कवत्ती 'ति ।
"अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो उट्ठायासना एकंसं उतरासङ्गं करित्वा वामेन हत्थेन भिङ्कारं गहेत्वा दक्खिणेन हत्थेन चक्करतनं अब्भुक्किरि - 'पवत्ततु भवं चक्करतनं, अभिविजिनातु भवं चक्करतन 'न्ति ।
"अथ खो तं, भिक्खवे, चक्करतनं पुरत्थिमं दिसं पवत्ति, अन्वदेव राजा चक्कवत्ती सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय । यस्मिं खो पन, भिक्खवे, पदेसे चक्करतनं पतिट्ठासि, तत्थ राजा चक्कवत्ती वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय । ये खो पन, भिक्खवे, पुरत्थमाय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं चक्कवत्तिं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु - 'एहि खो, महाराज, स्वागतं ते महाराज, सकं ते, महाराज, अनुसास, महाराजा'ति । राजा चक्कवत्ती एवमाह 'पाणो न हन्तब्बी, अदिन्नं नादातब्बं, कामेसुमिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भासितब्बा, मज्जं न पातब्बं, यथाभुत्तञ्च भुञ्जथा 'ति । ये खो पन, भिक्खवे, पुरत्थिमाय दिसाय पटिराजानो, ते रज्ञो चक्कवत्तिस्स अनुयन्ता असुं ।
८६. "अथ खो तं, भिक्खवे, चक्करतनं पुरत्थिमं समुद्दं अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा दक्खिणं दिसं पवत्ति...पे०... दक्खिणं समुद्दं अज्झोगाहेत्वा परिवा पच्छिमं दिसं पवत्ति, अन्वदेव राजा चक्कवत्ती सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय । यस्मिं खो पन, भिक्खवे, पदेसे चक्करतनं पतिट्ठासि, तत्थ राजा चक्कवत्ती वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय । ये खो पन, भिक्खवे, पच्छिमाय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं चक्कवत्तिं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु - 'एहि खो, महाराज, स्वागतं ते, महाराज, सकं ते, महाराज, अनुसास, महाराजा'ति । राजा चक्कवत्ती एवमाह 'पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं नादातब्बं, कामेसुमिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भासितब्बा, मज्जं न पातब्बं, यथाभुक्तञ्च भुञ्जथा 'ति । ये खो पन, भिक्खवे, पच्छिमाय दिसाय पटिराजानो, ते रञ्ञो चक्कवत्तिस्स अनुयन्ता अहेसुं ।
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८७. "अथ खो तं, भिक्खवे, चक्करतनं पच्छिमं समुदं अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा उत्तरं दिसं पवत्ति, अन्वदेव राजा चक्कवत्ती सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय ।
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दीघनिकायो-३
(३.३.८८-८९)
यस्मिं खो पन, भिक्खवे, पदेसे चक्करतनं पतिहासि, तत्थ राजा चक्कवत्ती वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय । ये खो पन, भिक्खवे, उत्तराय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं चक्कवत्तिं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु- ‘एहि खो, महाराज, स्वागतं ते, महाराज, सकं ते, महाराज, अनुसास, महाराजा'ति । राजा चक्कवत्ती एवमाह - ‘पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं नादातब्, कामेसुमिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भासितब्बा, मज्जं न पातब्बं, यथाभुत्तञ्च भुञ्जथा'ति । ये खो पन, भिक्खवे, उत्तराय दिसाय पटिराजानो, ते रो चक्कवत्तिस्स अनुयन्ता अहेसुं।
“अथ खो तं, भिक्खवे, चक्करतनं समुद्दपरियन्तं पथविं अभिविजिनित्वा तमेव राजधानिं पच्चागन्त्वा रञो चक्कवत्तिस्स अन्तेपुरद्वारे अत्थकरणपमुखे अक्खाहतं मजे अट्ठासि रञो चक्कवत्तिस्स अन्तेपुरं उपसोभयमानं ।
दुतियादिचक्कवत्तिकथा
८८. “दुतियोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती...पे०... ततियोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती । चतुत्थोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती। पञ्चमोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती। छट्ठोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती। सत्तमोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती बहुन्नं वस्सानं बहुन्नं वस्ससतानं बहुन्नं वस्ससहस्सानं अच्चयेन अञतरं पुरिसं आमन्तेसि- यदा त्वं, अम्भो पुरिस, पस्सेय्यासि दिब्बं चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुतं, अथ मे आरोचेय्यासी''ति । ‘एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, सो पुरिसो रो चक्कवत्तिस्स पच्चस्सोसि । अद्दसा खो, भिक्खवे, सो पुरिसो बहुन्नं वस्सानं बहुन्नं वस्ससतानं बहुन्नं वस्ससहस्सानं अच्चयेन दिब्बं चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुतं । दिस्वान येन राजा चक्कवत्ती तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजानं चक्कवत्तिं एतदवोच – 'यग्घे, देव, जानेय्यासि, दिब् ते चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुत'न्ति ?
८९. “अथ खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती जेट्टपुत्तं कुमारं आमन्तापेत्वा एतदवोच – 'दिब्बं किर मे, तात कुमार, चक्करतनं ओसक्कितं, ठाना चुतं, सुतं खो पन मेतं - यस्स रञो चक्कवत्तिस्स दिब्बं चक्करतनं ओसक्कति, ठाना चवति, न दानि तेन रञा चिरं जीवितब्बं होतीति । भुत्ता खो पन मे मानुसका कामा, समयो दानि मे दिब्बे कामे परियेसितुं, एहि त्वं, तात कुमार, इमं समुद्दपरियन्तं पथविं
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(३.३.९०-९१)
३. चक्कवत्तिसुत्तं
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पटिपज्ज । अहं पन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामी'ति ।
“अथ खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती जेट्ठपुत्तं कुमारं साधुकं रज्जे समनुसासित्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि । सत्ताहपब्बजिते खो पन, भिक्खवे, राजिसिम्हि दिब्बं चक्करतनं अन्तरधायि ।
९०. “अथ खो, भिक्खवे, अञ्जतरो पूरिसो येन राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजानं खत्तियं मुद्धाभिसित्तं एतदवोच- 'यग्घे, देव, जानेय्यासि, दिब्बं चक्करतनं अन्तरहित'न्ति ? अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मद्धाभिसित्तो दिब्बे चक्करतने अन्तरहिते अनत्तमनो अहोसि । अनत्तमनतञ्च पटिसंवेदेसि; नो च खो राजिसिं उपसङ्कमित्वा अरियं चक्कवत्तिवत्तं पुच्छि। सो समतेनेव सुदं जनपदं पसासति । तस्स समतेन जनपदं पसासतो पुब्बेनापरं जनपदा न पब्बन्ति, यथा तं पुब्बकानं राजूनं अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्तमानानं ।
“अथ खो, भिक्खवे, अमच्चा पारिसज्जा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका मन्तस्साजीविनो सन्निपतित्वा राजानं खत्तियं मुद्धाभिसित्तं एतदवोचुं- 'न खो ते, देव, समतेन (सुदं) जनपदं पसासतो पुब्बेनापरं जनपदा पब्बन्ति, यथा तं पुब्बकानं राजूनं अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्तमानानं । संविज्जन्ति खो ते, देव, विजिते अमच्चा पारिसज्जा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका मन्तस्साजीविनो मयञ्चेव अझे च ये मयं अरियं चक्कवत्तिवत्तं धारेम । इङ्घ त्वं, देव, अम्हे अरियं चक्कवत्तिवत्तं पुच्छ। तस्स ते मयं अरियं चक्कवत्तिवत्तं पुट्ठा ब्याकरिस्सामा'ति ।
आयुवण्णादिपरियानिकथा ९१. “अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो अमच्चे पारिसज्जे गणकमहामत्ते अनीकडे दोवारिके मन्तस्साजीविनो सन्निपातेत्वा अरियं चक्कवत्तिवत्तं पुच्छि। तस्स ते अरियं चक्कवत्तिवत्तं पुट्ठा ब्याकरिंसु । तेसं सुत्वा धम्मिकहि खो रक्खावरणगुत्तिं संविदहि, नो च खो अधनानं धनमनुप्पदासि। अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि । दालिद्दिये वेपुल्लं गते अञ्जतरो पुरिसो परेसं
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४८
दीघनिकायो-३
(३.३.९२-९२)
अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियि । तमेनं अग्गहेसुं । गहेत्वा रञ्जो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स दस्सेसुं- 'अयं, देव, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियी'ति । एवं वुत्ते, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तं पुरिसं एतदवोच – 'सच्चं किर त्वं, अम्भो पुरिस, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी'ति ? 'सच्चं, देवा'ति । 'किं कारणा'ति ? 'न हि, देव, जीवामी'ति । “अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तस्स पुरिसस्स धनमनुप्पदासि - ‘इमिना त्वं, अम्भो पुरिस, धनेन अत्तना च जीवाहि, मातापितरो च पोसेहि, पुत्तदारञ्च पोसेहि, कम्मन्ते च पयोजेहि, समणब्राह्मणेसु उद्धग्गिकं दक्खिणं पतिट्ठापेहि सोवग्गिकं सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिक'न्ति । ‘एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, सो पुरिसो रञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स पच्चस्सोसि ।
"अञतरोपि खो, भिक्खवे, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियि । तमेनं अग्गहेसुं । गहेत्वा रो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स दस्सेसुं- 'अयं, देव, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी'ति । ‘एवं वुत्ते, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तं पुरिसं एतदवोच- 'सच्चं किर त्वं, अम्भो पुरिस, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी'ति ? 'सच्चं, देवा'ति । 'किं कारणा'ति ? 'न हि, देव, जीवामी'ति । “अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तस्स पुरिसस्स धनमनुप्पदासि- 'इमिना त्वं, अम्भो पुरिस, धनेन अत्तना च जीवाहि, मातापितरो च पोसेहि, पुत्तदारञ्च पोसेहि, कम्मन्ते च पयोजेहि, समणब्राह्मणेसु उद्धग्गिकं दक्खिणं पतिट्ठापेहि सोवग्गिकं सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिक'न्ति । ‘एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, सो पुरिसो रो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स पच्चस्सोसि ।
९२. “अस्सोसुं खो, भिक्खवे, मनुस्सा - 'ये किर, भो, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियन्ति, तेसं राजा धनमनुप्पदेती' "ति । सुत्वान तेसं एतदहोसि - 'यंनून मयम्पि परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियेय्यामा'ति । अथ खो, भिक्खवे, अञतरो पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियि । तमेनं अग्गहेसुं। गहेत्वा रो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स दस्सेसुं- 'अयं, देव, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियी'ति । ‘एवं वुत्ते, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तं पुरिसं एतदवोच - 'सच्चं किर त्वं, अम्भो पुरिस, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी'ति ? 'सच्चं, देवा'ति । 'किं कारणा'ति ? 'न हि, देव, जीवामी'ति । “अथ खो, भिक्खवे, रो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स एतदहोसि - ‘सचे खो अहं यो यो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियिस्सति, तस्स तस्स धनमनुप्पदस्सामि,
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(३.३.९३-९४)
३. चक्कवत्तिसुत्तं
एवमिदं अदिन्नादानं पवड्विस्सति । यंनूनाहं इमं पुरिसं सुनिसेधं निसेधेय्यं, मूलघच्चं करेय्यं, सीसमस्स छिन्देय्य'न्ति । अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो पुरिसे आणापेसि - ‘तेन हि, भणे, इमं पुरिसं दळ्हाय रज्जुया पच्छाबाहं गाळहबन्धनं बन्धित्वा खुरमुण्डं करित्वा खरस्सरेन पणवेन रथिकाय रथिकं सिङ्घाटकेन सिङ्घाटकं परिनेत्वा दक्खिणेन द्वारेन निक्खमित्वा दक्खिणतो नगरस्स सुनिसेधं निसेधेथ, मूलघच्चं करोथ, सीसमस्स छिन्दथा'ति । ‘एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, ते पुरिसा रो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स पटिस्सुत्वा तं पुरिसं दळहाय रज्जुया पच्छाबाहं गाळहबन्धनं बन्धित्वा खुरमुण्डं करित्वा खरस्सरेन पणवेन रथिकाय रथिकं सिङ्घाटकेन सिङ्घाटकं परिनेत्वा दक्खिणेन द्वारेन निक्खमित्वा दक्खिणतो नगरस्स सुनिसेधं निसेधेसुं, मूलघच्चं अकंसु, सीसमस्स छिन्दिंसु ।
९३. “अस्सोसुं खो, भिक्खवे, मनुस्सा - 'ये किर, भो, परेसं अदिन्नं थेय्यसवातं आदियन्ति, ते राजा सुनिसेधं निसेधेति, मूलघच्चं करोति, सीसानि तेसं छिन्दती'ति । सुत्वान तेसं एतदहोसि - ‘यंनून मयम्पि तिहानि सत्थानि कारापेस्साम, तिण्हानि सत्थानि कारापेत्वा येसं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियिस्साम, ते सुनिसेधं निसेधेस्साम, मूलघच्चं करिस्साम, सीसानि तेसं छिन्दिस्सामा'ति । ते तिहानि सत्थानि कारापेसं, तिण्हानि सत्थानि कारापेत्वा गामघातम्पि उपक्कमिंसु कातुं, निगमघातम्पि उपक्कमिंसु कातुं, नगरघातम्पि उपक्कमिंसु कातुं, पन्थदुहनम्पि उपक्कमिंसु कातुं। येसं ते अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियन्ति, ते सुनिसेधं निसेधेन्ति, मूलघच्चं करोन्ति, सीसानि तेसं छिन्दन्ति ।
__९४. “इति खो, भिक्खवे, अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि, दालिद्दिये वेपुल्लं गते अदिन्नादानं वेपुल्लमगमासि, अदिन्नादाने वेपुल्लं गते सत्थं वेपुल्लमगमासि, सत्थे वेपुल्लं गते पाणातिपातो वेपुल्लमगमासि, पाणातिपाते वेपुल्लं गते तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि । तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं असीतिवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं चत्तारीसवस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं ।
“चत्तारीसवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अञतरो पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियि । तमेनं अग्गहेसुं । गहेत्वा रञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स दस्सेसुं'अयं, देव, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियी'ति । एवं वुत्ते, भिक्खवे, राजा
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दीघनिकायो-३
(३.३.९५-९७)
खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तं पुरिसं एतदवोच – 'सच्चं किर त्वं, अम्भो पुरिस, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियी'ति ? 'न हि, देवा'ति सम्पजानमुसा अभासि।
९५. “इति खो, भिक्खवे, अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि | दालिद्दिये वेपुल्लं गते अदिन्नादानं वेपुल्लमगमासि, अदिन्नादाने वेपुल्लं गते सत्थं वेपुल्लमगमासि । सत्थे वेपुल्लं गते पाणातिपातो वेपुल्लमगमासि, पाणातिपाते वेपुल्लं गते मुसावादो वेपुल्लमगमासि, मुसावादे वेपुल्लं गते तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि । तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं चत्तारीसवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं वीसतिवस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं ।
___ “वीसतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अञ्जतरो पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियि । तमेनं अञ्जतरो पुरिसो रो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स आरोचेसि - 'इत्थन्नामो, देव, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियी ति पेसुञमकासि ।
९६. “इति खो, भिक्खवे, अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि । दालिद्दिये वेपुल्लं गते अदिन्नादानं वेपुल्लमगमासि, अदिन्नादाने वेपुल्लं गते सत्थं वेपुल्लमगमासि, सत्थे वेपुल्लं गते पाणातिपातो वेपुल्लमगमासि, पाणातिपाते वेपुल्लं गते मुसावादो वेपुल्लमगमासि, मुसावादे वेपुल्लं गते पिसुणा वाचा वेपुल्लमगमासि, पिसुणाय वाचाय वेपुल्लं गताय तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि । तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं वीसतिवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं दसवस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं ।
"दसवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु एकिदं सत्ता वण्णवन्तो होन्ति, एकिदं सत्ता दुब्बण्णा। तत्थ ये ते सत्ता दुब्बण्णा, ते वण्णवन्ते सत्ते अभिज्झायन्ता परेसं दारेसु चारित्तं आपज्जिंसु ।
९७. “इति खो, भिक्खवे, अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि। दालिद्दिये वेपुल्लं गते...पे०... कामेसुमिच्छाचारो वेपुल्लमगमासि, कामेसुमिच्छाचारे वेपुल्लं गते तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि । तेसं
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(३.३.९८-१०२)
३. चक्कवत्तिसुत्तं
आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं दसवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं पञ्चवस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं ।
९८. “पञ्चवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु द्वे धम्मा वेपुल्लमगमंसुफरुसावाचा सम्फप्पलापो च । द्वीसु धम्मेसु वेपुल्लं गतेसु तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि । तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं पञ्चवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं अप्पेकच्चे अढतेय्यवस्ससहस्सायुका, अप्पेकच्चे द्वेवस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं ।
__९९. “अड्डतेय्यवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अभिज्झाब्यापादा वेपुल्लमगमंसु । अभिज्झाब्यापादेसु वेपुल्लं गतेसु तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि । तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं अडतेय्यवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं वस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं ।
१००. "वस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु मिच्छादिट्ठि वेपुल्लमगमासि । मिच्छादिट्ठिया वेपुल्लं गताय तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि । तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं वस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं पञ्चवस्ससतायुका पुत्ता अहेसुं ।
१०१. “पञ्चवस्ससतायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु तयो धम्मा वेपुल्लमगमंसु । अधम्मरागो विसमलोभो मिच्छाधम्मो। तीसु धम्मेसु वेपुल्लं गतेसु तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि । तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं पञ्चवस्ससतायुकानं मनुस्सानं अप्पेकच्चे अड्डतेय्यवस्ससतायुका, अप्पेकच्चे द्वेवस्ससतायुका पुत्ता अहेसुं।
“अडतेय्यवस्ससतायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु इमे धम्मा वेपुल्लमगमंसु । अमत्तेय्यता अपेत्तेय्यता असामञता अब्रह्मञता न कुले जेट्ठापचायिता ।
१०२. “इति खो, भिक्खवे, अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि । दालिद्दिये वेपुल्लं गते अदिन्नादानं वेपुल्लमगमासि । अदिन्नादाने वेपुल्लं
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दीघनिकायो-३
(३.३.१०३-१०३)
गते सत्थं वेपुल्लमगमासि । सत्थे वेपुल्लं गते पाणातिपातो वेपुल्लमगमासि । पाणा वेपुल्लं गते मुसावादी वेपुल्लमगमासि । मुसावादे वेपुल्लं गते पिसुणा वाचा वेपुल्लमगमासि। पिसुणाय वाचाय वेपुल्लं गताय कामेसुमिच्छाचारो वेपुल्लमगमासि । कामेसुमिच्छाचारे वेपुल्लं गते द्वे धम्मा वेपुल्लमगमंसु, फरुसा वाचा सम्फप्पलापो च । द्वीसु धम्मेसु वेपुल्लं गतेसु अभिज्झाब्यापादा वेपुल्लमगमंसु । अभिज्झाब्यापादेसु वेपुल्लं गतेसु मिच्छादिट्ठि वेपुल्लमगमासि । मिच्छादिट्ठिया वेपुल्लं गताय तयो धम्मा वेपुल्लमगमंसु, अधम्मरागो विसमलोभो मिच्छाधम्मो । तीसु धम्मेसु वेपुल्लं गतेसु इमे धम्मा वेपुल्लमगमंसु, अमत्तेय्यता अपेत्तेय्यता असामञ्ञता अब्रह्मञ्ञता न कुले जेट्ठापचायिता । इमेसु धम्मेसु वेपुल्लं गतेसु तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि । तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं अड्ढतेय्यवस्ससतायुकानं मनुस्सानं वस्ससतायुका पुत्ता अहेसुं ।
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दसवस्सायुकसमयो
१०३. “भविस्सति, भिक्खवे, सो समयो, यं इमेसं मनुस्सानं दसवस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति। दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु पञ्चवस्सिका कुमारिका अलंपतेय्या भविस्सन्ति। दसवस्सायकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु इमानि रसानि अन्तरधायिस्सन्ति, सेय्यथिदं, सप्पि नवनीतं तेलं मधु फाणितं लोणं । दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु कुद्रूसको अग्गं भोजनानं भविस्सति । सेय्यथापि, भिक्खवे, एतरहि सालिमंसोदनो अग्गं भोजनानं; एवमेव खो, भिक्खवे, दसवस्सायुकेसु मनुस्सेसु कुद्रूसको अग्गं भोजनानं भविस्सति ।
“दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु दस कुसलकम्मपथा सब्बेन सब्बं अन्तरधायिस्सन्ति, दस अकुसलकम्मपथा अतिब्यादिप्पिस्सन्ति । दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु कुसलन्तिपि न भविस्सति, कुतो पन कुसलस्स कारको । दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु ये ते भविस्सन्ति अमत्तेय्या अपेत्तेय्या असामञ्ञा अब्रह्मज्ञान कुले जेापचायिनो, ते पुज्जा च भविस्सन्ति पासंसा च । सेय्यथापि, भिक्खवे, एतरहि मत्तेय्या पेत्तेय्या सामञ्ञा ब्रह्मञ्ञा कुले जेट्ठापचायिनो पुज्जा च पासंसा च; एवमेव खो, भिक्खवे, दसवस्सायुकेसु मनुस्सेसु ये ते भविस्सन्ति अमत्तेय्या अपेत्तेय्या असामञ्ञ अब्रह्मञ न कुले जेट्ठापचायिनो, ते पुज्जा च भविस्सन्ति पासंसा च ।
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३. चक्कवत्तिसुतं
“दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु न भविस्सति माताति वा मातुच्छात वा मातुलानीति वा आचरियभरियाति वा गरूनं दाराति वा । सम्भेदं लोको गमिस्सति यथा अजेळका कुक्कुटसूकरा सोणसिङ्गाला ।
(३.३.१०४-१०४)
“दसवस्सायकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु तेसं सत्तानं अञ्ञमञ्ञम्हि तिब्बो आघातो पच्चुपट्ठितो भविस्सति तिब्बो ब्यापादो तिब्बो मनोपदोसो तिब्बं वधकचित्तं । मातुपि पुत्तम्हि पुत्तस्सपि मातरि; पितुपि पुत्तम्हि पुत्तस्सपि पितरि ; भातुपि भगिनिया भगिनियापि भातरि तिब्बो आघातो पच्चुपट्ठितो भविस्सति तिब्बो ब्यापादो तिब्बो मनोपदोसो तिब्ब वधकचित्तं । सेय्यथापि, भिक्खवे, मागविकस्स मिगं दिस्वा तिब्बो आघातो पच्चुपट्ठितो होति तिब्बो ब्यापादो तिब्बो मनोपदोसो तिब्बं वधकचित्तं; एवमेव खो, भिक्खवे, दसवस्सायुकेसु मनुस्सेसु तेसं सत्तानं अञ्ञमञ्ञम्हि तिब्बो आघातो भविस्सति तिब्बो ब्यापादो तिब्बो मनोपदोसो तिब्बं वधकचित्तं । मातुपि पुत्तम्हि पुत्तस्सपि मातरि; पितुपि पुत्तम्हि पुत्तस्सपि पितरि ; भातुपि भगिनिया भगिनियापि आघातो पच्चुपट्ठितो भविस्सति तिब्बो ब्यापादो तिब्बो मनोपदोसो तिब्बं वधकचित्तं ।
चु
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१०४. “ दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु सत्ताहं सत्थन्तरकप्पो भविस्सति । ते अञ्ञमञम्हि मिगस पटिलभिस्सन्ति । तेसं तिण्हानि सत्थानि हत्थेसु पातुभविस्सन्ति । ते तिन सत्थेन "एस मिगो एस मिगो " ति अञ्ञमञ्ञ जीविता वोरोपेस्सन्ति ।
५३
"अथ खो तेसं, भिक्खवे, सत्तानं एकच्चानं एवं भविस्सति - ' मा च मयं कञ्चि, मा च अम्हे कोचि, यंनून मयं तिणगहनं वा वनगहनं वा रुक्खगहनं वा नदीविदुग्गं वा पब्बतविसमं वा पविसित्वा वनमूलफलाहारा यापेय्यामा'ति । ते तिणगहनं वा वनगहनं वा रुक्खगहनं वा नदीविदुग्गं वा पब्बतविसमं वा पविसित्वा सत्ताहं वनमूलफलाहारा यापेस्सन्ति । ते तस्स सत्ताहस्स अच्चयेन तिणगहना वनगहना रुक्खगहना नदीविदुग्गा पब्बतविसमा निक्खमित्वा अञ्ञमञ आलिङ्गित्वा सभागायिस्सन्ति समस्सासिस्सन्ति - 'दिट्ठा, भो, सत्ता जीवसि, दिट्ठा, भो, सत्ता जीवसी 'ति ।
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५४
दीघनिकायो-३
आयुवणादिवनकथा
१०५. “अथ खो तेसं, भिक्खवे, सत्तानं एवं भविस्सति - 'मयं खो अकुसलानं धम्मानं समादानहेतु एवरूपं आयतं जतिक्खयं पत्ता । यंनून मयं कुसलं करेय्याम । किं कुसलं करेय्याम ? यंनून मयं पाणातिपाता विरमेय्याम, इदं कुसलं धम्मं समादाय वत्तेय्यामा 'ति । ते पाणातिपाता विरमिस्सन्ति इदं कुसलं धम्मं समादाय वत्तिस्सन्ति । ते कुसलानं धम्मानं समादानहेतु आयुनापि वड्डिस्सन्ति, वण्णेनपि वड्डिस्सन्ति । तेसं आयुनापि वड्डमानानं वण्णेनपि वड्डमानानं दसवस्सायुकानं मनुस्सानं वीसतिवस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति ।
“अथ खो तेसं, भिक्खवे, सत्तानं एवं भविस्सति - 'मयं खो कुसलानं धम्मानं समादानहेतु आयुनापि वड्डाम । वण्णेनपि वड्डाम । यंनून मयं भिय्योसोमत्ताय कुसलं करेय्याम । किं कुसलं करेय्याम ? यंनून मयं अदिन्नादाना विरमेय्याम । कामेसुमिच्छाचारा विरमेय्याम । मुसावादा विरमेय्याम । पिसुणाय वाचाय विरमेय्याम । फरुसाय वाचाय विरमेय्याम | सम्फप्पलापा विरमेय्याम । अभिज्झं पजहेय्याम । ब्यापादं पजहेय्याम | मिच्छादिट्ठि पजहेय्याम । तयो धम्मे पजहेय्याम - अधम्मरागं विसमलोभं मिच्छाधम्मं । यंनून मयं मत्तेय्या अस्साम पेत्तेय्या सामञ्ञ ब्रह्मञ्ञ कुले जेट्ठापचायिनो, इदं कुसलं धम्मं समादाय वत्तेय्यामा'ति । ते मत्तेय्या भविस्सन्ति पेत्तेय्या सामञ्ञा ब्रह्मञ्ञा कुले जेापचायिनो, इदं कुसलं धम्मं समादाय वत्तिस्सन्ति ।
“ ते कुसलानं धम्मानं समादानहेतु आयुनापि वड्डिस्सन्ति, वण्णेनपि वड्डिस्सन्ति । तेसं आयुनापि वड्डमानानं वण्णेनपि वड्डमानानं वीसतिवस्सायुकानं मनुस्सानं चत्तारीसवस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति । चत्तारीसवस्सायुकानं मनुस्सानं असीतिवस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति । असीतिवस्सायुकानं मनुस्सानं सट्ठिवस्ससतायुका पुत्ता सट्ठिवस्ससतायुकानं मनुस्सानं वीसतितिवस्ससतायुका पुत्ता वीसतितिवस्ससतायुकानं मनुस्सानं चत्तारीसछब्बस्ससतायुका पुत्ता चत्तारीसछब्बस्ससतायुकानं मनुस्सानं द्वेवरससहस्साका द्वेवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं चत्तारिवस्ससहस्सायुका चत्तारिवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं अट्ठवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं
भविस्सन्ति । भविस्सन्ति । भविस्सन्ति ।
पुत्ता
भविस्सन्ति ।
भविस्सन्ति ।
भविस्सन्ति ।
भविस्सन्ति ।
अट्ठवस्ससहस्सायुका वीसतिवस्ससहस्सायुका
(३.३.१०५-१०५)
54
पुत्ता
पुत्ता पुत्ता
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(३.३.१०६-१०७)
३. चक्कवत्तिसुत्तं
५५
वीसतिवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं चत्तारीसवस्ससहस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति । चत्तारीसवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं असीतिवस्ससहस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति । असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु पञ्चवस्ससतिका कुमारिका अलंपतेय्या भविस्सन्ति ।
सङ्घराजउप्पत्ति
१०६. “असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु तयो आबाधा भविस्सन्ति, इच्छा, अनसनं, जरा । असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अयं जम्बुदीपो इद्धो चेव भविस्सति फीतो च, कुक्कुटसम्पातिका गामनिगमराजधानियो । असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अयं जम्बुदीपो अवीचि मञ्चे फुटो भविस्सति मनुस्सेहि, सेय्यथापि नळवनं वा सरवनं वा । असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अयं बाराणसी केतुमती नाम राजधानी भविस्सति इद्धा चेव फीता च बहुजना च आकिण्णमनुस्सा च सुभिक्खा च । असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु इमस्मिं जम्बुदीपे चतुरासीतिनगरसहस्सानि भविस्सन्ति केतुमतीराजधानीपमुखानि । असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु केतुमतिया राजधानिया सङ्खो नाम राजा उप्पज्जिस्सति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्त रतनानि भविस्सन्ति, सेय्यथिदं, चक्करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं । परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भविस्सन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसिस्सति ।
मेत्तेय्यबुद्धप्पादो १०७. “असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु मेत्तेय्यो नाम भगवा लोके उप्पज्जिस्सति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा । सेय्यथापाहमेतरहि लोके उप्पन्नो अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेस्सति, सेय्यथापाहमेतरहि इमं लोकं
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दीघनिकायो-३
(३.३.१०८-११०)
सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेमि । सो धम्मं देसेस्सति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेस्सति; सेय्यथापाहमेतरहि धम्मं देसेमि आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेमि । सो अनेकसहस्सं भिक्खुसंघं परिहरिस्सति, सेय्यथापाहमेतरहि अनेकसतं भिक्खुसंघ परिहरामि ।
१०८. “अथ खो, भिक्खवे, सङ्खो नाम राजा यो सो यूपो रञा महापनादेन कारापितो। तं यूपं उस्सापेत्वा अज्झावसित्वा तं दत्वा विस्सज्जित्वा समणब्राह्मणकपणद्धिकवणिब्बकयाचकानं दानं दत्वा मेत्तेय्यस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति । सो एवं पब्बजितो समानो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो नचिरस्सेव यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति ।
१०९. “अत्तदीपा, भिक्खवे, विहरथ अत्तसरणा अनञ्जसरणा, धम्मदीपाधम्मसरणा अनञसरणा । कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्जसरणो धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्जसरणो? इध, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्जसरणो धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्जसरणो।
भिक्खुनोआयुवण्णादिवड्डनकथा
११०. "गोचरे, भिक्खवे, चरथ सके पेत्तिके विसये। गोचरे, भिक्खवे, चरन्ता सके पेत्तिके विसये आयुनापि वड्डिस्सथ, वण्णेनपि वड्डिस्सथ, सुखेनपि वड्डिस्सथ, भोगेनपि वड्डिस्सथ, बलेनपि वड्विस्सथ ।
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(३.३.११०-११०)
३. चक्कवत्तिसुत्तं
५७
“किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो आयुस्मिं? इध, भिक्खवे, भिक्खु छन्दसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतंइद्धिपादं भावेति, वीरियसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतंइद्धिपादं भावेति, चित्तसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति, वीमंसासमाधि पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति । सो इमेसं चतुन्नं इद्धिपादानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता आकङ्खमानो कप्पं वा तिट्टेय्य कप्पावसेसं वा। इदं खो, भिक्खवे, भिक्खुनो आयुस्मिं ।
"किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो वण्णस्मिं ? इध, भिक्खवे, भिक्खु सीलवा होति, पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो, अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी, समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु । इदं खो, भिक्खवे, भिक्खुनो वण्णस्मि ।
“किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो सुखस्मिं ? इध, भिक्खवे, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति यं तं अरिया आचिक्खन्ति 'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी'ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । इदं खो, भिक्खवे, भिक्खुनो, सुखस्मिं।
"किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो भोगस्मिं ? इध, भिक्खवे, भिक्खु मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति तथा दुतियं । तथा ततियं । तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति । करुणासहगतेन चेतसा...पे०... मुदितासहगतेन चेतसा...पे०... उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति । तथा दुतियं । तथा ततियं । तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति । इदं खो, भिक्खवे, भिक्खुनो भोगस्मिं ।
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दीघनिकायो-३
(३.३.११०-११०)
"किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो बलस्मिं? इध, भिक्खवे, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्जाविमुत्तिं दिदेव धम्मे सयं अभिजा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। इदं खो, भिक्खवे, भिक्खुनो बलस्मि।
"नाहं, भिक्खवे, अनं एकबलम्पि समनुपस्सामि यं एवं दुप्पसहं, यथयिदं, भिक्खवे, मारबलं । कुसलानं, भिक्खवे, धम्मानं समादानहेतु एवमिदं पुञ्ज पवडती''ति । इदमवोच भगवा । अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति ।
चक्कवत्तिसुत्तं निहितं ततियं ।
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४. अग्गझसुत्तं
वासे?भारद्वाजा १११. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति पुब्बारामे मिगारमातुपासादे । तेन खो पन समयेन वासेट्ठभारद्वाजा भिक्खूसु परिवसन्ति भिक्खुभावं आकङ्खमाना | अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना बुट्टितो पासादा ओरोहित्वा पासादपच्छायायं अब्भोकासे चङ्कमति ।
११२. अद्दसा खो वासेट्ठो भगवन्तं सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्टितं पासादा ओरोहित्वा पासादपच्छायायं अब्भोकासे चङ्कमन्तं । दिस्वान भारद्वाजं आमन्तेसि - “अयं, आवुसो भारद्वाज, भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुद्वितो पासादा ओरोहित्वा पासादपच्छायायं अब्भोकासे चङ्कमति । आयामावुसो भारद्वाज, येन भगवा तेनुपसङ्कमिस्साम; अप्पेव नाम लभेय्याम भगवतो सन्तिका धम्मिं कथं सवनाया"ति । "एवमावुसो''ति खो भारद्वाजो वासेट्ठस्स पच्चस्सोसि |
११३. अथ खो वासेठ्ठभारद्वाजा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा भगवन्तं चङ्कमन्तं अनुचङ्कमिंसु । अथ खो भगवा वासेठें आमन्तेसि- "तुम्हे ख्वस्थ, वासेठ्ठ, ब्राह्मणजच्चा ब्राह्मणकुलीना ब्राह्मणकुला अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, कच्चि वो, वासेठ्ठ, ब्राह्मणा न अक्कोसन्ति न परिभासन्ती"ति? "तग्घ नो, भन्ते, ब्राह्मणा अक्कोसन्ति परिभासन्ति अत्तरूपाय परिभासाय परिपुण्णाय, नो अपरिपुण्णाया'ति । “यथा कथं पन वो, वासेट्ट, ब्राह्मणा अक्कोसन्ति परिभासन्ति अत्तरूपाय परिभासाय परिपुण्णाय, नो अपरिपुण्णाया"ति? "ब्राह्मणा, भन्ते, एवमाहंसु - "ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीना अञ्चे वण्णा । ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो,
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दीघनिकायो-३
(३.४.११४-११५)
कण्हा अछे वण्णा । ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा । ब्राह्मणाव ब्रह्मनो पुत्ता
ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा। ते तुम्हे सेटुं वणं हित्वा हीनमत्थ वण्णं अज्झुपगता, यदिदं मुण्डके समणके इब्भे कण्हे बन्धुपादापच्चे । तयिदं न साधु, तयिदं नप्पतिरूपं, यं तुम्हे सेटु वण्णं हित्वा हीनमत्थ वण्णं अज्झुपगता यदिदं मुण्डके समणके इब्भे कण्हे बन्धुपादापच्चे"ति । एवं खो नो, भन्ते, ब्राह्मणा अक्कोसन्ति परिभासन्ति अत्तरूपाय परिभासाय परिपुण्णाय, नो अपरिपुण्णाया''ति ।
११४. “तग्घ वो, वासेट्ठ, ब्राह्मणा पोराणं अस्सरन्ता एवमाहंसु - 'ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीना अछे वण्णा; ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो, कण्हा अछे वण्णा; ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा; ब्राह्मणाव ब्रह्मनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा'ति । दिस्सन्ति खो पन, वासेठ्ठ, ब्राह्मणानं ब्राह्मणियो उतुनियोपि गब्भिनियोपि विजायमानापि पायमानापि । ते च ब्राह्मणा योनिजाव समाना एवमाहंसु'ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीना अछे वण्णा; ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो, कण्हा अञ्जे वण्णा; ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा; ब्राह्मणाव ब्रह्मनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा'ति । ते ब्रह्मानञ्चेव अब्भाचिक्खन्ति, मुसा च भासन्ति, बहुञ्च अपुञ्ज पसवन्ति ।
चतुवण्णसुद्धि
११५. “चत्तारोमे, वासेट्ठ, वण्णा - खत्तिया, ब्राह्मणा, वेस्सा, सुद्दा | खत्तियोपि खो, वासेट्ठ, इधेकच्चो पाणातिपाती होति अदिन्नादायी कामेसुमिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचो फरुसवाचो सम्फप्पलापी अभिज्झालु ब्यापन्नचित्तो मिच्छादिट्ठी । इति खो, वासे?, येमे धम्मा अकुसला अकुसलसङ्खाता सावज्जा सावज्जसङ्खाता असेवितब्बा असेवितब्बसङ्खाता नअलमरिया नअलमरियसङ्घाता कण्हा कण्हविपाका वि गरहिता, खत्तियेपि ते इधेकच्चे सन्दिस्सन्ति । ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ...पे०... वेस्सोपि खो, वासेठ्ठ...पे०... सुद्दोपि खो, वासेट्ट, इधेकच्चो पाणातिपाती होति अदिन्नादायी कामेसुमिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचो फरुसवाचो सम्फप्पलापी अभिज्झालु ब्यापन्नचित्तो मिच्छादिठ्ठी । इति खो, वासेठ्ठ, येमे धम्मा अकुसला अकुसलसङ्खाता...पे०... कण्हा कण्हविपाका वि गरहिता; सुद्देपि ते इधेकच्चे सन्दिस्सन्ति ।
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४. अग्गञत्तं
" खत्तियोपि खो, वासेट्ठ, इधेकच्चो पाणातिपाता पटिविरतो होति, अदिन्नादाना पटिविरतो, कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो, मुसावादा पटिविरतो, पिसुणाय वाचाय पटिविरतो, फरुसाय वाचाय पटिविरतो, सम्फप्पलापा पटिविरतो, अनभिज्झालु अब्यापन्नचित्तो, सम्मादिट्ठी । इति खो, वासेट्ठ, येमे धम्मा कुसला कुसलसङ्घाता अनवज्जा अनवज्जसङ्घाता सेवितब्बा सेवितब्बसङ्घाता अलमरिया अलमरियसङ्घाता सुक्का सुक्कविपाका विञ्ञप्पसत्था, खत्तियेपि ते इधेकच्चे सन्दिस्सन्ति । ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ...पे०... वेस्सोपि खो, वासेट्ठ... पे०... सुद्दोपि खो, वासेट्ठ, इधेकच्चो पाणातिपाता पटिविरतो होति...पे०... अनभिज्झालु, अब्यापन्नचित्तो, सम्मादिट्ठी । इति खो, वासेट्ठ ये धम्मा कुसला कुसलसङ्घाता अनवज्जा अनवज्जसङ्घाता सेवितब्बा सेवितब्बसङ्घाता अलमरिया अलमरियसङ्घाता सुक्का सुक्कविपाका विञ्ञप्पसत्था; सुद्देपि ते इकच्चे सन्दिस्सन्ति ।
(३.४.११६-११७)
११६. “इमेसु खो, वासेट्ठ, चतूसु वण्णेसु एवं उभयवोकिण्णेसु वत्तमानेसु कसुक्के धम्मे विञ्ञगरहितेसु चेव विञ्ञप्पसत्थेसु च यदेत्थ ब्राह्मणा एवमाहंसु - 'ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीना अञ्ञे वण्णा; ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो, कण्हा अञ वण्णा; ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा; ब्राह्मणाव ब्रह्मनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा ' 'ति । तं तेसं विज्ञू नानुजानन्ति । तं किस्स हेतु ? इमेसञ्हि, वासेट्ठ, चतुन्नं वण्णानं यो होति भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञविमुत्तो, सो नेसं अग्गमक्खायति धम्मेनेव, नो अधम्मेन । धम्मो हि वासेट्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं, दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च ।
११७. " तदमिनापेतं, वासे, परियायेन वेदितब्बं, यथा धम्मोव सेट्ठो जनेतस्मिं, दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च ।
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“जानाति खो, वासेट्ठ, राजा पसेनदि कोसलो - 'समणो गोतमो अनन्तरा सक्यकुला पब्बजितो 'ति । सक्या खो पन, वासे, रज्ञो पसेनदिस्स कोसलस्स अनुयुत्ता भवन्ति । करोन्ति खो, वासेट्ठ, सक्या रजे पसेनदिम्हि कोसले निपच्चकारं अभिवादनं पच्चुट्ठानं अञ्जलिकम्मं सामीचिकम्मं । इति खो, वासेट्ठ, यं करोन्ति सक्या रञ पसेनदिम्हि कोसले निपच्चकारं अभिवादनं पच्चुट्ठानं अञ्जलिकम्मं सामीचिकम्मं । करोति
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दीघनिकायो-३
तं राजा पसेनदि कोसलो तथागते निपच्चकारं अभिवादनं पच्चुट्ठानं अञ्जलिकम्मं सामीचिकम्मं, न नं 'सुजातो समणो गोतमो, दुज्जातोहमस्मि । बलवा समणो गोतमो, दुब्बलोहमस्मि । पासादिको समणो गोतमो, दुब्बण्णोहमस्मि । महेसक्खो समणो गोतमो, अप्पेसक्खोहमस्मीति । अथ खो नं धम्मंयेव सक्करोन्तो धम्मं गरुं करोन्तो धम्मं मानेन्तो धम्मं पूजेन्तो धम्मं अपचायमानो एवं राजा पसेनदि कोसलो तथागते निपच्चकारं करोति, अभिवादनं पच्चुट्ठानं अञ्जलिकम्मं सामीचिकम्मं । इमिनापि खो एतं, वासेट्ठ, परियायेन वेदितब्बं, यथा धम्मोव सेट्ठो जनेतस्मिं दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च ।
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११८. “तुम्हे ख्वत्थ, वासेट्ठ, नानाजच्चा नानानामा नानागोत्ता नानाकुला अगारस्मा अनगारियं बजिता । 'के तुम्हे 'ति - पुट्ठा समाना 'समणा सक्यपुत्तियाम्हा'ति - पटिजानाथ । यस्स खो पनस्स, वासेट्ठ, तथागते सद्धा निविट्ठा मूलजाता पतिट्ठिता दळ्हा असंहारिया समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मना वा केनचि वा लोकस्मिं, तस्सेतं कल्लं वचनाय - 'भगवतोम्हि पुत्तो ओरसो मुखतो जातो धम्मजो धम्मनिम्मितो धम्मदायादो 'ति । तं किस्स हेतु ? तथागतस्स हेतं, वासेट्ठ, अधिवचनं 'धम्मकायो' इतिपि, 'ब्रह्मकायो' इतिपि, 'धम्मभूतो' इतिपि, 'ब्रह्मभूतो' इतिपि ।
११९. “होति खो सो, वासेट्ठ, समयो यं कदाचि करहचि दीघरस अद्भुनो अच्चयेन अयं लोको संवट्टति । संवट्टमाने लोके येभुय्येन सत्ता आभस्सरसंवत्तनिका होति । ते तत्थ होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो चिरं दीघमद्धानं तिट्ठन्ति |
(३.४.११८-१२०)
“होति खो सो, वासेट्ठ, समयो यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्भुनो अच्चयेन अयं लोको विवट्टति । विवट्टमाने लोके येभुय्येन सत्ता आभस्सरकाया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छन्ति । ते होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो चिरं दीघमद्धानं तिट्ठन्ति ।
रसपथविपातुभावो
१२०. “ एकोदकीभूतं खो पन, वासेट्ठ, तेन समयेन होति अन्धकारो
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(३.४.१२१-१२२)
४. अग्गझसुत्तं
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अन्धकारतिमिसा | न चन्दिमसूरिया पञ्जायन्ति, न नक्खत्तानि तारकरूपानि पञ्जायन्ति, न रत्तिन्दिवा पञ्जायन्ति, न मासड्ढमासा पञ्जायन्ति, न उतुसंवच्छरा पञ्जायन्ति, न इत्थिपुमा पञ्जायन्ति, सत्ता सत्तात्वेव सङ्ख्यं गच्छन्ति । अथ खो तेसं, वासेट्ठ, सत्तानं कदाचि करहचि दीघस्स अद्भुनो अच्चयेन रसपथवी उदकस्मिं समतनि; सेय्यथापि नाम पयसो तक्कस्स निब्बायमानस्स उपरि सन्तानकं होति, एवमेव पातुरहोसि । सा अहोसि वण्णसम्पन्ना गन्धसम्पन्ना रससम्पन्ना, सेय्यथापि नाम सम्पन्नं वा सप्पि सम्पन्नं वा नवनीतं एवंवण्णा अहोसि । सेय्यथापि नाम खुद्दमधुं अनेळकं, एवमस्सादा अहोसि । अथ खो, वासेठ्ठ, अञ्जतरो सत्तो लोलजातिको - 'अम्भो, किमेविदं भविस्सती'ति रसपथविं अङ्गुलिया सायि । तस्स रसपथविं अङ्गुलिया सायतो अच्छादेसि, तण्हा चस्स ओक्कमि । अञपि खो, वासेट्ट, सत्ता तस्स सत्तस्स दिट्ठानुगतिं आपज्जमाना रसपथविं अङ्गुलिया सायिंसु । तेसं रसपथविं अङ्गुलिया सायतं अच्छादेसि, तण्हा च तेसं ओक्कमि ।
चन्दिमसूरियादिपातुभावो
१२१. “अथ खो ते, वासेठ्ठ, सत्ता रसपथविं हत्थेहि आलुप्पकारकं उपक्कमिंसु परिभुजितुं । यतो खो ते, वासेट्ठ, सत्ता रसपथविं हत्थेहि आलुप्पकारकं उपक्कमिंसु परिभुजितुं । अथ तेसं सत्तानं सयंपभा अन्तरधायि । सयंपभाय अन्तरहिताय चन्दिमसूरिया पातुरहेसुं। चन्दिमसूरियेसु पातुभूतेसु नक्खत्तानि तारकरूपानि पातुरहेसुं । नक्खत्तेसु तारकरूपेसु पातुभूतेसु रत्तिन्दिवा पञायिंसु । रत्तिन्दिवेसु पञ्जायमानेसु मासड्डमासा पञायिंसु । मासड्डमासेसु पञ्जायमानेसु उतुसंवच्छरा पञायिंसु । एत्तावता खो, वासेठ्ठ, अयं लोको पुन विवट्टो होति ।
१२२. “अथ खो ते, वासेठ्ठ, सत्ता रसपथविं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अटुंसु | यथा यथा खो ते, वासेठ्ठ, सत्ता रसपथविं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अटुंसु, तथा तथा तेसं सत्तानं (रसपथविं परिभुञ्जन्तान) खरत्तञ्चेव कायस्मिं ओक्कमि, वण्णवेवण्णता च पञायित्थ । एकिदं सत्ता वण्णवन्तो होन्ति, एकिदं सत्ता दुब्बण्णा। तत्थ ये ते सत्ता वण्णवन्तो, ते दुब्बण्णे सत्ते अतिमञ्जन्ति- 'मयमेतेहि वण्णवन्ततरा, अम्हेहेते दुब्बण्णतरा'ति । तेसं वण्णातिमानपच्चया मानातिमानजातिकानं रसपथवी अन्तरधायि । रसाय पथविया अन्तरहिताय सन्निपतिसु। सन्निपतित्वा अनुत्थुनिसु- 'अहो रसं, अहो रस'न्ति !
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दीघनिकायो-३
(३.४.१२३-१२४)
तदेतरहिपि मनुस्सा कञ्चिदेव सुरसं लभित्वा एवमाहंसु - 'अहो रसं, अहो रसन्ति ! तदेव पोराणं अग्गजं अक्खरं अनुसरन्ति, न त्वेवस्स अत्थं आजानन्ति ।
भूमिपप्पटकपातुभावो १२३. “अथ खो तेसं, वासेठ्ठ, सत्तानं रसाय पथविया अन्तरहिताय भूमिपप्पटको पातुरहोसि । सेय्यथापि नाम अहिच्छत्तको, एवमेव पातुरहोसि । सो अहोसि वण्णसम्पन्नो गन्धसम्पन्नो रससम्पन्नो, सेय्यथापि नाम सम्पन्नं वा सप्पि सम्पन्नं वा नवनीतं एवंवण्णो अहोसि । सेय्यथापि नाम खुद्दमधुं अनेळकं, एवमस्सादो अहोसि ।
“अथ खो ते, वासेठ्ठ, सत्ता भूमिपप्पटकं उपक्कमिंसु परिभुजितुं । ते तं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अटुंसु । यथा यथा खो ते, वासेठ्ठ, सत्ता भूमिपप्पटकं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अटुंसु, तथा तथा तेसं सत्तानं भिय्योसो मत्ताय खरत्तञ्चेव कायस्मिं ओक्कमि, वण्णवेवण्णता च पञायित्थ । एकिदं सत्ता वण्णवन्तो होन्ति, एकिदं सत्ता दुब्बण्णा। तत्थ ये ते सत्ता वण्णवन्तो, ते दुब्बण्णे सत्ते अतिमञ्जन्ति - ‘मयमेतेहि वण्णवन्ततरा, अम्हेहेते दुब्बण्णतरा'ति । तेसं वण्णातिमानपच्चया मानातिमानजातिकानं भूमिपप्पटको अन्तरधायि ।
पदालतापातुभावो १२४. “भूमिपप्पटके अन्तरहिते पदालता पातुरहोसि, सेय्यथापि नाम कलम्बुका, एवमेव पातुरहोसि । सा अहोसि वण्णसम्पन्ना गन्धसम्पन्ना रससम्पन्ना, सेय्यथापि नाम सम्पन्नं वा सप्पि सम्पन्नं वा नवनीतं एवंवण्णा अहोसि । सेय्यथापि नाम खुद्दमधुं अनेळकं, एवमस्सादा अहोसि ।
__“अथ खो ते, वासेट्ट, सत्ता पदालतं उपक्कमिंसु परिभुजितुं । ते तं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अटुंसु । यथा यथा खो ते, वासेट्ठ, सत्ता पदालतं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अटुंसु, तथा तथा तेसं सत्तानं भिय्योसोमत्ताय खरत्तञ्चेव कायस्मिं ओक्कमि, वण्णवेवण्णता च पञायित्थ । एकिदं सत्ता वण्णवन्तो होन्ति, एकिदं सत्ता दुब्बण्णा | तत्थ ये ते सत्ता वण्णवन्तो, ते दुब्बण्णे
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४. अग्गञसुत्तं
सत्ते अतिमञ्ञन्ति - 'मयमेतेहि वण्णवन्ततरा, अम्हेहेते दुब्बण्णतरा'ति । तेसं
वण्णातिमानपच्चया मानातिमानजातिकानं पदालता अन्तरधायि ।
(३.४.१२५-१२६)
‘“‘पदालताय अन्तरहिताय सन्निपतिंसु । सन्निपतित्वा अनुत्थुनिंसु - 'अहु वत नो, अहायि वत नो पदालता 'ति! तदेतरहिपि मनुस्सा केनचि दुक्खधम्मेन फुट्ठा एवमाहंसु - 'अहु वत नो, अहायि वत नोति ! तदेव पोराणं अग्ग अक्खरं अनुसरन्ति, न त्वेवरस अत्थं आजानन्ति ।
अकट्ठपाकसालिपातुभावो
१२५. “अथ खो तेसं, वासेट्ठ, सत्तानं पदालताय अन्तरहिताय अकट्टपाको सालि पातुरहोसि अकणो अथुसो सुद्धो सुगन्धो तण्डुलप्फलो । यं तं सायं सायमासाय आहरन्ति, पातो तं होति पक्कं पटिविरूळ्हं । यं तं पातो पातरासाय आहरन्ति, सायं तं होति पक्कं पटिविरूळ्हं; नापदानं पञ्ञायति । अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता अकट्टपाकं सालि परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं असु ।
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इत्थिपुरिसलिङ्गपातुभावो
१२६. " यथा यथा खो ते, वासेट्ठ, सत्ता अकट्ठपाकं सालिं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठसु तथा तथा तेसं सत्तानं भिय्योसोमत्ताय खरत्तञ्चैव कायस्मिं ओक्कमि, वण्णवेवण्णता च पञ्ञायित्थ, इत्थिया च इत्थिलिङ्गं पातुरहोसि पुरिसस्स च पुरिसलिङ्गं । इत्थी च पुरिसं अतिवेलं उपनिज्झायति पुरिसो च इत्थं । तेसं अतिवेलं अञ्ञमञ्ञ उपनिज्झायतं सारागो उदपादि, परिळाहो कायस्मिं ओक्कमि । ते परिळाहपच्चया मेथुनं धम्मं पटिसेविंसु ।
"ये खो पन ते, वासे, तेन समयेन सत्ता पस्सन्ति मेथुनं धम्मं पटिसेवन्ते, अञ्ञे पंसुं खिपन्ति, अञ्ञे सेट्ठि खिपन्ति, अञ्ञे गोमयं खिपन्ति - 'नस्स असुचि, नस्स असुची 'ति । 'कथञ्हि नाम सत्तो सत्तस्स एवरूपं करिस्सती 'ति ! तदेतरहिपि मनुस्सा एकच्चेसु जनपदेसु वधुया निब्बुरहमानाय अजे पंसुं खिपन्ति, अञ्ञे सेट्ठि खिपन्ति,
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दीघनिकायो-३
(३.४.१२७-१२७)
अछे गोमयं खिपन्ति । तदेव पोराणं अग्गजे अक्खरं अनुसरन्ति, न त्वेवस्स अत्थं आजानन्ति ।
मेथुनधम्मसमाचारो १२७. “अधम्मसम्मतं खो पन, वासेठ्ठ, तेन समयेन होति, तदेतरहि धम्मसम्मतं । ये खो पन, वासेट्ट, तेन समयेन सत्ता मेथुनं धम्मं पटिसेवन्ति, ते मासम्पि द्वेमासम्पि न लभन्ति गामं वा निगमं वा पविसितुं । यतो खो ते, वासेठ्ठ, सत्ता तस्मिं असद्धम्मे अतिवेलं पातब्यतं आपज्जिंसु । अथ अगारानि उपक्कमिंसु कातुं तस्सेव असद्धम्मस्स पटिच्छादनत्थं । अथ खो, वासेट्ट, अञतरस्स सत्तस्स अलसजातिकस्स एतदहोसि - 'अम्भो, किमेवाहं विहामि सालिं आहरन्तो सायं सायमासाय पातो पातरासाय ! यंनूनाहं सालिं आहरेय्यं सकिंदेव सायपातरासाया'ति !
“अथ खो सो, वासेट्ट, सत्तो सालिं आहासि सकिंदेव सायपातरासाय । अथ खो, वासेठ्ठ, अञ्जतरो सत्तो येन सो सत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं सत्तं एतदवोच - 'एहि, भो सत्त, सालाहारं गमिस्सामा'ति । 'अलं, भो सत्त, आहतो मे सालि सकिंदेव सायपातरासाया'ति । “अथ खो सो, वासेठ्ठ, सत्तो तस्स सत्तस्स दिट्ठानुगतिं आपज्जमानो सालिं आहासि सकिंदेव द्वीहाय । ‘एवम्पि किर, भो, साधू'ति ।
अथ खो, वासेट्ठ, अतरो सत्तो येन सो सत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं सत्तं एतदवोच- ‘एहि, भो सत्त, सालाहारं गमिस्सामा'ति । 'अलं, भो सत्त, आहतो मे सालि सकिंदेव द्वीहाया'ति । “अथ खो सो, वासेठ्ठ, सत्तो तस्स सत्तस्स दिहानुगतिं आपज्जमानो सालिं आहासि सकिंदेव चतूहाय, ‘एवम्पि किर, भो, साधू'ति ।
“अथ खो, वासेठ्ठ, अञतरो सत्तो येन सो सत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं सत्तं एतदवोच - ‘एहि, भो सत्त, सालाहारं गमिस्सामा'ति । 'अलं, भो सत्त, आहतो मे सालि सकिदेव चतूहाया'ति । “अथ खो सो, वासेट्ठ, सत्तो तस्स सत्तस्स दिट्ठानुगतिं आपज्जमानो सालिं आहासि सकिदेव अट्ठाहाय, ‘एवम्पि किर, भो, साधू'ति ।
यतो खो ते, वासेट्ट, सत्ता सन्निधिकारकं सालिं उपक्कमिंसु परिभुञ्जितुं । अथ
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(३.४.१२८-१२८)
४. अग्गझसुत्तं
कणोपि तण्डुलं परियोनन्धि, थुसोपि तण्डुलं परियोनन्धि; लूनम्पि नप्पटिविरूळ्हं, अपदानं पायित्थ, सण्डसण्डा सालयो अटुंसु । .
सालिविभागो
१२८. “अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता सन्निपतिंसु, सन्निपतित्वा अनुत्थुनिंसु - ‘पापका वत, भो, धम्मा सत्तेसु पातुभूता | मयहि पुब्बे मनोमया अहुम्हा पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा । सुभट्ठायिनो, चिरं दीघमद्धानं अट्ठम्हा, तेसं नो अम्हाकं कदाचि करहचि दीघस्स अद्भुनो अच्चयेन रसपथवी उदकस्मिं समतनि । सा अहोसि वण्णसम्पन्ना गन्धसम्पन्ना रससम्पन्ना । ते मयं रसपथविं हत्थेहि आलुप्पकारकं उपक्कमिम्ह परिभुञ्जितुं, तेसं नो रसपथविं हत्थेहि आलुप्पकारकं उपक्कमतं परिभुजितुं सयंपभा अन्तरधायि । सयंपभाय अन्तरहिताय चन्दिमसूरिया पातुरहेसुं, चन्दिमसूरियेसु पातुभूतेसु नक्खत्तानि तारकरूपानि पातुरहेसुं, नक्खत्तेसु तारकरूपेसु पातुभूतेसु रत्तिन्दिवा पञायिंसु, रत्तिन्दिवेसु पञ्जायमानेसु मासड्ढमासा पञायिंसु। मासड्डमासेसु पञ्जायमानेसु उतुसंवच्छरा पञायिंसु । ते मयं रसपथविं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठम्हा । तेसं नो पापकानंयेव अकुसलानं धम्मानं पातुभावा रसपथवी अन्तरधायि । रसपथविया अन्तरहिताय भूमिपप्पटको पातुरहोसि । सो अहोसि वण्णसम्पन्नो गन्धसम्पन्नो रससम्पन्नो। ते मयं भूमिपप्पटकं उपक्कमिम्ह परिभुजितुं। ते मयं तं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठम्हा । तेसं नो पापकानंयेव अकुसलानं धम्मानं पातुभावा भूमिपप्पटको अन्तरधायि । भूमिपप्पटके अन्तरहिते पदालता पातुरहोसि । सा अहोसि वण्णसम्पन्ना गन्धसम्पन्ना रससम्पन्ना। ते मयं पदालतं उपक्कमिम्ह परिभुजितुं । ते मयं तं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्टाहा । तेसं नो पापकानंयेव अकुसलानं धम्मानं पातुभावा पदालता अन्तरधायि । पदालताय अन्तरहिताय अकट्ठपाको सालि पातुरहोसि अकणो अथुसो सुद्धो सुगन्धो तण्डुलप्फलो । यं तं सायं सायमासाय आहराम, पातो तं होति पक्कं पटिविरूळ्हं । यं तं पातो पातरासाय आहराम, सायं तं होति पक्कं पटिविरूळ्हं । नापदानं पञायित्थ । ते मयं अकट्ठपाकं सालिं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठम्हा । तेसं नो पापकानंयेव अकुसलानं धम्मानं पातुभावा कणोपि तण्डुलं परियोनन्धि, थुसोपि तण्डुलं परियोनन्धि, लूनम्पि नप्पटिविरूळ्हं, अपदानं पायित्थ, सण्डसण्डा सालयो ठिता । यंनून
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दीघनिकायो-३
मयं सालिं विभजेय्याम, मरियादं ठपेय्यामा 'ति! अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता सालिं विभजिंसु, मरियादं ठपेसुं ।
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१२९. “अथ खो, वासेट्ठ, अञ्ञतरो सत्तो लोलजातिको सकं भागं परिरक्खन्तो अञ्ञतरं भागं अदिन्नं आदियित्वा परिभुञ्जि । तमेनं अग्गहेसुं, गहेत्वा एतदवोचुं - 'पापकं वत, भो सत्त, करोसि, यत्र हि नाम सकं भागं परिरक्खन्तो अञ्ञतरं भागं अदिन्नं आदियित्वा परिभुञ्जसि । मास्सु भो सत्त, पुनपि एवरूपमकासी 'ति । ' एवं, भो'ति खो, वासेट्ठ, सो सत्तो तेसं सत्तानं पच्चस्सोसि । दुतियम्पि खो, वासेट्ठ, सो सत्तो... पे०... ततियम्पि खो, वासेट्ठ, सो सत्तो सकं भागं परिरक्खन्तो अञ्ञतरं भागं अदिन्नं आदियित्वा परिभुञ्जि । तमेनं अग्गहेसुं, गहेत्वा एतदवोचुं- 'पापकं वत, भो करोसि, यत्र हि नाम सकं भागं परिरक्खन्तो अञ्ञतरं भागं अदिन्नं आदियित्वा परिभुञ्जसि । मास्सु, भो सत्त, पुनपि एवरूपमकासी 'ति । अञ्ञ पाणिना पहरिंसु, अञ्ञ लेड्डुना पहरिंसु, अञ्ञे दण्डेन पहरिंसु । तदग्गे खो, वासेट्ठ, अदिन्नादानं पञ्ञायति, गरहा पञ्ञयति, मुसावादो पञ्ञायति, दण्डादानं पञ्ञायति ।
सत्त,
महासम्मतराजा
१३०. “अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता सन्निपतिंसु, सन्निपतित्वा अनुत्थुनिंसु – 'पापका वत भो धम्मा सत्तेसु पातुभूता यत्र हि नाम अदिन्नादानं पञ्ञायिस्सति, गरहा पञ्ञायिस्सति, मुसावादो पञ्ञायिस्सति, दण्डादानं पञ्ञायिस्सति । यंनून मयं एकं सत्तं सम्मन्नेय्याम, यो नो सम्मा खीयितब्बं खीयेय्य, सम्मा गरहितब्बं गरहेय्य, सम्मा पब्बाजेतब्बं पब्बाजेय्य । मयं पनस्स सालीनं भागं अनुप्पदस्सामा 'ति ।
(३.४.१२९-१३०)
“ अथ खो ते, वासे, सत्ता यो नेसं सत्तो अभिरूपतरो च दस्सनीयतरो च पासादिकतरो च महेसक्खतरो च । तं सत्तं उपसङ्कमित्वा एतदवोचुं - 'एहि, भो सत्त सम्मा खीयितब्बं खीय, सम्मा गरहितब्बं गरह, सम्मा पब्बाजेतब्बं पब्बाजेहि । मयं पन ते सालीनं भागं अनुप्पदस्सामा 'ति । एवं भो'ति खो, वासेट्ठ, सो सत्तो तेसं सत्तानं पटिस्सुणित्वा सम्मा खीयितब्बं खीयि, सम्मा गरहितब्बं गरहि, सम्मा पब्बाजेतब्बं पब्बाजेसि। ते पनस्स सालीनं भागं अनुप्पदंसु ।
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(३.४.१३१-१३२)
४. अग्गझसुत्तं
१३१. “महाजनसम्मतोति खो, वासेट्र, “महासम्मतो, महासम्मतो" त्वेव पठमं अक्खरं उपनिब्बत्तं । खेत्तानं अधिपतीति खो, वासेट्ठ, “खत्तियो, खत्तियो" त्वेव दुतियं अक्खरं उपनिब्बत्तं । धम्मेन परे रजेतीति खो, वासेट, "राजा, राजा" त्वेव ततियं अक्खरं उपनिब्बत्तं । इति खो, वासेट्ट, एवमेतस्स खत्तियमण्डलस्स पोराणेन अग्गजेन अक्खरेन अभिनिब्बत्ति अहोसि तेसंयेव सत्तानं, अन सं। सदिसानंयेव, नो असदिसानं । धम्मेनेव, नो अधम्मेन | धम्मो हि, वासेट्ठ, सेठ्ठो जनेतस्मिं दिढे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च ।
ब्राह्मणमण्डलं
१३२. “अथ खो तेसं, वासेठ्ठ, सत्तानंयेव एकच्चानं एतदहोसि- 'पापका वत, भो, धम्मा सत्तेसु पातुभूता, यत्र हि नाम अदिन्नादानं पञायिस्सति, गरहा पञायिस्सति, मुसावादो पञायिस्सति, दण्डादानं पञायिस्सति, पब्बाजनं पञायिस्सति । यंनून मयं पापके अकुसले धम्मे वाहेय्यामा'ति । ते पापके अकुसले धम्मे वाहेसुं | पापके अकुसले धम्मे वाहेन्तीति खो, वासेट्ठ, “ब्राह्मणा, ब्राह्मणा" त्वेव पठमं अक्खरं उपनिब्बत्तं । ते अरञायतने पण्णकुटियो करित्वा पण्णकुटीसु झायन्ति वीतङ्गारा वीतधूमा पन्नमुसला सायं सायमासाय पातो पातरासाय गामनिगमराजधानियो ओसरन्ति घासमेसमाना। ते घासं पटिलभित्वा पुनदेव अरञायतने पण्णकुटीसु झायन्ति । तमेनं मनुस्सा दिस्वा एवमाहंसु - ‘इमे खो, भो, सत्ता अरञायतने पण्णकुटियो करित्वा पण्णकुटीसु झायन्ति, वीतङ्गारा वीतधूमा पन्नमुसला सायं सायमासाय पातो पातरासाय गामनिगमराजधानियो ओसरन्ति घासमेसमाना। ते घासं पटिलभित्वा पुनदेव अरञायतने पण्णकुटीसु झायन्ती'ति, झायन्तीति खो, वासेट्ठ, “झायका, झायका' त्वेव दुतियं अक्खरं उपनिब्बत्तं । तेसंयेव खो, वासे?, सत्तानं एकच्चे सत्ता अरञायतने पण्णकुटीसु तं झानं अनभिसम्भुणमाना गामसामन्तं निगमसामन्तं ओसरित्वा गन्थे करोन्ता अच्छन्ति । तमेनं मनुस्सा दिस्वा एवमाहंसु- ‘इमे खो, भो, सत्ता अरञायतने पण्णकुटीसु तं झानं अनभिसम्भुणमाना गामसामन्तं निगमसामन्तं ओसरित्वा गन्थे करोन्ता अच्छन्ति, न दानिमे झायन्तीति । न दानिमे झायन्तीति खो, वासेठ्ठ, “अज्झायका अज्झायका" त्वेव ततियं अक्खरं उपनिब्बत्तं । हीनसम्मतं खो पन, वासेठ्ठ, तेन समयेन होति, तदेतरहि सेट्ठसम्मतं । इति खो, वासेठ्ठ, एवमेतस्स ब्राह्मणमण्डलस्स पोराणेन अग्गओन अक्खरेन अभिनिब्बत्ति अहोसि तेसंयेव सत्तानं, अनजेसं । सदिसानंयेव, नो असदिसानं ।
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७०
दीघनिकायो-३
(३.४.१३३-१३५)
धम्मेनेव, नो अधम्मेन । धम्मो हि, वासेट, सेट्ठो जनेतस्मिं दिढे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च ।
वेस्समण्डलं
१३३. “तेसंयेव खो, वासेट्ट, सत्तानं एकच्चे सत्ता मेथुनं धम्मं समादाय विसुकम्मन्ते पयोजेसुं। मेथुनं धम्मं समादाय विसुकम्मन्ते पयोजेन्तीति खो, वासेट्ठ, “वेस्सा, वेस्सा" त्वेव अक्खरं उपनिब्बत्तं । इति खो, वासेट्ट, एवमेतस्स वेस्समण्डलस्स पोराणेन अग्गर्छन अक्खरेन अभिनिब्बत्ति अहोसि तेस व सत्तानं, अन सं । सदिसानंयेव, नो असदिसानं । धम्मेनेव, नो अधम्मेन | धम्मो हि, वासेट्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं दिढे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च ।
सुद्दमण्डलं
१३४. “तेस व खो, वासेट्ट, सत्तानं ये ते सत्ता अवसेसा ते लुद्दाचारा खुद्दाचारा अहेसुं। लुद्दाचारा खुद्दाचाराति खो, वासेट्ठ, “सुद्दा, सुद्दा" त्वेव अक्खरं उपनिब्बत्तं । इति खो, वासेठ्ठ, एवमेतस्स सुद्दमण्डलस्स पोराणेन अग्गओन अक्खरेन अभिनिब्बत्ति अहोसि तेसंयेव सत्तानं, अनओसं। सदिसानंयेव, नो असदिसानं । धम्मेनेव, नो अधम्मेन । धम्मो हि, वासेट्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं दिढे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च ।
१३५. “अहु खो सो, वासेट्ठ, समयो, यं खत्तियोपि सकं धम्मं गरहमानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति - “समणो भविस्सामी"ति। ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ...पे०... वेस्सोपि खो, वासेट्ट...पे०... सुद्दोपि खो, वासेट्ठ, सकं धम्मं गरहमानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति - “समणो भविस्सामी'ति । इमेहि खो, वासेट्ठ, चतूहि मण्डलेहि समणमण्डलस्स अभिनिब्बत्ति अहोसि, तेसंयेव सत्तानं, अनओसं । सदिसानंयेव, नो असदिसानं । धम्मेनेव, नो अधम्मेन । धम्मो हि, वासेठ्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं दिढे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च ।
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(३.४.१३६-१३८)
४. अग्गञ्चसुत्तं
७१
दुच्चरितादिकथा १३६. “खत्तियोपि खो, वासेट्ट, कायेन दुच्चरितं चरित्वा वाचाय दुच्चरितं चरित्वा मनसा दुच्चरितं चरित्वा मिच्छादिठ्ठिको मिच्छादिट्ठिकम्मसमादानो मिच्छादिट्टिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति । ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ...पे०... वेस्सोपि खो, वासेट्ठ | सुद्दोपि खो, वासेट्ठ | समणोपि खो, वासेट्ठ, कायेन दुच्चरितं चरित्वा वाचाय दुच्चरितं चरित्वा मनसा दुच्चरितं चरित्वा मिच्छादिट्ठिको मिच्छादिट्टिकम्मसमादानो मिच्छादिट्टिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति ।
“खत्तियोपि खो, वासेट्ट, कायेन सुचरितं चरित्वा वाचाय सुचरितं चरित्वा मनसा सुचरितं चरित्वा सम्मादिट्ठिको सम्मादिट्टिकम्मसमादानो सम्मादिट्टिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति । ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ट...पे०... वेस्सोपि खो, वासेट्ठ | सुद्दोपि खो, वासेट्ठ । समणोपि खो, वासेठ्ठ, कायेन सुचरितं चरित्वा वाचाय सुचरितं चरित्वा मनसा सुचरितं चरित्वा सम्मादिट्ठिको सम्मादिट्टिकम्मसमादानो सम्मादिट्टिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति ।
१३७. “खत्तियोपि खो, वासेट्ट, कायेन द्वयकारी, वाचाय द्वयकारी, मनसा द्वयकारी, विमिस्सदिट्ठिको विमिस्सदिट्ठिकम्मसमादानो विमिस्सदिट्ठिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा सुखदुक्खप्पटिसंवेदी होति । ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ...पे०... वेस्सोपि खो, वासेट्ठ। सुद्दोपि खो, वासेट्ट । समणोपि खो, वासेट्ट, कायेन द्वयकारी, वाचाय द्वयकारी, मनसा द्वयकारी, विमिस्सदिट्ठिको विमिस्सदिट्टिकम्मसमादानो विमिस्सदिट्टिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा सुखदुक्खप्पटिसंवेदी होति ।
बोधिपक्खियभावना १३८. "खत्तियोपि खो, वासेट्ट, कायेन संवुतो वाचाय संवुतो मनसा संवुतो सत्तन्नं बोधिपक्खियानं धम्मानं भावनमन्वाय दिढेव धम्मे परिनिब्बायति । ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ट, कायेन संवुतो वाचाय संवुतो मनसा संवुतो, सत्तन्नं बोधिपक्खियानं धम्मानं भावनमन्वाय, दिढेव धम्मे परिनिब्बायति । वेस्सोपि खो, वासेट्ट, कायेन संवुतो वाचाय
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दीघनिकायो-३
(३.४.१३९-१४०)
संवुतो मनसा संवुतो, सत्तन्नं बोधिपक्खियानं धम्मानं भावनमन्वाय, दिढेव धम्मे परिनिब्बायति । सुद्दोपि खो, वासेट्ठ, कायेन संवुतो वाचाय संवुतो मनसा संवुतो, सत्तन्नं बोधिपक्खियानं धम्मानं भावनमन्वाय, दिवेव धम्मे परिनिब्बायति । समणोपि खो, वासेठ्ठ, कायेन संवुतो वाचाय संवुतो मनसा संवुतो सत्तन्नं बोधिपक्खियानं धम्मानं भावनमन्वाय दिठेव धम्मे परिनिब्बायति ।
१३९. “इमेसहि, वासेठ्ठ, चतुत्रं वण्णानं यो होति भिक्खु अरहं खीणासवो बुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदा विमुत्तो सो नेसं अग्गमक्खायति धम्मेनेव | नो अधम्मेन । धम्मो हि, वासेट्ट, सेट्ठो जनेतस्मिं दिढे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च ।
१४०. “ब्रह्मना पेसा, वासेठ्ठ, सनङ्घमारेन गाथा भासिता
“खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं, ये गोत्तपटिसारिनो । विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो देवमानुसे"ति ।।
“सा खो पनेसा, वासेठ्ठ, ब्रह्मना सनङ्घमारेन गाथा सुगीता, नो दुग्गीता । सुभासिता, नो दुब्भासिता । अत्थसंहिता, नो अनत्थसंहिता । अनुमता मया । अहम्पि, वासेठ्ठ, एवं वदामि
"खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं, ये गोत्तपटिसारिनो । विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो देवमानुसे"ति ।।
इदमवोच भगवा । अत्तमना वासेट्ठभारद्वाजा भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति ।
अग्गञसुत्तं निहितं चतुत्थं।
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५. सम्पसादनीयसुत्तं
सारिपुत्तसीहनादो १४१. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा नाळन्दायं विहरति पावारिकम्बवने । अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा सारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच"एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति, न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञ्जो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभितरो यदिदं सम्बोधियन्ति ।
१४२. “उळारा खो ते अयं, सारिपुत्त, आसभी वाचा भासिता, एकंसो गहितो, सीहनादो नदितो- ‘एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति; न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभितरो यदिदं सम्बोधिय'न्ति । किं ते, सारिपुत्त, ये ते अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता - ‘एवंसीला ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंधम्मा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंपञ्जा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंविहारी ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी' "ति ? “नो हेतं, भन्ते'।
__“किं पन ते, सारिपुत्त, ये ते भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता, एवंसीला ते भगवन्तो भविस्सन्ति इतिपि, एवंधम्मा। एवंपञ्जा। एवंविहारी। एवंविमुत्ता ते भगवन्तो भविस्सन्ति इतिपी' "ति ? "नो हेतं, भन्ते"।
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दीघनिकायो-३
(३.५.१४३-१४४)
"किं पन ते, सारिपुत्त, अहं एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो चेतसा चेतो परिच्च विदितो- एवंसीलो भगवा इतिपि, एवंधम्मो । एवंपञो । एवंविहारी । एवंविमुत्तो भगवा इतिपी' ''ति ? “नो हेतं, भन्ते'।
"एत्थ च हि ते, सारिपुत्त, अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु अरहन्तेसु सम्मासम्बुद्धेसु चेतोपरियाणं नत्थि । अथ किं चरहि ते अयं, सारिपुत्त, उळारा आसभी वाचा भासिता, एकंसो गहितो, सीहनादो नदितो - ‘एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति, न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभितरो यदिदं सम्बोधिय'न्ति ?
१४३. “न खो मे, भन्ते, अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु अरहन्तेसु सम्मासम्बुद्धेसु चेतोपरियजाणं अत्थि । अपि च, मे धम्मन्वयो विदितो। सेय्यथापि, भन्ते, रञो पच्चन्तिमं नगरं दळ्हुद्धापं दळ्हपाकारतोरणं एकद्वारं । तत्रस्स दोवारिको पण्डितो ब्यत्तो मेधावी अञातानं निवारेता, आतानं पवेसेता । सो तस्स नगरस्स समन्ता अनुपरियायपथं अनुक्कममानो न पस्सेय्य पाकारसन्धिं वा पाकारविवरं वा अन्तमसो बिळारनिक्खमनमत्तम्पि। तस्स एवमस्स - 'ये खो केचि ओळारिका पाणा इमं नगरं पविसन्ति वा निक्खमन्ति वा, सब्बे ते इमिनाव द्वारेन पविसन्ति वा निक्खमन्ति वा'ति । एवमेव खो मे, भन्ते, धम्मन्वयो विदितो । ये ते, भन्ते, अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्टानेसु सुप्पतिहितचित्ता, सत्त सम्बोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुझिं। येपि ते, भन्ते, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्टानेसु सुप्पतिहितचित्ता, सत्त सम्बोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुझिस्सन्ति। भगवापि, भन्ते, एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्टानेसु सुप्पतिहितचित्तो सत्त सम्बोज्झने यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो।
१४४. “इधाहं, भन्ते, येन भगवा तेनुपसङ्कमिं धम्मस्सवनाय । तस्स मे, भन्ते, भगवा धम्म देसेति उत्तरुत्तरं पणीतपणीतं कण्हसुक्कसप्पटिभागं । यथा यथा मे, भन्ते, भगवा धम्म देसेसि उत्तरुत्तरं पणीतपणीतं कण्हसुक्कसप्पटिभागं, तथा तथाहं तस्मिं धम्मे
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(३.५.१४५-१४७)
५. सम्पसादनीयसुत्तं
अभिञा इधेकच्चं धम्मं धम्मेसु निट्ठमगमं; सत्थरि पसीदिं- 'सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो सावकसङ्घो'ति ।
कुसलधम्मदेसना
१४५. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति कुसलेसु धम्मसु । तत्रिमे कुसला धम्मा सेय्यथिदं, चत्तारो सतिपट्ठाना, चत्तारो सम्मप्पधाना, चत्तारो इद्धिपादा, पञ्चिन्द्रियानि, पञ्च बलानि, सत्त बोझङ्गा, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो। इध, भन्ते, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पाविमुत्तिं दिढेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, कुसलेसु धम्मेसु। तं भगवा असेसमभिजानाति, तं भगवतो असेसमभिजानतो उत्तरि अभिनेय्यं नत्थि, यदभिजानं अञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिज्ञतरो अस्स, यदिदं कुसलेसु धम्मेसु ।
आयतनपण्णत्तिदेसना
१४६. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति आयतनपण्णत्तीसु । छयिमानि, भन्ते, अज्झत्तिकबाहिरानि आयतनानि । चक्खुञ्चेव रूपा च, सोतञ्चेव सद्दा च, घानञ्चेव गन्धा च, जिव्हा चेव रसा च. कायो चेव फोट्रब्बा च. मनो चेव धम्मा च । एतदानत्तरियं. भन्ते. आयतनपण्णत्तीस । तं भगवा असेसमभिजानाति, तं भगवतो असेसमभिजानतो उत्तरि अभिनेय्यं नत्थि, यदभिजानं अञ्जो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्जतरो अस्स यदिदं आयतनपण्णत्तीसु ।
गब्भावक्कन्तिदेसना
१४७. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति गब्भावक्कन्तीसु। चतस्सो इमा, भन्ते, गब्भावक्कन्तियो। इध, भन्ते, एकच्चो असम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति; असम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति; असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति । अयं पठमा गब्भावक्कन्ति ।
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दीघनिकायो-३
" पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति; असम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति; असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति । अयं दुतिया गब्भावक्कन्ति ।
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" पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति; सम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति; असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति । अयं ततिया गब्भावक्कन्ति।
" पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति; सम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति; सम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति । अयं चतुत्था गन्भावक्कन्ति । एतदानुत्तरियं, भन्ते, गब्भावक्कन्तीसु ।
आदेसनविधादेसना
पन,
१४८. "अपरं भन्ते, एतदानुत्तरियं यथा भगवा धम्मं देसेति आदेसनविधासु । चतस्सो इमा, भन्ते, आदेसनविधा । इध, भन्ते, एकच्चो निमित्तेन आदिसति - 'एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त 'न्ति । सो बहुं चेपि आदिसति, तथेव तं होति, नो अञ्ञथा । अयं पठमा आदेसनविधा ।
(३.५.१४८-१४८)
" पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो न हेव खो निमित्तेन आदिसति । अपि च खो मनुस्सानं वा अमनुस्सानं वा देवतानं वा सद्दं सुत्वा आदिसति - 'एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त 'न्ति । सो बहुं चेपि आदिसति, तथेव तं होति, नो अञ्ञथा । अयं दुतिया आदेसनविधा ।
" पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो न हेव खो निमित्तेन आदिसति, नापि मनुस्सानं वा अमनुस्सानं वा देवतानं वा सद्दं सुत्वा आदिसति । अपि च खो वितक्कयतो विचारयतो वितक्कविप्फारसद्दं सुत्वा आदिसति - ' एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त 'न्ति । सो बहुं चेपि आदिसति तथेव तं होति, नो अञ्ञथा । अयं ततिया आदेसनविधा ।
,
" पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो न हेव खो निमित्तेन आदिसति, नापि मनुस्सानं वा अमनुस्सानं वा देवतानं वा सद्दं सुत्वा आदिसति, नापि वितक्कयतो विचारयतो
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(३.५.१४९-१४९)
५. सम्पसादनीयसुत्तं
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वितक्कविप्फारसई सुत्वा आदिसति। अपि च खो अवितक्कं अविचारं समाधि समापन्नस्स चेतसा चेतो परिच्च पजानाति - ‘यथा इमस्स भोतो मनोसङ्घारा पणिहिता । तथा इमस्स चित्तस्स अनन्तरा इमं नाम वितक्कं वितक्केस्सती'ति । सो बहुं चेपि आदिसति, तथैव तं होति, नो अञथा। अयं चतुत्था आदेसनविधा । एतदानुत्तरियं, भन्ते, आदेसनविधासु।
दस्सनसमापत्तिदेसना
१४९. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति दस्सनसमापत्तीसु । चतस्सो इमा, भन्ते, दस्सनसमापत्तियो । “इध, भन्ते, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति । यथासमाहिते चित्ते इममेव कायं उद्धं पादतला अधो केसमत्थका तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति- 'अत्थि इमस्मिं काये केसा लोमा नखा दन्ता तचो मंसं न्हारु अट्ठि अट्ठिमिजं वक्कं हदयं यकनं किलोमकं पिहकं पप्फासं अन्तं अन्तगुणं उदरियं करीसं पित्तं सेम्हं पुब्बो लोहितं सेदो मेदो अस्सु वसा खेळो सिङ्घानिका लसिका मुत्त'न्ति । अयं पठमा दस्सनसमापत्ति ।
"पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय...पे०... तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति । यथासमाहिते चित्ते इममेव कायं उद्धं पादतला अधो केसमत्थका तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति - ‘अत्थि इमस्मिं काये केसा लोमा...पे०... लसिका मुत्त'न्ति । अतिक्कम्म च पुरिसस्स छविमंसलोहितं अट्टि पच्चवेक्खति । अयं दुतिया दस्सनसमापत्ति ।
“पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय...पे०... तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति । यथासमाहिते चित्ते इममेव कायं उद्धं पादतला अधो केसमत्थका तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति - ‘अत्थि इमस्मिं काये केसा लोमा...पे०... लसिका मुत्त'न्ति । अतिक्कम्म च पुरिसस्स छविमंसलोहितं अढ़ि पच्चवेक्खति । पुरिसस्स च विज्ञाणसोतं पजानाति, उभयतो अब्बोच्छिन्नं इध लोके पतिट्टितञ्च परलोके पतिट्ठितञ्च । अयं ततिया दस्सनसमापत्ति ।
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७८
दीघनिकायो-३
(३.५.१५०-१५२)
“पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय...पे०... तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति । यथासमाहिते चित्ते इममेव कायं उद्धं पादतला अधो केसमत्थका तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति- 'अस्थि इमस्मिं काये केसा लोमा नखा दन्ता तचो मंसं न्हारु अट्ठि अट्ठिमिजं वक्कं हदयं यकनं किलोमकं पिहकं पप्फासं अन्तं अन्तगुणं उदरियं करीसं पित्तं सेम्हं पुब्बो लोहितं सेदो मेदो अस्सु वसा खेळो सिङ्घानिका लसिका मुत्त'न्ति । अतिक्कम्म च पुरिसस्स छविमंसलोहितं अर्टि पच्चवेक्खति। पुरिसस्स च विज्ञाणसोतं पजानाति, उभयतो अब्बोच्छिन्नं इध लोके अप्पतिद्वितञ्च परलोके अप्पतिद्वितञ्च । अयं चतुत्था दस्सनसमापत्ति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, दस्सनसमापत्तीसु।
पुग्गलपण्णत्तिदेसना १५०. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति पुग्गलपण्णत्तीसु। सत्तिमे, भन्ते, पुग्गला। उभतोभागविमुत्तो पञ्जाविमुत्तो कायसक्खी दिट्ठिप्पत्तो सद्धाविमुत्तो धम्मानुसारी सद्धानुसारी। एतदानुत्तरियं, भन्ते, पुग्गलपण्णत्तीसु।
पधानदेसना १५१. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति पधानेसु । सत्तिमे, भन्ते सम्बोज्झङ्गा सतिसम्बोज्झङ्गो धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो वीरियसम्बोज्झङ्गो पीतिसम्बोज्झङ्गो पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो समाधिसम्बोज्झङ्गो उपेक्खासम्बोज्झङ्गो। एतदानुत्तरियं, भन्ते, पधानेसु।
पटिपदादेसना
१५२. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्म देसेति पटिपदासु | चतस्सो इमा, भन्ते, पटिपदा दुक्खा पटिपदा दन्धाभिञा, दुक्खा पटिपदा खिप्पाभिञा, सुखा पटिपदा दन्धाभिञा, सुखा पटिपदा खिप्पाभिञाति । तत्र, भन्ते, यायं पटिपदा दुक्खा दन्धाभिञा, अयं, भन्ते, पटिपदा उभयेनेव हीना अक्खायति दुक्खत्ता च दन्धत्ता च । तत्र, भन्ते, यायं पटिपदा दुक्खा खिप्पाभिञा, अयं पन, भन्ते, पटिपदा दुक्खत्ता
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(३.५.१५३-१५४)
५. सम्पसादनीयसुत्तं
७९
हीना अक्खायति । तत्र, भन्ते, यायं पटिपदा सुखा दन्धाभिञा, अयं पन, भन्ते, पटिपदा दन्धत्ता हीना अक्खायति । तत्र, भन्ते, यायं पटिपदा सुखा खिप्पाभिञा, अयं पन, भन्ते, पटिपदा उभयेनेव पणीता अक्खायति सुखत्ता च खिप्पत्ता च । एतदानुत्तरियं, भन्ते, पटिपदासु ।
भस्ससमाचारादिदेसना .१५३. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति भस्ससमाचारे । इध, भन्ते, एकच्चो न चेव मुसावादुपसहितं वाचं भासति न च वेभूतियं न च पेसुणियं न च सारम्भजं जयापेक्खो; मन्ता मन्ता च वाचं भासति निधानवतिं कालेन । एतदानुत्तरियं, भन्ते, भस्ससमाचारे ।
“अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति पुरिससीलसमाचारे । इध, भन्ते, एकच्चो सच्चो चस्स सद्धो च, न च कुहको, न च लपको, न च नेमित्तिको, न च निप्पेसिको, न च लाभेन लाभं निजिगीसनको, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो, भोजने मत्तञ्जू, समकारी, जागरियानुयोगमनुयुत्तो, अतन्दितो, आरद्धवीरियो, झायी, सतिमा, कल्याणपटिभानो, गतिमा, धितिमा, मतिमा, न च कामेसु गिद्धो, सतो च निपको च । एतदानुत्तरियं, भन्ते, पुरिससीलसमाचारे ।
अनुसासनविधादेसना १५४. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति अनुसासनविधासु । चतस्सो इमा भन्ते अनुसासनविधा- “जानाति, भन्ते, भगवा अपरं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा 'अयं पुग्गलो यथानुसिटुं तथा पटिपज्जमानो तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो भविस्सति अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो'ति । जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा- 'अयं पुग्गलो यथानुसिटुं तथा पटिपज्जमानो तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी भविस्सति, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सती'ति। 'जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा- 'अयं पुग्गलो यथानुसिटुं तथा पटिपज्जमानो पञ्चनं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको भविस्सति तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो
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दीघनिकायो-३
(३.५.१५५-१५६)
तस्मा लोका'ति। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा- 'अयं पुग्गलो यथानुसिटुं तथा पटिपज्जमानो आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञआविमुत्तिं दिवेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सती'ति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, अनुसासनविधासु।
परपुग्गलविमुत्तित्राणदेसना १५५. "अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्म देसेति परपुग्गलविमुत्तित्राणे। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा- 'अयं पुग्गलो तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापनो भविस्सति अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो'ति, जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा- 'अयं पुग्गलो तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी भविस्सति, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सतीति। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा- 'अयं पुग्गलो पञ्चनं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको भविस्सति तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका'ति। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा- 'अयं पुग्गलो आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्जाविमुत्तिं दिढेव धम्मे सयं अभिजा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सती'ति । एतदानुत्तरियं, भन्ते, परपुग्गलविमुत्तित्राणे।
सस्सतवाददेसना १५६. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति सस्सतवादेसु । तयोमे, भन्ते, सस्सतवादा। "इध, भन्ते, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय...पे०... तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सेय्यथिदं, एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्जासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकानिपि जातिसतानि अनेकानिपि जातिसहस्सानि अनेकानिपि जातिसतसहस्सानि, 'अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो
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(३.५.१५६-१५६)
५. सम्पसादनीयसुत्तं
एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो'ति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सो एवमाह - ‘अतीतंपाहं अद्धानं जानामि - संवट्टि वा लोको विवट्टि वाति । अनागतंपाहं अद्धानं जानामि - संवट्टिस्सति वा लोको विवट्टिस्सति वाति । सस्सतो अत्ता च लोको च वझो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो । ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम'न्ति । अयं पठमो सस्सतवादो।
“पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय...पे०... तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सेय्यथिदं, एकम्पि संवट्टविवढं द्वेपि संवट्टविवट्टानि तीणिपि संवट्टविवट्टानि चत्तारिपि संवट्टविवट्टानि पञ्चपि संवट्टविवट्टानि दसपि संवट्टविवट्टानि, 'अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नोति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सो एवमाह - ‘अतीतंपाहं अद्धानं जानामि संवट्टि वा लोको विवट्टि वाति । अनागतंपाहं अद्धानं जानामि संवट्टिस्सति वा लोको विवट्टिस्सति वाति । सस्सतो अत्ता च लोको च वझो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्टितो । ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसमन्ति । अयं दुतियो सस्सतवादो।
"पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय...पे०... तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सेय्यथिदं, दसपि संवद्दविवट्टानि वीसम्पि संवट्टविवट्टानि तिंसम्पि संवट्टविवट्टानि चत्तालीसम्पि संवट्टविवट्टानि, 'अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नोति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सो एवमाह - ‘अतीतंपाहं अद्धानं जानामि संवट्टिपि लोको विवट्टिपीति; अनागतंपाहं अद्धानं जानामि संवट्टिस्सतिपि लोको विवट्टिस्सतिपीति । सस्सतो अत्ता च लोको च वझो
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दीघनिकायो-३
(३.५.१५७-१५८)
कूटट्ठो एसिकट्टायिट्ठितो । ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम'न्ति। अयं ततियो सस्सतवादो, एतदानुत्तरियं, भन्ते, सस्सतवादेसु ।
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पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणदेसना
१५७. " अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं यथा भगवा धम्मं देसेति पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणे । इध, भन्ते, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय...पे०... तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुसरति । सेय्यथिदं, एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्त्रम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे, 'अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवणो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो 'ति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सन्ति, भन्ते, देवा, येसं न सक्का गणनाय वा सङ्घानेन वा आयु सङ्घातुं । अपि च, यस्मिं यस्मिं अत्तभावे अभिनिवुट्टपुब्बो होति यदि वा रूपीसु यदि वा अरूपीसु यदि वा सञ्ञीसु यदि वा असञ्जीसु यदि वा नेवसञ्जीनासञ्जसु । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुसरति । एतदानुत्तरियं, भन्ते, पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणे ।
चुतूपपातञाणदेसना
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१५८. “ अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं यथा भगवा धम्मं देसेति सत्तानं चुतूपपातञाणे । इध, भन्ते, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय...पे०... तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते परसति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवणे दुब्बणे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति - 'इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना । ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्ग
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(३.५.१५९-१५९)
५. सम्पसादनीयसुत्तं
विनिपातं निरयं उपपन्ना। इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना । ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना'ति । इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति । एतदानुत्तरियं, भन्ते, सत्तानं चुतूपपातजाणे ।
इद्धिविधदेसना ___ १५९. “अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्म देसेति इद्धिविधासु । द्वेमा, भन्ते, इद्धिविधायो- “अत्थि, भन्ते, इद्धि सासवा सउपधिका, नो अरिया"ति बुच्चति। “अत्थि, भन्ते, इद्धि अनासवा अनुपधिका अरिया'ति बुच्चति। “कतमा च, भन्ते, इद्धि सासवा सउपधिका, नो अरियाति वुच्चति ? इध, भन्ते, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय...पे०... तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति । एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं तिरोभावं तिरोकुटुं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे । पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति, सेय्यथापि उदके। उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति, सेय्यथापि पथवियं । आकासेपि पल्लङ्केन कमति, सेय्यथापि पक्खी सकुणो। इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति । याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति । अयं, भन्ते, इद्धि सासवा सउपधिका, नो अरियाति वुच्चति ।
"कतमा पन, भन्ते, इद्धि अनासवा अनुपधिका, अरिया'ति बुच्चति ? इध, भन्ते, भिक्खु सचे आकङ्घति- 'पटिकूले अप्पटिकूलसञ्जी विहरेय्य'न्ति, अप्पटिकूलसञी तत्थ विहरति सचे आकङ्घति- 'अप्पटिकूले पटिकूलसञ्जी विहरेय्य'न्ति, पटिकूलसञी तत्थ विहरति। सचे आकङ्घति- 'पटिकूले च अप्पटिकूले च अप्पटिकूलसञी विहरेय्य'न्ति, अप्पटिकूलसञी तत्थ विहरति। सचे आकङ्घति- 'पटिकूले च अप्पटिकूले च पटिकूलसञ्जी विहरेय्य'न्ति, पटिकूलसञ्जी तत्थ विहरति। सचे आकङ्घति- 'पटिकूलञ्च अप्पटिकूलञ्च तदुभयं अभिनिवज्जेत्वा उपेक्खको विहरेय्यं सतो सम्पजानो'ति, उपेक्खको तत्थ विहरति सतो सम्पजानो। अयं, भन्ते, इद्धि अनासवा अनुपधिका अरियाति बुच्चति । एतदानुत्तरियं, भन्ते,
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दीघनिकायो-३
(३.५.१६०-१६१)
इद्धिविधासु। तं भगवा असेसमभिजानाति, तं भगवतो असेसमभिजानतो उत्तरि अभिनेय्यं नत्थि, यदभिजानं अञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिज्ञतरो अस्स यदिदं इद्धि विधासु ।
अञथासत्थुगुणदस्सनं १६०. “यं तं, भन्ते, सद्धेन कुलपुत्तेन पत्तब् आरद्धवीरियेन थामवता पुरिसथामेन पुरिसवीरियेन पुरिसपरक्कमेन पुरिसधोरव्हेन, अनुप्पत्तं तं भगवता । न च, भन्ते, भगवा कामेसु कामसुखल्लिकानुयोगमनुयुत्तो हीनं गम्मं पोथुज्जनिकं अनरियं अनत्थसंहितं, न च अत्तकिलमथानुयोगमनुयुत्तो दुक्खं अनरियं अनत्थसंहितं । चतुन्नञ्च भगवा झानानं आभिचेतसिकानं दिट्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी अकिच्छलाभी अकसिरलाभी।
अनुयोगदानप्पकारो
१६१. “सचे मं, भन्ते, एवं पुच्छेय्य - 'किं नु खो, आवुसो सारिपुत्त, अहेसुं अतीतमद्धानं अछे समणा वा ब्राह्मणा वा भगवता भिय्योभिचतरा सम्बोधियन्ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, “नो"ति वदेय्यं । 'किं पनावुसो सारिपुत्त, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अछे समणा वा ब्राह्मणा वा भगवता भिय्योभिज्ञतरा सम्बोधिय'न्ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, “नो''ति वदेय्यं । 'किं पनावुसो सारिपुत्त, अत्थेतरहि अञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभितरो सम्बोधिय'न्ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, "नो''ति वदेय्यं ।
“सचे पन मं, भन्ते, एवं पुच्छेय्य - 'किं नु खो, आवुसो सारिपुत्त, अहेसुं अतीतमद्धानं अञ्चे समणा वा ब्राह्मणा वा भगवता समसमा सम्बोधिय'न्ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, “एव"न्ति वदेय्यं । 'किं पनावुसो सारिपुत्त, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अछे समणा वा ब्राह्मणा वा भगवता समसमा सम्बोधिय'न्ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, “एव"न्ति वदेय्यं । 'किं पनावुसो सारिपुत्त, अत्थेतरहि अजे समणा वा ब्राह्मणा वा भगवता समसमा सम्बोधिय'न्ति, एवं पुट्ठो अहं भन्ते “नो''ति वदेय्यं ।
"सचे पन मं, भन्ते, एवं पुच्छेय्य - 'किं पनायस्मा सारिपुत्तो एकच्चं
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(३.५.१६२-१६२)
५. सम्पसादनीयसुत्तं
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अब्भनुजानाति, एकच्चं न अब्भनुजानाती'ति । एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, एवं ब्याकरेय्यं"सम्मुखा मेतं, आवुसो, भगवतो सुतं, सम्मुखा पटिग्गहितं - 'अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा मया समसमा सम्बोधिय'न्ति । सम्मुखा मेतं, आवुसो, भगवतो सुतं, सम्मुखा पटिग्गहितं- 'भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा मया समसमा सम्बोधियन्ति । सम्मुखा मेतं, आवुसो, भगवतो सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं - अट्ठानमेतं अनवकासो यं एकिस्सा लोकधातुया द्वे अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा अपुब्बं अचरिमं उप्पज्जेय्यु, नेतं ठानं विज्जती' ''ति ।
“कच्चाहं, भन्ते, एवं पुट्ठो एवं ब्याकरमानो वुत्तवादी चेव भगवतो होमि, न च भगवन्तं अभूतेन अब्भाचिक्खामि, धम्मस्स चानुधम्मं ब्याकरोमि, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारव्हं ठानं आगच्छती"ति ? "तग्घ त्वं, सारिपुत्त, एवं पुट्ठो एवं ब्याकरमानो वुत्तवादी चेव मे होसि, न च मं अभूतेन अब्भाचिक्खसि, धम्मस्स चानुधम्म ब्याकरोसि, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारव्हं ठानं आगच्छती''ति ।
अच्छरियअन्भुतं १६२. एवं वुत्ते, आयस्मा उदायी भगवन्तं एतदवोच – “अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, तथागतस्स अप्पिच्छता सन्तुट्ठिता सल्लेखता। यत्र हि नाम तथागतो एवंमहिद्धिको एवंमहानुभावो, अथ च पन नेवत्तानं पातुकरिस्सति ! एकमेकञ्चेपि इतो, भन्ते, धम्मं अञतित्थिया परिब्बाजका अत्तनि समनुपस्सेय्यु, ते तावतकेनेव पटाकं परिहरेय्युं । अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, तथागतस्स अप्पिच्छता सन्तुट्ठिता सल्लेखता । यत्र हि नाम तथागतो एवं महिद्धिको एवंमहानुभावो । अथ च पन नेवत्तानं पातुकरिस्सती''ति !
“पस्स खो त्वं, उदायि, तथागतस्स अप्पिच्छता सन्तुट्ठिता सल्लेखता। यत्र हि नाम तथागतो एवंमहिद्धिको एवंमहानुभावो। अथ च पन नेवत्तानं पातुकरिस्सति ! एकमेकञ्चेपि इतो, उदायि, धम्मं अञतित्थिया परिब्बाजका अत्तनि समनुपस्सेय्यु, ते तावतकेनेव पटाकं परिहरेय्युं । पस्स खो त्वं, उदायि, तथागतस्स अप्पिच्छता सन्तुट्टिता सल्लेखता। यत्र हि नाम तथागतो एवंमहिद्धिको एवंमहानुभावो । अथ च पन नेवत्तानं पातुकरिस्सती''ति !
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दीघनिकायो-३
(३.५.१६३-१६३)
१६३. अथ खो भगवा आयस्मन्तं सारिपुत्तं आमन्तेसि - "तस्मा तिह त्वं, सारिपुत्त, इमं धम्मपरियायं अभिक्खणं भासेय्यासि भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं । येसम्पि हि, सारिपुत्त, मोघपुरिसानं भविस्सति तथागते कङ्खा वा विमति वा, तेसमिमं धम्मपरियायं सुत्वा तथागते कङ्खा वा विमति वा, सा पहीयिस्सती"ति । इति हिदं आयस्मा सारिपुत्तो भगवतो सम्मुखा सम्पसादं पवेदेसि । तस्मा इमस्स वेय्याकरणस्स सम्पसादनीयं त्वेव अधिवचनन्ति ।
सम्पसादनीयसुत्तं निद्वितं पञ्चमं।
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६. पासादिकसुत्तं
१६४. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति वेधञा नाम सक्या, तेसं अम्बवने पासादे ।
निगण्ठनाटपुत्तकालङ्किरिया तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो होति । तस्स कालकिरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अचमचं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति- “न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि ? मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्नो। सहितं मे, असहितं ते । पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच । अधिचिण्णं ते विपरावत्तं, आरोपितो ते वादो, निग्गहितो त्वमसि, चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे पहोसी''ति । वधोयेव खो मचे निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु वत्तति । येपि निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना, तेपि निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु निब्बिन्नरूपा विरत्तरूपा पटिवानरूपा, यथा तं दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते भिन्नथूपे अप्पटिसरणे ।
१६५. अथ खो चुन्दो समणुद्देसो पावायं वस्संवुट्ठो येन सामगामो, येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो चुन्दो समणुद्देसो आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – “निगण्ठो, भन्ते, नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो। तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता...पे०... भिन्नथूपे अप्पटिसरणे''ति ।
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दीघनिकायो-३
एवं वुत्ते, आयस्मा आनन्दो चुन्दं समणुद्देसं एतदवोच “अत्थि खो इदं, आवुसो चुन्द, कथापाभतं भगवन्तं दस्सनाय । आयामावुसो चुन्द, येन भगवा तेनुपसङ्कमिस्साम; उपसङ्कमित्वा एतमत्थं भगवतो आरोचेस्सामा 'ति । "एवं, भन्ते" ति खो चुन्दो समस आयस्मतो आनन्दस्स पच्चस्सोसि |
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अथ खो आयस्मा च आनन्दो चुन्दो च समणुद्देसो येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । एकमन्तं निसिनो खो आयमा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - “अयं, भन्ते, चुन्दो समणुद्देसो एवमाह, 'निगण्ठो, भन्ते, नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो, तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा... पे०... भिन्नथूपे अप्पटिसरणे 'ति ।
असम्मासम्बुद्धप्पवेदितधम्मविनयो
१६६. “एवं हेतं, चुन्द, होति दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते । इध, चुन्द, सत्था च होति असम्मासम्बुद्धी, धम्मो च दुरक्खातो दुप्पवेदितो अनिय्यानिको अनुपसमसंवत्तनिको असम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, सावको च तस्मिं धम्मे न धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरति न सामीचिप्पटिपन्नो न अनुधम्मचारी, वोक्कम्म च तम्हा धम्मा वत्तति । सो एवमस्स वचनीयो - " तस्स ते, आवुसो, लाभा, तस्स ते सुलद्धं, सत्था च ते असम्मासम्बुद्धी, धम्मो च दुरक्खातो दुप्पवेदितो अनिय्यानिको अनुपसमसंवत्तनिको असम्मासम्बुद्धप्पवेदितो । त्वञ्च तस्मिं ध न धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरसि न सामीचिप्पटिपन्नो, न अनुधम्मचारी, वोक्कम्म च तम्हा धम्मा वत्ती 'ति । इति खो, चुन्द, सत्थापि तत्थ गारव्हो, धम्मोपि तत्थ गार हो, सावको च तत्थ एवं पासंसो । यो खो, चुन्द, एवरूपं सावकं एवं वदेय्य - " एतास्मा तथा पटिपज्जतु, यथा ते सत्थारा धम्मो देसितो पञ्ञत्तो 'ति । यो च समादपेति, यञ्च समादपेति, यो च समादपितो तथत्ताय पटिपज्जति । सब्बे ते बहुं अपुञ्जं पसवन्ति । तं किस्स हेतु ? एवं हेतं, चुन्द होति दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते ।
(३.६.१६६-१६७)
१६७. “इध पन, चुन्द, सत्था च होति असम्मासम्बुद्धी, धम्मो च दुरक्खातो दुप्पवेदितो अनिय्यानिको अनुपसमसंवत्तनिको असम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, सावको च तस्मिं
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(३.६.१६८-१६९)
६. पासादिकसुत्तं
धम्मे धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरति सामीचिप्पटिपन्नो अनुधम्मचारी, समादाय तं धम्म वत्तति । सो एवमस्स वचनीयो- "तस्स ते, आवुसो, अलाभा, तस्स ते दुल्लद्धं, सत्था च ते असम्मासम्बुद्धो, धम्मो च दुरक्खातो दुप्पवेदितो अनिय्यानिको अनुपसमसंवत्तनिको असम्मासम्बुद्धप्पवेदितो । त्वञ्च तस्मिं धम्मे धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरसि सामीचिप्पटिपन्नो अनुधम्मचारी, समादाय तं धम्मं वत्तसी'ति । इति खो, चुन्द, सत्थापि तत्थ गारव्हो, धम्मोपि तत्थ गारव्हो, सावकोपि तत्थ एवं गारव्हो । यो खो, चुन्द, एवरूपं सावकं एवं वदेय्य - "अद्धायस्मा आयप्पटिपन्नो आयमाराधेस्सती''ति । यो च पसंसति, यञ्च पसंसति, यो च पसंसितो भिय्योसो मत्ताय वीरियं आरभति। सब्बे ते बहु अपुलं पसवन्ति । तं किस्स हेतु ? एवञ्हेतं, चुन्द, होति दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते ।
सम्मासम्बुद्धप्पवेदितधम्मविनयो
१६८. "इध पन, चुन्द, सत्था च होति सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, सावको च तस्मिं धम्मे न धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरति, न सामीचिप्पटिपन्नो, न अनुधम्मचारी, वोक्कम्म च तम्हा धम्मा वत्तति । सो एवमस्स वचनीयो - "तस्स ते, आवुसो, अलाभा, तस्स ते दुल्लद्धं, सत्था च ते सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो। त्वञ्च तस्मिं धम्मे न धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरसि, न सामीचिप्पटिपन्नो, न अनुधम्मचारी, वोक्कम्म च तम्हा धम्मा वत्तसी"ति । इति खो, चुन्द, सत्थापि तत्थ पासंसो, धम्मोपि तत्थ पासंसो, सावको च तत्थ एवं गारव्हो । यो खो, चुन्द, एवरूपं सावकं एवं वदेय्य – “एतायस्मा तथा पटिपज्जतु यथा ते सत्थारा धम्मो देसितो पञत्तो''ति । यो च समादपेति, यञ्च समादपेति, यो च समादपितो तथत्ताय पटिपज्जति । सब्बे ते बहुं पुनं पसवन्ति । तं किस्स हेतु ? एवज्हेतं, चुन्द, होति स्वाक्खाते धम्मविनये सुप्पवेदिते निय्यानिके उपसमसंवत्तनिके सम्मासम्बुद्धप्पवेदिते ।
१६९. “इध पन, चुन्द, सत्था च होति सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, सावको च तस्मिं धम्मे धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरति सामीचिप्पटिपन्नो अनुधम्मचारी, समादाय तं धम्मं वत्तति । सो एवमस्स वचनीयो- “तस्स ते, आवुसो, लाभा, तस्स ते सुलद्धं, सत्था च ते
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दीघनिकायो-३
(३.६.१७०-१७१)
सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो। त्वञ्च तस्मिं धम्मे धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरसि सामीचिप्पटिपन्नो अनुधम्मचारी, समादाय तं धम्मं वत्तसी"ति । इति खो, चुन्द, सत्थापि तत्थ पासंसो, धम्मोपि तत्थ पासंसो, सावकोपि तत्थ एवं पासंसो | यो खो, चुन्द, एवरूपं सावकं एवं वदेय्य – “अद्धायस्मा ञायप्पटिपन्नो आयमाराधेस्सती''ति । यो च पसंसति, यञ्च पसंसति, यो च पसंसितो भिय्योसो मत्ताय वीरियं आरभति। सब्बे ते बहुं पुनं पसवन्ति । तं किस्स हेतु ? एवज्हेतं, चुन्द, होति स्वाक्खाते धम्मविनये सुप्पवेदिते निय्यानिके उपसमसंवत्तनिके सम्मासम्बुद्धप्पवेदिते ।
सावकानुतप्पसत्थु
१७०. “इध पन, चुन्द, सत्था च लोके उदपादि अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, अविज्ञापितत्था चस्स होन्ति सावका सद्धम्मे, न च तेसं केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं होति उत्तानीकतं सब्बसङ्गाहपदकतं सप्पाटिहीरकतं. याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं । अथ नेसं सत्थुनो अन्तरधानं होति । एवरूपो खो, चुन्द, सत्था सावकानं कालङ्कतो अनुतप्पो होति । तं किस्स हेतु ? सत्था च नो लोके उदपादि अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, अविज्ञापितत्था चम्ह सद्धम्मे, न च नो केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं होति उत्तानीकतं सब्बसङ्गाहपदकतं सप्पाटिहीरकतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं । अथ नो सत्थुनो अन्तरधानं होतीति । एवरूपो खो, चुन्द, सत्था सावकानं कालङ्कतो अनुतप्पो होति ।
सावकाननुतप्पसत्थु
१७१. “इध पन, चुन्द, सत्था च लोके उदपादि अरहं सम्मासम्बुद्धो । धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो । विज्ञापितत्था चस्स होन्ति सावका सद्धम्मे, केवलञ्च तेसं परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं होति उत्तानीकतं सब्बसङ्गाहपदकतं सप्पाटिहीरकतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं । अथ नेसं सत्थुनो अन्तरधानं होति । एवरूपो खो, चुन्द, सत्था सावकानं कालङ्कतो अननुतप्पो
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(३.६.१७२-१७४)
६. पासादिकसुतं
होति । तं किस्स हेतु ? सत्था च नो लोके उदपादि अरहं सम्मासम्बुद्धी | धम्म च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो । विञ्ञापित्था चम्ह सद्धम्मे, केवलञ्च नो परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं होति उत्तानीकतं सब्बसङ्गाहपदकतं सप्पाटिहीरकतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं । अथ नो सत्थुनो अन्तरधानं होतीति। एवरूपो खो, चुन्द, सत्था सावकानं कालङ्कतो अननुतप्पो होति ।
ब्रह्मचरिय अपरिपूरादिकथा
१७२. “एतेहि चेपि, चुन्द, अहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, नो च खो सत्था होति थे रत्तञ्जू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्ती । एवं तं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं होति तेनङ्गेन ।
" यतो च खो, चुन्द, एतेहि चेव अङ्गेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, सत्था च होति थेरो रत्तञ्जू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो । एवं तं ब्रह्मचरियं परिपूरं होति तेनङ्गेन ।
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१७३. “ एतेहि चेपि, चुन्द, अङ्गेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, सत्था च होति थेरो रत्तञ्जू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, नो च ख्वस्स थेरा भिक्खू सावका होन्ति वियत्ता विनीता विसारदा पत्तयोगक्खेमा । अलं समक्खातुं सद्धम्मस्स, अलं उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेहि सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेतुं । एवं तं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं होति तेनङ्गेन ।
"यतो च खो, चुन्द, एतेहि चेव अङ्गेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, सत्था च होति थेरो रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, थेरा चस्स भिक्खू सावका होन्ति वियत्ता विनीता विसारदा पत्तयोगक्खेमा । अलं समक्खातुं सद्धम्मस्स, अलं उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेहि सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेतुं । एवं तं ब्रह्मचरियं परिपूरं होति तेनङ्गेन ।
१७४. “एतेहि चेपि, चुन्द, अनेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, सत्था च होति थेरो रत्तञ्जू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, थेरा चस्स भिक्खू सावका
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दीघनिकायो-३
(३.६.१७४-१७४)
वियत्ता विनीता विसारदा पत्तयोगक्खेमा । अलं समक्खातुं सद्धम्मस्स, अलं उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेहि सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेतुं । नो च ख्वस्स मज्झिमा भिक्खू सावका होन्ति...पे०... मज्झिमा चस्स भिक्खू सावका होन्ति, नो च ख्वस्स नवा भिक्खू सावका होन्ति...पे०... नवा चस्स भिक्खू सावका होन्ति, नो च ख्वस्स थेरा भिक्खुनियो साविका होन्ति...पे०... थेरा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति, नो च ख्वस्स मज्झिमा भिक्खुनियो साविका होन्ति...पे०... मज्झिमा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति, नो च ख्वस्स नवा भिक्खुनियो साविका होन्ति...पे०... नवा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति, नो च ख्वस्स उपासका सावका होन्ति गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो...पे०... उपासका चस्स सावका होन्ति गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो, नो च ख्वस्स उपासका सावका होन्ति गिही ओदातवसना कामभोगिनो...पे०... उपासका चस्स सावका होन्ति गिही ओदातवसना कामभोगिनो, नो च ख्वस्स उपासिका साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो...पे०... उपासिका चस्स साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो, नो च ख्वस्स उपासिका साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो...पे०... उपासिका चस्स साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो, नो च ख्वस्स ब्रह्मचरियं होति इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजनं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं...पे०... ब्रह्मचरियञ्चस्स होति इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजङ पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं, नो च खो लाभग्गयसग्गप्पत्तं । एवं तं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं होति तेनङ्गेन ।
“यतो च खो, चुन्द, एतेहि चेव अङ्गेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, सत्था च होति थेरो रत्तञ्जू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, थेरा चस्स भिक्खू सावका होन्ति वियत्ता विनीता विसारदा पत्तयोगक्खेमा । अलं समक्खातुं सद्धम्मस्स, अलं उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेहि सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेतुं । मज्झिमा चस्स भिक्खू सावका होन्ति । नवा चस्स भिक्खू सावका होन्ति । थेरा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति । मज्झिमा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति । नवा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति । उपासका चस्स सावका होन्ति... गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो । उपासका चस्स सावका होन्ति गिही ओदातवसना कामभोगिनो । उपासिका चस्स साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो । उपासिका चस्स साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो । ब्रह्मचरियञ्चस्स होति इद्धञ्चेव फीतञ्च
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(३.६.१७५-१७६)
६. पासादिकसुत्तं
वित्थारिकं बाहुजनं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं, लाभग्गप्पत्तञ्च यसग्गप्पत्तञ्च । एवं तं ब्रह्मचरियं परिपूरं होति तेनङ्गेन ।
१७५. “अहं खो पन, चुन्द, एतरहि सत्था लोके उप्पन्नो अरहं सम्मासम्बुद्धो । धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो । विज्ञापितत्था च मे सावका सद्धम्मे, केवलञ्च तेसं परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं उत्तानीकतं सब्बसङ्गाहपदकतं सप्पाटिहीरकतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं । अहं खो पन, चुन्द, एतरहि सत्था थेरो रत्तञ्जू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो ।
“सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि थेरा भिक्खू सावका होन्ति वियत्ता विनीता विसारदा पत्तयोगक्खेमा । अलं समक्खातुं सद्धम्मस्स, अलं उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेहि सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेतुं । सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि मज्झिमा भिक्खू सावका। सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि नवा भिक्खू सावका । सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि थेरा भिक्खुनियो साविका । सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि मज्झिमा भिक्खुनियो साविका । सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि नवा भिक्खनियो साविका। सन्ति खो पन मे. चन्द. एतरहि उपासका सावका गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो। सन्ति खो पन मे, चन्द, एतरहि उपासका सावका गिही ओदातवसना कामभोगिनो | सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि उपासिका साविका गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो। सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि उपासिका साविका गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो। एतरहि खो पन मे, चन्द, ब्रह्मचरियं इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजनं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं ।
१७६. “यावता खो, चुन्द, एतरहि सत्थारो लोके उप्पन्ना, नाहं, चुन्द, अझं एकसत्थारम्पि समनुपस्सामि एवंलाभग्गयसग्गप्पत्तं यथरिवाहं । यावता खो पन, चुन्द, एतरहि सङ्घो वा गणो वा लोके उप्पन्नो; नाहं, चुन्द, अझं एकं संघम्पि समनुपस्सामि एवंलाभग्गयसग्गप्पत्तं यथरिवायं, चुन्द, भिक्खुसङ्घो। यं खो तं, चुन्द, सम्मा वदमानो वदेय्य - “सब्बाकारसम्पन्नं सब्बाकारपरिपूरं अनूनमनधिकं स्वाक्खातं केवलं परिपूर ब्रह्मचरियं सुप्पकासित''न्ति । इदमेव तं सम्मा वदमानो वदेय्य - "सब्बाकारसम्पन्नं...पे०... सुप्पकासित''न्ति ।
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दीघनिकायो-३
(३.६.१७७-१७७)
“उदको सुदं, चुन्द, रामपुत्तो एवं वाचं भासति - "पस्सं न पस्सती 'ति । किञ्च पस्सं न पस्सतीति ? खुरस्स साधुनिसितस्स तलमस्स पस्सति, धारञ्च ख्वस्स न पस्सति । इदं वुच्चति - " पस्सं न परसती 'ति । यं खो पनेतं, चुन्द, उदकेन रामपुत्तेन भासितं हीनं गम्मं पोथुज्जनिकं अनरियं अनत्थसंहितं खुरमेव सन्धाय । यञ्च तं चुन्द, सम्मा वदमानो वदेय्य – “पस्सं न पस्सती "ति, इदमेव तं सम्मा वदमानो वदेय्य – “पस्सं न पस्सती 'ति । किञ्च पस्सं न पस्सतीति ? एवं सब्बाकारसम्पन्नं सब्बाकारपरिपूरं अनूनमनधिकं स्वाक्खातं केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं सुप्पकासितन्ति, इति हेतं पस्सति । इदमेत्थ अपकड्डेय्य, एवं तं परिसुद्धतरं अस्साति, इति हेतं न पस्सति । इदमेत्थ उपकड्डेय्य, एवं तं परिपूरं अस्साति, इति हेतं न पस्सति । इदं वुच्चति चुन्द - "पस्सं न पस्सती 'ति । यं खो तं, चुन्द, सम्मा वदमानो वदेय्य - "सब्बाकारसम्पन्नं...पे०... ब्रह्मचरियं सुप्पकासित "न्ति । इदमेव तं सम्मा वदमानो वदेय्य – “सब्बाकारसम्पन्नं सब्बाकारपरिपूरं अनूनमनधिकं स्वाक्खातं केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं सुप्पकासित ”न्ति ।
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सङ्गायि तब्बधम्मो
१७७. तस्मातिह, चुन्द, ये वो मया धम्मा अभिज्ञा देसिता, तत्थ सब्बेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं ब्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे च ते, चुन्द, धम्मा मया अभिज्ञा देसिता, यत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं ब्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ? सेय्यथिदं - चत्तारो सतिपट्ठाना, चत्तारो सम्मप्पधाना, चत्तारो इद्धिपादा, पञ्चिन्द्रियानि, पञ्च बलानि, सत्त बोज्झङ्गा, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो । इमे खो ते, चुन्द, धम्मा मया अभिज्ञा देसिता । यत्थ सब्बेहेव सङ्गम्य समागम्म अत्थेन अत्थं व्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
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(३.६.१७८-१८०)
६. पासादिकसुत्तं
सज्ञापेतब्बविधि
१७८. “तेसञ्च वो, चुन्द, समग्गानं सम्मोदमानानं अविवदमानानं सिक्खतं अञ्जतरो सब्रह्मचारी सङ्घ धम्मं भासेय्य । तत्र चे तुम्हाकं एवमस्स - “अयं खो आयस्मा अत्थञ्चेव मिच्छा गण्हाति, ब्यञ्जनानि च मिच्छा रोपेती"ति । तस्स नेव अभिनन्दितब्बं न पटिक्कोसितब्बं, अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा सो एवमस्स वचनीयो – “इमस्स नु खो, आवुसो, अत्थस्स इमानि वा ब्यञ्जनानि एतानि वा ब्यञ्जनानि कतमानि ओपायिकतरानि, इमेसञ्च ब्यञ्जनानं अयं वा अत्थो एसो वा अत्थो कतमो ओपायिकतरोति ? सो चे एवं वदेय्य - "इमस्स खो, आवुसो, अत्थस्स इमानेव ब्यञ्जनानि ओपायिकतरानि, या चेव एतानि; इमेसञ्च ब्यञ्जनानं अयमेव अत्थो ओपायिकतरो, या चेव एसो''ति । सो नेव उस्सादेतब्बो न अपसादेतब्बो, अनुस्सादेत्वा अनपसादेत्वा स्वेव साधुकं सापेतब्बो तस्स च अत्थस्स तेसञ्च ब्यञ्जनानं निसन्तिया ।
१७९. “अपरोपि चे, चुन्द, सब्रह्मचारी सङ्घ धम्मं भासेय्य । तत्र चे तुम्हाकं एवमस्स - “अयं खो आयस्मा अत्थहि खो मिच्छा गण्हाति ब्यञ्जनानि सम्मा रोपेतीति । तस्स नेव अभिनन्दितब्बं न पटिक्कोसितब्द, अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा सो एवमस्स वचनीयो- “इमेसं नु खो, आवुसो, ब्यञ्जनानं अयं वा अत्थो एसो वा अत्थो कतमो ओपायिकतरो"ति ? सो चे एवं वदेय्य - "इमेसं खो, आवुसो, ब्यञ्जनानं अयमेव अत्थो ओपायिकतरो, या चेव एसो'ति । सो नेव उस्सादेतब्बो न अपसादेतब्बो, अनुस्सादेत्वा अनपसादेत्वा स्वेव साधुकं सापेतब्बो तस्सेव अत्थस्स निसन्तिया ।
१८०. "अपरोपि चे, चुन्द, सब्रह्मचारी सङ्घ धम्मं भासेय्य । तत्र चे तुम्हाकं एवमस्स - “अयं खो आयस्मा अत्थहि खो सम्मा गण्हाति ब्यञ्जनानि मिच्छा रोपेती"ति। तस्स नेव अभिनन्दितब्बं न पटिक्कोसितब्बं; अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा सो एवमस्स वचनीयो- "इमस्स न खो. आवसो. अत्थस्स इमानि वा ब्यञ्जनानि एतानि वा ब्यञ्जनानि कतमानि ओपायिकतरानी"ति ? सो चे एवं वदेय्य - "इमस्स खो, आवुसो, अत्थस्स इमानेव ब्यञ्जनानि ओपयिकतरानि, यानि चेव
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दीघनिकायो-३
(३.६.१८१-१८३)
एतानी'ति । सो नेव उस्सादेतब्बो न अपसादेतब्बो; अनुस्सादेत्वा अनपसादेत्वा स्वेव साधुकं सापेतब्बो तेस व ब्यञ्जनानं निसन्तिया ।।
१८१. “अपरोपि चे, चुन्द, सब्रह्मचारी सङ्घ धम्मं भासेय्य । तत्र चे तुम्हाकं एवमस्स - “अयं खो आयस्मा अत्थञ्चेव सम्मा गण्हाति ब्यञ्जनानि च सम्मा रोपेती"ति । तस्स साधूति भासितं अभिनन्दितब्बं अनुमोदितब्बं; तस्स साधूति भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा सो एवमस्स वचनीयो- “लाभा नो आवुसो, सुलद्धं नो आवुसो, ये मयं आयस्मन्तं तादिसं सब्रह्मचारिं पस्साम एवं अत्थुपेतं ब्यञ्जनुपेत''न्ति ।
पच्चयानुञातकारणं १८२. "न वो अहं, चुन्द, दिट्ठधम्मिकानंयेव आसवानं संवराय धम्मं देसेमि । न पनाहं, चुन्द, सम्परायिकानंयेव आसवानं पटिघाताय धम्मं देसेमि । दिठ्ठधम्मिकानं चेवाहं, चुन्द, आसवानं संवराय धम्मं देसेमि; सम्परायिकानञ्च आसवानं पटिघाताय । तस्मातिह, चुन्द, यं वो मया चीवरं अनुञ्जातं, अलं वो तं- यावदेव सीतस्स पटिघाताय, उण्हस्स पटिघाताय, डंस मकस वातातप सरीसप सम्फस्सानं पटिघाताय, यावदेव हिरिकोपीनपटिच्छादनत्थं । यो वो मया पिण्डपातो अनुज्ञातो, अलं वो सो यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया यापनाय विहिं सूपरतिया ब्रह्मचरियानुग्गहाय, इति पुराणञ्च वेदनं पटिहङ्खामि, नवञ्च वेदनं न उप्पादेस्सामि, यात्रा च मे भविस्सति अनवज्जता च फासुविहारो च। यं वो मया सेनासनं अनुज्ञातं, अलं वो तं यावदेव सीतस्स पटिघाताय, उण्हस्स पटिघाताय, डंस मकस वातातप सरीसप सम्फस्सानं पटिघाताय, यावदेव उतुपरिस्सयविनोदन पटिसल्लानारामत्थं । यो वो मया गिलानपच्चयभेसज्ज परिक्खारो अनुञातो, अलं वो सो- यावदेव उप्पन्नानं वेय्याबाधिकानं वेदनानं पटिघाताय अब्यापज्जपरमताय।
सुखल्लिकानुयोगो
१८३. "ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्यु - "सुखल्लिकानुयोगमनुयुत्ता समणा सक्यपुत्तिया विहरन्ती''ति । एवंवादिनो, चुन्द,
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(३ ६.१८४-१८४)
(३.६.१८४-१८४)
६. पासादिकसुत्तं
अञतिथिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया - “कतमो सो, आवुसो, सुखल्लिकानुयोगो ? सुखल्लिकानुयोगा हि बहू अनेकविहिता नानप्पकारका''ति ।
"चत्तारोमे, चुन्द, सुखल्लिकानुयोगा हीना गम्मा पोथुज्जनिका अनरिया अनत्थसंहिता न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिजाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तन्ति । कतमे चत्तारो ?
"इध, चुन्द, एकच्चो बालो पाणे वधित्वा वधित्वा अत्तानं सुखेति पीणेति । अयं पठमो सुखल्लिकानुयोगो।
पुन चपरं, चुन्द, इधेकच्चो अदिन्नं आदियित्वा आदियित्वा अत्तानं सुखेति पीणेति । अयं दुतियो सुखल्लिकानुयोगो ।
पुन चपरं, चुन्द, इधेकच्चो मुसा भणित्वा भणित्वा अत्तानं सुखेति पीणेति । अयं ततियो सुखल्लिकानुयोगो।
पुन चपरं, चुन्द, इधेकच्चो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समझीभूतो परिचारेति । अयं चतुत्थो सुखल्लिकानुयोगो ।
इमे खो, चुन्द, चत्तारो सुखल्लिकानुयोगा हीना गम्मा पोथुज्जनिका अनरिया अनत्थसंहिता न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिज्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तन्ति ।
___ "ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं"इमे चत्तारो सुखल्लिकानुयोगे अनुयुत्ता समणा सक्यपुत्तिया विहरन्ती"ति । ते वो "माहेवं" तिस्सु वचनीया । न ते वो सम्मा वदमाना वदेय्यु, अब्भाचिक्खेय्युं असता अभूतेन ।
१८४. “चत्तारोमे, चुन्द. सुखल्लिकानुयोगा एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तन्ति । कतमे चत्तारो ?
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दीघनिकायो-३
(३.६.१८५-१८५)
“इध, चुन्द, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । अयं पठमो सुखल्लिकानुयोगो।
"पुन चपरं, चुन्द, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । अयं दुतियो सुखल्लिकानुयोगो ।
"पुन चपरं, चुन्द, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति यं तं अरिया आचिक्खन्ति 'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी'ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । अयं ततियो सुखल्लिकानुयोगो ।
"पुन चपरं, चुन्द, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । अयं चतुत्थो सुखल्लिकानुयोगो।
"इमे खो, चुन्द, चत्तारो सुखल्लिकानुयोगा एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिज्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तन्ति ।
"ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं अतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेव्यु - "इमे चत्तारो सुखल्लिकानुयोगे अनुयुत्ता समणा सक्यपुत्तिया विहरन्ती"ति । ते वो "एवं" तिस्सु वचनीया। सम्मा ते वो वदमाना वदेय्युं, न ते वो अब्भाचिक्खेय्यु असता अभूतेन ।
. सुखल्लिकानुयोगानिसंसो १८५. “ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अतिथिया परिब्बाजका एवं वदेय्यु - “इमे पनावुसो, चत्तारो सुखल्लिकानुयोगे अनुयुत्तानं विहरतं कति फलानि कतानिसंसा पाटिकङ्खा''ति ? एवंवादिनो, चुन्द, अञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – “इमे खो, आधुसो, चत्तारो सुखल्लिकानुयोगे अनुयुत्तानं विहरतं चत्तारि फलानि
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(३.६.१८६-१८६)
चत्तारो आनिसंसा पाटिकङ्क्षा । कतमे चत्तारो ? इधावुसो, भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो होति अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो । इदं पठमं फलं, पठमो आनिसंसो । पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी होति, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करोति । इदं दुतियं फलं, दुतियो आनिसंसो । पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको होति, तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका । इदं ततियं फलं, ततियो आनिसंसो । पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञविमुत्तिं दिद्वेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति । इदं चतुत्थं फलं चतुत्थो आनिसंसो। इमे खो, आवुसो, चत्तारो सुखल्लिकानुयोगे अनुयुत्तानं विहरतं इमानि चत्तारि फलानि चत्तारो आनिसंसा पाटिकङ्क्षा”ति ।
(
६. पासादितं
"
खीणासव अभब्बठानं
१८६. "ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं - 'अट्ठितधम्मा समणा सक्यपुत्तिया विहरन्ती'ति । एवंवादिनो, चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया - “अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सावकानं धम्मा देसिता पञ्ञत्ता यावजीवं अनतिक्कमनीया । सेय्यथापि, आवुसो, इन्दखीलो वा अयोखीलो वा गम्भीरनेमो सुनिखातो अचलो असम्पवेधी । एवमेव खो, आवुसो, तेन भगवता जानता परसता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सावकानं धम्मा देसिता पञ्ञत्ता यावजीवं अनतिक्कमनीया । यो सो, आवुसो, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञ विमुत्तो, अभब्बो सो नव ठानानि अज्झाचरितुं । अभब्बो, आवुसो, खीणासवो भिक्खु सञ्चिच्च पाणं जीविता वोरोपेतुं; अभब्बो खीणासवो भिक्खु अदिनं थेय्यसङ्घातं आदियितुंः अभब्बो खीणासवो भिक्खु मेथुनं धम्मं पटिसेवितुं अभब्बो खीणासवो भिक्खु सम्पजानमुसा भासितुंः अभब्बो खीणासवो भिक्खु सन्निधिकारकं कामे परिभुञ्जितुं सेय्यथापि पुब्बे आगारिकभूतो; अभब्बो खीणासवो भिक्खु छन्दागतिं गन्तुं ; अभब्बो खीणासवो भिक्खु दोसागतिं गन्तुं; अभब्बो खीणासवो भिक्खु मोहागतिं गन्तुं; अभब्बो खीणासat भिक्खु भयागतिं गन्तुं । यो सो, आवुसो, भिक्खु अरहं खीणासवो सितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञ विमुत्तो, अब्बो सो इमानि नव ठानानि अज्झाचरितु "न्ति ।
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दीघनिकायो-३
पञ्हाब्याकरणं
१८७. “ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं - 'अतीतं खो अद्धानं आरम्भ समणो गोतमो अतीरकं आणदस्सनं पञ्ञपेति, नो च खो अनागतं अद्धानं आरम्भ अतीरकं ञाणदस्सनं पञ्ञपेति, तयिदं किंसु तयिदं कथंसू 'ति ? ते च अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका अञ्ञविहितकेन ञाणदस्सनेन अञ्ञविहितकं ञणदस्सनं पञ्ञपेतब्बं मञ्ञन्ति यथरिव बाला अब्यत्ता । अतीतं खो, चुन्द, अद्धानं आरब्भ तथागतस्स सतानुसारि जाणं होति; सो यावतकं आकङ्क्षति तावतकं अनुसरति । अनागतञ्च खो अद्धानं आरम्भ तथागतस्स बोधिजं जणं उप्पज्जति- 'अयमन्तिमा जाति, नत्थिदानि पुनब्भवो 'ति । " अतीतं चेपि, चुन्द, होति अभूतं अतच्छं अनत्थसंहितं, न तं तथागतो ब्याकरोति । अतीतं चेपि, चुन्द, होति भूतं तच्छं अनत्थसंहितं, तम्पि तथागतो न ब्याकरोति । अतीतं चेपि चुन्द, होति भूतं तच्छं अत्थसंहितं, तत्र काल तथागतो होति तस्स पञ्हस्स वेय्याकरणाय । अनागतं चेपि चुन्द, होति अभूतं अतच्छं अनत्थसंहितं, न तं तथागतो ब्याकरोति... पे०... तस्स पञ्हस्स वेय्याकरणाय । पपन्नं चेपि, चुन्द, होति अभूतं अतच्छं अनत्थसंहितं न तं तथागतो ब्याकरोति । पच्चुप्पन्नं चेपि, चुन्द, होति भूतं तच्छं अनत्थसंहितं तम्पि तथागतो न ब्याकरोति । पप्पन्नं चेपि, चुन्द, होति भूतं तच्छं अत्थसंहितं तत्र कालञ्ञू तथागतो होति तस्स पञ्हस्स वैय्याकरणाय ।
१८८. " इति खो, चुन्द, अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु धम्मेसु तथागतो कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, तस्मा " तथागतो 'ति वुच्चति । यञ्च खो, चुन्द, सदेवकस्स लोकस्स समारकस्स सब्रह्मकस्स सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय दिट्टं सुतं मुतं विज्ञातं पत्तं परियेसितं अनुविचरितं मनसा, सब्बं तथागतेन अभिसम्बुद्धं, तस्मा " तथागतो 'ति वुच्चति । यञ्च, चुन्द, रत्तिं तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झति, यञ्च रत्तिं अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति, यं एतस्मिं अन्तरे भासति लपति निद्दिसति । सब्बं तं तथैव होति नो अञ्ञथा, तस्मा “ तथागतो" ति वुच्चति । यथावादी, चुन्द, तथागतो तथाकारी, यथाकारी तथावादी । इति यथावादी तथाकारी, यथाकारी तथावादी, तस्मा "तथागतो 'ति वुच्चति । सदेवके लोके, चुन्द, समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय तथागतो अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुसो वसवत्ती, तस्मा “तथागतो 'ति वुच्चति ।
(३.६.१८७-१८८)
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(३.६.१८९-१८९)
६. पासादिकसुत्तं
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अब्याकतवानं
१८९. "ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्यु - "किं नु खो, आवुसो, होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ''न्ति ? एवंवादिनो, चुन्द, अञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया"अब्याकतं खो, आवुसो, भगवता - ‘होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ' "न्ति ।
"ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्यु"किं पनावुसो, न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ''न्ति ? एवंवादिनो, चुन्द, अञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया - "एतम्पि खो, आवुसो, भगवता अब्याकतं - 'न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्च' "न्ति ।
“ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्यु"किं पनावुसो, होति च न च होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ''न्ति ? एवंवादिनो, चुन्द, अञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया - "अब्याकतं खो एतं, आवुसो, भगवता - ‘होति च न च होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ' "न्ति ।
"ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं - "किं पनावुसो, नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ''न्ति ? एवंवादिनो, चुन्द, अञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया"एतम्पि खो, आवुसो, भगवता अब्याकतं- 'नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ' ''न्ति ।
"ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्यु“कस्मा पनेतं, आवुसो, समणेन गोतमेन अब्याकत"न्ति ? एवंवादिनो, चुन्द, अञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया- “न हेतं, आवुसो, अत्थसंहितं न
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१०२
दीघनिकायो-३
(३.६.१९०-१९१)
धम्मसंहितं न आदिब्रह्मचरियकं न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिज्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, तस्मा तं भगवता अब्याकत"न्ति ।
ब्याकतट्टानं १९०. “ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्यु- “किं पनावुसो, समणेन गोतमेन ब्याकत''न्ति ? एवंवादिनो, चुन्द, अतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया - "इदं दुक्खन्ति खो, आवुसो, भगवता व्याकतं, अयं दुक्खसमुदयोति खो, आखुसो, भगवता ब्याकतं, अयं दुक्खनिरोधोति खो, आवुसो, भगवता ब्याकतं, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति खो, आबुसो, भगवता ब्याकत"न्ति।
“ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्यु“कस्मा पनेतं, आवुसो, समणेन गोतमेन ब्याकत"न्ति ? एवंवादिनो, चुन्द, अञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया- "एतन्हि, आबुसो, अत्थसंहितं, एतं धम्मसंहितं, एतं आदिब्रह्मचरियकं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिजाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति। तस्मा तं भगवता ब्याकत"न्ति।
पुबन्तसहगतदिद्विनिस्सया १९१. “येपि ते, चुन्द, पुब्बन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, तेपि वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा । यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामि ? येपि ते, चुन्द, अपरन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, तेपि वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामि ? कतमे च ते, चुन्द, पुब्बन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, ये वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा। (यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामि) ? सन्ति खो, चुन्द, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो– “सस्सतो अत्ता च लोको च, इदमेव सच्चं मोघमञ"न्ति। सन्ति पन, चुन्द, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो"असस्सतो अत्ता च लोको च...पे०... सस्सतो च असस्सतो च अत्ता च लोको च । नेव सस्सतो नासस्सतो अत्ता च लोको च । सयंकतो अत्ता च लोको च । परंकतो
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(३.६.१९२-१९३)
६. पासादिकसुत्तं
१०३
अत्ता च लोको च। सयंकतो च परंकतो च अत्ता च लोको च। असयंकारो अपरंकारो अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको च, इदमेव सच्चं मोघमञ''न्ति । सस्सतं सुखदुक्खं । असस्सतं सुखदुक्खं । सस्सतञ्च असस्सतञ्च सुखदुक्खं । नेवसस्सतं नासस्सतं सुखदुक्खं । सयंकतं सुखदुक्खं । परंकतं सुखदुक्खं । सयंकतञ्च परंकतञ्च सुखदुक्खं । असयंकारं अपरंकारं अधिच्चसमुप्पन्नं सुखदुक्खं, इदमेव सच्चं मोघमञ''न्ति ।
१९२. “तत्र, चुन्द, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो- “सस्सतो अत्ता च लोको च, इदमेव सच्चं मोघमञ"न्ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि- “अस्थि नु खो इदं, आवुसो, वुच्चति- 'सस्सतो अत्ता च लोको चा'"ति ? यञ्च खो ते एवमाहंस- "इदमेव सच्चं मोघमञ्ज"न्ति | तं तेसं नानजानामि । तं किस्स हेत? अथासचिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्तेके सत्ता। इमायपि खो अहं. चन्द, पञत्तिया नेव अत्तना समसमं समनुपस्सामि कुतो भिय्यो । अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो यदिदं अधिपत्ति ।
१९३. “तत्र, चुन्द, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो- “असस्सतो अत्ता च लोको च। सस्सतो च असस्सतो च अत्ता च लोको च । नेवसस्सतो नासस्सतो अत्ता च लोको च । सयंकतो अत्ता च लोको च । परंकतो अत्ता च लोको च । सयंकतो च परंकतो च अत्ता च लोको च। असयंकारो अपरंकारो अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको च । सस्सतं सुखदुक्खं । असस्सतं सुखदुक्खं । सस्सतञ्च असस्सतञ्च सुखदुक्खं । नेवसस्सतं नासस्सतं सुखदुक्खं । सयंकतं सुखदुक्खं । परंकतं सुखदुक्खं । सयंकतञ्च परंकतञ्च सुखदुक्खं । असयंकारं अपरंकारं अधिच्चसमुप्पन्नं सुखदुक्खं, इदमेव सच्चं मोघमञ''न्ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि - “अत्थि नु खो इदं, आवुसो, वुच्चति- 'असयंकारं अपरंकारं अधिच्चसमुप्पन्नं सुखदुक्ख' "न्ति । यञ्च खो ते एवमाहंसु- "इदमेव सच्चं मोघमञ"न्ति । तं तेसं नानुजानामि । तं किस्स हेतु ? अञथासचिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्तेके सत्ता। इमायपि खो अहं, चुन्द, पञत्तिया नेव अत्तना समसमं समनुपस्सामि कुतो भिय्यो । अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो यदिदं अधिपञत्ति । इमे खो ते, चुन्द, पुब्बन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, ये वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा । यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामीति ?
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१०४
दीघनिकायो-३
(३.६.१९४-१९६)
अपरन्तसहगतदिट्ठिनिस्सया
१९४. “कतमे च ते, चुन्द, अपरन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, ये वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा । (यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामी) ? सन्ति, चुन्द, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिछिनो- “रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा. इदमेव सच्चं मोघमञ"न्ति । सन्ति पन, चन्द, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो- “अरूपी अत्ता होति । रूपी च अरूपी च अत्ता होति । नेवरूपी नारूपी अत्ता होति । सञी अत्ता होति । असञी अत्ता होति । नेवसीनासजी अत्ता होति । अत्ता उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा. सच्चं मोघम "न्ति । तत्र, चन्द, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो- "रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ"न्ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि- “अस्थि न खो इदं, आवसो, वच्चति- 'रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा'"ति ? यञ्च खो ते एवमाहंसु -- “इदमेव सच्चं मोघमञ"न्ति । तं तेसं नानुजानामि । तं किस्स हेतु ? अञथासचिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्तेके सत्ता । इमायपि खो अहं, चुन्द, पत्तिया नेव अत्तना समसमं समनुपस्सामि कुतो भिय्यो। अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो यदिदं अधिपत्ति ।
१९५. "तत्र, चुन्द, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिछिनो- “अरूपी अत्ता होति । रूपी च अरूपी च अत्ता होति । नेवरूपीनारूपी अत्ता होति । सञी अत्ता होति। असञी अत्ता होति । नेवसञ्जीनासजी अत्ता होति । अत्ता उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ'"न्ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – “अस्थि नु खो इदं, आवुसो, वुच्चति- 'अत्ता उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा''ति । यञ्च खो ते, चुन्द, एवमाहंसु-- “इदमेव सच्चं मोघमञ''न्ति । तं तेसं नानुजानामि । तं किस्स हेतु ? अञथासचिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्तेके सत्ता । इमायपि खो अहं, चुन्द, पत्तिया नेव अत्तना समसमं समनुपस्सामि, कुतो भिय्यो । अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो यदिदं अधिपत्ति । इमे खो ते, चुन्द, अपरन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, ये वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा। यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामी'ति ?
१९६. “इमेसञ्च, चुन्द, पुब्बन्तसहगतानं दिद्विनिस्सयानं इमेसञ्च अपरन्तसहगतानं
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(३.६.१९७-१९७)
६. पासादिकसुत्तं
१०५
दिविनिस्सयानं पहानाय समतिक्कमाय एवं मया चत्तारो सतिपट्टाना देसिता पञत्ता। कतमे चत्तारो? इध, चुन्द, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। इमेसञ्च चुन्द, पुब्बन्तसहगतानं दिठ्ठिनिस्सयानं इमेसञ्च अपरन्तसहगतानं दिट्ठिनिस्सयानं पहानाय समतिक्कमाय। एवं मया इमे चत्तारो सतिपट्ठाना देसिता पञत्ताति ।
१९७. तेन खो पन समयेन आयस्मा उपवाणो भगवतो पिट्टितो ठितो होति भगवन्तं बीजयमानो । अथ खो आयस्मा उपवाणो भगवन्तं एतदवोच – “अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते ! पासादिको वतायं, भन्ते, धम्मपरियायो; सुपासादिको वतायं भन्ते, धम्मपरियायो, को नामायं भन्ते धम्मपरियायो"ति ? "तस्मातिह त्वं, उपवाण, इमं धम्मपरियायं 'पासादिको' त्वेव नं धारेही"ति । इदमवोच भगवा । अत्तमनो आयस्मा उपवाणो भगवतो भासितं अभिनन्दीति ।
पासादिकसुत्तं निहितं छटुं।
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७. लक्खणसुत्तं
द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि
१९८. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे । तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - “भिक्खवो'ति । “भद्दन्ते'"ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं । भगवा एतदवोच -
१९९. "द्वत्तिंसिमानि, भिक्खवे, महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणानि, येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अना । सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्त रतनानि भवन्तिः सेय्यथिदं. चक्करतनं हस्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं । परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना । सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति । सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो ।
२००. “कतमानि च तानि, भिक्खवे, द्वत्तिंस महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणानि, येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अनञा । सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०... सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो ?
"इध, भिक्खवे, महापुरिसो सुप्पतिट्टितपादो होति । यम्पि, भिक्खवे, महापुरिसो सुप्पतिट्टितपादो होति, इदम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति ।
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(३.७.२००-२००)
७. लक्खणसुत्तं
१०७
“पुन चपरं, भिक्खवे, महापुरिसस्स हेट्ठापादतलेसु चक्कानि जातानि होन्ति सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि । यम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स हेट्ठापादतलेसु चक्कानि जातानि होन्ति सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि, इदम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति ।
“पुन चपरं, भिक्खवे, महापुरिसो आयतपण्हि होति...पे०... दीघङ्गुलि होति । मुदुतलुनहत्थपादो होति। जालहत्थपादो होति । उस्सङ्खपादो होति । एणिजचो होति । ठितकोव अनोनमन्तो उभोहि पाणितलेहि जण्णुकानि परिमसति परिमज्जति । कोसोहितवत्थगुय्हो होति । सुवण्णवण्णो होति कञ्चनसन्निभत्तचो। सुखुमच्छवि होति, सुखुमत्ता छविया रजोजल्लं काये न उपलिम्पति । एकेकलोमो होति, एकेकानि लोमानि लोमकूपेसु जातानि । उद्धग्गलोमो होति, उद्धग्गानि लोमानि जातानि नीलानि अञ्जनवण्णानि कुण्डलावट्टानि दक्खिणावट्टकजातानि । ब्रह्मजुगत्तो होति । सत्तुस्सदो होति । सीहपुब्बद्धकायो होति । चितन्तरंसो होति । निग्रोधपरिमण्डलो होति, यावतक्वस्स कायो तावतक्वस्स ब्यामो यावतक्वस्स ब्यामो तावतक्वस्स कायो । समवट्टक्खन्धो होति । रसग्गसग्गी होति । सीहहनु होति । चत्तालीसदन्तो होति । समदन्तो होति । अविरळदन्तो होति । सुसुक्कदाठो होति । पहूतजिव्हो होति । ब्रह्मस्सरो होति करवीकभाणी । अभिनीलनेत्तो होति । गोपखुमो होति । उण्णा भमुकन्तरे जाता होति, ओदाता मुदुतूलसन्निभा । यम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स उण्णा भमुकन्तरे जाता होति, ओदाता मुदुतूलसन्निभा, इदम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति ।
"पुन चपरं, भिक्खवे, महापुरिसो उण्हीससीसो होति । यम्पि, भिक्खवे, महापुरिसो उण्हीससीसो होति, इदम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति ।
"इमानि खो तानि, भिक्खवे, द्वत्तिंस महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणानि, येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अना । सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०... सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो ।
"इमानि खो, भिक्खवे, द्वत्तिंस महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणानि बाहिरकापि
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१०८
दीघनिकायो-३
(३.७.२०१-२०२)
इसयो धारेन्ति, नो च खो ते जानन्ति- 'इमस्स कम्मस्स कटत्ता इदं लक्खणं पटिलभती'ति ।
(१) सुप्पतिद्वितपादतालक्खणं
२०१. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो परिमं जातिं परिमं भवं परिमं निकेतं पृब्बे मनुस्सभूतो समानो दळहसमादानो अहोसि कुसलेसु धम्मेसु, अवस्थितसमादानो कायसुचरिते वचीसुचरिते मनोसुचरिते दानसंविभागे सीलसमादाने उपोसथुपवासे मत्तेय्यताय पेत्तेय्यताय सामञताय ब्रह्मज्ञताय कुले जेट्ठापचायिताय अञ्जतरञतरेसु च अधिकुसलेसु धम्मेसु । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता उस्सन्नत्ता विपूलत्ता कायस्स भेदा परं मरणा
सग्गं लोकं उपपज्जति । सो तत्थ अझे देवे दसहि ठानेहि अधिग्गण्हाति दिब्बेन आयुना दिब्बेन वण्णेन दिब्बेन सुखेन दिब्बेन यसेन दिब्बेन आधिपतेय्येन दिब्बेहि रूपेहि दिब्बेहि सद्देहि दिब्बेहि गन्धेहि दिब्बेहि रसेहि दिब्बेहि फोट्ठब्बेहि । सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति । सुप्पतिट्टितपादो होति । समं पादं भूमियं निक्खिपति, समं उद्धरति, समं सब्बावन्तेहि पादतलेहि भूमिं फुसति ।
२०२. “सो तेन लक्खणेन समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्त रतनानि भवन्ति; सेय्यथिदं, चक्करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं । परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना । सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अखिलमनिमित्तमकण्टकं इद्धं फीतं खेमं सिवं निरब्बुदं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति। राजा समानो किं लभति ? अक्खम्भियो होति केनचि मनुस्सभूतेन पच्चत्थिकेन पच्चामित्तेन । राजा समानो इदं लभति । “सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो। बुद्धो समानो किं लभति ? अक्खम्भियो होति अब्भन्तरेहि वा बाहिरेहि वा पच्चत्थिकेहि पच्चामित्तेहि रागेन वा दोसेन वा मोहेन वा समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मना वा केनचि वा लोकस्मिं । बुद्धो समानो इदं लभति" | एतमत्थं भगवा अवोच ।
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(३.७.२०३-२०४)
७. लक्खणसुत्तं
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२०३. तत्थेतं वुच्चति -
"सच्चे च धम्मे च दमे च संयमे,
सोचेय्यसीलालयुपोसथेसु च । दाने अहिंसाय असाहसे रतो,
दळ्हं समादाय समत्तमाचरि ।।
“सो तेन कम्मेन दिवं समक्कमि,
सुखञ्च खिड्डारतियो च अन्वभि । ततो चवित्वा पुनरागतो इध,
समेहि पादेहि फुसी वसुन्धरं ।।
"ब्याकंसु वेय्यञ्जनिका समागता,
समप्पतिठुस्स न होति खम्भना । गिहिस्स वा पब्बजितस्स वा पुन,
तं लक्खणं भवति तदत्थजोतकं ।।
“अक्खम्भियो होति अगारमावसं,
पराभिभू सत्तुभि नप्पमद्दनो । मनुस्सभूतेनिध होति केनचि,
अक्खम्भियो तस्स फलेन कम्मुनो ।।
"सचे च पब्बज्जमुपेति तादिसो,
नेक्खम्मछन्दाभिरतो विचक्खणो । अग्गो न सो गच्छति जातु खम्भनं,
नरुत्तमो एस हि तस्स धम्मता''ति ।।
(२) पादतलचक्कलक्खणं २०४. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे
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११०
दीघनिकायो-३
(३.७.२०५-२०५)
मनुस्सभूतो समानो बहुजनस्स सुखावहो अहोसि, उब्बेगउत्तासभयं अपनुदिता, धम्मिकञ्च रक्खावरणगुत्तिं संविधाता, सपरिवारञ्च दानं अदासि । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता उस्सन्नत्ता विपुलत्ता कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति । हेट्ठापादतलेसु चक्कानि जातानि होन्ति सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि सुविभत्तन्तरानि ।
“सो तेन लक्खणेन समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०... राजा समानो किं लभति ? महापरिवारो होति; महास्स होन्ति परिवारा ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्चा पारिसज्जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति। सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवदृच्छदो। बुद्धो समानो किं लभति ? महापरिवारो होति; महास्स होन्ति परिवारा भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा । बुद्धो समानो इदं लभति"। एतमत्थं भगवा अवोच।
२०५. तत्थेतं वुच्चति - "पुरे पुरत्था पुरिमासु जातिसु,
___ मनुस्सभूतो बहुनं सुखावहो । उब्भेगउत्तासभयापनूदनो,
गुत्तीसु रक्खावरणेसु उस्सुको ।। “सो तेन कम्मेन दिवं समक्कमि,
सुखञ्च खिड्डारतियो च अन्वभि । ततो चवित्वा पुनरागतो इध,
चक्कानि पादेसु दुवेसु विन्दति ।।
"समन्तनेमीनि सहस्सरानि च,
ब्याकंसु वेय्यञ्जनिका समागता ।
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(३.७.२०६-२०६)
७. लक्खणसुत्तं
१११
दिस्वा कुमारं सतपुञलक्खणं,
परिवारवा हेस्सति सत्तुमद्दनो ।।
तथा ही चक्कानि समन्तनेमिनि,
सचे न पब्बज्जमुपेति तादिसो । वत्तेति चक्कं पथविं पसासति,
तस्सानुयन्ताध भवन्ति खत्तिया ।।
"महायसं संपरिवारयन्ति नं,
सचे च पब्बज्जमुपेति तादिसो । नेक्खम्मछन्दाभिरतो विचक्खणो,
देवामनुस्सासुरसक्करक्खसा ।।
"गन्धब्बनागा विहगा चतुप्पदा, अनुत्तरं देवमनुस्सपूजितं । महायसं संपरिवारयन्ति नन्ति ।।
(३-५) आयतपण्हितादितिलक्षणं २०६. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो अहोसि निहितदण्डो निहितसत्थो लज्जी दयापन्नो, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहासि । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता उस्सन्नत्ता विपुलत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि तीणि महापुरिसलक्खणानि पटिलभति । आयतपण्हि च होति, दीघङ्गुलि च ब्रह्मजुगत्तो च।
“सो तेहि लक्खणेहि समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति? दीघायुको होति चिरट्ठितिको, दीघमायु पालेति, न सक्का होति अन्तरा जीविता वोरोपेतुं केनचि मनुस्सभूतेन पच्चत्थिकेन पच्चामित्तेन । राजा समानो इदं लभति...पे०...। बुद्धो समानो किं लभति ? दीघायुको
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दीघनिकायो-३
(३.७.२०७-२०८)
होति चिरट्ठितिको, दीघमायुं पालेति, न सक्का होति अन्तरा जीविता वोरोपेतुं पच्चत्थिकेहि पच्चामित्तेहि समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मना वा केनचि वा लोकस्मिं । बुद्धो समानो इदं लभति'। एतमत्थं भगवा अवोच ।
२०७. तत्थेतं वुच्चति -
"मारणवधभयत्तनो विदित्वा,
पटिविरतो परं मारणायहोसि । तेन सुचरितेन सग्गमगमा,
सुकतफलविपाकमनुभोसि ।। “चविय पुनरिधागतो समानो,
पटिलभति इध तीणि लक्खणानि । भवति विपुलदीघपासण्डिको,
ब्रह्माव सुजु सुभो सुजातगत्तो ।।
"सुभुजो सुसु सुसण्ठितो सुजातो,
मुदुतलुनङ्गुलियस्स होन्ति । दीघा तीभि पुरिसवरग्गलक्खणेहि,
चिरयपनाय कुमारमादिसन्ति ।।
"भवति यदि गिही चिरं यति,
चिरतरं पब्बजति यदि ततो हि । यापयति च वसिद्धिभावनाय,
इति दीघायुकताय तं निमित्त"न्ति ।।
(६) सत्तुस्सदतालक्खणं
२०८. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो दाता अहोसि पणीतानं रसितानं खादनीयानं भोजनीयानं सायनीयानं
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(३.७.२०९-२०९)
७. लक्ख
लेहनीयानं पानानं । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता... पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति । सत्तुस्सदो होति, सत्तस्स उस्सदा होन्ति; उभोसु हत्थेसु उस्सदा होन्ति, उभोसु पादेसु उस्सदा होन्ति, उभोसु अंसकूटेसु उस्सदा होन्ति, खन्धे उस्सदो होति ।
“सो तेन लक्खणेन समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति ? लाभी होति पणीतानं रसितानं खादनीयानं भोजनीयानं सायनीयानं लेहनीयानं पानानं । राजा समानो इदं लभति... पे०... । बुद्धो समानो किं लभति ? लाभी होति पणीतानं रसितानं खादनीयानं भोजनीयानं सायनीयानं लेहनीयानं पानानं । बुद्धो समानो इदं लभति”। एतमत्थं भगवा अवोच ।
२०९. तत्थेतं वुच्चति -
" खज्जभोज्जमथ लेय्य सायियं, उत्तमग्गरसदायको अहु ।
तेन सो सुचरितेन कम्मुना,
नन्दने चिरमभिप्पमोदति । ।
“सत्त चुस्सदे इधाधिगच्छति,
हत्थपादमुदुतञ्च विन्दति । आहु ब्यञ्जननिमित्तकोविदा,
खज्जभोज्जरसलाभिताय नं । ।
"यं गिहिस्सपि तदत्थजोतकं,
पब्बज्जम्पि च तदाधिगच्छति ।
खज्जभोज्जरसलाभिरुत्तमं,
आहु सब्बगिहिबन्धनच्छिद”न्ति । ।
११३
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११४
दीघनिकायो-३
(३.७.२१०-२११)
(७-८) करचरणमुदुजालतालक्खणानि
२१०. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो चतूहि सङ्गहवत्थूहि जनं सङ्गाहको अहोसि- दानेन पेय्यवज्जेन अत्थचरियाय समानत्तताय । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति । मुदुतलुनहत्थपादो च होति जालहत्थपादो च।
“सो तेहि लक्खणेहि समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति? सुसङ्गहितपरिजनो होति, सुसङ्गहितास्स होन्ति ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्चा पारिसज्जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति...पे०... | बुद्धो समानो किं लभति ? सुसङ्गहितपरिजनो होति, सुसङ्गहितास्स होन्ति भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा । बुद्धो समानो इदं लभति"। एतमत्थं भगवा अवोच।
२११. तत्थेतं वुच्चति -
"दानम्पि चत्थचरियतञ्च,
___पियवादितञ्च समानत्ततञ्च । करियचरियसुसङ्गहं बहून,
__ अनवमतेन गुणेन याति सग्गं ।।
"चविय पुनरिधागतो समानो,
करचरणमुदुतञ्च जालिनो च । अतिरुचिरसुवग्गुदस्सनेय्यं,
पटिलभति दहरो सुसु कुमारो ।।
"भवति परिजनस्सवो विधेय्यो,
महिमं आवसितो सुसङ्गहितो ।
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(३.७.२१२-२१३)
७. लक्खणसुत्तं
११५
पियवदू हितसुखतं जिगीसमानो,
अभिरुचितानि गुणानि आचरति ।।
“यदि च जहति सब्बकामभोगं,
कथयति धम्मकथं जिनो जनस्स । वचनपटिकरस्साभिप्पसन्ना,
सुत्वानधम्मानुधम्ममाचरन्ती''ति ।।
"
(९-१०) उस्सङ्खपादउद्घग्गलोमतालक्खणानि २१२. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो अत्थूपसंहितं धम्मूपसंहितं वाचं भासिता अहोसि, बहुजनं निदंसेसि, पाणीनं हितसुखावहो धम्मयागी । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति । उस्सङ्खपादो च होति, उद्धग्गलोमो च।
___ “सो तेहि लक्खणेहि समन्नागतो, सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०... । राजा समानो किं लभति ? अग्गो च होति सेट्ठो च पामोक्खो च उत्तमो च पवरो च कामभोगीनं । राजा समानो इदं लभति...पे०... । बुद्धो समानो किं लभति? अग्गो च होति सेट्ठो च पामोक्खो च उत्तमो च पवरो च सब्बसत्तानं । बुद्धो समानो इदं लभति" । एतमत्थं भगवा अवोच ।
२१३. तत्थेतं वुच्चति - "अत्थधम्मसहितं पुरे गिरं,
एरयं बहुजनं निदंसयि । पाणिनं हितसुखावहो अहु,
धम्मयागमयजी अमच्छरी ।।
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११६
दीघनिकायो-३
(३.७.२१४-२१४)
“तेन सो सुचरितेन कम्मुना,
सुग्गतिं वजति तत्थ मोदति । लक्खणानि च दुवे इधागतो,
उत्तमप्पमुखताय विन्दति ।।
"उब्भमुष्पतितलोमवा ससो,
पादगण्ठिरहु साधुसण्ठिता । मंसलोहिताचिता तचोत्थता,
उपरिचरणसोभना अहु ।।
"गेहमावसति चे तथाविधो,
__ अग्गतं वजति कामभोगिनं । तेन उत्तरितरो न विज्जति,
जम्बुदीपमभिभुय्य इरियति ।।
“पब्बजम्पि च अनोमनिक्कमो,
___अग्गतं वजति सब्बपाणिनं । तेन उत्तरितरो न विज्जति,
सब्बलोकमभिभुय्य विहरती"ति ।।
(११) एणिजङ्घलक्षणं २१४. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो सक्कच्चं वाचेता अहोसि सिप्पं वा विज्जं वा चरणं वा कम्मं वा'किं तिमे खिप्पं विजानेय्यु, खिप्पं पटिपज्जेय्युं, न चिरं किलिस्सेय्यु"न्ति । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति । एणिजङ्घो होति ।
“सो तेन लक्खणेन समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०... | राजा समानो किं लभति ? यानि तानि राजारहानि राजङ्गानि
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(३.७.२१५-२१६)
७. लक्खणसुत्तं
११७
राजूपभोगानि राजानुच्छविकानि तानि खिप्पं पटिलभति। राजा समानो इदं लभति...पे०...। बुद्धो समानो किं लभति? यानि तानि समणारहानि समणङ्गानि समणूपभोगानि समणानुच्छविकानि, तानि खिप्पं पटिलभति । बुद्धो समानो इदं लभति'। एतमत्थं भगवा अवोच।
२१५. तत्थेतं वुच्चति
"सिप्पेसु विज्जाचरणेसु कम्मेसु,
कथं विजानेय्यु लहुन्ति इच्छति । यदूपघाताय न होति कस्सचि,
वाचेति खिप्पं न चिरं किलिस्सति ।।
"तं कम्मं कत्वा कुसलं सुखुद्रयं,
जङ्घा मनुञा लभते सुसण्ठिता। वट्टा सुजाता अनुपुब्बमुग्गता,
उद्धग्गलोमा सुखुमत्तचोत्थता ।।
"एणेय्यजङ्घोति तमाहु पुग्गलं,
सम्पत्तिया खिप्पमिधाहु लक्खणं । गेहानुलोमानि यदाभिकङति,
अपब्बजंखिप्पमिधाधिगच्छति ।।
"सचे च पब्बज्जमुपेति तादिसो,
नेक्खम्मछन्दाभिरतो विचक्खणो । अनुच्छविकस्स यदानुलोमिकं,
तं विन्दति खिप्पमनोमविक्कमो''ति ।।
(१२) सुखुमच्छविलक्षणं २१६. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे
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दीघनिकायो-३
(३.७.२१७-२१७)
मनुस्सभूतो समानो समणं वा ब्राह्मणं वा उपसङ्कमित्वा परिपुच्छिता अहोसि - “किं, भन्ते, कुसलं, किं अकुसलं, किं सावज्जं, किं अनवज्ज, किं सेवितबं, किं न सेवितब्बं, किं मे करीयमानं दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय अस्स, किं वा पन मे करीयमानं दीघरत्तं हिताय सुखाय अस्सा''ति । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति । सुखुमच्छवि होति, सुखुमत्ता छविया रजोजल्लं काये न उपलिम्पति ।
“सो तेन लक्खणेन समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति ? महापञो होति, नास्स होति कोचि पञाय सदिसो वा सेट्ठो वा कामभोगीनं। राजा समानो इदं लभति...पे०... | बुद्धो समानो किं लभति? महापओ होति पुथुपो हासपो जवनपो तिक्खपओ निब्बेधिकपञो, नास्स होति कोचि पाय सदिसो वा सेट्ठो वा सब्बसत्तानं। बुद्धो समानो इदं लभति"। एतमत्थं भगवा अवोच ।
२१७. तत्थेतं वुच्चति
"पुरे पुरत्था पुरिमासु जातिसु,
अञातुकामो परिपुच्छिता अहु । सुस्सूसिता पब्बजितं उपासिता,
अत्थन्तरो अत्थकथं निसामयि ।।
“पञआपटिलाभगतेन कम्मुना,
मनुस्सभूतो सुखुमच्छवी अहु । ब्याकंसु उप्पादनिमित्तकोविदा,
सुखुमानि अत्थानि अवेच्च दक्खिति ।।
"सचे न पब्बज्जमुपेति तादिसो,
वत्तेति चक्कं पथविं पसासति । अत्थानुसिठ्ठीसु परिग्गहेसु च,
न तेन सय्यो सदिसो च विज्जति ।।
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(३.७.२१८-२१९)
७. लक्ख
“सचे च पब्बज्जमुपेति तादिसो,
नेक्खम्मछन्दाभिरतो विचक्खणो । पञ्ञाविसिद्धं लभते अनुत्तरं,
पप्पोति बोधिं वरभूरिमेधसो 'ति । ।
(१३) सुवण्णवण्णलक्खणं
२१८. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो अक्कोधनो अहोसि अनुपायासबहुलो, बहुम्पि वृत्तो समानो नाभिसज्जि न कुप्पि न ब्यापज्जि न पतित्थीयि, न कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पात्वाकासि । दाता च अहोसि सुखुमानं मुदुकानं अत्थरणानं पावुरणानं खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखमानं कम्बलसुखुमानं । सो तस्स उपचितत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति। सुवण्णवण्णो होति कञ्चनसन्निभत्तचो ।
कम्मस्स कटत्ता
" सो तेन लक्खणेन समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति ? लाभी होति सुखुमानं मुदुकानं अत्थरणानं पावुरणानं खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखमानं कम्बलसुखुमानं । राजा समानो इदं लभति... पे०... । बुद्धो समानो किं लभति ? लाभी होति सुखमानं मुदुकानं अत्थरणानं पावुरणानं खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखमानं । बुद्धो समानो इदं लभति" । एतमत्थं भगवा अवोच ।
२१९. तत्थेतं वुच्चति -
" अक्कोधञ्च अधिट्ठहि अदासि,
दानञ्च वत्थानि सुखुमानि सुच्छवीनि । पुरिमतरभवे ठितो अभिविस्सजि, महिमिव सुरो अभिवस्सं । ।
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दीघनिकायो-३
"तं कत्वान इतो चुतो दिब्बं,
उपपज्जि सुकतफलविपाकमनुभुत्वा ।
कनकतनुसन्निभो इधाभिभवति, सुरवरतरोरिव इन्दो ।।
" गेहञ्चावसति नरो अपब्बज्ज,
मिच्छं महतिमहिं अनुसासति । पसव्ह सहिध सत्तरतनं,
पटिलभति विमल सुखमच्छविं सुचिञ्च ।।
“लाभी अच्छादनवत्थमोक्खपावुरणानं,
भवति यदि अनागारियतं उपेति । सहितो पुरिमकतफलं अनुभवति,
न भवति कतस्स पनासो 'ति । ।
(१४) कोसोहितवत्थगुव्हलक्खणं
२२०. यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो चिरप्पन सुचिरप्पवासिनो जातिमित्ते सुहज्जे सखिनो समानेता अहोसि । मातरम्प पुत्तेन समानेता अहोसि, पुत्तम्पि मातरा समानेता अहोसि, पितरम्पि पुत्तेन समानेता अहोसि, पुत्तम्पि पितरा समानेता अहोसि, भातरम्पि भातरा समानेता अहोसि, भातरम्पि भगिनिया समानेता अहोसि, भगिनिम्पि भातरा समानेता अहोसि, भगिनिम्पि भगिनिया समानेता अहोसि, समङ्गीकत्वा च अब्भनुमोदिता अहोसि । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता... पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति - कोसोहितवत्थगुय्हो होति ।
“सो तेन लक्खणेन समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति ? पहूतपुत्तो होति, परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना । राजा समानो इदं लभति... पे०... । बुद्धो
(३.७.२२०-२२०)
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(३.७.२२१-२२१)
७. लक्खणसुत्तं
समानो किं लभति ? पहूतपुत्तो होति, अनेकसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना । बुद्धो समानो इदं लभति" । एतमत्थं भगवा अवोच ।
२२१. तत्थेतं वुच्चति -
" पुरे पुरत्था पुरिमासु जातिसु,
चिरप्पनट्टे सुचिरप्पवासिनो । आती सुहज्जे सखिनो समानयि, समङ्गिकत्वा अनुमोदिता अहु ।।
“सो तेन कम्मेन दिवं समक्कमि,
सुखञ्च खिड्डारतियो च अन्वभि ।
ततो चवित्वा पुनरागतो इध,
कोसोहितं विन्दति वत्थछादियं । ।
पहूतपुत्तो भवती तथाविधो,
परोसहस्सञ्च भवन्ति अत्रजा । सूरा च वीरा च अमित्ततापना,
गिहिस्स पीतिजनना पियंवदा ।।
बहूतरा पब्बजितस्स इरियतो,
भवन्ति पुत्ता वचनानुसारिनो । गिहिस्स वा पब्बजितस्स वा पुन,
तं लक्खणं जायति तदत्थजोतक "न्ति । ।
पठमभाणवारो निट्ठितो ।
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दीघनिकायो-३
(३.७.२२२-२२३)
(१५-१६) परिमण्डलअनोनमजण्णुपरिमसनलक्खणानि २२२. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो महाजनसङ्गहं समेक्खमानो समं जानाति सामं जानाति, पुरिसं जानाति पुरिसविसेसं जानाति - "अयमिदमरहति अयमिदमरहती"ति तत्थ तत्थ पुरिसविसेसकरो अहोसि । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति । निग्रोध परिमण्डलो च होति, ठितकोयेव च अनोनमन्तो उभोहि पाणितलेहि जण्णुकानि परिमसति परिमज्जति ।।
“सो तेहि लक्खणेहि समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति? अड्डो होति महद्धनो महाभोगो पहूतजातरूपरजतो पहूतवित्तूपकरणो पहूतधनधो परिपुण्णकोसकोट्ठागारो। राजा समानो इदं लभति...पे०...। बुद्धो समानो किं लभति? अड्डो होति महद्धनो महाभोगो । तस्सिमानि धनानि होन्ति, सेय्यथिदं, सद्धाधनं सीलधनं हिरिधनं ओत्तप्पधनं सुतधनं चागधनं पञआधनं । बुद्धो समानो इदं लभति” । एतमत्थं भगवा अवोच ।
२२३. तत्थेतं वुच्चति -
"तुलिय पटिविचय चिन्तयित्वा,
महाजनसङ्गहनं समेक्खमानो । अयमिदमरहति तत्थ तत्थ,
पुरिसविसेसकरो पुरे अहोसि ।।
"महिञ्च पन ठितो अनोनमन्तो,
फुसति करेहि उभोहि जण्णुकानि । महिरुहपरिमण्डलो अहोसि,
__ सुचरितकम्मविपाकसेसकेन ।।
"बहुविविधनिमित्तलक्खणञ्जू,
अतिनिपुणा मनुजा ब्याकरिंसु ।
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७. लक्खणसुत्तं
बहुविविधा गिहीनं अरहानि, पटिलभति दहरो सुसु कुमारो ।।
(३.७.२२४-२२५)
"इध च महीपतिस्स कामभोगी,
गिहिपतिरूपका बहू भवन्ति
यदि च जहति सब्बकामभोगं,
लभति अनुत्तरं उत्तमधनग्ग "न्ति । ।
( १७-१९) सीहपुब्बद्धकायादितिलक्खणं
२२४. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो बहुजनस्स अत्थकामो अहोसि हितकामो फासुकामो योगक्खेमकामो" किन्तिमे सद्धाय वड्डेय्युं, सीलेन वड्डेय्युं, सुतेन वड्डेय्युं, चागेन वड्डेय्युं, धम्मेन वड्डेय्युं, पञ्ञाय वड्डेय्युं, धनधन वड्डेय्युं, खेत्तवत्थुना वड्डेय्युं, द्विपदचतुप्पदेहि वड्डेय्युं, पुत्तदारेहि वड्ढेय्युं, दासकम्मकरपोरिसेहि वड्डेय्युं, जातीहि वड्ढेय्युं, मित्तेहि वड्डेय्युं, बन्धवेहि वड्डेय्यु 'न्ति । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता... पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि तीणि महापुरिसलक्खणानि पटिलभति । सीहपुब्बद्धकायो च होति चितन्तरंसो च समवट्टक्खन्धो च ।
" सो तेहि लक्खणेहि समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती... पे०... । राजा समानो किं लभति ? अपरिहानधम्मो होति, न परिहायति धनधञ्ञेन खेत्तवत्थुना द्विपदचतुष्पदेहि पुत्तदारेहि दासकम्मकरपोरिसेहि जतीहि मित्ह बन्धवेहि, न परिहायति सब्बसम्पत्तिया । राजा समानो इदं लभति... पे०... । बुद्धो समानो किं लभति ? अपरिहानधम्मो होति, न परिहायति सद्धाय सीलेन सुतेन चागेन पञ्ञाय, न परिहायति सब्बसम्पत्तिया । बुद्धो समानो इदं लभति" । एतमत्थं भगवा अवोच ।
२२५. तत्थेतं वुच्चति -
44
'सद्धाय सीलेन सुतेन बुद्धिया,
चागेन धम्मेन बहूहि साधुहि ।
१२३
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१२४
दीघनिकायो-३
(३.७.२२६-२२६)
धनेन ध न च खेत्तवत्थुना,
___ पुत्तेहि दारेहि चतुप्पदेहि च ।।
"आतीहि मित्तेहि च बन्धवेहि च,
__बलेन वण्णेन सुखेन चूभयं । कथं न हायेय्युं परेति इच्छति,
अत्थस्स मिद्धी च पनाभिकङ्खति ।।
“स सीहपुब्बद्धसुसण्ठितो अहु,
समवट्टक्खन्धो च चितन्तरंसो । पुब्बे सुचिण्णेन कतेन कम्मुना,
अहानियं पुब्बनिमित्तमस्स तं ।।
“गिहीपि ध न धनेन वड्डति,
पुत्तेहि दारेहि चतुप्पदेहि च । अकिञ्चनो पब्बजितो अनुत्तरं,
पप्पोति बोधिं असहानधम्मत"न्ति ।।
(२०) रसग्गसग्गितालक्खणं
२२६. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो सत्तानं अविहेठकजातिको अहोसि पाणिना वा लेड्डुना वा दण्डेन वा सत्थेन वा । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति, रसग्गसग्गी होति, उद्धग्गास्स रसहरणीयो गीवाय जाता होन्ति समाभिवाहिनियो ।
“सो तेन लक्खणेन समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति? अप्पाबाधो होति अप्पातको, समवेपाकिनिया गहणिया समन्नागतो नातिसीताय नाच्चुण्हाय । राजा समानो इदं लभति...पे०... । बुद्धो समानो किं लभति ? अप्पाबाधो होति अप्पातको समवेपाकिनिया
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(३.७.२२७-२२८)
७. लक्खणसुत्तं
गहणिया समन्नागतो नातिसीताय नाच्चुण्हाय मज्झिमाय पधानक्खमाय । बुद्धो समानो इदं लभति'। एतमत्थं भगवा अवोच ।
२२७. तत्थेतं वुच्चति -
"न पाणिदण्डेहि पनाथ लेड्डुना,
सत्थेन वा मरणवधेन वा पन । उब्बाधनाय परितज्जनाय वा,
न हेठयी जनतमहेठको अहु ।।
"तेनेव सो सुगतिमुपेच्च मोदति,
सुखप्फलं करिय सुखानि विन्दति । समोजसा रसहरणी सुसण्ठिता,
इधागतो लभति रसग्गसग्गितं ।।
"तेनाहु नं अतिनिपुणा विचक्खणा,
- अयं नरो सुखबहुलो भविस्सति । गिहिस्स वा पब्बजितस्स वा पुन,
तं लक्खणं भवति तदत्थजोतक''न्ति ।।
(२१-२२) अभिनीलनेत्तगोपखुमलक्खणानि २२८. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो न च विसटं, न च विसाचि, न च पन विचेय्य पेक्खिता, उजु तथा पसटमुजुमनो, पियचक्खुना बहुजनं उदिक्खिता अहोसि। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति । अभिनीलनेत्तो च होति गोपखुमो च।
“सो तेहि लक्खणेहि समन्नागतो, सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति ? पियदस्सनो होति बहुनो जनस्स, पियो
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१२६
दीघनिकायो-३
(३.७.२२९-२३०)
होति मनापो ब्राह्मणगहपतिकानं नेगमजानपदानं गणकमहामत्तानं अनीकट्ठानं दोवारिकानं अमच्चानं पारिसज्जानं राजूनं भोगियानं कुमारानं । राजा समानो इदं लभति...पे०...। बुद्धो समानो किं लभति ? पियदस्सनो होति बहुनो जनस्स, पियो होति मनापो भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं देवानं मनुस्सानं असुरानं नागानं गन्धब्बानं । बुद्धो समानो इदं लभति"। एतमत्थं भगवा अवोच ।
२२९. तत्थेतं वुच्चति -
"न च विसटं न च विसाचि, न च पन विचेय्यपेक्खिता। उजु तथा पसटमुजुमनो, पियचक्खुना बहुजनं उदिक्खिता ।। “सुगतीसु सो फलविपाकं,
अनुभवति तत्थ मोदति । इध च पन भवति गोपखुमो,
__ अभिनीलनेत्तनयनो सुदस्सनो ।।
“अभियोगिनो च निपुणा,
बहू पन निमित्तकोविदा। सुखुमनयनकुसला मनुजा,
पियदस्सनोति अभिनिद्दिसन्ति नं ।।
"पियदस्सनो गिहीपि सन्तो च,
भवति बहुजनपियायितो । यदि च न भवति गिही समणो होति,
पियो बहूनं सोकनासनो"ति ।।
(२३) उण्हीससीसलक्षणं
२३०. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो बहुजनपुब्बङ्गमो अहोसि कुसलेसु धम्मेसु बहुजनपामोक्खो कायसुचरिते
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(३.७.२३१-२३१)
७. लक्खणसुत्तं
१२७
वचीसुचरिते मनोसुचरिते दानसंविभागे सीलसमादाने उपोसथुपवासे मत्तेय्यताय पेत्तेय्यताय सामञ्जताय ब्रह्मञताय कुले जेट्ठापचायिताय अञ्जतरञतरेसु च अधिकुसलेसु धम्मेसु | सो तस्स कम्मस्स कटत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति- उण्हीससीसो होति ।
“सो तेन लक्खणेन समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति ? महास्स जनो अन्वायिको होति, ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्चा पारिसज्जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति...पे०... । बुद्धो समानो किं लभति ? महास्स जनो अन्वायिको होति, भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा । बुद्धो समानो इदं लभति'। एतमत्थं भगवा अवोच।
२३१. तत्थेतं वुच्चति -
"पुब्बङ्गमो सुचरितेसु अहु,
धम्मेसु धम्मचरियाभिरतो। अन्वायिको बहुजनस्स अहु,
सग्गेसु वेदयित्थ पुञफलं ।।
"वेदित्वा सो सुचरितस्स फलं,
उण्हीससीसत्तमिधज्झगमा । ब्याकंसु ब्यजननिमित्तधरा,
पुब्बङ्गमो बहुजनं हेस्सति ।। “पटिभोगिया मनुजेसु इध,
पुब्बेव तस्स अभिहरन्ति तदा । यदि खत्तियो भवति भूमिपति,
पटिहारकं बहुजने लभति ।।
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१२८
दीघनिकायो-३
(३.७.२३२-२३३)
“अथ चेपि पब्बजति सो मनुजो,
धम्मेसु होति पगुणो विसवी । तस्सानुसासनिगुणाभिरतो,
अन्वायिको बहुजनो भवतीति ।।
(२४-२५) एकेकलोमताउण्णालक्खणानि २३२. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो अहोसि, सच्चवादी सच्चसन्धो थेतो पच्चयिको अविसंवादको लोकस्स । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति । एकेकलोमो च होति, उण्णा च भमुकन्तरे जाता होति ओदाता मुदुतूलसन्निभा ।
"सो तेहि लक्खणेहि समन्नागतो, सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति? महास्स.. जनो उपवत्तति, ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्चा पारिसज्जा राजानो भोगिया कुमारा । राजा समानो इदं लभति...पे०... । बुद्धो समानो किं लभति ? महास्स जनो उपवत्तति, भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा । बुद्धो समानो इदं लभति"। एतमत्थं भगवा अवोच ।
२३३. तत्थेतं वुच्चति
"सच्चप्पटिञो पुरिमासु जातिसु,
अद्वेज्झवाचो अलिकं विवज्जयि । न सो विसंवादयितापि कस्सचि,
भूतेन तच्छेन तथेन भासयि ।।
“सेता सुसुक्का मुदुतूलसन्निभा,
उण्णा सुजाता भमुकन्तरे अहु ।
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(३.७.२३४-२३४)
७. लक्खणसुत्तं
१२९
न लोमकूपेसु दुवे अजायिसुं,
एकेकलोमूपचितङ्गवा अहु ।। "तं लक्खणञ्जू बहवो समागता,
___ ब्याकंसु उप्पादनिमित्तकोविदा । उण्णा च लोमा च यथा सुसण्ठिता,
उपवत्तती ईदिसकं बहुज्जनो ।।
“गिहिम्पि सन्तं उपवत्तती जनो,
बहु पुरत्थापकतेन कम्मुना । अकिञ्चनं पब्बजित अनुत्तरं,
बुद्धम्पि सन्तं उपवत्तति जनो''ति ।।
(२६-२७) चत्तालीसअविरळदन्तलक्खणानि २३४. “यम्पि, भिक्खवे तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटिविरतो अहोसि । इतो सुत्वा न अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय, अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं अक्खाता अमूसं भेदाय, इति भिन्नान वा सन्धाता, सहितानं वा अनुप्पदाता, समग्गारामो समग्गरतो समग्गनन्दी समग्गकरणिं वाचं भासिता अहोसि | सो तस्स कम्मस्स कटत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति । चत्तालीसदन्तो च होति अविरळदन्तो च ।
"सो तेहि लक्खणेहि समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति ? अभेज्जपरिसो होति, अभेज्जास्स होन्ति परिसा, ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्चा पारिसज्जा राजानो भोगिया कुमारा | राजा समानो इदं लभति...पे०...। बुद्धो समानो किं लभति ? अभेज्जपरिसो होति, अभेज्जास्स होन्ति परिसा, भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा । बुद्धो समानो इदं लभति"। एतमत्थं भगवा अवोच ।
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१३०
दीघनिकायो-३
(३.७.२३५-२३६)
२३५. तत्थेतं वुच्चति -
"वेभूतियं सहितभेदकारिं,
भेदप्पवड्डनविवादकारिं। कलहप्पवड्डनआकिच्चकारिं,
सहितानं भेदजननिं न भणि ।।
"अविवादवड्डनकरिं सुगिरं,
भिन्नानुसन्धिजननिं अभणि ।। कलहं जनस्स पनुदी समङ्गी,
___ सहितहि नन्दति पमोदति च ।।
"सुगतीसु सो फलविपाकं,
___ अनुभवति तत्थ मोदति । दन्ता इध होन्ति अविरळा सहिता,
चतुरो दसस्स मुखजा सुसण्ठिता ।।
"यदि खत्तियो भवति भूमिपति,
अविभेदियास्स परिसा भवति । समणो च होति विरजो विमलो,
परिसास्स होति अनुगता अचला''ति ।।
(२८-२९) पहूतजिव्हाब्रह्मस्सरलक्खणानि
२३६. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो अहोसि । या सा वाचा नेला कण्णसुखा पेमनीया हदयङ्गमा पोरी बहुजनकन्ता बहुजनमनापा, तथारूपिं वाचं भासिता अहोसि । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता...पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति । पहूतजिव्हो च होति ब्रह्मस्सरो च करवीकभाणी ।
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________________
(३.७.२३७-२३७)
७. लक्खणसुत्तं
१३१
“सो तेहि लक्खणेहि समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०...। राजा समानो किं लभति? आदेय्यवाचो होति, आदियन्तिस्स वचनं ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्चा पारिसज्जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति...पे०...। बुद्धो समानो किं लभति? आदेय्यवाचो होति, आदियन्तिस्स वचनं भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा । बुद्धो समानो इदं लभति"। एतमत्थं भगवा अवोच।
२३७. तत्थेतं वुच्चति
"अक्कोसभण्डनविहेसकारिं,
उब्बाधिकं बहजनप्पमहनं । अबाळ्हं गिरं सो न भणि फरुसं,
मधुरं भणि सुसंहितं सखिलं । ।
"मनसो पिया हदयगामिनियो,
वाचा सो एरयति कण्णसुखा । वाचासुचिण्णफलमनुभवि,
सग्गेसु वेदयथ पुञफलं ।।
"वेदित्वा सो सुचरितस्स फलं,
ब्रह्मस्सरत्तमिधमज्झगमा । जिव्हास्स होति विपुला पुथुला,
__ आदेय्यवाक्यवचनो भवति ।।
“गिहिनोपि इज्झति यथा भणतो,
____ अथ चे पब्बजति सो मनुजो । आदियन्तिस्स वचनं जनता,
बहुनो बहुं सुभणितं भणतो''ति ।।
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________________
१३२
दीघनिकायो-३
(३०) सीहहनुलक्खणं
२३८. “ यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो अहोसि कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, निधानवतिं वाचं भासिता अहोसि कालेन सापदेसं परियन्तवतिं अत्थसंहितं । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता... पे०... सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति, सीहहनु होति ।
“सो तेन लक्खणेन समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती...पे०.....। राजा समानो किं लभति ? अप्पधंसियो होति केनचि मनुस्सभूतेन पच्चत्थिकेन पच्चामित्तेन । राजा समानो इदं लभति... पे०... । बुद्धो समानो किं लभति ? अप्पधंसियो होति अब्भन्तरेहि वा बाहिरेहि वा पच्चत्थिकेहि पच्चामित्तेहि, रागेन वा दोसेन वा मोहेन वा समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मना वा केनचि वा लोकस्मिं । बुद्ध समानो इदं लभति" । एतमत्थं भगवा अवोच ।
२३९. तत्थेतं वुच्चति -
"न सम्फप्पलापं न मुद्धतं,
अविकिण्णवचनब्यप्पथो अहोसि । अहितमपि च अपनुदि,
हितमपि च बहुजनसुखञ्च अभणि ।।
"तं कत्वा इतो चुतो दिवमुपपज्जि, सुकतफलविपाकमनुभोसि ।
चविय पुनरिधागतो समानो,
द्विदुगमवरतरहनुत्तमलत्थ । ।
" राजा होति सुदुप्पधंसियो,
मनुजिन्दो मनुजाधिपति महानुभावो ।
(३.७.२३८-२३९)
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________________
(३.७.२४०-२४०)
७. लक्खणतं
तिदिवपुरवरसमो भवति, सुरवरतरोरिव इन्दो ||
‘“गन्धब्बासुरयक्खरक्खसेभि,
सुरेहि न हि भवति सुप्पधंसियो ।
ततो यदि भवति तथाविधो,
इध दिसा च पटिदिसा च विदिसा चा "ति । ।
( ३१-३२ ) समदन्तसुसुक्कदाटालक्खणानि
२४०. “यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो मिच्छाजीवं पहाय सम्माआजीवेन जीविकं कप्पेसि, तुलाकूट कंसकूट मानकूट उक्कोटन वञ्चन निकति साचियोग छेदन वध बन्धन विपरामोस आलोप सहसाकारा पटिविरतो अहोसि । सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता उत्सन्नत्ता विपुलत्ता कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति । सो तत्थ अञ्ञे देवे दसहि ठानेहि अधिगण्हाति दिब्बेन आयुना दिब्बेन वण्णेन दिब्बेन सुखेन दिब्बेन यसेन दिब्बेन आधिपतेय्येन दिब्बेहि रूपेहि दिब्बेहि सद्देहि दिब्बेहि गन्धेहि दिब्बेहि रसेहि दिब्बेहि फोट्ठब्बेहि । सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति, समदन्तो च होति सुसुक्कदाठो च ।
" सो तेहि लक्खणेहि समन्नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो । तस्सिमानि सत रतनानि भवन्ति, सेय्यथिदं, चक्करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं । परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना । सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अखिलमनिमित्तमकण्टकं इद्धं फीतं खेमं सिवं निरब्बुदं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति । राजा समानो किं लभति ? सुचिपरिवारो होति सुचिस्स होन्ति परिवारा ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्चा पारिसज्जा राजानो भोगिया कुमारा । राजा समानो इदं लभति ।
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१३४
दीघनिकायो-३
(३.७.२४१-२४१)
“सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो। बुद्धो समानो किं लभति ? सुचिपरिवारो होति, सुचिस्स होन्ति परिवारा, भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा । बुद्धो समानो इदं लभति" | एतमत्थं भगवा अवोच ।
२४१. तत्थेतं वुच्चति -
"मिच्छाजीवञ्च अवस्सजि समेन वुत्तिं,
सुचिना सो जनयित्थ धम्मिकेन । अहितमपि च अपनुदि,
हितमपि च बहुजनसुखञ्च अचरि ।।
"सग्गे वेदयति नरो सुखप्फलानि,
करित्वा निपुणेभि विदूहि सब्भि । वण्णितानि तिदिवपुरवरसमो,
अभिरमति रतिखिड्डासमङ्गी ।।
"लद्धानं मानुसकं भवं ततो,
चवित्वान सुकतफलविपाकं । सेसकेन पटिलभति लपनजं,
सममपि सुचिसुसुक्कं ।।
"तं वेय्यजनिका समागता बहवो,
ब्याकंसु निपुणसम्मता मनुजा । सुचिजनपरिवारगणो भवति,
दिजसमसुक्कसुचिसोभनदन्तो ।।
"रो होति बहुजनो,
सुचिपरिवारो महतिं महिं अनुसासतो ।
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(३.७.२४१-२४१)
७. लक्खणसुत्तं
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पसरह न च जनपदतदनं,
हितमपि च बहुजनसुखञ्च चरन्ति ।।
“अथ चे पब्बजति भवति विपापो,
समणो समितरजो विवट्टच्छदो । विगतदरथकिलमथो,
इममपि च परमपि च पस्सति लोकं । ।
"तस्सोवादकरा बहुगिही च पब्बजिता च,
असुचिं गरहितं धुनन्ति पापं । स हि सुचिभि परिवुतो भवति
मलखिलकलिकिलेसे पनुदेही'ति ।।
इदमवोच भगवा | अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति ।
लक्खणसुत्तं निहितं सत्तमं।
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________________
८. सिङ्गालसुत्तं
२४२. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे । तेन खो पन समयेन सिङ्गालको गहपतिपुत्तो कालस्सेव उट्ठाय राजगहा निक्खमित्वा अल्लवत्थो अल्लकेसो पञ्जलिको पुथुदिसा नमस्सति- पुरथिमं दिसं दक्खिणं दिसं पच्छिमं दिसं उत्तरं दिसं हेट्ठिमं दिसं उपरिमं दिसं।
२४३. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय राजगहं पिण्डाय पाविसि । अद्दसा खो भगवा सिङ्गालकं गहपतिपुत्तं कालस्सेव उट्ठाय राजगहा निक्खमित्वा अल्लवत्थं अल्लकेसं पञ्जलिकं पुथुदिसा नमस्सन्तं - पुरत्थिमं दिसं दक्खिणं दिसं पच्छिमं दिसं उत्तरं दिसं हेट्ठिमं दिसं उपरिमं दिसं । दिस्वा सिङ्गालकं गहपतिपुत्तं एतदवोच – “किं नु खो त्वं, गहपतिपुत्त, कालस्सेव उट्ठाय राजगहा निक्खमित्वा अल्लवत्थो अल्लकेसो पञ्जलिको पृथुदिसा नमस्ससि– पूरस्थिमं दिसं दक्खिणं दिसं पच्छिमं दिसं उत्तरं दिसं हेट्ठिमं दिसं उपरिमं दिस"न्ति ? “पिता मं, भन्ते, कालं करोन्तो एवं अवच- “दिसा, तात, नमस्सेय्यासी"ति । सो खो अहं, भन्ते, पितुवचनं सक्करोन्तो गरुं करोन्तो मानेन्तो पूजेन्तो कालस्सेव उट्ठाय राजगहा निक्खमित्वा अल्लवत्थो अल्लकेसो पञ्जलिको पुथुदिसा नमस्सामि- पुरत्थिमं दिसं दक्खिणं दिसं पच्छिमं दिसं उत्तरं दिसं हेट्ठिमं दिसं उपरिमं दिस''न्ति ।
छ दिसा
२४४. “न खो, गहपतिपुत्त, अरियस्स विनये एवं छ दिसा नमस्सितब्बा'"ति | “यथा कथं पन, भन्ते, अरियस्स विनये छ दिसा नमस्सितब्बा ? साधु मे, भन्ते, भगवा तथा धम्मं देसेतु, यथा अरियस्स विनये छ दिसा नमस्सितब्बा''ति ।
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(३.८.२४५-२४६)
(३.८.२४५-२४६)
. सिङ्गालगुत्तं
८. सिङ्गालसुत्तं
१३७
१३७
"तेन हि, गहपतिपुत्त सुणोहि साधुकं मनसिकरोहि भासिस्सामी'ति । “एवं, भन्ते''ति खो सिङ्गालको गहपतिपुत्तो भगवतो पच्चस्सोसि । भगवा एतदवोच -
“यतो खो, गहपतिपुत्त, अरियसावकस्स चत्तारो कम्मकिलेसा पहीना होन्ति, चतूहि च ठानेहि पापकम्मं न करोति, छ च भोगानं अपायमुखानि न सेवति, सो एवं चुद्दस पापकापगतो छद्दिसापटिच्छादी उभोलोकविजयाय पटिपन्नो होति । तस्स अयञ्चेव लोको आरद्धो होति परो च लोको । सो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति।
चत्तारोकम्मकिलेसा २४५. “कतमस्स चत्तारो कम्मकिलेसा पहीना होन्ति ? पाणातिपातो खो, गहपतिपुत्त, कम्मकिलेसो, अदिन्नादानं कम्मकिलेसो, कामेसुमिच्छाचारो कम्मकिलेसो, मुसावादो कम्मकिलेसो। इमस्स चत्तारो कम्मकिलेसा पहीना होन्ती''ति । इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था -
"पाणातिपातो अदिन्नादानं, मुसावादो च वच्चति । परदारगमनञ्चेव, नप्पसंसन्ति पण्डिता''ति ।।।
चतुट्टानं २४६. “कतमेहि चतूहि ठानेहि पापकम्मं न करोति ? छन्दागतिं गच्छन्तो पापकम्मं करोति, दोसागतिं गच्छन्तो पापकम्मं करोति, मोहागतिं गच्छन्तो पापकम्म करोति, भयागतिं गच्छन्तो पापकम्मं करोति । यतो खो, गहपतिपुत्त, अरियसावको नेव छन्दागतिं गच्छति, न दोसागतिं गच्छति, न मोहागतिं गच्छति, न भयागतिं गच्छति; इमेहि चतूहि ठानेहि पापकम्मं न करोती''ति । इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था -
“छन्दा दोसा भया मोहा, यो धम्म अतिवत्तति । निहीयति यसो तस्स, काळपक्खेव चन्दिमा ।।
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१३८
दीघनिकायो-३
(३.८.२४७-२५०)
“छन्दा दोसा भया मोहा, यो धम्मं नातिवत्तति । आपूरति यसो तस्स, सुक्कपक्खेव चन्दिमा''ति ।।
छ अपायमुखानि
२४७. “कतमानि छ भोगानं अपायमुखानि न सेवति ? सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठानानुयोगो खो, गहपतिपुत्त, भोगानं अपायमुखं, विकालविसिखाचरियानुयोगो भोगानं अपायमुखं, समज्जाभिचरणं भोगानं अपायमुखं, जूतप्पमादट्ठानानुयोगो भोगानं अपायमुखं, पापमित्तानुयोगो भोगानं अपायमुखं, आलस्यानुयोगो भोगानं अपायमुखं ।
सुरामेरयस्स छ आदीनवा
२४८. “छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा सुरामेरयमज्जप्पमादद्वानानुयोगे। सन्दिट्टिका धनजानि, कलहप्पवड्डनी, रोगानं आयतनं, अकित्तिसञ्जननी, कोपीननिदंसनी, पञ्जाय दुब्बलिकरणीत्वेव छटुं पदं भवति। इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा सुरा-मेरयमज्जप्पमादट्ठानानुयोगे।
विकालचरियाय छ आदीनवा
२४९. “छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा विकालविसिखाचरियानुयोगे । अत्तापिस्स अगुत्तो अरक्खितो होति, पुत्तदारोपिस्स अगुत्तो अरक्खितो होति, सापतेय्यंपिस्स अगुत्तं अरक्खितं होति, सङ्कियो च होति पापकेसु ठानेसु, अभूतवचनञ्च तस्मिं रूहति, बहूनञ्च दुक्खधम्मानं पुरक्खतो होति । इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा विकालविसिखाचरियानुयोगे।
समज्जाभिचरणस्स छ आदीनवा
२५०. “छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा समज्जाभिचरणे । क्व नच्चं, क्व गीतं, क्व वादितं, क्व अक्खानं, क्व पाणिस्सरं, क्व कुम्भथुनन्ति । इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा समज्जाभिचरणे ।
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(३.८.२५१-२५३)
८. सिङ्गालसुत्तं
१३९
जूतप्पमादस्स छ आदीनवा
२५१. “छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा जूतप्पमादट्ठानानुयोगे। जयं वरं पसवति, जिनो वित्तमनुसोचति, सन्दिट्ठिका धनजानि, सभागतस्स वचनं न रूहति, मित्तामच्चानं परिभूतो होति, आवाहविवाहकानं अपत्थितो होति - “अक्खधुत्तो अयं पुरिसपुग्गलो नालं दारभरणाया'ति । इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा जूतप्पमादट्ठानानुयोगे।
पापमित्तताय छ आदीनवा २५२. “छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा पापमित्तानुयोगे । ये धुत्ता, ये सोण्डा, ये पिपासा, ये नेकतिका, ये वञ्चनिका, ये साहसिका । त्यास्स मित्ता होन्ति ते सहाया । इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा पापमित्तानुयोगे ।
आलस्यस्स छ आदीनवा
२५३. “छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा आलस्यानुयोगे । अतिसीतन्ति कम्मं न करोति, अतिउण्हन्ति कम्मं न करोति, अतिसायन्ति कम्मं न करोति, अतिपातोति कम्म न करोति, अतिछातोस्मीति कम्मं न करोति, अतिधातोस्मीति कम्मं न करोति । तस्स एवं किच्चापदेसबहुलस्स विहरतो अनुप्पन्ना चेव भोगा नुप्पज्जन्ति, उप्पन्ना च भोगा परिक्खयं गच्छन्ति । इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा आलस्यानुयोगे''ति । इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था -
“होति पानसखा नाम,
___ होति सम्मियसम्मियो । यो च अत्थेसु जातेसु,
सहायो होति सो सखा ।।
"उस्सूरसेय्या परदारसेवना,
वेरप्पसवो च अनत्थता च ।
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१४०
पापा च मित्ता सुकदरियता च,
"पापमित्तो पापसखो,
दीघनिकायो-३
एते छ ठाना पुरिसं धंसयन्ति । ।
अस्मा लोका परम्हा च,
पापआचारगोचरो |
उभया धंसते नरो ।।
" अक्खित्थियो वारुणी नच्चगीतं,
दिवा सोप्पं पारिचरिया अकाले । पापा च मित्ता सुकदरियता च,
एते छ ठाना पुरिसं धंसयन्ति । ।
"अक्खेहि दिब्बन्ति सुरं पिवन्ति, निहीनसेवी न च वुद्धसेवी,
यन्तित्थियो पाणसमा परेसं ।
निहीयते काळपक्खेव चन्दो ||
“यो वारुणी अद्धनो अकिञ्चनो, पिपासो पिवं पपागतो । उदकमिव इणं विगाहति,
अकुलं काहिति खिप्पमत्तनो ।।
"न दिवा सोप्पसीलेन, रत्तिमुट्ठानदेस्सिना । निच्चं मत्तेन सोण्डेन, सक्का आवसितुं घरं । ।
“अतिसीतं अतिउण्हं, अतिसायमिदं अहु । इति विस्सट्टकम्मन्ते, अत्था अच्चेन्ति माणवे । ।
140
(३.८.२५३-२५३)
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८. सिङ्गासुतं
“ योध सीतञ्च उण्हञ्च, तिणा भिय्यो न मञ्ञति । करं पुरिसकिच्चानि, सो सुखं न विहायती 'ति । ।
मित्तपतिरूपका
२५४. “चत्तारोमे, गहपतिपुत्त, अमित्ता मित्तपतिरूपका वेदितब्बा । अञ्ञदत्थुहरो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो, वचीपरमो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो, अनुप्पियभाणी अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो, अपायसहायो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो |
(३.८.२५४-२५८)
२५५. “ चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अञ्ञदत्थुहरो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो ।
" अञ्ञदत्थुहरो होति अप्पेन बहुमिच्छति ।
भयस्स किच्चं करोति, सेवति अत्थकारणा । ।
“इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि अञ्ञदत्थुहरो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो ।
१४१
२५६. " चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि वचीपरमो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो | अतीतेन पटिसन्थरति, अनागतेन पटिसन्थरति, निरत्थकेन सङ्गण्हाति, पच्चुप्पन्नेसु किच्चेसु ब्यसनं दस्सेति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि वचीपरमो अमित्त मित्तपतिरूपको वेदितब्बो ।
२५७. " चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अनुप्पियभाणी अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो । पापकंपिस्स अनुजानाति, कल्याणंपिस्स अनुजानाति, सम्मुखास वणं भासति, परम्मुखास्स अवण्णं भासति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि अनुप्पियभाणी अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो ।
२५८. “ चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अपायसहायो अमित्तो मित्तपतिरूपको
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१४२
दीघनिकायो-३
(३.८.२५९-२६३)
वेदितब्बो । सुरामेरय मज्जप्पमादट्ठानानुयोगे सहायो होति, विकाल विसिखा चरियानुयोगे सहायो होति, समज्जाभिचरणे सहायो होति, जूतप्पमादट्ठानानुयोगे सहायो होति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि अपायसहायो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो"ति ।
२५९. इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था -
“अझदत्थुहरो मित्तो, यो च मित्तो वचीपरो।
अनुप्पियञ्च यो आह, अपायेसु च यो सखा ।। एते अमित्ते चत्तारो, इति विज्ञाय पण्डितो।।
आरका परिवज्जेय्य, मग्गं पटिभयं यथा"ति ।।
सुहदमित्तो २६०. “चत्तारोमे, गहपतिपुत्त, मित्ता सुहदा वेदितब्बा । उपकारो मित्तो सुहदो वेदितब्बो, समानसुखदुक्खो मित्तो सुहदो वेदितब्बो, अत्थक्खायी मित्तो सुहदो वेदितब्बो, अनुकम्पको मित्तो सुहदो वेदितब्बो ।
२६१. “चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि उपकारो मित्तो सुहदो वेदितब्बो । पमत्तं रक्खति, पमत्तस्स सापतेय्यं रक्खति, भीतस्स सरणं होति, उप्पन्नेसु किच्चकरणीयेसु तद्दिगुणं भोगं अनुप्पदेति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि उपकारो मित्तो सुहदो वेदितब्बो।
२६२. "चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि समानसुखदुक्खो मित्तो सुहदो वेदितब्बो। गुव्हमस्स आचिक्खति, गुय्हमस्स परिगृहति, आपदासु न विजहति, जीवितंपिस्स अत्थाय परिच्चत्तं होति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि समानसुखदुक्खो मित्तो सुहदो वेदितब्बो ।
२६३. “चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अत्थक्खायी मित्तो सुहदो वेदितब्बो । पापा निवारेति, कल्याणे निवेसेति, अस्सुतं सावेति, सग्गस्स मग्गं आचिक्खति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि अत्थक्खायी मित्तो सुहदो वेदितब्बो ।
142
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(३.८.२६४-२६६)
८. सिङ्गालसुत्तं
१४३
___२६४. “चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अनुकम्पको मित्तो सुहदो वेदितब्बो । अभवेनस्स न नन्दति, भवेनस्स नन्दति, अवण्णं भणमानं निवारेति, वण्णं भणमानं पसंसति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि अनुकम्पको मित्तो सुहदो वेदितब्बो'ति।
२६५. इदमवीच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था -
"उपकारो च यो मित्तो, सुखे दुक्खे च यो सखा । अत्थक्खायी च यो मित्तो, यो च मित्तानुकम्पको ।।
"एतेपि मित्ते चत्तारो, इति विज्ञाय पण्डितो । सक्कच्चं पयिरुपासेय्य, माता पुत्तं व ओरसं । पण्डितो सीलसम्पन्नो, जलं अग्गीव भासति ।।
“भोगे संहरमानस्स, भमरस्सेव इरीयतो । भोगा सन्निचयं यन्ति, वम्मिकोवुपचीयति ।।
"एवं भोगे समाहत्वा, अलमत्तो कुले गिही । चतुधा विभजे भोगे, स वे मित्तानि गन्थति ।।
"एकेन भोगे भुजेय्य, द्वीहि कम्मं पयोजये । चतुत्थञ्च निधापेय्य, आपदासु भविस्सती''ति ।।
छदिसापटिच्छादनकण्डं २६६. “कथञ्च, गहपतिपुत्त, अरियसावको छद्दिसापटिच्छादी होति ? छ इमा, गहपतिपुत्त, दिसा वेदितब्बा । पुरत्थिमा दिसा मातापितरो वेदितब्बा, दक्खिणा दिसा आचरिया वेदितब्बा, पच्छिमा दिसा पुत्तदारा वेदितब्बा, उत्तरा दिसा मित्तामच्चा वेदितब्बा, हेट्ठिमा दिसा दासकम्मकरा वेदितब्बा, उपरिमा दिसा समणब्राह्मणा वेदितब्बा ।
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दीघनिकायो-३
२६७. “पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि पुत्तेन पुरत्थिमा दिसा मातापितरो पच्चुपट्ठातब्बा - भतो नेसं भरिस्सामि, किच्चं नेसं करिस्सामि, कुलवंसं ठपेस्सामि, दायज्जं पटिपज्जामि, अथ वा पन पेतानं कालङ्कतानं दक्खिणं अनुप्पदस्सामीति | इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि पुत्तेन पुरत्थिमा दिसा मातापितरो पच्चुपट्ठिता पञ्चहि ठानेह पुत्तं अनुकम्पन्ति । पापा निवारेन्ति, कल्याणे निवेसेन्ति, सिप्पं सिक्खापेन्ति, पतिरूपेन दारेन संयोजेन्ति, समये दायज्जं निय्यादेन्ति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि पुत्तेन पुरत्थिमा दिसा मातापितरो पच्चुपट्ठिता इमेहि पञ्चहि ठानेहि तं अनुकम्पन्ति। एवमस्स एसा पुरत्थिमा दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया ।
१४४
२६८. “पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अन्तेवासिना दक्खिणा दिसा आचरिया पच्चुपट्ठातब्बा- उट्ठानेन उपट्ठानेन सुस्सुसाय पारिचरियाय सक्कच्चं सिप्पपटिग्गहणेन । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि अन्तेवासिना दक्खिणा दिसा आचरिया पच्चुपट्ठिता पञ्चहि ठानेहि अन्तेवासि अनुकम्पन्ति - सुविनीतं विनेन्ति, सुग्गहितं गाहापेन्ति, सब्बसिप्पस्सुतं समक्खायिनो भवन्ति, मित्तामच्चेसु पटियादेन्ति, दिसासु परित्ताणं करोन्ति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि अन्तेवासिना दक्खिणा दिसा आचरिया पच्चुपट्ठिता इमेहि पञ्चहि ठानेहि अन्तेवासि अनुकम्पन्ति । एवमस्स सा दक्खिणा दिसा परिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया ।
२६९. “पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि सामिकेन पच्छिमा दिसा भरिया पच्चुपट्ठातब्बा- सम्माननाय अनवमाननाय अनतिचरियाय इस्सरियवोस्सग्गेन अलङ्कारानुप्पदानेन । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि सामिकेन पच्छिमा दिसा भरिया पच्चुपट्ठिता पञ्चहि ठानेहि सामिकं अनुकम्पति - सुसंविहितकम्मन्ता च होति, सङ्गहितपरिजना च, अनतिचारिनी च, सम्भतञ्च अनुरक्खति, दक्खा च होति अनलसा सब्बकिच्चेसु । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि सामिकेन पच्छिमा दिसा भरिया पच्चुपट्ठिता इमेहि पञ्चहि ठानेहि सामिकं अनुकम्पति । एवमस्स एसा पच्छिमा दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया ।
(३.८.२६७-२७०)
२७०. “पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि कुलपुत्तेन उत्तरा दिसा मित्तामच्चा पच्चुपट्टातब्बा - दानेन पेय्यवज्जेन अत्थचरियाय समानत्तताय अविसंवादनताय । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तेन उत्तरा दिसा मित्तामच्चा पच्चुपट्ठिता पञ्चहि
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८. सिङ्गासुतं
ठानेहि कुलपुत्तं अनुकम्पन्ति - पमत्तं रक्खन्ति, पमत्तस्स सापतेय्यं रक्खन्ति, भीतस्स सरणं होन्ति, आपदासु न विजहन्ति, अपरपजा चस्स पटिपूजेन्ति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तेन उत्तरा दिसा मित्तामच्चा पच्चुपट्ठिता इमेहि पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तं अनुकम्पन्ति । एवमस्स एसा उत्तरा दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया ।
(३.८.२७१-२७३)
२७१. “पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अय्यिरकेन हेट्ठिमा दिसा दासकम्मकरा पच्चुपट्ठातब्बा – यथाबलं कम्मन्तसंविधानेन भत्तवेतनानुप्पदानेन गिलानुपट्ठानेन अच्छरियानं रसानं संविभागेन समये वोस्सग्गेन । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि अय्यिरकेन हेट्ठिमा दिसा दासकम्मकरा पच्चुपट्ठिता पञ्चहि ठानेहि अय्यिरकं अनुकम्पन्ति - पुब्बुट्ठायिनो च होन्ति, पच्छा निपातिनो च, दिन्नादायिनो च, सुकतकम्मकरा च, कित्तिवण्णहरा च । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि अय्यिरकेन हेट्ठिमा दिसा दासकम्मकरा पच्चुपट्ठिता इमेहि पञ्चहि ठानेहि अय्यिरकं अनुकम्पन्ति । एवमस्स एसा हेट्टिमा दिसा परिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया ।
२७२. “पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि कुलपुत्तेन उपरिमा दिसा समणब्राह्मणा पच्चुपट्ठातब्बा - मेत्तेन कायकम्मेन मेत्तेन वचीकम्मेन मेत्तेन मनोकम्मेन अनावटद्वारताय आमिसानुप्पदानेन । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तेन उपरिमा दिसा समणब्राह्मणा पच्चुपट्ठिता छहि ठानेहि कुलपुत्तं अनुकम्पन्ति - पापा निवारेन्ति, कल्याणे निवेसेन्ति, कल्याणेन मनसा अनुकम्पन्ति, अस्सुतं सावेन्ति, सुतं परियोदापेन्ति, सग्गस्स मग्गं आचिक्खन्ति । इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तेन उपरिमा दिसा समणब्राह्मणा पच्चुपट्ठिता इमेहि छहि ठानेहि कुलपुत्तं अनुकम्पन्ति । एवमस्स एसा उपरिमा दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया "ति ।
२७३. इदमवोच भगवा । इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था -
" मातापिता दिसा पुब्बा, आचरिया दक्खिणा दिसा । पुत्तदारा दिसा पच्छा, मित्तामच्चा च उत्तरा । ।
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दीघनिकायो-३
(३.८.२७४-२७४)
"दासकम्मकरा हेट्ठा, उद्धं समणब्राह्मणा । एता दिसा नमस्सेय्य, अलमत्तो कुले गिही ।।
“पण्डितो सीलसम्पन्नो, सण्हो च पटिभानवा । निवातवुत्ति अत्थद्धो, तादिसो लभते यसं ।।
"उट्ठानको अनलसो, आपदासु न वेधति । अच्छिन्नवुत्ति मेधावी, तादिसो लभते यस ।।
“सङ्गाहको मित्तकरो, वदशं वीतमच्छरो । नेता विनेता अनुनेता, तादिसो लभते यसं ।।
"दानञ्च पेय्यवज्जञ्च, अत्थचरिया च या इध । समानत्तता च धम्मेसु, तत्थ तत्थ यथारहं । एते खो सङ्गहा लोके, रथस्साणीव यायतो ।।
"एते च सङ्गहा नास्सु, न माता पुत्तकारणा । लभेथ मानं पूजं वा, पिता वा पुत्तकारणा ।।
“यस्मा च सङ्गहा एते, सम्मपेक्खन्ति पण्डिता । तस्मा महत्तं पप्पोन्ति, पासंसा च भवन्ति ते"ति ।।
२७४. एवं वुत्ते, सिङ्गालको गहपतिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – “अभिक्कन्तं, भन्ते ! अभिक्कन्तं, भन्ते ! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य "चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती"ति । एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसंघञ्च । उपासकं मं भगवा धारेतु, अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत"न्ति ।
सिङ्गालसुत्तं निहितं अट्ठमं।
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९. आटानाटियसुत्तं
पठमभाणवारो २७५. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते । अथ खो चत्तारो महाराजा महतिया च यक्खसेनाय महतिया च गन्धब्बसेनाय महतिया च कुम्भण्डसेनाय महतिया च नागसेनाय चतुद्दिसं रक्खं ठपेत्वा चतुद्दिसं गुम्बं ठपेत्वा चतुद्दिसं ओवरणं ठपेत्वा अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णा केवलकप्पं गिज्झकूटं पब्बतं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । तेपि खो यक्खा अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु ।
२७६. एकमन्तं निसिन्नो खो वेस्सवणो महाराजा भगवन्तं एतदवोच- “सन्ति हि, भन्ते, उळारा यक्खा भगवतो अप्पसन्ना । सन्ति हि, भन्ते, उळारा यक्खा भगवतो पसन्ना। सन्ति हि, भन्ते, मज्झिमा यक्खा भगवतो अप्पसन्ना । सन्ति हि, भन्ते, मज्झिमा यक्खा भगवतो पसन्ना । सन्ति हि, भन्ते, नीचा यक्खा भगवतो अप्पसन्ना । सन्ति हि, भन्ते, नीचा यक्खा भगवतो पसन्ना। येभुय्येन खो पन, भन्ते, यक्खा अप्पसन्नायेव भगवतो । तं किस्स हेतु ? भगवा हि, भन्ते, पाणातिपाता वेरमणिया धम्म देसेति, अदिन्नादाना वेरमणिया धम्मं देसेति, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणिया धम्मं देसेति, मुसावादा वेरमणिया धम्मं देसेति, सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठाना वेरमणिया धम्मं देसेति । येभुय्येन खो पन, भन्ते, यक्खा अप्पटिविरतायेव पाणातिपाता, अप्पटिविरता अदिन्नादाना, अप्पटिविरता कामेसुमिच्छाचारा, अप्पटिविरता मुसावादा, अप्पटिविरता
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१४८
दीघनिकायो-३
(३.९.२७७-२७७)
सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठाना | तेसं तं होति अप्पियं अमनापं । सन्ति हि, भन्ते, भगवतो सावका अरञ्जवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवन्ति अप्पसद्दानि अप्पनिग्घोसानि विजनवातानि मनुस्सराहस्सेय्यकानि पटिसल्लानसारुप्पानि । तत्थ सन्ति उळारा यक्खा निवासिनो, ये इमस्मिं भगवतो पावचने अप्पसन्ना । तेसं पसादाय उग्गण्हातु, भन्ते, भगवा आटानाटियं रक्खं भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहाराया'ति । अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन ।
अथ खो वेस्सवणो महाराजा भगवतो अधिवासनं विदित्वा तायं वेलायं इमं आटानाटियं रक्खं अभासि -
२७७.“विपस्सिस्स च नमत्थु, चक्खुमन्तस्स सिरीमतो।
सिखिस्सपि च नमत्थु, सब्बभूतानुकम्पिनो ।।
"वेस्सभुस्स च नमत्थु, न्हातकस्स तपस्सिनो । नमत्थु ककुसन्धस्स, मारसेनापमद्दिनो ।।
"कोणागमनस्स नमत्थु, ब्राह्मणस्स वुसीमतो। कस्सपस्स च नमत्थु, विप्पमुत्तस्स सब्बधि ।।
“अङ्गीरसस्स नमत्थु, सक्यपुत्तस्स सिरीमतो । यो इमं धम्मं देसेसि, सब्बदुक्खापनूदनं ।।
"ये चापि निब्बुता लोके, यथाभूतं विपस्सिसुं । ते जना अपिसुणाथ, महन्ता वीतसारदा ।।
“हितं देवमनुस्सानं, यं नमस्सन्ति गोतमं । विज्जाचरणसम्पन्नं, महन्तं वीतसारदं । ।
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(३.९.२७८-२७९)
९. आटानाटियसुत्तं
१४९
२७८. “यतो उग्गच्छति सूरियो, आदिच्चो मण्डली महा ।
यस्स चुग्गच्छमानस्स, संवरीपि निरुज्झति । यस्स चुग्गते सूरिये, दिवसोति पवुच्चति ।।
"रहदोपि तत्थ गम्भीरो, समुद्दो सरितोदको । एवं तं तत्थ जानन्ति, समुद्दो सरितोदको ।।
"इतो सा पुरिमा दिसा, इति नं आचिक्खती जनो । यं दिसं अभिपालेति, महाराजा यसस्सि सो ।।
"गन्धब्बानं अधिपति, धतरट्ठोति नामसो । रमती नच्चगीतेहि, गन्धब्बेहि पुरक्खतो ।।
"पुत्तापि तस्स बहवो, एकनामाति मे सुतं । असीति दस एको च, इन्दनामा महब्बला ।।
ते चापि बुद्धं दिस्वान, बुद्धं आदिच्चबन्धुनं । दूरतोव नमस्सन्ति, महन्तं वीतसारदं ।।
"नमो ते पुरिसाजञ, नमो ते पुरिसुत्तम । कुसलेन समेक्खसि, अमनुस्सापि तं वन्दन्ति । सुतं नेतं अभिण्हसो, तस्मा एवं वदेमसे ।।
"जिनं वन्दथ गोतमं, जिनं वन्दाम गोतमं । विज्जाचरणसम्पन्नं, बुद्धं वन्दाम गोतमं ।।
२७९.येन पेता पवुच्चन्ति, पिसुणा पिट्ठिमंसिका ।
पाणातिपातिनो लुद्दा, चोरा नेकतिका जना ।।
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१५०
दीघनिकायो-३
“इतो सा दक्खिणा दिसा, इति नं आचिक्खती जनो । यं दिसं अभिपालेति, महाराजा यसस्सि सो । ।
"कुम्भण्डानं अधिपति, विरूळहो इति नामसो । रमती नच्चगीतेहि, कुम्भण्डेहि पुरखतो ।।
" पुत्तापि तस्स बहवो, एकनामाति मे सुतं । असीति दस एको च, इन्दनामा महब्बला । ।
ते चापि बुद्धं दिस्वान, बुद्धं आदिच्चबन्धुनं । दूरतो नमस्सन्ति, महन्तं वीतसारदं । ।
“नमो ते पुरिसाजञ्ञ, नमो ते पुरिसुत्तम । कुसलेन समेक्खसि, अमनुस्सापि तं वन्दन्ति । सुतं नेतं अभिण्हसो, तस्मा एवं वदेमसे । ।
"जिनं वन्दथ गोतमं, जिनं वन्दाम गोतमं । विज्जाचरणसम्पन्नं, बुद्धं वन्दाम गोतमं । ।
२८०. “ यत्थ चोग्गच्छति सूरियो, आदिच्चो मण्डली महा । यस्स चोग्गच्छमानस्स, दिवसोपि निरुज्झति । यस्स चोग्गते सूरिये, संवरीति पवुच्चति ।।
‘“रहदोपि तत्थ गम्भीरो, समुद्दो सरितोदको । एवं तं तत्थ जानन्ति समुद्दो सरितोदको ।।
“इतो सा पच्छिमा दिसा, इति नं आचिक्खती जनो । यं दिसं अभिपालेति, महाराजा यसस्सि सो । ।
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(३.९.२८०-२८०)
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(३.९.२८१-२८१)
९. आटानाटियसुत्तं
१५१
"नागानञ्च अधिपति, विरूपक्खोति नामसो । रमती नच्चगीतेहि, नागेहेव पुरक्खतो ।।
"पुत्तापि तस्स बहवो, एकनामाति मे सुतं । असीति दस एको च, इन्दनामा महब्बला ।।
ते चापि बुद्ध दिस्वान, बुद्धं आदिच्चबन्धुनं । दूरतोव नमस्सन्ति, महन्तं वीतसारदं ।।
"नमो ते पुरिसाजञ, नमो ते पुरिसुत्तम । कुसलेन समेक्खसि, अमनुस्सापि तं वन्दन्ति । सुतं नेतं अभिण्हसो, तस्मा एवं वदेमसे ।।
“जिनं वन्दथ गोतमं, जिनं वन्दाम गोतमं । विज्जाचरणसम्पन्नं, बुद्धं वन्दाम गोतमं ।।
२८१. “येन उत्तरकुरुव्हो, महानेरु सुदस्सनो ।
मनुस्सा तत्थ जायन्ति, अममा अपरिग्गहा ।।
“न ते बीजं पवपन्ति, नपि नीयन्ति नङ्गला । अकट्ठपाकिमं सालिं, परिभुञ्जन्ति मानुसा ।।
"अकणं अथुसं सुद्धं, सुगन्धं तण्डुलप्फलं । तुण्डिकीरे पचित्वान, ततो भुञ्जन्ति भोजनं ।।
"गाविं एकखुरं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं । पसु एकखुरं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं ।।
"इत्थिं वा वाहनं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं । पुरिसं वाहनं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं ।।
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१५२
दीघनिकायो-३
(३.९.२८१-२८१)
"कुमारिं वाहनं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं । कुमारं वाहनं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं ।।
"ते याने अभिरुहित्वा, सब्बा दिसा अनुपरियायन्ति । पचारा तस्स राजिनो ।।
“हत्थियानं अस्सयानं, दिब् यानं उपट्टितं । पासादा सिविका चेव, महाराजस्स यसस्सिनो ।।
"तस्स च नगरा अहु,
अन्तलिक्खे सुमापिता। आटानाटा कुसिनाटा परकुसिनाटा,
नाटसुरिया परकुसिटनाटा ।।
"उत्तरेन कसिवन्तो,
जनोघमपरेन च । नवनवुतियो अम्बरअम्बरवतियो,
आळकमन्दा नाम राजधानी ।।
"कुवेरस्स खो पन मारिस महाराजस्स, विसाणा नाम राजधानी । तस्मा कुवेरो महाराजा, वेस्सवणोति पवुच्चति ।।
“पच्चेसन्तो पकासेन्ति, ततोला तत्तला ततोतला । ओजसि तेजसि ततोजसी, सूरो राजा अरिठ्ठो नेमि ।।
"रहदोपि तत्थ धरणी नाम, यतो मेघा पवस्सन्ति । वस्सा यतो पतायन्ति, सभापि तत्थ सालवती नाम ||
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(३.९.२८१-२८१)
९. आटानाटियसुत्तं
१५३
“यत्थ यक्खा पयिरुपासन्ति, तत्थ निच्चफला रुक्खा । नाना दिजगणा युता, मयूरकोञ्चाभिरुदा । कोकिलादीहि वग्गुहि ।।
"जीवजीवकसद्देत्थ, अथो ओट्ठवचित्तका । कुक्कुटका कुळीरका, वने पोक्खरसातका ।।
"सकसाळिकसद्देत्थ, दण्डमाणवकानि च । सोभति सब्बकालं सा, कुवेरनळिनी सदा ।।
"इतो सा उत्तरा दिसा, इति नं आचिक्खती जनो । यं दिसं अभिपालेति, महाराजा यसस्सि सो ।।
"यक्खानञ्च अधिपति, कुवेरो इति नामसो । रमती नच्चगीतेहि, यक्खेहेव पुरक्खतो ।।
"पुत्तापि तस्स बहवो, एकनामाति मे सुतं । असीति दस एको च, इन्दनामा महब्बला ।।
"ते चापि बुद्धं दिस्वान, बुद्धं आदिच्चबन्धुनं । दूरतोव नमस्सन्ति, महन्तं वीतसारदं ।।
"नमो ते पुरिसाजञ, नमो ते पुरिसुत्तम । कुसलेन समेक्खसि, अमनुस्सापि तं वन्दन्ति | सुतं नेतं अभिण्हसो, तस्मा एवं वदेमसे ।।
"जिनं वन्दथ गोतमं, जिनं वन्दाम गोतमं । विज्जाचरणसम्पन्नं, बुद्धं वन्दाम गोतम"न्ति ।।
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१५४
दीघनिकायो-३
(३.९.२८२-२८२)
“अयं खो सा, मारिस, आटानाटिया रक्खा भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहाराय ।
__२८२. “यस्स कस्सचि, मारिस, भिक्खुस्स वा भिक्खुनिया वा उपासकस्स वा उपासिकाय वा अयं आटानाटिया रक्खा सुग्गहिता भविस्सति समत्ता परियापुता । तं चे अमनुस्सो यक्खो वा यक्खिनी वा यक्खपोतको वा यक्खपोतिका वा यक्खमहामत्तो वा यक्खपारिसज्जो वा यक्खपचारो वा, गन्धब्बो वा गन्धब्बी वा गन्धब्बपोतको वा गन्धब्बपोतिका वा गन्धब्बमहामत्तो वा गन्धब्बपारिसज्जो वा गन्धब्बपचारो वा, कुम्भण्डो वा कुम्भण्डी वा कुम्भण्डपोतको वा कुम्भण्डपोतिका वा कुम्भण्डमहामत्तो वा कुम्भण्डपारिसज्जो वा कुम्भण्डपचारो वा, नागो वा नागी वा नागपोतको वा नागपोतिका वा नागमहामत्तो वा नागपारिसज्जो वा नागपचारो वा, पदुट्ठचित्तो भिक्खुं वा भिक्खुनि वा उपासकं वा उपासिकं वा गच्छन्तं वा अनुगच्छेय्य, ठितं वा उपतिद्वैय्य, निसिन्नं वा उपनिसीदेय्य, निपन्नं वा उपनिपज्जेय्य । न मे सो, मारिस, अमनुस्सो लभेय्य गामेसु वा निगमेसु वा सक्कारं वा गरुकारं वा । न मे सो, मारिस, अमनुस्सो लभेय्य आळकमन्दाय नाम राजधानिया वत्थु वा वासं वा । न मे सो, मारिस, अमनुस्सो लभेय्य यक्खानं समितिं गन्तुं । अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा अनावरहम्पि नं करेय्युं अविवहं । अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा अत्ताहिपि परिपुण्णाहि परिभासाहि परिभासेय्युं । अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा रित्तंपिस्स पत्तं सीसे निक्कुज्जेय्युं । अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा सत्तधापिस्स मुद्धं फालेय्युं ।
“सन्ति हि, मारिस, अमनुस्सा चण्डा रुद्धा रभसा, ते नेव महाराजानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं पुरिसकानं आदियन्ति । ते खो ते, मारिस, अमनुस्सा महाराजानं अवरुद्धा नाम वुच्चन्ति । सेय्यथापि, मारिस, रो मागधस्स विजिते महाचोरा । ते नेव रञो मागधस्स आदियन्ति, न रो मागधस्स पुरिसकानं आदियन्ति, न रो मागधस्स पुरिसकानं पुरिसकानं आदियन्ति । ते खो ते, मारिस, महाचोरा रो मागधस्स अवरुद्धा नाम वुच्चन्ति । एवमेव खो, मारिस, सन्ति अमनुस्सा चण्डा रुद्धा रभसा, ते नेव महाराजानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं पुरिसकानं आदियन्ति । ते खो ते, मारिस, अमनुस्सा महाराजानं अवरुद्धा नाम वुच्चन्ति । यो हि कोचि, मारिस, अमनुस्सो यक्खो वा यक्खिनी वा...पे०... गन्धब्बो वा गन्धब्बी
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(३.९.२८३-२८३)
९. आटानाटियसुत्तं
१५५
वा...पे०... कुम्भण्डो वा कुम्भण्डी वा...पे०... नागो वा नागी वा नागपोतको वा नागपोतिका वा नागमहामत्तो वा नागपारिसज्जो वा नागपचारो वा पदुट्ठचित्तो भिक्खं वा भिक्खुनिं वा उपासकं वा उपासिकं वा गच्छन्तं वा अनुगच्छेय्य, ठितं वा उपतिठेय्य, निसिन्नं वा उपनिसीदेय्य, निपन्नं वा उपनिपज्जेय्य। इमेसं यक्खानं महायक्खानं सेनापतीनं महासेनापतीनं उज्झापेतब्बं विक्कन्दितब्बं विरवितब्बं - "अयं यक्खो गण्हाति, अयं यक्खो आविसति, अयं यक्खो हेठेति, अयं यक्खो विहेठेति, अयं यक्खो हिंसति, अयं यक्खो विहिंसति, अयं यक्खो न मुञ्चती"ति ।
२८३. “कतमेसं यक्खानं महायक्खानं सेनापतीनं महासेनापतीनं ?
“इन्दो सोमो वरुणो च, भारद्वाजो पजापति । चन्दनो कामसेट्ठो च, किनुघण्डु निघण्डु च ।।
"पनादो ओपमञो च, देवसूतो च मातलि । चित्तसेनो च गन्धब्बो, नळो राजा जनेसभो ।।
"सातागिरो हेमवतो, पुण्णको करतियो गुळो । सिवको मुचलिन्दो च, वेस्सामित्तो युगन्धरो ।।
“गोपालो सुप्परोधो च, हिरि नेत्ति च मन्दियो । पञ्चालचण्डो आळवको, पज्जुन्नो सुमनो सुमुखो । दधिमुखो मणि माणिवरो दीघो, अथो सेरीसको सह ।।
"इमेसं यक्खानं महायक्खानं सेनापतीनं महासेनापतीनं उज्झापेतबं विक्कन्दितब्बं विरवितब्बं - "अयं यक्खो गण्हाति, अयं यक्खो आविसति, अयं यक्खो हेठेति, अयं यक्खो विहेठेति, अयं यक्खो हिंसति, अयं यक्खो विहिंसति, अयं यक्खो न
मुञ्चती'ति ।
___ “अयं खो सा, मारिस, आटानाटिया रक्खा भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहाराय । हन्द च दानि मयं, मारिस,
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दीघनिकायो-३
गच्छाम बहुकिच्चा मयं बहुकरणीया'ति । “यस्स दानि तुम्हे महाराजानो कालं मञ्ञथा”ति ।
१५६
२८४. अथ खो चत्तारो महाराजा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु । तेपि खो यक्खा उट्ठायासना अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु । अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु । अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु । अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु । अप्पेकच्चे तुम्हीभूता तत्थेवन्तरधायिंसूति ।
पठमभाणवारो निट्ठितो ।
भाणवा
२८५. अथ खो भगवा तस्सा रत्तिया अच्चयेन भिक्खू आमन्तेसि - "इमं, भिक्खवे, रत्तिं चत्तारो महाराजा महतिया च यक्खसेनाय महतिया च गन्धब्बसेनाय महतिया च कुम्भण्डसेनाय महतिया च नागसेनाय चतुद्दिसं रक्खं ठपेत्वा चतुद्दिसं गुम्बं ठपेत्वा चतुद्दिसं ओवरणं ठपेत्वा अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णा केवलकप्पं गिज्झकूटं पब्बतं ओभासेत्वा येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । तेपि खो, भिक्खवे, यक्खा अप्पेकच्चे मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । अप्पेकच्चे मया सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । अप्पेकच्चे येनाहं तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । अप्पेकच्चे तुम्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु" ।
(३.९.२८४-२८६)
२८६. “एकमन्तं निसिन्नो खो, भिक्खवे, वेस्सवणो महाराजा मं एतदवोच - 'सन्ति हि भन्ते, उळारा यक्खा भगवतो अप्पसन्ना... पे०... सन्ति हि भन्ते । नीचा यक्खा भगवतो पसन्ना । येभुय्येन खो पन, भन्ते, यक्खा अप्पसन्नायेव भगवतो । तं किस्स हेतु ? भगवा हि, भन्ते, पाणातिपाता वेरमणिया धम्मं देसेति... पे०...
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(३.९.२८७-२८७)
९. आटानाटियसुत्तं
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सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठाना वेरमणिया धम्म देसेति । येभुय्येन खो पन, भन्ते, यक्खा अप्पटिविरतायेव पाणातिपाता...पे०... अप्पटिविरता सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठाना। तेसं तं होति अप्पियं अमनापं । सन्ति हि, भन्ते, भगवतो सावका अरञ्जवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवन्ति अप्पसद्दानि अप्पनिग्घोसानि विजनवातानि मनुस्सराहस्सेय्यकानि पटिसल्लानसारुप्पानि । तत्थ सन्ति उळारा यक्खा निवासिनो, ये इमस्मिं भगवतो पावचने अप्पसन्ना, तेसं पसादाय उग्गण्हातु, भन्ते, भगवा आटानाटियं रक्खं भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहाराया'ति । अधिवासेसिं खो अहं, भिक्खवे, तुण्हीभावेन । अथ खो, भिक्खवे, वेस्सवणो महाराजा मे अधिवासनं विदित्वा तायं वेलायं इमं आटानाटियं रक्खं अभासि -
२८७. विपस्सिस्स च नमत्थु, चक्खुमन्तस्स सिरीमतो ।
सिखिस्सपि च नमत्थु, सब्बभूतानुकम्पिनो ।।
'वेस्सभुस्स च नमत्थु, न्हातकस्स तपस्सिनो । नमत्थु ककुसन्धस्स, मारसेनापमद्दिनो ।।
'कोणागमनस्स नमत्थु, ब्राह्मणस्स् वुसीमतो । कस्सपस्स च नमत्थु, विप्पमुत्तस्स सब्बधि ।।
'अङ्गीरसस्स नमत्थु, सक्यपुत्तस्स सिरीमतो। यो इमं धम्म देसेसि, सब्बदुक्खापनूदनं ।।
'ये चापि निब्बुता लोके, यथाभूतं विपस्सिसुं । ते जना अपिसुणाथ, महन्ता वीतसारदा ।।
'हितं देवमनुस्सानं, यं नमस्सन्ति गोतमं । विज्जाचरणसम्पन्नं, महन्तं वीतसारदं ।।
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दीघनिकायो-३
(३.९.२८८-२८९)
२८८. यतो उग्गच्छति सूरियो, आदिच्चो मण्डली महा।
यस्स चुग्गच्छमानस्स, संवरीपि निरुज्झति । यस्स चुग्गते सूरिये, दिवसोति पवुच्चति ।।
'रहदोपि तत्थ गम्भीरो, समुद्दो सरितोदको । एवं तं तत्थ जानन्ति, समुद्दो सरितोदको ।।
'इतो सा पुरिमा दिसा, इति नं आचिक्खती जनो। यं दिसं अभिपालेति, महाराजा यसस्सि सो।।
'गन्धब्बानं अधिपति, धतरट्ठोति नामसो । रमती नच्चगीतेहि, गन्धब्बेहि पुरक्खतो ।।
'पुत्तापि तस्स बहवो, एकनामाति मे सुतं । असीति दस एको च, इन्दनामा महब्बला ।।
'ते चापि बुद्धं दिस्वान, बुद्धं आदिच्चबन्धुनं । दूरतोव नमस्सन्ति, महन्तं वीतसारदं ।।
'नमो ते पुरिसाजञ, नमो ते पुरिसुत्तम | कुसलेन समेक्खसि, अमनुस्सापि तं वन्दन्ति । सुतं नेतं अभिण्हसो, तस्सा एवं वदेमसे ।।
'जिनं वन्दथ गोतमं, जिनं वन्दाम गोतमं । विज्जाचरणसम्पन्नं, बुद्धं वन्दाम गोतमं ।।
२८९. येन पेता पवुच्चन्ति, पिसुणा पिट्ठिमंसिका ।
पाणातिपातिनो लुद्दा, चोरा नेकतिका जना ।।
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(३.९.२९०-२९०)
९. आटानाटियसुत्तं
___ १५९
'इतो सा दक्खिणा दिसा, इति नं आचिक्खती जनो । यं दिसं अभिपालेति, महाराजा यसस्सि सो ।।
'कुम्भण्डानं अधिपति, विरूळ्हो इति नामसो । रमती नच्चगीतेहि, कुम्भण्डेहि पुरक्खतो ।।
'पुत्तापि तस्स बहवो, एकनामाति मे सुतं । असीति दस एको च, इन्दनामा महब्बला ।।
'ते चापि बुद्धं दिस्वान, बुद्धं आदिच्चबन्धुनं । दूरतोव नमस्सन्ति, महन्तं वीतसारदं ।।
'नमो ते पुरिसाजञ, नमो ते पुरिसुत्तम | कुसलेन समेक्खसि, अमनुस्सापि तं वन्दन्ति । सुतं नेतं अभिण्हसो, तस्मा एवं वदेमसे ।।
'जिनं वन्दथ गोतमं, जिनं वन्दाम गोतमं । विज्जाचरणसम्पन्नं, बुद्धं वन्दाम गोतमं ।।
२९०.'यत्थ चोग्गच्छति सूरियो, आदिच्चो मण्डली महा ।
यस्स चोग्गच्छमानस्स, दिवसोपि निरुज्झति । यस्स चोग्गते सूरिये, संवरीति पवुच्चति ।।
'रहदोपि तत्थ गम्भीरो, समुद्दो सरितोदको । एवं तं तत्थ जानन्ति, समुद्दो सरितोदको ।।
'इतो सा पच्छिमा दिसा, इति नं आचिक्खती जनो । यं दिसं अभिपालेति, महाराजा यसस्सि सो।।
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१६०
दीघनिकायो-३
(३.९.२९१-२९१)
'नागानञ्च अधिपति, विरूपक्खोति नामसो । रमती नच्चगीतेहि, नागेहेव पुरक्खतो ।।
'पुत्तापि तस्स बहवो, एकनामाति मे सुतं । असीति दस एको च, इन्दनामा महब्बला ।।
'ते चापि बुद्धं दिस्वान, बुद्धं आदिच्चबन्धुनं । दूरतोव नमस्सन्ति, महन्तं वीतसारदं ।।
'नमो ते पुरिसाजञ, नमो ते पुरिसुत्तम | कुसलेन समेक्खसि, अमनुस्सापि तं वन्दन्ति । सुतं नेतं अभिण्हसो, तस्मा एवं वदेमसे ।।
'जिनं वन्दथ गोतमं, जिनं वन्दाम गोतमं । विज्जाचरणसम्पन्नं, बुद्धं वन्दाम गोतमं ।।
२९१. येन उत्तरकुरुव्हो, महानेरु सुदस्सनो ।
मनुस्सा तत्थ जायन्ति, अममा अपरिग्गहा ।।
'न ते बीजं पवपन्ति, नापि नीयन्ति नङ्गला | अकठ्ठपाकिम सालिं, परिभुञ्जन्ति मानुसा ।।
'अकणं अथुसं सुद्धं, सुगन्धं तण्डुलप्फलं । तुण्डिकीरे पचित्वान, ततो भुञ्जन्ति भोजनं । ।
'गाविं एकखुरं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं । पसुं एकखुरं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं ।।
'इत्थिं वा वाहनं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं । पुरिसं वाहनं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं ।।
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(३.९.२९१-२९१)
९. आटानाटियसुत्तं
१६१
'कुमारिं वाहनं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं । कुमारं वाहनं कत्वा, अनुयन्ति दिसोदिसं ।।
'ते याने अभिरुहित्वा, सब्बा दिसा अनुपरियायन्ति । पचारा तस्स राजिनो ।।
'हत्थियानं अस्सयानं,
दिब्बं यानं उपट्टितं । पासादा सिविका चेव,
महाराजस्स यसस्सिनो ।।
'तस्स च नगरा अहु,
___ अन्तलिक्खे सुमापिता । आटानाटा कुसिनाटा परकुसिनाटा,
नाटसुरिया परकुसिटनाटा ।।
'उत्तरेन कसिवन्तो,
जनोघमपरेन च। नवनवुतियो अम्बरअम्बरवतियो,
आळकमन्दा नाम राजधानी ।।
'कुवेरस्स खो पन मारिस महाराजस्स, विसाणा नाम राजधानी । तस्मा कुवेरो महाराजा, वेस्सवणोति पवुच्चति ।।
'पच्चेसन्तो पकासेन्ति, ततोला तत्तला ततोतला । ओजसि तेजसि ततोजसी, सूरो राजा अरिठ्ठो नेमि ।।
‘रहदोपि तत्थ धरणी नाम, यतो मेघा पवस्सन्ति । वस्सा यतो पतायन्ति, सभापि तत्थ सालवती नाम ।।
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१६२
दीघनिकायो-३
'यत्थ यक्खा पयिरुपासन्ति, तत्थ निच्चफला रुक्खा । नाना दिजगणा युता, मयूरकोञ्चाभिरुदा । कोकिलादीहि वग्गुहि । ।
'जीवञ्जीवकसद्देत्थ, अथो ओट्ठवचित्तका । कुक्कुटका कुळीरका, वने पोक्खरसातका ।।
'सुकसाळिक सद्देत्थ, दण्डमाणवकानि च । सोभति सब्बकालं सा, कुवेरनळिनी सदा । ।
'इतो सा उत्तरा दिसा, इति नं आचिक्खती जनो । यं दिसं अभिपालेति, महाराजा यसस्सि सो । ।
' यक्खानञ्च अधिपति, कुवेरो इति नामसो । रमती नच्चगीतेहि, यक्खेहेव पुरक्खतो ।।
'पुत्तापि तस्स बहवो एकनामाति मे सुतं । असीति दस एको च, इन्दनामा महब्बला । ।
'ते चापि बुद्धं दिस्वान, बुद्धं आदिच्चबन्धुनं । दूरतो नमस्सन्ति, महन्तं वीतसारदं । ।
'नमो ते पुरिसाजञ्ञ, नमो ते पुरिसुत्तम । कुसलेन समेक्खसि, अमनुस्सापि तं वन्दन्ति । सुतं नेतं अभिण्हसो, तस्मा एवं वदेमसे ।।
'जिनं वन्दथ गोतमं, जिनं वन्दाम गोतमं । विज्जाचरणसम्पन्नं, बुद्धं वन्दाम गोतम 'न्ति ।।
२९२. “अयं खो सा, मारिस, आटानाटिया रक्खा भिक्खूनं भिक्खुनीनं
162
(३.९.२९२-२९२)
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(३.९.२९२-२९२)
९. आटानाटियसुत्तं
१६३
उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहाराय। यस्स कस्सचि, मारिस, भिक्खुस्स वा भिक्खुनिया वा उपासकस्स वा उपासिकाय वा अयं आटानाटिया रक्खा सुग्गहिता भविस्सति समत्ता परियापुता तं चे अमनुस्सो यक्खो वा यक्खिनी वा...पे०... गन्धब्बो वा गन्धब्बी वा...पे०... कुम्भण्डो वा कुम्भण्डी वा...पे०... नागो वा नागी वा नागपोतको वा नागपोतिका वा नागमहामत्तो वा नागपारिसज्जो वा नागपचारो वा, पदुट्ठचित्तो भिक्खं वा भिक्खुनि वा उपासकं वा उपासिकं वा गच्छन्तं वा अनुगच्छेय्य, ठितं वा उपतिठेय्य, निसिन्नं वा उपनिसीदेय्य, निपन्नं वा उपनिपज्जेय्य । न मे सो, मारिस, अमनुस्सो लभेय्य गामेसु वा निगमेसु वा सक्कारं वा गरुकारं वा । न मे सो, मारिस, अमनुस्सो लभेय्य आळकमन्दाय नाम राजधानिया वत्थु वा वासं वा । न मे सो, मारिस, अमनुस्सो लभेय्य यक्खानं समितिं गन्तुं । अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा अनावरहम्पि नं करेय्यु अविवव्हं। अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा अत्ताहि परिपुण्णाहि परिभासाहि परिभासेय्युं । अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा रित्तंपिस्स पत्तं सीसे निक्कुज्जेय्युं । अपिस्सु नं, मारिस, अमनुस्सा सत्तधापिस्स मुद्धं फालेय्युं । सन्ति हि, मारिस, अमनुस्सा चण्डा रुद्धा रभसा, ते नेव महाराजानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं पुरिसकानं आदियन्ति । ते खो ते, मारिस, अमनुस्सा महाराजानं अवरुद्धा नाम वुच्चन्ति । सेय्यथापि, मारिस, रञो मागधस्स विजिते महाचोरा । ते नेव रञो मागधस्स आदियन्ति, न रो मागधस्स पुरिसकानं आदियन्ति, न रज्जो मागधस्स पुरिसकानं पुरिसकानं आदियन्ति । ते खो ते, मारिस, महाचोरा रो मागधस्स अवरुद्धा नाम वुच्चन्ति । एवमेव खो, मारिस, सन्ति अमनुस्सा चण्डा रुद्धा रभसा, ते नेव महाराजानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं आदियन्ति, न महाराजानं पुरिसकानं पुरिसकानं आदियन्ति । ते खो ते, मारिस, अमनुस्सा महाराजानं अवरुद्धा नाम वुच्चन्ति । यो हि कोचि, मारिस, अमनुस्सो यक्खो वा यक्खिनी वा...पे०... गन्धब्बो वा गन्धब्बी वा...पे०... कुम्भण्डो वा कुम्भण्डी वा...पे०... नागो वा नागी वा...पे०... पदुट्ठचित्तो भिक्खुं वा भिक्खुनि वा उपासकं वा उपासिकं वा गच्छन्तं वा उपगच्छेय्य, ठितं वा उपतिद्वैय्य, निसिन्नं वा उपनिसीदेय्य, निपन्नं वा उपनिपज्जेय्य । इमेसं यक्खानं महायक्खानं सेनापतीनं महासेनापतीनं उज्झापेतब्बं विक्कन्दितब् विरवितब्बं - "अयं यक्खो गण्हाति, अयं यक्खो आविसति, अयं यक्खो हेठेति, अयं यक्खो विहेठेति, अयं यक्खो हिंसति, अयं यक्खो विहिंसति, अयं यक्खो न मुञ्चती''ति ।
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१६४
दीघनिकायो-३
(३.९.२९३-२९४)
२९३. “कतमेसं यक्खानं महायक्खानं सेनापतीनं महासेनापतीनं ?
“इन्दो सोमो वरुणो च, भारद्वाजो पजापति । चन्दनो कामसेट्ठो च, किन्नुघण्डु निघण्डु च ।।
“पनादो ओपमञो च, देवसूतो च मातलि । चित्तसेनो च गन्धब्बो, नळो राजा जनेसभो ।।
“सातागिरो हेवमतो, पुण्णको करतियो गुळो । सिवको मुचलिन्दो च, वेस्सामित्तो युगन्धरो ।।
“गोपालो सुप्परोधो च, हिरि नेत्ति च मन्दियो । पञ्चालचण्डो आळवको, पज्जुन्नो सुमनो सुमुखो । दधिमुखो मणि माणिवरो दीघो, अथो सेरीसको सह ।।
"इमेसं यक्खानं महायक्खानं सेनापतीनं महासेनापतीनं उज्झापेतब्बं विक्कन्दितब्बं विरवितब्बं - “अयं यक्खो गण्हाति, अयं यक्खो आविसति, अयं यक्खो हेठेति, अयं यक्खो विहेठेति, अयं यक्खो हिंसति, अयं यक्खो विहिंसति, अयं यक्खो न मुञ्चती"ति । अयं खो, मारिस, आटानाटिया रक्खा भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहाराय । “हन्द च दानि मयं, मारिस, गच्छाम, बहुकिच्चा मयं बहुकरणीया''ति । “यस्स दानि तुम्हे, महाराजानो, कालं मञथा'ति ।
२९४. “अथ खो, भिक्खवे, चत्तारो महाराजा उठायासना मं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु । तेपि खो, भिक्खवे, यक्खा उट्ठायासना अप्पेकच्चे मं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु । अप्पेकच्चे मया सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु । अप्पेकच्चे येनाहं तेनञ्जलिं पणामेत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु । अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा तत्थेवन्तरधायिंसु । अप्पेकच्चे तुण्हीभूता तत्थेवन्तरधायिंसु ।
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(३.९.२९५-२९५)
९. आटानाटियसुत्तं
१६५
२९५. “उग्गहाथ, भिक्खवे, आटानाटियं रक्खं । परियापुणाथ, भिक्खवे, आटानाटियं रक्खं । धारेथ, भिक्खवे, आटानाटियं रक्खं । अत्थसंहिता, भिक्खवे, आटानाटिया रक्खा भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं गुत्तिया रक्खाय अविहिंसाय फासुविहाराया''ति । इदमवोच भगवा । अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति ।
आटानाटियसुत्तं निहितं नवमं।
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१०. सङ्गीतिसुत्तं
२९६. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा मल्लेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन पावा नाम मल्लानं नगरं तदवसरि । तत्र सुदं भगवा पावायं विहरति चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स अम्बवने ।
उन्भतकनवसन्धागारं २९७. तेन खो पन समयेन पावेय्यकानं मल्लानं उब्भतकं नाम नवं सन्धागारं अचिरकारितं होति अनज्झावुटुं समणेन वा ब्राह्मणेन वा केनचि वा मनुस्सभूतेन । अस्सोसुं खो पावेय्यका मल्ला – “भगवा किर मल्लेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि पावं अनुप्पत्तो पावायं विहरति चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स अम्बवने''ति । अथ खो पावेय्यका मल्ला येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । एकमन्तं निसिन्ना खो पावेय्यका मल्ला भगवन्तं एतदवोचुं- “इध, भन्ते, पावेय्यकानं मल्लानं उब्भतकं नाम नवं सन्धागारं अचिरकारितं होति अनज्झावुटुं समणेन वा ब्राह्मणेन वा केनचि वा मनुस्सभूतेन । तञ्च खो, भन्ते, भगवा पठमं परिभुञ्जतु, भगवता पठमं परिभुत्तं पच्छा पावेय्यका मल्ला परिभुञ्जिस्सन्ति । तदस्स पावेय्यकानं मल्लानं दीघरत्तं हिताय सुखाया''ति । अधिवासेसि खो भगवा तुण्हीभावेन ।
।
२९८. अथ खो पावेय्यका मल्ला भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन सन्धागारं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा सब्बसन्थरिं सन्धागारं सन्थरित्वा भगवतो आसनानि पञापेत्वा उदकमणिकं पतिट्टपेत्वा तेलपदीपं आरोपेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा
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(३.१०.२९९-३०१)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१६७
एकमन्तं अटुंसु । एकमन्तं ठिता खो ते पावेय्यका मल्ला भगवन्तं एतदवोचुं"सब्बसन्थरिसन्थतं, भन्ते, सन्धागारं, भगवतो आसनानि पञत्तानि, उदकमणिको पतिठ्ठापितो, तेलपदीपो आरोपितो । यस्स दानि, भन्ते, भगवा कालं मञती'ति ।
२९९. अथ खो भगवा निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घन येन सन्धागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पादे पक्खालेत्वा सन्धागारं पविसित्वा मज्झिमं थम्भं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसीदि । भिक्खुसङ्घोपि खो पादे पक्खालेत्वा सन्धागारं पविसित्वा पच्छिमं भित्तिं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसीदि भगवन्तंयेव पुरक्खत्वा । पावेय्यकापि खो मल्ला पादे पक्खालेत्वा सन्धागारं पविसित्वा पुरस्थिमं भित्तिं निस्साय पच्छिमाभिमुखा निसीदिंसु भगवन्तंयेव पुरक्खत्वा । अथ खो भगवा पावेय्यके मल्ले बहुदेव रत्तिं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उय्योजेसि- “अभिक्कन्ता खो, वासेट्ठा, रत्ति । यस्स दानि तुम्हे कालं माथा''ति । “एवं, भन्ते"ति खो पावेय्यका मल्ला भगवतो पटिस्सुत्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कमिंसु ।
३००. अथ खो भगवा अचिरपक्कन्तेसु पावेय्यकेसु मल्लेसु तुण्हीभूतं तुण्हीभूतं भिक्खुसंघं अनुविलोकेत्वा आयस्मन्तं सारिपुत्तं आमन्तेसि - “विगतथिनमिद्धो खो, सारिपुत्त, भिक्खुसङ्घो। पटिभातु तं, सारिपुत्त, भिक्खूनं धम्मी कथा । पिट्टि मे आगिलायति । तमहं आयमिस्सामी''ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा सारिपुत्तो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा चतुग्गुणं साटिं पञपेत्वा दक्खिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेसि पादे पादं अच्चाधाय, सतो सम्पजानो उट्ठानसझं मनसि करित्वा ।
भिन्ननिगण्ठवत्थु
३०१. तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो होति । तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञमधे मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति- “न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि! मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्नो। सहितं मे, असहितं ते । पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच । अधिचिण्णं ते विपरावत्तं, आरोपितो ते वादो, निग्गहितो त्वमसि, चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे पहोसी''ति । वधोयेव खो मझे
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१६८
दीघनिकायो-३
(३.१०.३०२-३०३)
निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु वत्तति । येपि निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना, तेपि निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु निब्बिन्नरूपा विरत्तरूपा पटिवानरूपा, यथा तं दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते भिन्नथूपे अप्पटिसरणे ।
__ ३०२. अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो भिक्खू आमन्तेसि - “निगण्ठो, आवुसो, नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो, तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता...पे०... भिन्नथूपे अप्पटिसरणे"। “एवज्हेतं, आवुसो, होति दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते । अयं खो पनावुसो अम्हाकं भगवता धम्मो स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो । तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
“कतमो चावुसो, अम्हाकं भगवता धम्मो स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो; यत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ?
एक
३०३. “अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एको धम्मो सम्मदक्खातो । तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमो एको धम्मो ? सब्बे सत्ता आहारट्ठितिका । सब्बे सत्ता सङ्खारहितिका । अयं खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एको धम्मो सम्मदक्खातो | तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
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(३.१०.३०४-३०४)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१६९
दुकं
___ ३०४. “अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन द्वे धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे द्वे ?
"नामञ्च रूपञ्च ।
"अविज्जा च भवतण्हा च ।
"भवदिट्ठि च विभवदिट्ठि च ।
“अहिरिकञ्च अनोत्तप्पञ्च ।
"हिरी च ओत्तप्पञ्च ।
"दोवचस्सता च पापमित्तता च ।
“सोवचस्सता च कल्याणमित्तता च ।
"आपत्तिकुसलता च आपत्तिवुट्ठानकुसलता च ।
"समापत्तिकुसलता च समापत्तिवुट्ठानकुसलता च ।
"धातुकुसलता च मनसिकारकुसलता च । “आयतनकुसलता च पटिच्चसमुप्पादकुसलता च ।
"ठानकुसलता च अट्ठानकुसलता च ।
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१७०
दीघनिकायो-३
(३.१०.३०४-३०४)
"अज्जवञ्च लज्जवञ्च ।
"खन्ति च सोरच्चञ्च ।
“साखल्यञ्च पटिसन्थारो च ।
"अविहिंसा च सोचेय्यञ्च ।
"मुट्ठस्सच्चञ्च असम्पजञञ्च ।
"सति च सम्पजञञ्च ।
"इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारता च भोजने अमत्त ता च ।
"इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता च भोजने मत्तञ्जता च ।
“पटिसङ्खानबलञ्च भावनाबलञ्च ।
“सतिबलञ्च समाधिबलञ्च ।
"समथो च विपस्सना च।
“समथनिमित्तञ्च पग्गहनिमित्तञ्च ।
"पग्गहो च अविक्खेपो च ।
“सीलविपत्ति च दिट्ठिविपत्ति च |
"सीलसम्पदा च दिट्ठिसम्पदा च ।
170
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(३.१०.३०५-३०५)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१७१
"सीलविसुद्धि च दिट्ठिविसुद्धि च ।
“दिह्रिविसुद्धि खो पन यथा दिट्ठिस्स च पधानं ।
"संवेगो च संवेजनीयेसु ठानेसु संविग्गस्स च योनिसो पधानं ।
“असन्तुट्ठिता च कुसलेसु धम्मेसु अप्पटिवानिता च पधानस्मिं । "विज्जा च विमुत्ति च।
"खयेजाणं अनुप्पादेजाणं।
"इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन द्वे धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्द, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
तिकं
३०५. “अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन तयो धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं...पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे तयो ?
“तीणि अकुसलमूलानि- लोभो अकुसलमूलं, दोसो अकुसलमूलं, मोहो अकुसलमूलं ।
“तीणि कुसलमूलानि - अलोभो कुसलमूलं, अदोसो कुसलमूलं, अमोहो कुसलमूलं । “तीणि दुच्चरितानि - कायदुच्चरितं, वचीदुच्चरितं, मनोदुच्चरितं ।
171
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१७२
दीघनिकायो-३
"तीणि सुचरितानि - कायसुचरितं वचीसुचरितं मनोसुचरितं ।
"तयो अकुसलवितक्का - कामवितक्को, ब्यापादवितक्को, विहिंसावितक्को ।
"तयो कुसलवितक्का - नेक्खम्मवितक्को, अब्यापादवितक्को, अविहिंसावितक्को ।
“तयो अकुसलसङ्कप्पा - कामसङ्कप्पो, ब्यापादसङ्घप्पो, विहिंसासङ्घप्पो ।
“तयो कुसलसङ्कप्पा
नेक्खम्मसङ्कप्पो, अब्यापादसङ्कप्पो, अविहिंसासङ्कप्पो ।
"तिस्सो अकुसलसञ्जा
कामसञ्ञ, ब्यापादसञ्ञ, विहिंसासञा ।
नेक्खम्मसञ्ञ, अब्यापादसञ्ञा, अविहिंसासञ्ञा ।
"तिस्सो कुसलसञ्ञा "तिस्सो अकुसलधातुयो - कामधातु, ब्यापादधातु, विहिंसाधातु । "तिस्सो कुसलधातुयो - नेक्खम्मधातु, अब्यापादधातु, अविहिंसाधातु ।
" अपरापि तिस्सो धातुयो- कामधातु, रूपधातु, अरूपधातु ।
" अपरापि तिस्सो धातुयो- रूपधातु, अरूपधातु, निरोधधातु ।
" अपरापि तिस्सो धातुयो - हीनधातु, मज्झिमधातु, पणीतधातु " तिस्सो तण्हा
कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा ।
44
“ अपरापि तिस्सो तण्हा
कामतण्हा, रूपतण्हा, अरूपतण्हा ।
" अपरापि तिस्सो तण्हा - रूपतण्हा, अरूपतण्हा, निरोधतण्हा ।
-
172
(३.१०.३०५-३०५)
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(३.१०.३०५-३०५)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१७३
“तीणि संयोजनानि - सक्कायदिट्ठि, विचिकिच्छा, सीलब्बतपरामासो । “तयो आसवा - कामासवो, भवासवो, अविज्जासवो । “तयो भवा - कामभवो, रूपभवो, अरूपभयो ।
"तिस्सो एसना - कामेसना, भवेसना, ब्रह्मचरियेसना ।
"तिस्सो विधा - सेय्योहमस्मीति विधा, सदिसोहमस्मीति विधा, हीनोहमस्मीति विधा ।
"तयो अद्धा - अतीतो अद्धा, अनागतो अद्धा, पच्चुप्पन्नो अद्धा । "तयो अन्ता - सक्कायो अन्तो, सक्कायसमुदयो अन्तो, सक्कायनिरोधो अन्तो ।
"तिस्सो वेदना - सुखा वेदना, दुक्खा वेदना, अदुक्खमसुखा वेदना।
“तिस्सो दुक्खता – दुक्खदुक्खता, सङ्खारदुक्खता, विपरिणामदुक्खता ।
"तयो रासी - मिच्छत्तनियतो रासि, सम्मत्तनियतो रासि, अनियतो रासि ।
"तयो तमा- अतीतं वा अद्धानं आरब्भ कङ्घति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति, अनागतं वा अद्धानं आरब्भ कजति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति, एतरहि वा पच्चुप्पन्नं अद्धानं आरब्भ कति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति ।
“तीणि तथागतस्स अरक्खेय्यानि – परिसुद्धकायसमाचारो आवुसो तथागतो, नत्थि तथागतस्स कायदुच्चरितं, यं तथागतो रक्खेय्य - ‘मा मे इदं परो अज्ञासी'ति । परिसुद्धवचीसमाचारो आवुसो, तथागतो, नत्थि तथागतस्स वचीदुच्चरितं, यं तथागतो रक्खेय्य - ‘मा मे इदं परो अज्ञासीति । परिसुद्धमनोसमाचारो, आवुसो, तथागतो, नत्थि तथागतस्स मनोदुच्चरितं यं तथागतो रक्खेय्य - ‘मा मे इदं परो अासीति ।
173
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१७४
दीघनिकायो-३
(३.१०.३०५-३०५)
"तयो किञ्चना - रागो किञ्चनं, दोसो किञ्चनं, मोहो किञ्चनं ।
"तयो अग्गी- रागग्गि, दोसग्गि, मोहग्गि ।
“अपरेपि तयो अग्गी- आहुनेय्यग्गि, गहपतग्गि, दक्खिणेय्यग्गि ।
"तिविधेन रूपसङ्गहो- सनिदस्सनसप्पटिघं अनिदस्सनअप्पटिघं रूपं ।
रूपं, अनिदस्सनसप्पटिघं रूपं,
"तयो सङ्घारा - पुञाभिसङ्घारो, अपुञाभिसङ्घारो, आनेञ्जाभिसङ्खारो । “तयो पुग्गला - सेक्खो पुग्गलो, असेक्खो पुग्गलो, नेवसेक्खोनासेक्खो पुग्गलो । “तयो थेरा - जातिथेरो, धम्मथेरो, सम्मुतिथेरो।
"तीणि पुञ्जकिरियवत्थूनि - दानमयं पुञ्जकिरियवत्थु, सीलमयं पुञ्जकिरियवत्थु, भावनामयं पुञ्जकिरियवत्थु ।
"तीणि चोदनावत्थूनि - दिवेन, सुतेन, परिसङ्काय ।
“तिस्सो कामूपपत्तियो - सन्तावुसो सत्ता पच्चुपट्टितकामा, ते पच्चुपट्टितेसु कामेसु वसं वत्तेन्ति, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्चे च देवा एकच्चे च विनिपातिका । अयं पठमा कामूपपत्ति । सन्तावुसो, सत्ता निम्मितकामा, ते निम्मिनित्वा निम्मिनित्वा कामेसु वसं वत्तेन्ति, सेय्यथापि देवा निम्मानरती। अयं दुतिया कामूपपत्ति । सन्तावुसो सत्ता परनिम्मितकामा, ते परनिम्मितेसु कामेसु वसं वत्तेन्ति, सेय्यथापि देवा परनिम्मितवसवत्ती । अयं ततिया कामूपपत्ति ।
“तिस्सो सुखूपपत्तियो - सन्तावुसो सत्ता उप्पादेत्वा उप्पादेत्वा सुखं विहरन्ति, सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका। अयं पठमा सुखूपपत्ति । सन्तावुसो, सत्ता सुखेन अभिसन्ना परिसन्ना परिपूरा परिप्फुटा । ते कदाचि करहचि उदानं उदानेन्ति- 'अहो सुखं, अहो
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१०. सङ्गीतिसुतं
सुख'न्ति, सेय्यथापि देवा आभस्सरा । अयं दुतिया सुखूपपत्ति । सन्तावुसो, सत्ता सुखेन अभिसन्ना परिसन्ना परिपूरा परिप्फुटा । ते सन्तंयेव तुसिता सुखं पटिसंवेदेन्ति, सेय्यथापि देवा सुभकिहा । अयं ततिया सुखूपपत्ति ।
" तिस्सो पञ्ञा- सेक्खा पञ्ञा, असेक्खा पञ्ञा, नेवसेक्खानासेक्खा पञ्ञा ।
" अपरापि तिस्सो पञ्ञा- चिन्तामया पञ्ञ, सुतमया पञ्ञा, भावनामया पञ्ञा । "तीणावुधानि - सुतावुधं, पविवेकावुधं पञ्ञावुधं ।
“तीणिन्द्रियानि अनञ्ञातञ्ञस्सामीतिन्द्रियं अञ्ञिन्द्रियं, अञ्ञाताविन्द्रियं ।
( ३.१०.३०५-३०५)
-
"तीणि चक्खूनि - मंसचक्खु, दिब्बचक्खु, पञ्ञाचक्खु ।
“तिस्सो सिक्खा - अधिसीलसिक्खा, अधिचित्तसिक्खा, अधिपञसिक्खा ।
" तिस्सो भावना - कायभावना, चित्तभावना, पञ्ञाभावना ।
“तीणि अनुत्तरियानि – दस्सनानुत्तरियं पटिपदानुत्तरियं विमुत्तानुत्तरियं ।
“तयो समाधी - सवितक्कसविचारो समाधि, अवितक्कविचारमत्तो समाधि, अवितक्क अविचारी समाधि ।
"अपरेपि तयो समाधी - सुञ्ञतो समाधि, अनिमित्तो समाधि, अप्पणिहितो समाधि ।
"तीणि सोचेय्यानि - कायसोचेय्यं वचीसोचेय्यं मनोसोचेय्यं ।
"तीणि मोनेय्यानि - कायमोनेय्यं वचीमोनेय्यं, मनोमोनेय्यं ।
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175
१७५
"
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१७६
दीघनिकायो-३
"तीणि कोसल्लानि - आयकोसल्लं, अपायकोसल्लं, उपायकोसल्लं । “तयो मदा- आरोग्यमदो, योब्बनमदो, जीवितमदो ।
"तीणि आधिपतेय्यानि - अत्ताधिपतेय्यं, लोकाधिपतेय्यं, धम्माधिपतेय्यं ।
“तीणि कथावत्थूनि – अतीतं वा अद्धानं आरम्भ कथं कथेय्य - ' एवं अहोसि अतीतमद्धान'न्ति; अनागतं वा अद्धानं आरम्भ कथं कथेय्य - ' एवं भविस्सति अनागतमद्धान'न्ति; एतरहि वा पच्चुप्पन्नं अद्धानं आरम्भ कथं कथेय्य - ' एवं होति एतरहि पच्चुप्पन्नं अद्धान'न्ति ।
"तीणि अनुसासनीपाटिहारियं ।
" तिस्सो विज्जा - पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणं विज्जा, सत्तानं चुतूपपातेत्राणं विज्जा, आसवानं खयेत्रणं विज्जा ।
“तयो विहारा - दिब्बो विहारो, ब्रह्मा विहारो, अरियो विहारो ।
पाटिहारियानि -
इद्धिपाटिहारियं,
(३.१०.३०६-३०६)
“इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन तयो धम्मा सम्मदक्खाता । तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं... पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
चतुक्कं
३०६. “अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो धम्मा सम्मदक्खाता । तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं... पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे चत्तारो ?
“ चत्तारो सतिपट्ठाना। इधावुसो, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आत
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आदेसनापाटिहारियं,
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(३.१०.३०७-३०७)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१७७
सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं ।।
"चत्तारो सम्मप्पधाना। इधावुसो, भिक्खु अनुप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति । उप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं पहानाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति । अनुप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं उप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति । उप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं ठितिया असम्मोसाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति ।
"चत्तारो इद्धिपादा। इधावुसो, भिक्खु छन्दसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति । चित्तसमाधिपधानसङ्घारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति । वीरियसमाधिपधानसङ्खार समन्नागतं इद्धिपादं भावेति । वीमंसासमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति ।
"चत्तारि झानानि । इधावुसो, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी'ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धि चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति ।
__३०७. “चतस्सो समाधिभावना। अत्थावुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता दिट्ठधम्मसुखविहाराय संवत्तति। अत्थावुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता आणदस्सनपटिलाभाय संवत्तति । अत्थावुसो समाधिभावना भाविता बहुलीकता सतिसम्पजाय संवत्तति । अत्थावुसो समाधिभावना भाविता बहुलीकता आसवानं खयाय संवत्तति।
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१७८
दीघनिकायो-३
(३.१०.३०७-३०७)
“कतमा चावुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता दिट्ठधम्मसुखविहाराय संवत्तति ? इधावुसो, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति यं तं अरिया आचिक्खन्ति- 'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी'ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । अयं, आवुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता दिठ्ठधम्मसुखविहाराय संवत्तति ।
"कतमा चासो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता आणदस्सनपटिलाभाय संवत्तति ? इधावुसो, भिक्खु आलोकसलं मनसि करोति, दिवासनं अधिद्वाति यथा दिवा तथा रत्तिं, यथा रत्तिं तथा दिवा। इति विवटेन चेतसा अपरियोनद्धेन सप्पभासं चित्तं भावेति । अयं, आवुसो समाधिभावना भाविता बहुलीकता आणदस्सनपटिलाभाय संवत्तति।
"कतमा चासो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता सतिसम्पजाय संवत्तति ? इधावुसो, भिक्खुनो विदिता वेदना उप्पज्जन्ति, विदिता उपट्टहन्ति, विदिता अन्भत्थं गच्छन्ति। विदिता सञ्जा उप्पज्जन्ति, विदिता उपट्ठहन्ति, विदिता अन्भत्थं गच्छन्ति। विदिता वितक्का उप्पज्जन्ति, विदिता उपट्टहन्ति, विदिता अब्भत्थं गच्छन्ति। अयं, आवुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता सतिसम्पजाय संवत्तति।
“कतमा चासो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता आसवानं खयाय संवत्तति ? इधावुसो, भिक्खु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु उदयब्बयानुपस्सी विहरति । इति रूपं, इति रूपस्स समुदयो, इति रूपस्स अत्थङ्गमो। इति वेदना, इति वेदनाय समुदयो, इति वेदनाय अत्थङ्गमो। इति सञा, इति सज्ञाय समुदयो, इति सञआय अत्थङ्गमो। इति सङ्घारा, इति सङ्घारानं समुदयो, इति सङ्घारानं अत्थङ्गमो। इति विज्ञाणं, इति विज्ञाणस्स समुदयो, इति विज्ञाणस्स अत्थङ्गमो। अयं, आवुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता आसवानं खयाय संवत्तति।
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(३.१०.३०८-३०९)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१७९
३०८. “चतस्सो अप्पमञा। इधावुसो, भिक्खु मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति । तथा दुतियं । तथा ततियं । तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति । करुणासहगतेन चेतसा...पे०... मुदितासहगतेन चेतसा...पे०... उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति । तथा दुतियं । तथा ततियं । तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति ।
"चत्तारो आरुप्पा। इधावुसो, भिक्खु सब्बसो रूपसञानं समतिक्कमा पटिघसञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्जानं अमनसिकारा “अनन्तो आकासो''ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म "अनन्तं विज्ञाण'"न्ति विज्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो विज्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची''ति आकिञ्चञायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो आकिञ्चज्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञानासञ्जायतनं उपसम्पज्ज विहरति ।।
“चत्तारि अपस्सेनानि। इधावुसो, भिक्खु सङ्खायेकं पटिसेवति, सङ्खायेकं अधिवासेति, सङ्खायेकं परिवज्जेति, सङ्खायेकं विनोदेति ।
३०९. "चत्तारो अरियवंसा। इधावुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेन चीवरेन, इतरीतरचीवरसन्तुट्ठिया च वण्णवादी, न च चीवरहेतु अनेसनं अप्पतिरूपं आपज्जति; अलद्धा च चीवरं न परितस्सति, लद्धा च चीवरं अगधितो अमुच्छितो अनज्झापन्नो आदीनवदस्सावी निस्सरणपञो परिभुजति; ताय च पन इतरीतरचीवरसन्तुट्ठिया नेवत्तानुक्कंसेति न परं वम्भेति । यो हि तत्थ दक्खो अनलसो सम्पजानो पटिस्सतो, अयं वुच्चतावुसो- 'भिक्खु पोराणे अग्गजे अरियवंसे ठितो।।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेन पिण्डपातेन, इतरीतरपिण्डपातसन्तुठ्ठिया च वण्णवादी, न च पिण्डपातहेतु अनेसनं अप्पतिरूपं आपज्जति; अलद्धा च पिण्डपातं न परितस्सति, लद्धा च पिण्डपातं अगधितो अमुच्छितो अनज्झापन्नो आदीनवदस्सावी निस्सरणपओ परिभुञ्जति; ताय च पन
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१८०
दीघनिकायो-३
(३.१०.३१०-३१०)
इतरीतरपिण्डपातसन्तुट्ठिया नेवत्तानुक्कंसेति न परं वम्भेति । यो हि तत्थ दक्खो अनलसो सम्पजानो पटिस्सतो, अयं बुच्चतावुसो- 'भिक्खु पोराणे अग्गजे अरियवंसे ठितो'।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेन सेनासनेन, इतरीतरसेनासनसन्तुठ्ठिया च वण्णवादी, न च सेनासनहेतु अनेसनं अप्पतिरूपं आपज्जति: अलद्धा च सेनासनं न परितस्सति. लद्धा च सेनासनं अगधितो अमच्छितो अनज्झापन्नो आदीनवदस्सावी निस्सरणपो परिभुजति: ताय च पन इतरीतरसेनासनसन्तुट्ठिया नेवत्तानुक्कंसेति न परं वम्भेति । यो हि तत्थ दक्खो अनलसो सम्पजानो पटिस्सतो, अयं वुच्चतावुसो- 'भिक्खु पोराणे अग्गओ अरियवंसे ठितो'।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पहानारामो होति पहानरतो, भावनारामो होति भावनारतो; ताय च पन पहानारामताय पहानरतिया भावनारामताय भावनारतिया नेवत्तानुक्कंसेति न परं वम्भेति । यो हि तत्थ दक्खो अनलसो सम्पजानो पटिस्सतो अयं बुच्चतावुसो- 'भिक्खु पोराणे अग्गजे अरियवंसे ठितो'।
३१०. “चत्तारि पधानानि। संवरपधानं पहानपधानं भावनापधानं अनुरक्खणापधानं । कतमञ्चावुसो, संवरपधानं ? इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही। यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जति । सोतेन सदं सुत्वा । घानेन गन्धं घायित्वा । जिव्हाय रसं सायित्वा । कायेन फोहब् फुसित्वा । मनसा धम्मं विज्ञाय न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही । यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्यु, तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये संवरं आपज्जति । इदं वुच्चतावुसो, संवरपधानं ।
“कतमञ्चावुसो, पहानपधानं ? इधावुसो, भिक्खु उप्पन्नं कामवितक्कं नाधिवासेति पजहति विनोदेति ब्यन्तिं करोति अनभावं गमेति । उप्पन्नं ब्यापादवितक्कं...पे०... उप्पन्नं विहिंसावितक्कं...पे०... उप्पनुप्पन्ने पापके अकुसले धम्मे नाधिवासेति पजहति विनोदेति ब्यन्तिं करोति अनभावं गमेति । इदं वुच्चतावुसो, पहानपधानं ।
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(३.१०.३११-३११)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१८१
“कतमञ्चावुसो, भावनापधानं ? इधावुसो, भिक्खु सतिसम्बोज्झङ्गं भावेति विवेकनिस्सितं विरागनिस्सितं निरोधनिस्सितं वोस्सग्गपरिणामि । धम्मविचयसम्बोज्झङ्गं भावेति । वीरियसम्बोज्झङ्गं भावेति । पीतिसम्बोज्झङ्गं भावेति । पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गं भावेति । समाधिसम्बोज्झङ्गं भावेति । उपेक्खासम्बोज्झङ्गं भावेति विवेकनिस्सितं विरागनिस्सितं निरोधनिस्सितं वोस्सग्गपरिणामिं । इदं वुच्चतावुसो, भावनापधानं ।
“कतमञ्चावुसो, अनुरक्खणापधानं ? इधावुसो, भिक्खु उप्पन्नं भद्रकं समाधिनिमित्तं अनुरक्खति- अट्ठिकसनं, पुळुवकसनं, विनीलकसञ्ज, विच्छिद्दकसनं, उद्घमातकसझं । इदं वुच्चतावुसो, अनुरक्खणापधानं ।
“चत्तारि आणानि- धम्मे आणं, अन्वये जाणं, परिये आणं, सम्मुतिया आणं ।
"अपरानिपि चत्तारि आणानि- दुक्खे आणं, दुक्खसमुदये आणं, दुक्खनिरोधे आणं, दुक्खनिरोधगामिनिया पटिपदाय आणं।
सप्पुरिससंसेवो,
सद्धम्मस्सवनं,
३११. “चत्तारि सोतापत्तियङ्गानि- योनिसोमनसिकारो, धम्मानुधम्मप्पटिपत्ति ।
"चत्तारि सोतापनस्स अङ्गानि। इधावुसो, अरियसावको बुद्धे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति- “इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो, भगवा''ति । धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति- “स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विझूही''ति । सो अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति - “सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो उजुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो आयप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो सामीचिप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानि अट्ठ पुरिसपुग्गला, एस भगवतो सावकसङ्घो आहुनेय्यो पाहुनेय्यो दक्खिणेय्यो अञ्जलिकरणीयो अनुत्तरं पुञ्जक्खेत्तं लोकस्सा''ति । अरियकन्तेहि सीलेहि समन्नागतो होति अखण्डेहि अच्छिद्देहि असबलेहि अकम्मासेहि भुजिस्सेहि विझुप्पसत्थेहि अपरामटेहि समाधिसंवत्तनिकेहि ।
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१८२
दीघनिकायो-३
(३.१०.३११-३११)
"चत्तारि अरहत्तफलं।
सामञफलानि-
सोतापत्तिफलं,
सकदागामिफलं,
अनागामिफलं,
“चतस्सो धातुयो- पथवीधातु, आपोधातु, तेजोधातु, वायोधातु |
"चत्तारो आहारा- कबळीकारो आहारो ओळारिको वा सुखुमो वा, फस्सो दुतियो, मनोसञ्चेतना ततिया, विज्ञाणं चतुत्थं ।
"चतस्सो विज्ञाणद्वितियो। रूपूपायं वा आवुसो, विज्ञाणं तिट्ठमानं तिति रूपारम्मणं रूपप्पतिद्वं नन्दूपसेचनं वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जति; वेदनूपायं वा आवुसो; विज्ञाणं तिट्ठमानं तिद्वति वेदनारम्मणं वेदनप्पतिद्वं नन्दूपसेचनं वुद्धिं विरूव्हिं वेपुल्लं आपज्जति; सञ्जूपायं वा आवुसो; विज्ञाणं तिट्ठमानं तिद्वति सञआरम्मणं सञप्पतिद्वं नन्दूपसेचन वुद्धिं विरूव्हिं वेपुल्लं आपज्जतिः सङ्घारूपायं वा, आवुसो, विज्ञाणं तिहमानं तिद्वति सङ्घारारम्मणं सङ्घारप्पतिद्वं नन्दूपसेचनं वुद्धिं विरूव्हिं वेपुल्लं आपज्जति।
“चत्तारि अगतिगमनानि- छन्दागतिं गच्छति, दोसागति गच्छति, मोहागतिं गच्छति, भयागतिं गच्छति ।
"चत्तारो तण्हुप्पादा- चीवरहेतु वा, आवुसो, भिक्खुनो तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति; पिण्डपातहेतु वा, आवुसो, भिक्खुनो तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति; सेनासनहेतु वा, आवुसो, भिक्खुनो तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति; इतिभवाभवहेतु वा, आवुसो, भिक्खुनो तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति ।
"चतस्सो पटिपदा- दुक्खा पटिपदा दन्धाभिञा, दुक्खा पटिपदा खिप्पाभिञा, सुखा पटिपदा दन्धाभिञा, सुखा पटिपदा खिप्पाभिञा ।
“अपरापि चतस्सो पटिपदा- अक्खमा पटिपदा, खमा पटिपदा, दमा पटिपदा, समा पटिपदा।
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१०. सङ्गीतिसूत्तं
" चत्तारि धम्मपदानि – अनभिज्झा धम्मपदं, अब्यापादो धम्मपदं, सम्मासति धम्मपदं, सम्मासमाधिधम्मपदं ।
(३.१०.३१२-३१२)
" चत्तारि धम्मसमादानानि - अत्थावुसो, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खञ्चेव आयतिञ्च दुक्खविपाकं । अत्थावुसो, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं । अत्थावुसो, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयति दुक्खविपाकं । अत्थावुसो, धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखञ्चेव आयतिञ्च सुखविपाकं ।
" चत्तारो धम्मक्खन्धा - सीलक्खन्धो, समाधिक्खन्धो, पञ्ञाक्खन्धो, विमुत्तिक्खन्धो ।
" चत्तारि बलानि - वीरियबलं, सतिबलं, समाधिबलं, पञ्ञबलं ।
" चत्तारि अधिट्ठानानि - पञ्ञाधिट्ठानं, सच्चाधिट्ठानं, चागाधिट्ठानं, उपसमाधिट्ठानं ।
३१२. “चत्तारि पञ्हब्याकरणानि - एकंसब्याकरणीयो पञ्हो, पटिपुच्छाब्याकरणीयो पञ्हो, विभज्जब्याकरणीयो पञ्हो, ठपनीयो पञ्हो ।
"चत्तारि कम्मानि - अत्थावुसो, कम्मं कण्हं कण्हविपाकं; अत्थावुसो, कम्मं सुक्कं सुक्कविपाकं; अत्थावुसो, कम्मं कण्हसुक्कं कण्हसुक्कविपाकं; अत्थावुसो, कम्मं अकण्ह असुक्कं अकण्हअसुक्कविपाकं कम्मक्खयाय संवत्तति ।
१८३
" चत्तारो सच्छिकरणीया धम्मा- पुब्बेनिवासो सतिया सच्छिकरणीयो; सत्तानं चुतूपपातो चक्खुना सच्छिकरणीयो; अट्ठ विमोक्खा कायेन सच्छिकरणीया; आसवानं खयो पञ्ञय सच्छिकरणीयो ।
" चत्तारो ओघा - कामोघो, भवोघो, दिट्ठोघो, अविज्जोघो ।
" चत्तारो योगा - कामयोगो, भवयोगो, दिट्ठियोगो, अविज्जायोगो ।
183
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१८४
दीघनिकायो-३
(३.१०.३१३-३१३)
"चत्तारो विसञ्जोगा- कामयोगविसञोगो, दिठ्ठियोगविसञोगो, अविज्जायोगविसञोगो ।
भवयोगविसञोगो,
"चत्तारो गन्था- अभिज्झा कायगन्थो, ब्यापादो कायगन्थो, सीलब्बतपरामासो कायगन्थो, इदंसच्चाभिनिवेसो कायगन्थो ।
“चत्तारि उपादानानि - कामुपादानं, दिलृपादानं, सीलब्बतुपादानं, अत्तवादुपादानं ।
"चतस्सो योनियो- अण्डजयोनि, जलाबुजयोनि, संसेदजयोनि, ओपपातिकयोनि ।
"चतस्सो गभावक्कन्तियो। इधावुसो, एकच्चो असम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति, असम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति, असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अयं पठमा गब्भावक्कन्ति । पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति, असम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति, असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अयं दुतिया गब्भावक्कन्ति । पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति, सम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति, असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अयं ततिया गब्भावक्कन्ति । पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति, सम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति, सम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अयं चतुत्था गम्भावक्कन्ति।
“चत्तारो अत्तभावपटिलाभा। अत्थावुसो, अत्तभावपटिलाभो, यस्मिं अत्तभावपटिलाभे अत्तसञ्चेतनायेव कमति, नो परसञ्चेतना। अत्थावुसो, अत्तभावपटिलाभो, यस्मिं अत्तभावपटिलाभे परसञ्चेतनायेव कमति, नो अत्तसञ्चेतना। अत्थावुसो, अत्तभावपटिलाभो, यस्मिं अत्तभावपटिलाभे अत्तसञ्चेतना चेव कमति परसञ्चेतना च । अत्थावुसो, अत्तभावपटिलाभो, यस्मिं अत्तभावपटिलाभे नेव अत्तसञ्चेतना कमति, नो परसञ्चेतना।
___३१३. “चतस्सो दक्खिणाविसुद्धियो। अत्थावुसो, दक्खिणा दायकतो विसुज्झति नो पटिग्गाहकतो । अत्थावुसो, दक्खिणा पटिग्गाहकतो विसुज्झति नो दायकतो। अत्थावुसो, दक्खिणा नेव दायकतो विसुज्झति नो पटिग्गाहकतो। अत्थावुसो, दक्खिणा दायकतो चेव विसुज्झति पटिग्गाहकतो च ।
184
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(३.१०.३१४-३१४)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१८५
“चत्तारि सङ्गहवत्थूनि- दानं, पेय्यवज्ज, अत्थचरिया, समानत्तता ।
"चत्तारो अनरियवोहारा - मुसावादो, पिसुणावाचा, फरुसावाचा, सम्पप्पलापो ।
"चत्तारो अरियवोहारा- मुसावादा वेरमणी, पिसुणाय वाचाय वेरमणी, फरुसाय वाचाय वेरमणी, सम्फप्पलापा वेरमणी ।
“अपरेपि चत्तारो अनरियवोहारा - अदिढे दिट्ठवादिता, अस्सुते सुतवादिता, अमुते मुतवादिता, अविज्ञाते विज्ञातवादिता ।
“अपरेपि चत्तारो अरियवोहारा- अदिढे अदिट्ठवादिता, अस्सुते अस्सुतवादिता, अमुते अमुतवादिता, अविज्ञाते अविज्ञातवादिता ।
___ “अपरेपि चत्तारो अनरियवोहारा - दिढे अदिट्ठवादिता, सुते अस्सुतवादिता, मुते अमुतवादिता, विज्ञाते अविज्ञातवादिता |
“अपरेपि चत्तारो अरियवोहारा- दिढे दिट्ठवादिता, सुते सुतवादिता, मुते मुतवादिता, विज्ञाते विज्ञातवादिता ।
३१४. “चत्तारो पुग्गला। इधावुसो, एकच्चो पुग्गलो अत्तन्तपो होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो। इधावुसो, एकच्चो पुग्गलो परन्तपो होति परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो। इधावुसो, एकच्चो पुग्गलो अत्तन्तपो च होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो, परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो। इधावुसो, एकच्चो पुग्गलो नेव अत्तन्तपो होति न अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो। सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो दिढेव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरति ।
_ “अपरेपि चत्तारो पुग्गला। इधावुसो, एकच्चो पुग्गलो अत्तहिताय पटिपन्नो होति नो परहिताय । इधावुसो, एकच्चो पुग्गलो परहिताय पटिपन्नो होति नो अत्तहिताय ।
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१८६
दीघनिकायो-३
(३.१०.३१५-३१५)
इधावुसो, एकच्चो पुग्गलो नेव अत्तहिताय पटिपन्नो होति नो परहिताय । इधावुसो, एकच्चो पुग्गलो अत्तहिताय चेव पटिपन्नो होति परहिताय च ।
“अपरेपि चत्तारो पुग्गला- तमो तमपरायनो, तमो जोतिपरायनो, जोति तमपरायनो, जोति जोतिपरायनो ।
“अपरेपि चत्तारो पुग्गला - समणमचलो, समणपदुमो, समणपुण्डरीको, समणेसु समणसुखुमालो ।
“इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं...पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
पठमभाणवारो निहितो ।
पञ्चकं
३१५. “अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन पञ्च धम्मा सम्मदक्खाता । तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं...पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे पञ्च?
"पञ्चक्खन्धा। रूपक्खन्धो वेदनाक्खन्धो साक्खन्धो सङ्घारक्खन्धो विज्ञाणक्खन्धो।
“पञ्चुपादानक्खन्धा। स्पुपादानक्खन्धो वेदनुपादानक्खन्धो सञ्जुपादानक्खन्धो सङ्घारुपादानक्खन्धो विज्ञाणुपादानक्खन्धो।
“पञ्च कामगुणा। चक्खुविजेय्या रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसहिता
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१०. सङ्गीतिसुतं
रजनीया, सोतविञ्ञेय्या सद्दा । घानविय्या गन्धा । जिव्हाविञ्ञेय्या कायविज्ञेय्या फोटुब्बा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसहिता रजनीया ।
" पञ्च गतियो - निरयो, तिरच्छानयोनि, पेत्तिविसयो, मनुस्सा, देवा ।
“पञ्च मच्छरियानि - आवासमच्छरियं, कुलमच्छरियं, लाभमच्छरियं, वण्णमच्छरियं, धम्ममच्छरियं ।
(३.१०.३१६-३१६)
“पञ्च नीवरणानि - उद्धच्चकुक्कुच्चनीवरणं, विचिकिच्छानीवरणं ।
कामच्छन्दनीवरणं, ब्यापादनीवरणं, थिनमिद्धनीवरणं,
१८७
" पञ्च ओरम्भागियानि सञ्ञोजनानि सक्कायदिट्ठि, विचिकिच्छा, सीलब्बतपरामासो, कामच्छन्दो, ब्यापादो |
रसा ।
“पञ्च उद्धम्भागियानि सञ्ञोजनानि - रूपरागो, अरूपरागो, मानो, उद्धच्चं, अविज्जा ।
सिक्खापदानि - पाणातिपाता वेरमणी, अदिन्नादाना वेरमणी, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी, मुसावादा वेरमणी, सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठाना वेरमणी ।
“पञ्च
३१६. “पञ्च अभब्बट्ठानानि । अभब्बो आवुसो खीणासवो भिक्खु सञ्चिच्च पाण जीविता वोरोपेतुं । अभब्बो खीणासवो भिक्खु अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियितुं | अब्ब खीणासवो भिक्खु मेथुनं धम्मं पटिसेवितुं । अभब्बो खीणासवो भिक्खु सम्पजानमुसा भासितुं । अभब्बो खीणासवो भिक्खु सन्निधिकारकं कामे परिभुञ्जितुं, सेय्यथापि पुब्बे आगारिकभूतो ।
" पञ्च व्यसनानि - जतिब्यसनं, भोगब्यसनं, रोगब्यसनं, सीलब्यसनं, दिट्ठिब्यसनं । नावुसो, सत्ता आतिब्यसनहेतु वा भोगब्यसनहेतु वा रोगब्यसनहेतु वा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जन्ति । सीलब्यसनहेतु वा, आवुसो, सत्ता
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१८८
दीघनिकायो-३
(३.१०.३१६-३१६)
दिट्ठिब्यसनहेतु वा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जन्ति ।
“पञ्च सम्पदा- आतिसम्पदा, भोगसम्पदा, आरोग्यसम्पदा, सीलसम्पदा, दिट्ठिसम्पदा । नावुसो, सत्ता आतिसम्पदाहेतु वा भोगसम्पदाहेतु वा आरोग्यसम्पदाहेतु वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति । सीलसम्पदाहेतु वा आवुसो, सत्ता दिट्ठिसम्पदाहेतु वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति ।
“पञ्च आदीनवा दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया। इधावुसो, दुस्सीलो सीलविपन्नो पमादाधिकरणं महतिं भोगजानिं निगच्छति, अयं पठमो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया । पुन चपरं, आवुसो, दुस्सीलस्स सीलविपन्नस्स पापको कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति, अयं दुतियो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया । पुन चपरं, आवुसो, दुस्सीलो सीलविपन्नो यचदेव परिसं उपसङ्कमति यदि खत्तियपरिसं यदि ब्राह्मणपरिसं यदि गहपतिपरिसं यदि समणपरिसं, अविसारदो उपसङ्कमति मङ्कुभूतो, अयं ततियो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया । पुन चपरं, आवुसो, दुस्सीलो सीलविपन्नो सम्मूळहो कालं करोति, अयं चतुत्थो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया । पुन चपरं, आवुसो, दुस्सीलो सीलविपन्नो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति, अयं पञ्चमो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया ।
“पञ्च आनिसंसा सीलवतो सीलसम्पदाय। इधावुसो, सीलवा सीलसम्पन्नो अप्पमादाधिकरणं महन्तं भोगक्खन्धं अधिगच्छति, अयं पठमो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय। पुन चपरं, आवुसो, सीलवतो सीलसम्पन्नस्स कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति, अयं दुतियो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय । पुन चपरं, आवुसो, सीलवा सीलसम्पन्नो यचदेव परिसं उपसङ्कमति यदि खत्तियपरिसं यदि ब्राह्मणपरिसं यदि गहपतिपरिसं यदि समणपरिसं, विसारदो उपसङ्कमति अमङ्कुभूतो, अयं ततियो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय । पुन चपरं, आवुसो, सीलवा सीलसम्पन्नो असम्मूळहो कालं करोति, अयं चतुत्थो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय । पुन चपरं, आवुसो, सीलवा सीलसम्पन्नो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति, अयं पञ्चमो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय ।
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(३.१०.३१७-३१९)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१८९
“चोदकेन, आवुसो, भिक्खुना परं चोदेतुकामेन पञ्च धम्मे अज्झत्तं उपटुपेत्वा परो चोदेतब्बो। कालेन वक्खामि नो अकालेन, भूतेन वक्खामि नो अभूतेन, सण्हेन वक्खामि नो फरुसेन, अत्थसंहितेन वक्खामि नो अनत्थसंहितेन, मेत्तचित्तेन वक्खामि नो दोसन्तरेनाति । चोदकेन, आवुसो, भिक्खुना परं चोदेतुकामेन इमे पञ्च धम्मे अज्झत्तं उपट्ठपेत्वा परो चोदेतब्बो ।
३१७. “पञ्च पधानियङ्गानि । इधावुसो, भिक्खु सद्धो होति, सद्दहति तथागतस्स बोधिं - “इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो, लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा"ति । अप्पाबाधो होति अप्पातको, समवेपाकिनिया गहणिया समन्नागतो नातिसीताय नाच्चुण्हाय मज्झिमाय पधानक्खमाय । असठो होति अमायावी, यथाभूतं अत्तानं आविकत्ता सत्थरि वा विशंसु वा सब्रह्मचारीसु । आरद्धवीरियो विहरति अकुसलानं धम्मानं पहानाय कुसलानं धम्मानं उपसम्पदाय थामवा दळहपरक्कमो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु । पञवा होति उदयत्थगामिनिया पञाय समन्त्रागतो अरियाय निब्बेधिकाय सम्मादुक्खक्खयगामिनिया।
३१८. “पञ्च सुद्धावासा- अविहा, अतप्पा, सुदस्सा, सुदस्सी, अकनिट्ठा ।
“पञ्च अनागामिनो- अन्तरापरिनिब्बायी, उपहच्चपरिनिब्बायी, असङ्खारपरिनिब्बायी, ससङ्खारपरिनिब्बायी, उद्धंसोतो अकनिट्ठगामी ।।
__ ३१९. “पञ्च चेतोखिला। इधावुसो, भिक्खु सत्थरि कति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति । यो सो, आवुसो, भिक्खु सत्थरि कजति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय, यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय, अयं पठमो चेतोखिलो। पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु धम्मे कङ्घति विचिकिच्छति...पे०... सङ्के कवति विचिकिच्छति । सिक्खाय कङ्क्षति विचिकिच्छति । सब्रह्मचारीसु कुपितो होति अनत्तमनो आहतचित्तो खिलजातो । यो सो, आवुसो, भिक्खु सब्रह्मचारीसु कुपितो होति अनत्तमनो आहतचित्तो खिलजातो। तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय । यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय । अयं पञ्चमो चेतोखिलो।
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१९०
दीघनिकायो-३
(३.१०.३२०-३२१)
___३२०. “पञ्च चेतसोविनिबन्धा। इधावुसो, भिक्खु कामेसु अवीतरागो होति अविगतच्छन्दो अविगतपेमो अविगतपिपासो अविगतपरिळाहो अविगततण्हो । यो सो, आवुसो, भिक्खु कामेसु अवीतरागो होति अविगतच्छन्दो अविगतपेमो अविगतपिपासो अविगतपरिळाहो अविगततण्हो, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय । यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय । अयं पठमो चेतसो विनिबन्धो । पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु काये अवीतरागो होति...पे०... रूपे अवीतरागो होति...पे०... पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यावदत्थं उदरावदेहकं भुजित्वा सेय्यसुखं पस्ससुखं मिद्धसुखं अनुयुत्तो विहरति...पे०... पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु अञ्जतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरति- "इमिनाहं सीन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवातरो वा'ति । यो सो, आवुसो, भिक्खु अञ्जतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरति- "इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवातरो वा"ति, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय । यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय । अयं पञ्चमो चेतसो विनिबन्धो ।
“पञ्चिन्द्रियानि - चक्खुन्द्रियं, सोतिन्द्रियं, घानिन्द्रियं, जिव्हिन्द्रियं, कायिन्द्रियं ।
“अपरानिपि पञ्चिन्द्रियानि- सुखिन्द्रियं, दुक्खिन्द्रियं, सोमनस्सिन्द्रियं, दोमनस्सिन्द्रियं, उपेक्खिन्द्रियं ।
“अपरानिपि पञ्चिन्द्रियानि- सद्धिन्द्रियं, वीरियिन्द्रियं, सतिन्द्रियं, समाधिन्द्रियं, पञिन्द्रियं।
३२१. “पञ्च निस्सरणिया धातुयो। इधावुसो, भिक्खुनो कामे मनसिकरोतो कामेसु चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति । नेक्खम्मं खो पनस्स मनसिकरोतो नेक्खम्मे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति । तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्टितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं कामेहि । ये च कामपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विधाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि, न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं कामानं निस्सरणं ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो ब्यापादं मनसिकरोतो ब्यापादे चित्तं न पक्खन्दति
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(३.१०.३२२-३२२)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१९१
न पसीदति न सन्तिठ्ठति न विमुच्चति । अब्यापादं खो पनस्स मनसिकरोतो अब्यापादे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति । तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्टितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं ब्यापादेन । ये च ब्यापादपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विधाता परिाहा, मुत्तो सो तेहि, न सो तं वेदनं वेदेति । इदमक्खातं ब्यापादस्स निस्सरणं।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो विहेसं मनसिकरोतो विहेसाय चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति । अविहेसं खो पनस्स मनसिकरोतो अविहेसाय चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति । तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्टितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं विहेसाय। ये च विहेसापच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विधाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि, न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं विहेसाय निस्सरणं ।
___ “पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो रूपे मनसिकरोतो रूपेसु चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति । अरूपं खो पनस्स मनसिकरोतो अरूपे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति । तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्टितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं रूपेहि । ये च रूपपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विधाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि, न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं रूपानं निस्सरणं।।
___ “पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो सक्कायं मनसिकरोतो सक्काये चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति । सक्कायनिरोधं खो पनस्स मनसिकरोतो सक्कायनिरोधे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति । तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुबुट्टितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं सक्कायेन । ये च सक्कायपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विधाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि, न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं सक्कायस्स निस्सरणं।
____३२२. “पञ्च विमुत्तायतनानि। इधावुसो, भिक्खुनो सत्था धम्म देसेति अञतरो वा गरुडानियो सब्रह्मचारी, यथा यथा, आवुसो, भिक्खुनो सत्था धम्म देसेति अञ्जतरो वा गरुठ्ठानियो सब्रह्मचारी। तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थपटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च । तस्स अत्थपटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति । इदं पठमं विमुत्तायतनं ।
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दीघनिकायो-३
(३.१०.३२३-३२३)
“पुन चपरं, आवसो, भिक्खुनो न हेव खो सत्था धम्मं देसेति अञतरो वा गरुडानियो सब्रह्मचारी, अपि च खो यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति...पे०... अपि च खो यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन सज्झायं करोति...पे०... अपि च खो यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं चेतसा अनुवितक्केति अनुविचारेति मनसानुपेक्खति...पे०... अपि च ख्वस्स अञ्जतरं समाधिनिमित्तं सुग्गहितं होति सुमनसिकतं सूपधारितं सुप्पटिविद्धं पञ्जाय, यथा यथा, आवुसो, भिक्खुनो अञ्जतरं समाधिनिमित्तं सग्गहितं होति समनसिकतं सपधारितं सप्पटिविद्धं पञ्जाय । तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थपटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च। तस्स अत्थपटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति । इदं पञ्चमं विमुत्तायतनं ।
“पञ्च विमुत्तिपरिपाचनीया सञ्जा- अनिच्चसञ्जा, अनिच्चे दुक्खसञ्जा, दुक्खे अनत्तसा, पहानसा, विरागसञ्जा।
"इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन पञ्च धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं...पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
छक्कं
३२३. “अस्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धन छ धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं...पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे छ ?
“छ अज्झत्तिकानि आयतनानि- चक्खायतनं, सोतायतनं, घानायतनं, जिव्हायतनं, कायायतनं, मनायतनं ।
“छ बाहिरानि आयतनानि- रूपायतनं, सद्दायतनं, गन्धायतनं, रसायतनं, फोठुब्बायतनं, धम्मायतनं ।
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(३.१०.३२४-३२४)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
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“छ विज्ञाणकाया- चक्खुविज्ञाणं, सोतविज्ञाणं, घानविज्ञाणं, जिव्हाविज्ञाणं, कायविज्ञाणं, मनोविज्ञाणं ।
“छ फस्सकाया- चक्खुसम्फस्सो, सोतसम्फस्सो, घानसम्फस्सो, जिव्हासम्फस्सो, कायसम्फस्सो, मनोसम्फस्सो।
“छ वेदनाकाया- चक्खुसम्फस्सजा वेदना, सोतसम्फस्सजा वेदना, घानसम्फस्सजा वेदना, जिव्हासम्फस्सजा वेदना, कायसम्फस्सजा वेदना, मनोसम्फस्सजा वेदना।
“छ सञाकाया- रूपसञ्जा, सद्दसञ्जा, गन्धसञा, रससञ्जा, फोट्टब्बसञ्जा, धम्मसा ।
“छ सञ्चेतनाकाया - रूपसञ्चेतना, सद्दसञ्चेतना, गन्धसञ्चेतना, रससञ्चेतना, फोठुब्बसञ्चेतना, धम्मसञ्चेतना ।
“छ तण्हाकाया- रूपतण्हा, सद्दतण्हा, गन्धतण्हा, रसतण्हा, फोट्ठब्बतण्हा, धम्मतहा।
३२४. “छ अगारवा। इधावुसो भिक्खु सत्थरि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो; धम्मे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो; सङ्घ अगारवो विहरति अप्पतिस्सो; सिक्खाय अगारवो विहरति अप्पतिस्सो; अप्पमादे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो; पटिसन्थारे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो।
“छ गारवा । इधावुसो, भिक्खु सत्थरि सगारवो विहरति सप्पतिस्सो; धम्मे सगारवो विहरति सप्पतिस्सो; सङ्घ सगारवो विहरति सप्पतिस्सो; सिक्खाय सगारवो विहरति सप्पतिस्सो; अप्पमादे सगारवो विहरति सप्पतिस्सो; पटिसन्थारे सगारवो विहरति सप्पतिस्सो।
“छ सोमनस्सूपविचारा। चक्खुना रूपं दिस्वा सोमनस्सट्ठानियं रूपं उपविचरति;
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दीघनिकायो-३
(३.१०.३२४-३२४)
सोतेन सदं सुत्वा। घानेन गन्धं घायित्वा । जिव्हाय रसं सायित्वा । कायेन फोटुब्बं फुसित्वा । मनसा धम्मं विज्ञाय सोमनस्सट्ठानियं धम्मं उपविचरति ।
रूपं
“छ दोमनस्सूपविचारा। चक्खुना रूपं दिस्वा दोमनस्सट्ठानियं उपविचरति...पे०... मनसा धम्मं विज्ञाय दोमनस्सट्ठानियं धम्मं उपविचरति ।।
“छ उपेक्खूपविचारा। चक्खुना रूपं दिस्वा उपेक्खाट्ठानियं रूपं उपविचरति...पे०... मनसा धम्मं विज्ञाय उपेक्खाट्ठानियं धम्मं उपविचरति ।
“छ सारणीया धम्मा। इधावुसो, भिक्खुनो मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्टितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च । अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो मेत्तं वचीकम्मं पच्चुपट्टितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च। अयम्पि धम्मो सारणीयो...पे०... एकीभावाय संवत्तति ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो मेत्तं मनोकम्मं पच्चुपट्टितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च । अयम्पि धम्मो सारणीयो...पे०... एकीभावाय संवत्तति ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु ये ते लाभा धम्मिका धम्मलद्धा अन्तमसो पत्तपरियापन्नमत्तम्पि, तथारूपेहि लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी होति सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी । अयम्पि धम्मो सारणीयो...पे०... एकीभावाय संवत्तति ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यानि तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विझुप्पसत्थानि अपरामट्ठानि समाधिसंवत्तनिकानि, तथारूपेसु सीलेसु सीलसामञ्चगतो विहरति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च । अयम्पि धम्मो सारणीयो...पे०... एकीभावाय संवत्तति ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय, तथारूपाय दिट्ठिया दिद्विसामञ्जगतो विहरति सब्रह्मचारीहि आवि
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(३.१०.३२५-३२५)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
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चेव रहो च । अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति ।
___३२५. छ विवादमूलानि । इधावुसो, भिक्खु कोधनो होति उपनाही । यो सो, आवुसो, भिक्खु कोधनो होति उपनाही, सो सत्थरिपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, धम्मेपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सङ्केपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सिक्खायपि न परिपूरकारी होति । यो सो, आवुसो, भिक्खु सत्थरि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, धम्मे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सङ्घ अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सिक्खाय न परिपूरकारी, सो सङ्के विवादं जनेति । यो होति विवादो बहुजनअहिताय बहुजनअसुखाय अनत्थाय अहिताय दुक्खाय देवमनुस्सानं । एवरूपं चे तुम्हे, आवुसो, विवादमूलं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा समनुपस्सेय्याथ । तत्र तुम्हे, आवुसो, तस्सेव पापकस्स विवादमूलस्स पहानाय वायमेय्याथ । एवरूपं चे तुम्हे, आवुसो, विवादमूलं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा न समनुपस्सेय्याथ, तत्र तुम्हे, आवुसो, तस्सेव पापकस्स विवादमूलस्स आयतिं अनवस्सवाय पटिपज्जेय्याथ | एवमेतस्स पापकस्स विवादमूलस्स पहानं होति । एवमेतस्स पापकस्स विवादमूलस्स आयतिं अनवस्सवो होति ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु मक्खी होति पळासी...पे०... इस्सुकी होति मच्छरी । सठो होति मायावी । पापिच्छो होति मिच्छादिट्ठी। सन्दिट्ठिपरामासी होति आधानग्गाही दुष्पटिनिस्सग्गी। यो सो, आवुसो, भिक्खु सन्दिट्ठिपरामासी होति आधानग्गाही दुप्पटिनिस्सग्गी । सो सत्थरिपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, धम्मपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सचेपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सिक्खायपि न परिपूरकारी होति । यो, सो, आवुसो, भिक्खु सत्थरि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, धम्मे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सङ्घ अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सिक्खाय न परिपूरकारी, सो सङ्घ विवादं जनेति । यो होति विवादो बहुजनअहिताय बहुजनअसुखाय अनत्थाय अहिताय दुक्खाय देवमनुस्सानं । एवरूपं चे तुम्हे, आवुसो, विवादमूलं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा समनुपस्सेय्याथ। तत्र तुम्हे, आवुसो, तस्सेव पापकस्स विवादमूलस्स पहानाय वायमेय्याथ । एवरूपं चे तुम्हे, आवुसो, विवादमूलं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा न समनुपस्सेय्याथ । तत्र तुम्हे, आवुसो, तस्सेव पापकस्स विवादमूलस्स आयतिं अनवस्सवाय पटिपज्जेय्याथ । एवमेतस्स पापकस्स विवादमूलस्स पहानं होति । एवमेतस्स पापकस्स विवादमूलस्स आयतिं अनवस्सवो होति ।
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दीघनिकायो-३
(३.१०.३२६-३२६)
___“छ धातुयो- पथवीधातु, आपोधातु, तेजोधातु, वायोधातु, आकासधातु, विज्ञआणधातु।
३२६. “छ निस्सरणिया धातुयो। इधावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य - “मेत्ता हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्टिता परिचिता सुसमारद्धा, अथ च पन मे ब्यापादो चित्तं परियादाय तिकृती"ति । सो “मा हेवं", तिस्स वचनीयो, "मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य । अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो, यं मेत्ताय चेतोविमुत्तिया . भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुहिताय परिचिताय सुसमारद्धाय । अथ च पनस्स ब्यापादो चित्तं परियादाय ठस्सति, नेतं ठानं विज्जति। निस्सरणं हेतं, आवुसो, ब्यापादस्स, यदिदं मेत्ता चेतोविमुत्ती"ति।
“इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – “करुणा हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा | अथ च पन मे विहेसा चित्तं परियादाय तिकृती"ति, सो “मा हेवं" तिस्स वचनीयो “मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य । अट्ठानमेतं आवुसो, अनवकासो, यं करुणाय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थकताय अनूद्विताय परिचिताय सुसमारद्धाय, अथ च पनस्स विहेसा चित्तं परियादाय ठस्सति, नेतं ठानं विज्जति । निस्सरणं हेतं, आवुसो, विहेसाय, यदिदं करुणा चेतोविमुत्ती''ति ।
“इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – “मुदिता हि खो मे चेतोविमुत्ति. भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा । अथ च पन मे अरति चित्तं परियादाय तिद्वती''ति, सो “मा हेवं" तिस्स वचनीयो “मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य । अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो, यं मुदिताय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुहिताय परिचिताय सुसमारद्धाय, अथ च पनस्स अरति चित्तं परियादाय ठस्सति, नेतं ठानं विज्जति । निस्सरणं हेतं, आवुसो, अरतिया, यदिदं मुदिता चेतोविमुत्ती''ति ।
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(३.१०.३२७-३२७)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
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“इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य - “उपेक्खा हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा । अथ च पन मे रागो चित्तं परियादाय तिकृती''ति । सो “मा हेवं" तिस्स वचनीयो “मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य । अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो, यं उपेक्खाय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुट्ठिताय परिचिताय सुसमारद्धाय, अथ च पनस्स रागो चित्तं परियादाय ठस्सति नेतं ठानं विज्जति । निस्सरणं हेतं, आवुसो, रागस्स, यदिदं उपेक्खा चेतोविमुत्ती"ति ।
"इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – “अनिमित्ता हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा । अथ च पन मे निमित्तानुसारि विज्ञाणं होती''ति । सो “मा हेवं" तिस्स वचनीयो “मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य । अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो, यं अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुट्टिताय परिचिताय सुसमारद्धाय, अथ च पनस्स निमित्तानुसारि विज्ञाणं भविस्सति, नेतं ठानं विज्जति । निस्सरणं हेतं, आवुसो, सब्बनिमित्तानं, यदिदं अनिमित्ता चेतोविमुत्तीति ।।
"इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – “अस्मीति खो मे विगतं, अयमहमस्मीति न समनुपस्सामि, अथ च पन मे विचिकिच्छाकथङ्कथासल्लं चित्तं परियादाय तिकृती"ति । सो “मा हेवं' तिस्स वचनीयो “मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य | अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो, यं अस्मीति विगते अयमहमस्मीति असमनुपस्सतो, अथ च पनस्स विचिकिच्छाकथङ्कथासल्लं चित्तं परियादाय ठस्सति, नेतं ठानं विज्जति । निस्सरणं हेतं, आवुसो, विचिकिच्छाकथङ्कथासल्लस्स, यदिदं अस्मिमानसमुग्घातो''ति ।
३२७. “छ अनुत्तरियानि - दस्सनानुत्तरियं, सवनानुत्तरियं, लाभानुत्तरियं, सिक्खानुत्तरियं, पारिचरियानुत्तरियं, अनुस्सतानुत्तरियं ।
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दीघनिकायो-३
(३.१०.३२८-३३०)
“छ अनुस्सतिद्वानानि - बुद्धानुस्सति, धम्मानुस्सति, सङ्घानुस्सति, सीलानुस्सति, चागानुस्सति, देवतानुस्सति ।
३२८. “छ सततविहारा। इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। सोतेन सदं सुत्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। घानेन गन्धं घायित्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। जिव्हाय रसं सायित्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। कायेन फोहब्बं फुसित्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। मनसा धम्म विज्ञाय नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो।
३२९. “छळाभिजातियो। इधावुसो, एकच्चो कण्हाभिजातिको समानो कण्हं धम्म अभिजायति । इध पनावुसो, एकच्चो कण्हाभिजातिको समानो सुक्कं धम्मं अभिजायति । इध पनावुसो, एकच्चो कण्हाभिजातिको समानो अकण्हं असुक्कं निब्बानं अभिजायति । इध पनावुसो, एकच्चो सुक्काभिजातिको समानो सुक्कं धम्मं अभिजायति । इध पनावुसो, एकच्चो सुक्काभिजातिको समानो कण्हं धम्मं अभिजायति । इध पनावुसो, एकच्चो सुक्काभिजातिको समानो अकण्हं असुक्कं निब्बानं अभिजायति ।
“छ निब्बेधभागिया सञ्जा- अनिच्चसञआ अनिच्चे, दुक्खसञा दुक्खे, अनत्तसञ्जा, पहानसा, विरागसा, निरोधसञ्जा।
“इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन छ धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं...पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
सत्तकं
३३०. “अस्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सत्त धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं...पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे सत्त ?
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(३.१०.३३१-३३१)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
१९९
“सत्त अरियधनानि- सद्धाधनं, सीलधनं, हिरिधनं, ओत्तप्पधनं, सुतधनं, चागधनं, पञाधनं ।
“सत्त बोज्झङ्गा- सतिसम्बोज्झङ्गो, धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो, वीरियसम्बोज्झङ्गो, पीतिसम्बोज्झङ्गो, पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो, समाधिसम्बोज्झङ्गो, उपेक्खासम्बोज्झङ्गो ।
“सत्त समाधिपरिक्खारा- सम्मादिट्ठि, सम्मासङ्कप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माआजीवो, सम्मावायामो, सम्मासति ।
“सत्त असद्धम्मा- इधावुसो, भिक्खु अस्सद्धो होति, अहिरिको होति, अनोत्तप्पी होति, अप्पस्सुतो होति, कुसीतो होति, मुट्ठस्सति होति, दुप्पो होति ।
“सत्त सद्धम्मा- इधावुसो, भिक्खु सद्धो होति, हिरिमा होति, ओत्तप्पी होति, बहुस्सुतो होति, आरद्धवीरियो होति, उपट्टितस्सति होति, पञवा होति ।
“सत्त सप्पुरिसधम्मा - इधावुसो, भिक्खु धम्मञ्जू च होति अत्थञ्जू च अत्तञ्जू च मत्तञ्जू च कालशं च परिसङ्घ च पुग्गलञ्जू च ।।
३३१. “सत्त निदसवत्थूनि। इधावुसो, भिक्खु सिक्खासमादाने तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च सिक्खासमादाने अविगतपेमो। धम्मनिसन्तिया तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च धम्मनिसन्तिया अविगतपेमो। इच्छाविनये तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च इच्छाविनये अविगतपेमो। पटिसल्लाने तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च पटिसल्लाने अविगतपेमो । वीरियारम्भे तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च · वीरियारम्भे अविगतपेमो। सतिनेपक्के तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च सतिनेपक्के अविगतपेमो । दिट्ठिपटिवेधे तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च दिट्ठिपटिवेधे अविगतपेमो ।
"सत्त सञ्जा- अनिच्चसा, अनत्तसञ्जा, असुभसा, आदीनवसा, पहानसा, विरागसञ्जा, निरोधसञ्जा।
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२००
दीघनिकायो-३
(३.१०.३३२-३३२)
"सत्त बलानि- सद्भावलं, वीरियबलं, हिरिबलं, ओत्तप्पबलं, सतिबलं, समाधिबलं, पाबलं।
३३२. “सत्त विज्ञाणट्ठितियो। सन्तावुसो सत्ता नानत्तकाया नानत्तसञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्चे च देवा एकच्चे च विनिपातिका । अयं पठमा विज्ञाणट्ठिति ।
“सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया एकत्तसचिनो सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका पठमाभिनिब्बत्ता । अयं दुतिया विज्ञाणट्ठिति ।
“सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञिनो सेय्यथापि देवा आभस्सरा | अयं ततिया विज्ञाणट्ठिति ।
___“सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया एकत्तसञिनो सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा | अयं चतुत्थी विज्ञाणट्ठिति ।
“सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो रूपसञ्जानं समतिक्कमा पटिघसञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञानं अमनसिकारा “अनन्तो आकासो''ति आकासानञ्चायतनूपगा। अयं पञ्चमी विज्ञाणट्ठिति ।
____ "सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म “अनन्तं विज्ञाण"न्ति विज्ञाणञ्चायतनूपगा। अयं छट्ठी विज्ञाणट्ठिति ।
“सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो विज्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची"ति आकिं चञायतनूपगा। अयं सत्तमी विज्ञाणट्ठिति |
“सत्त पुग्गला दक्खिणेय्या- उभतोभागविमुत्तो, पञ्जाविमुत्तो, कायसक्खि, दिट्ठिप्पत्तो, सद्धाविमुत्तो, धम्मानुसारी, सद्धानुसारी ।
“सत्त अनुसया- कामरागानुसयो, पटिघानुसयो, दिट्ठानुसयो, विचिकिच्छानुसयो, मानानुसयो, भवरागानुसयो, अविज्जानुसयो ।
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(३.१०.३३३-३३३)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
२०१
“सत्त सञोजनानि- अनुनयसञोजनं, पटिघसञोजनं, दिट्ठिसञोजनं, विचिकिच्छासञोजनं, मानसञोजनं, भवरागसञोजनं, अविज्जासञोजनं ।
“सत्त अधिकरणसमथा- उप्पन्नप्पन्नानं अधिकरणानं समथाय वूपसमाय सम्मुखाविनयो दातब्बो, सतिविनयो दातब्बो, अमूळ्हविनयो दातब्बो, पटिञाय कारेतब्द, येभुय्यसिका, तस्सपापियसिका, तिणवत्थारको ।
"इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सत्त धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं...पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
दुतियभाणवारो निहितो।
अट्ठकं
३३३. “अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धन अट्ठ धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्...पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे अट्ठ ?
"अट्ठ मिच्छत्ता- मिच्छादिट्ठि, मिच्छासङ्कप्पो, मिच्छावाचा, मिच्छाकम्मन्तो, मिच्छाआजीवो, मिच्छावायामो मिच्छासति, मिच्छासमाधि ।
"अट्ठ सम्मत्ता- सम्मादिट्टि, सम्मासङ्कप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माआजीवो, सम्मावायामो, सम्मासति, सम्मासमाधि ।
"अट्ठ पुग्गला दक्खिणेय्या- सोतापन्नो, सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्नो; सकदागामी, सकदागामिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्नो; अनागामी, अनागामिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्नो; अरहा, अरहत्तफलसच्छिकिरियाय पटिपन्नो ।
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२०२
दीघनिकायो-३
(३.१०.३३४-३३४)
३३४. “अट्ठ कुसीतवत्थूनि। इधावुसो, भिक्खुना कम्मं कातब्बं होति । तस्स एवं होति- “कम्मं खो मे कातब्बं भविस्सति, कम्मं खो पन मे करोन्तस्स कायो किलमिस्सति, हन्दाहं निपज्जामी"ति ! सो निपज्जति न वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय । इदं पठमं कुसीतवत्थु ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना कम्मं कतं होति । तस्स एवं होति- “अहं खो कम्मं अकासिं, कम्मं खो पन मे करोन्तस्स कायो किलन्तो, हन्दाहं निपज्जामी"ति ! सो निपज्जति न वीरियं आरभति...पे०... । इदं दुतियं कुसीतवत्थु ।
___"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गन्तब्बो होति । तस्स एवं होति -- “मग्गो खो मे गन्तब्बो भविस्सति, मग्गं खो पन मे गच्छन्तस्स कायो किलमिस्सति, हन्दाह निपज्जामी'ति! सो निपज्जति न वीरियं आरभति । इदं ततियं कुसीतवत्थु ।
__ "पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गतो होति । तस्स एवं होति- “अहं खो मग्गं अगमासिं, मग्गं खो पन मे गच्छन्तस्स कायो किलन्तो, हन्दाहं निपज्जामी"ति ! सो निपज्जति न वीरियं आरभति । इदं चतुत्थं कुसीतवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो न लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं । तस्स एवं होति - “अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो नालत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं, तस्स मे कायो किलन्तो अकम्मो , हन्दाहं निपज्जामी''ति ! सो निपज्जति न वीरियं आरभति । इदं पञ्चमं कुसीतवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति - “अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो अलत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरि, तस्स मे कायो गरुको अकम्मो , मासाचितं मझे, हन्दाहं निपज्जामी''ति ! सो निपज्जति न वीरियं आरभति । इदं छटुं कुसीतवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो उप्पन्नो होति अप्पमत्तको आबाधो । तस्स एवं
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(३.१०.३३५-३३५)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
२०३
होति - “उप्पन्नो खो मे अयं अप्पमत्तको आबाधो; अत्थि कप्पो निपज्जितुं, हन्दाहं निपज्जामी"ति ! सो निपज्जति न वीरियं आरभति । इदं सत्तमं कुसीतवत्थु ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गिलाना वुट्ठितो होति अचिरवुट्टितो गेला । तस्स एवं होति- “अहं खो गिलाना वुट्ठितो अचिरवुट्ठितो गेला , तस्स मे कायो दुब्बलो अकम्मो , हन्दाहं निपज्जामी''ति! सो निपज्जति न वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय । इदं अट्ठमं कुसीतवत्थु ।
___३३५. “अट्ठ आरम्भवत्थूनि। इधावुसो, भिक्खुना कम्मं कातब्बं होति । तस्स एवं होति - “कम्मं खो मे कातब्बं भविस्सति, कम्मं खो पन मे करोन्तेन न सुकरं बुद्धानं सासनं मनसि कातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय, असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाया'ति! सो वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया, अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय । इदं पठमं आरम्भवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना कम्म कतं होति । तस्स एवं होति- अहं खो कम्मं अकासिं, कम्मं खो पनाहं करोन्तो नासक्खिं बुद्धानं सासनं मनसि कातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०... सो वीरियं आरभति...पे०... । इदं दुतियं आरम्भवत्थु ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गन्तब्बो होति । तस्स एवं होति - मग्गो खो मे गन्तब्बो भविस्सति, मग्गं खो पन मे गच्छन्तेन न सुकरं बुद्धानं सासनं मनसि कातुं । हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०... सो वीरियं आरभति...पे०...। इदं ततियं आरम्भवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गतो होति । तस्स एवं होति- अहं खो मग्गं अगमासिं, मग्गं खो पनाहं गच्छन्तो नासक्खिं बुद्धानं सासनं मनसि कातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०... सो वीरियं आरभति...पे०... । इदं चतुत्थं आरम्भवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो न लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति - अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो नालत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं
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२०४
दीघनिकायो-३
(३.१०.३३६-३३७)
पारिपूरि, तस्स मे कायो लहुको कम्मो , हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०... सो वीरियं आरभति...पे०... । इदं पञ्चमं आरम्भवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति- अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो अलत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं, तस्स मे कायो बलवा कम्मो , हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०... सो वीरियं आरभति...पे०... । इदं छटुं आरम्भवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो उप्पन्नो होति अप्पमत्तको आबाधो। तस्स एवं होति - उप्पन्नो खो मे अयं अप्पमत्तको आबाधो, ठानं खो पनेतं विज्जति यं मे आबाधो पवड्डेय्य, हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०... सो वीरियं आरभति...पे०... । इदं सत्तमं आरम्भवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गिलाना बुट्ठितो होति अचिरवुट्टितो गेलञा । तस्स एवं होति- “अहं खो गिलाना बुट्ठितो अचिरवुट्ठितो गेलञा, ठानं खो पनेतं विज्जति यं मे आबाधो पच्चुदावत्तेय्य, हन्दाहं वीरियं आरभामि अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाया''ति! सो वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय । इदं अट्ठमं आरम्भवत्थु ।
३३६. “अट्ठ दानवत्थूनि । आसज्ज दानं देति, भया दानं देति, “अदासि मे"ति दानं देति, “दस्सति मे''ति दानं देति, “साहु दान''न्ति दानं देति, “अहं पचामि, इमे न पचन्ति, नारहामि पचन्तो अपचन्तानं दानं न दातु"न्ति दानं देति, “इदं मे दानं ददतो कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छती"ति दानं देति । चित्तालङ्कार-चित्तपरिक्खारत्थं दानं देति ।
३३७. “अट्ठ दानूपपत्तियो । इधावुसो, एकच्चो दानं देति समणस्स वा ब्राह्मणस्स वा अन्नं पानं वत्थं यानं मालागन्धविलेपनं सेय्यावसथपदीपेय्यं । सो यं देति तं पच्चासीसति । सो पस्सति खत्तियमहासालं वा ब्राह्मणमहासालं वा गहपतिमहासालं वा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितं समझीभूतं परिचारयमानं । तस्स एवं होति- “अहो वताहं
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(३.१०.३३७-३३७)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
२०५
कायस्स भेदा परं मरणा खत्तियमहासालानं वा ब्राह्मणमहासालानं वा गहपतिमहासालानं वा सहब्यतं उपपज्जेय्य"न्ति ! सो तं चित्तं दहति, तं चित्तं अधिट्ठाति, तं चित्तं भावेति, तस्स तं चित्तं हीने विमुत्तं उत्तरि अभावितं तत्रूपपत्तिया संवत्तति। तञ्च खो सीलवतो वदामि नो दुस्सीलस्स । इज्झतावुसो, सीलवतो चेतोपणिधि विसुद्धत्ता ।
पानं...पे०... सेय्य
___ "पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्चो दानं देति समणस्स वा ब्राह्मणस्स वा अन्नं पानं ऐ० मेग्यावसथपटीपेय्यं| सो यं देति तं पच्चासीसति । तस्स सतं होति - "चातुमहाराजिका देवा दीघायुका वण्णवन्तो सुखबहुला''ति । तस्स एवं होति- “अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय्य"न्ति ! सो तं चित्तं दहति, तं चित्तं अधिट्ठाति, तं चित्तं भावेति, तस्स तं चित्तं हीने विमुत्तं उत्तरि अभावितं तत्रूपपत्तिया संवत्तति । तञ्च खो सीलवतो वदामि नो दुस्सीलस्स । इज्झतावुसो, सीलवतो चेतोपणिधि विसुद्धत्ता ।
"पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्चो दानं देति समणस्स वा ब्राह्मणस्स वा अन्नं पानं...पे०... सेय्यावसथपदीपेय्यं । सो यं देति तं पच्चासीसति । तस्स सुतं होति"तावतिंसा देवा...पे०... यामा देवा...पे०... तुसिता देवा...पे०... निम्मानरती देवा...पे०... परनिम्मितवसवत्ती देवा दीघायुका वण्णवन्तो सुखबहुला''ति । तस्स एवं होति - "अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा परनिम्मितवसवत्तीनं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय्य"न्ति ! सो तं चित्तं दहति, तं चित्तं अधिट्ठाति, तं चित्तं भावेति, तस्स तं चित्तं हीने विमुत्तं उत्तरि अभावितं तत्रूपपत्तिया संवत्तति । तञ्च खो सीलवतो वदामि नो दुस्सीलस्स । इज्झतावुसो, सीलवतो चेतोपणिधि विसुद्धत्ता।
"पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्चो दानं देति समणस्स वा ब्राह्मणस्स वा अन्नं पानं वत्थं यानं मालागन्धविलेपनं सेय्यावसथपदीपेय्यं । सो यं देति तं पच्चासीसति । तस्स सुतं होति - "ब्रह्मकायिका देवा दीघायुका वण्णवन्तो सुखबहुला''ति । तस्स एवं होति - "अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मकायिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जेय्य"न्ति ! सो तं चित्तं दहति, तं चित्तं अधिट्टाति, तं चित्तं भावेति, तस्स तं चित्तं हीने विमुत्तं उत्तरि अभावितं तत्रूपपत्तिया संवत्तति । तञ्च खो सीलवतो वदामि नो दुस्सीलस्स; वीतरागस्स नो सरागस्स । इज्झतावुसो, सीलवतो चेतोपणिधि वीतरागत्ता ।
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२०६
दीघनिकायो-३
"अट्ठ परिसा - खत्तियपरिसा, ब्राह्मणपरिसा, गहपतिपरिसा, समणपरिसा, चातुमहाराजिकपरिसा, तावतिंसपरिसा, मारपरिसा, ब्रह्मपरिसा ।
"
'अट्ठ लोकधम्मा - लाभो च, अलाभो च, यसो च, अयसो च, निन्दा च, पसंसा च सुखञ्च, दुक्खञ्च ।
(३.१०.३३८-३३८)
३३८. “ अट्ठ अभिभायतनानि । अज्झत्तं रूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि, “तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी "ति एवंसञ्जी होति । इदं पठमं अभिभायतनं ।
'अज्झत्तं रूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि, "तानि अभिभुय्य जानामि परसामी " ति - एवंसञ्जी होति । इदं दुतियं अभिभायतनं ।
“अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि, " तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी 'ति एवंसञ्जी होति । इदं ततियं अभिभायतनं ।
" अज्झत्तं अरूपसञ्जी एको बहद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि, “तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी "ति एवंसञ्जी होति । इदं चतुत्थं अभिभायतनं ।
“अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि । सेय्यथापि नाम उमापुष्पं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठे नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं । एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि, “तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी "ति एवंसञ्जी होति । इदं पञ्चमं अभिभायतनं ।
“अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि । सेय्यथापि नाम कणिकारपुष्कं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठे पीतं
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(३.१०.३३९-३३९)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
२०७
पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं । एवमेव अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि, “तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी"ति एवंसजी होति । इदं छठें अभिभायतनं ।
“अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि । सेय्यथापि नाम बन्धुजीवकपुष्पं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यक उभतोभागविमटुं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं । एवमेव अज्झत्तं अरूपसी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि, “तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी"ति एवंसञ्जी होति । इदं सत्तमं अभिभायतनं ।
“अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि । सेय्यथापि नाम ओसधितारका ओदाता ओदातवण्णा ओदातनिदस्सना ओदातनिभासा. सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्रं ओदातं ओदातवण्णं ओदातनिदस्सनं ओदातनिभासं । एवमेव अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि, "तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी''ति एवंसजी होति । इदं अट्ठमं अभिभायतनं ।
३३९. “अट्ठ विमोक्खा। रूपी रूपानि पस्सति । अयं पठमो विमोक्खो ।
"अज्झत्तं अरूपसञी बहिद्धा रूपानि पस्सति । अयं दुतियो विमोक्खो ।
"सुभन्तेव अधिमुत्तो होति । अयं ततियो विमोक्खो ।
“सब्बसो रूपसानं समतिक्कमा पटिघसञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञआनं अमनसिकारा “अनन्तो आकासो'"ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । अयं चतुत्थो विमोक्खो।
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२०८
दीघनिकायो-३
"सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म “अनन्तं विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । अयं पञ्चमो विमोक्खो ।
"सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची "ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति । अयं छट्टो विमोक्खो ।
(३.१०.३४०-३४०)
"सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति । अयं सत्तमो विमोक्खो ।
विञ्ञाण"न्ति
" सब्बसो नेवसञनासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञवेदयित निरोधं उपसम्पज्ज विहरति । अयं अट्टमो विमोक्खो ।
“इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन अट्ठ धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्ग्रायितब्बं... पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
नवकं
३४०. “अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन नव धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं... पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे नव ?
"नव आघातवत्थूनि । “अनत्थं मे अचरी ”ति आघातं बन्धति; "अनत्थं मे चरतीति आघातं बन्धति; "अनत्थं मे चरिस्सती "ति आघातं बन्धति; “पियस्स मे मनापस्स अनत्थं अचरी ”ति आघातं बन्धति... पे०... अनत्थं चरतीति आघातं बन्धति...पे०... अनत्थं चरिस्सतीति आघातं बन्धति; “अप्पियस्स मे अमनापस्स अत्यं अचरी ”ति आघातं बन्धति... पे०... अत्थं चरतीति आघातं बन्धति...पे०... अत्यं चरिस्सतीति आघातं बन्धति ।
“नव आघातपटिविनया । " अनत्थं मे अचरि, तं कुतेत्थ लब्भा”ति आघातं
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(३.१०.३४१-३४१)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
२०९
पटिविनेति; “अनत्थं मे चरति, तं कुतेत्थ लब्भा''ति आघातं पटिविनेति; “अनत्थं मे चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा"ति आघातं पटिविनेति; “पियस्स मे मनापस्स अनत्थं अचरि...पे०... अनत्थं चरति...पे०... अनत्थं चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा"ति आघातं पटिविनेति; “अप्पियस्स मे अमनापस्स अत्थं अचरि...पे०... अत्थं चरति...पे०... अत्थं चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा'ति आघातं पटिविनेति ।
३४१. “नव सत्तावासा। सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया नानत्तसचिनो, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्चे च देवा एकच्चे च विनिपातिका । अयं पठमो सत्तावासो।
“सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया एकत्तसञिनो, सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका पठमाभिनिब्बत्ता । अयं दुतियो सत्तावासो ।
“सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञिनो, सेय्यथापि देवा आभस्सरा । अयं ततियो सत्तावासो।
“सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया एकत्तसञिनो, सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा। अयं चतुत्थो सत्तावासो ।
“सन्तावुसो, सत्ता असझिनो अप्पटिसंवेदिनो, सेय्यथापि देवा असञसत्ता । अयं पञ्चमो सत्तावासो।
“सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो रूपसञानं समतिक्कमा पटिघसञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञानं अमनसिकारा “अनन्तो आकासो''ति आकासानञ्चायतनूपगा। अयं छट्ठो सत्तावासो।
"सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म “अनन्तं विज्ञाण''न्ति विआणञ्चायतनूपगा। अयं सत्तमो सत्तावासो ।
__ “सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो विज्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची''ति आकिञ्चाञआयतनूपगा । अयं अट्ठमो सत्तावासो ।
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२१०
दीघनिकायो-३
(३.१०.३४२-३४२)
“सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकिञ्चञायतनं नेवसञ्जानासचायतनूपगा। अयं नवमो सत्तावासो ।
समतिक्कम्म
३४२. “नव अक्खणा असमया ब्रह्मचरियवासाय। इधावुसो, तथागतो च लोके उप्पन्नो होति अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च देसियति ओपसमिको परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो । अयञ्च पुग्गलो निरयं उपपन्नो होति । अयं पठमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।।
“पुन चपरं, आवुसो, तथागतो च लोके उप्पन्नो होति अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च देसियति ओपसमिको परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो। अयञ्च पुग्गलो तिरच्छानयोनि उपपन्नो होति । अयं दुतियो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
“पुन चपरं...पे०... पेत्तिविसयं उपपन्नो होति । अयं ततियो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
"पुन चपरं...पे०... असुरकायं उपपन्नो होति । अयं चतुत्थो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
"पुन चपरं...पे०... अञ्जतरं दीघायुकं देवनिकायं उपपन्नो होति । अयं पञ्चमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
"पुन चपरं...पे०... पच्चन्तिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति मिलक्खेसु अविज्ञातारेसु, यत्थ नत्थि गति भिक्खून भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं । अयं छट्ठो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
“पुन चपरं...पे०... मज्झिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति । सो च होति मिच्छादिट्ठिको विपरीतदस्सनो - "नस्थि दिन्नं, नत्थि यिटुं, नत्थि हुतं, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, नत्थि अयं लोको, नत्थि परो लोको, नत्थि माता, नत्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना ये इमञ्च
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(३.१०.३४३-३४४)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
२११
लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ती''ति । अयं सत्तमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
"पुन चपरं...पे०... मज्झिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति । सो च होति दुप्पञो जळो एळमूगो, नप्पटिबलो सुभासितदुब्भासितानमत्थमञातुं । अयं अट्ठमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
"पुन चपरं, आवुसो, तथागतो च लोके न उप्पन्नो होति अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च न देसियति ओपसमिको परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो । अयञ्च पुग्गलो मज्झिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति, सो च होति पञवा अजळो अनेळमूगो, पटिबलो सुभासित-दुब्भासितानमत्थमञातुं। अयं नवमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
३४३. “नव अनुपुब्बविहारा। इधावुसो, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । वितक्कविचारानं वूपसमा...पे०... दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । पीतिया च विरागा...पे०... ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सुखस्स च पहाना...पे०... चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो रूपसञानं समतिक्कमा...पे०... आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म “अनन्तं विज्ञाण"न्ति विज्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो विज्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची"ति आकिञ्चचायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो आकिञ्चचायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्जानासायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो नेवसानासायतनं समतिक्कम्म सजावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति ।
३४४. “नव अनुपुब्बनिरोधा। पठमं झानं समापन्नस्स कामसा निरुद्धा होति। दुतियं झानं समापन्नस्स वितक्कविचारा निरुद्धा होन्ति। ततियं झानं समापन्नस्स पीति निरुद्धा होति। चतुत्थं झानं समापन्नस्स अस्सासपस्सास्सा निरुद्धा होन्ति। आकासानञ्चायतनं समापनस्स रूपसा निरुद्धा होति। विज्ञआणञ्चायतनं समापनस्स आकासानञ्चायतनसा निरुद्धा होति। आकिञ्चायतनं समापनस्स विज्ञाणञ्चायतनसा निरुद्धा होति।
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दीघनिकायो-३
(३.१०.३४५-३४५)
नेवसनासञयतनं समापन्नस्स आकिञ्चञ्ञायतनसञ्ञ निरुद्धा होति । सञ्ञवेदयितनिरोधं समापन्नस्स सञ्ञ च वेदना च निरुद्धा होन्ति ।
२१२
“इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन नव धम्मा सम्मदक्खाता । तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं... पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
दसकं
३४५. “अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन दस धम्मा सम्मदक्खाता । तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं... पे०... अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे दस ?
" दस नाथकरणा धम्मा । इधावुसो, भिक्खु सीलवा होति । पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु । यंपावुसो, भिक्खु सीलवा होति, पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति, आचारगोचरसम्पन्नो, अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु । अयम्प धम्मो नाथकरणो ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु बहुस्सुतो होति सुतधरो सुतसन्निचयो । ये ते धम्म आदिकल्याणा मज्झेकल्याणा परियोसानकल्याणा सात्था सब्यञ्जना केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं अभिवदन्ति तथारूपास्स धम्मा बहुस्सुता होन्ति धाता वचसा परिचिता मनसानुपेक्खिता दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा, यंपावुसो, भिक्खु बहुस्सुतो होति... पे०... दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु कल्याणमित्तो होति कल्याणसहायो कल्याणसम्पवङ्को । यंपावुसो, भिक्खु कल्याणमित्तो होति कल्याणसहायो कल्याणसम्पवङ्को । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
" पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सुवचो होति सोवचस्सकरणेहि धम्मेहि समन्नागत
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१०. सङ्गीत
खमो पदक्खिणग्गाही अनुसासनिं । यंपावुसो, भिक्खु पदक्खिणग्गाही अनुसासनिं । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
(३.१०.३४६-३४६)
“पुन चपरं आवुसो, भिक्खु यानि तानि सब्रह्मचारीनं उच्चावचानि किंकरणीयानि, तत्थ दक्खो होति अनलसो तत्रुपायाय वीमंसाय समन्नागतो, अलं कातुं अलं संविधातुं । यंपावुसो, भिक्खु यानि तानि सब्रह्मचारीनं... पे०... अलं संविधातुं । अयम्प धम्मो नाथकरणो ।
२१३
" पुन चपरं
आवुसो, भिक्खु धम्मकामो होति पियसमुदाहारो, अभिधम्मे अभिविनये उळारपामोज्जो । यंपावुसो, भिक्खु धम्मकामो होति... पे०... उळारपामोज्जो । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
सुवचो होति... पे०...
" पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेहि चीवर - पिण्डपात-सेनासनगिलानप्पच्चय-भेसज्ज-परिक्खारेहि । यंपावुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति... पे०... परिक्खारेहि । अयम्प धम्मो नाथकरणो ।
" पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु आरद्धवीरियो विहरति अकुसलानं धम्मानं पहानाय कुसलानं धम्मानं उपसम्पदाय, थामवा दळहपरक्कमो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु । यंपावुसो, भिक्खु आरद्धवीरियो विहरति ... पे०... अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मे । अयम्प धम्मो नाथकरणो ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सतिमा होति परमेन सतिनेपक्केन समन्नागतो चिरकतम्पि चिरभासितम्पि सरिता अनुस्सरिता । यंपावुसो, भिक्खु सतिमा होति... पे०.... सरिता अनुरसरिता । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
" पुन चपरं आवुसो, भिक्खु पञ्ञवा होति, उदयत्थगामिनिया पञ्ञाय समन्नागतो अरियाय निब्बेधिका सम्मादुक्खक्खयगामिनिया । यंपावुसो, भिक्खु पञ्ञवा होति... पे०... सम्मादुक्खक्खयगामिनिया । अयम्पि धम्मो नाथकरणो
३४६. दस कसिणायतनानि । पथवीकसिणमेको सञ्जानाति, उद्धं अधो तिरियं
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२१४
दीघनिकायो-३
(३.१०.३४७-३४८)
अद्वयं अप्पमाणं । आपोकसिणमेको सञ्जानाति...पे०... तेजोकसिणमेको सञ्जानाति । वायोकसिणमेको सञ्जानाति । नीलकसिणमेको सञ्जानाति । पीतकसिणमेको सञ्जानाति । लोहितकसिणमेको सञ्जानाति । ओदातकसिणमेको सञ्जानाति । आकासकसिणमेको सञ्जानाति । विज्ञाणकसिणमेको सञ्जानाति, उद्धं अधो तिरियं अद्वयं अप्पमाणं ।
३४७. “दस अकुसलकम्मपथा- पाणातिपातो, अदिन्नादानं, कामेसुमिच्छाचारो, मुसावादो, पिसुणा वाचा, फरुसा वाचा, सम्फप्पलापो, अभिज्झा, ब्यापादो, मिच्छादिट्ठि ।
"दस कुसलकम्मपथा- पाणातिपाता वेरमणी, अदिन्नादाना वेरमणी, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी, मुसावादा वेरमणी, पिसुणाय वाचाय वेरमणी, फरुसाय वाचाय वेरमणी, सम्फप्पलापा वेरमणी, अनभिज्झा, अब्यापादो, सम्मादिट्ठि ।
३४८. “दस अरियवासा। इधावुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति, छळङ्गसमन्नागतो, एकारक्खो, चतुरापस्सेनो, पणुन्नपच्चेकसच्चो, समवयसढेसनो, अनाविलसङ्कप्पो, पस्सद्धकायसङ्खारो, सुविमुत्तचित्तो, सुविमुत्तपञो। ..
"कथञ्चावुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति ? इधावुसो, भिक्खुनो कामच्छन्दो पहीनो होति, ब्यापादो पहीनो होति, थिनमिद्धं पहीनं होति, उद्धच्चकुकुच्चं पहीनं होति, विचिकिच्छा पहीना होति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति ।
____ "कथञ्चावुसो, भिक्खु छळङ्गसमन्नागतो होति ? इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। सोतेन सदं सुत्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। घानेन गन्धं घायित्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। जिव्हाय रसं सायित्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। कायेन फोहब्बं फुसित्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। मनसा धम्मं विज्ञाय नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। एवं खो, आवुसो, भिक्खु छळङ्गसमन्नागतो होति ।
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(३.१०.३४८-३४८)
१०. सङ्गीतिसुत्तं
२१५
"कथञ्चावुसो, भिक्खु एकारक्खो होति ? इधावुसो, भिक्खु सतारखेन चेतसा समन्नागतो होति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु एकारक्खो होति ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु चतुरापस्सेनो होति ? इधावुसो, भिक्खु सङ्खायेकं पटिसेवति, सङ्खायेकं अधिवासेति, सङ्खायेकं परिवज्जेति, सङ्खायेकं विनोदेति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु चतुरापस्सेनो होति ।
_ "कथञ्चावुसो, भिक्खु पणुनपच्चेकसच्चो होति ? इधावुसो, भिक्खुनो यानि तानि पुथुसमणब्राह्मणानं पुथुपच्चेकसच्चानि, सब्बानि तानि नुन्नानि होन्ति पणुन्नानि चत्तानि वन्तानि मुत्तानि पहीनानि पटिनिस्सट्ठानि । एवं खो, आवुसो, भिक्खु पणुन्नपच्चेकसच्चो होति ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु समवयसढेसनो होति ? इधावुसो, भिक्खुनो कामेसना पहीना होति, भवेसना पहीना होति, ब्रह्मचरियेसना पटिप्पस्सद्धा । एवं खो, आवुसो, भिक्खु समवयसढेसनो होति ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु अनाविलसङ्कप्पो होति ? इधावुसो, भिक्खुनो कामसङ्कप्पो पहीनो होति, ब्यापादसङ्कप्पो पहीनो होति, विहिंसासङ्कप्पो पहीनो होति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु अनाविलसङ्कप्पो होति ।
___ "कथञ्चावुसो, भिक्खु पस्सद्धकायसङ्खारो होति ? इधावुसो, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु पस्सद्धकायसङ्खारो होति ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु सुविमुत्तचित्तो होति ? इधावुसो, भिक्खुनो रागा चित्तं विमुत्तं होति, दोसा चित्तं विमुत्तं होति, मोहा चित्तं विमुत्तं होति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु सुविमुत्तचित्तो होति ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु सुविमुत्तपञो होति ? इधावुसो, भिक्खु “रागो मे पहीनो
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२१६
दीघनिकायो-३
(३.१०.३४९-३४९)
उच्छिन्नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो आयतिं अनुप्पादधम्मो"ति पजानाति। "दोसो मे पहीनो उच्छिन्नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो आयतिं अनुप्पादधम्मो"ति पजानाति। “मोहो मे पहीनो उच्छिन्नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो आयतिं अनुष्पादधम्मो"ति पजानाति । एवं खो, आबुसो, भिक्खु सुविमुत्तपो होति।
दस असेक्खा धम्मा- असेक्खा सम्मादिट्ठि, असेक्खो सम्मासङ्कप्पो, असेक्खा सम्मावाचा, असेक्खो सम्माकम्मन्तो, असेक्खो सम्माआजीवो, असेक्खो सम्मावायामो, असेक्खा सम्मासति, असेक्खो सम्मासमाधि, असेक्खं सम्माजाणं, असेक्खा सम्माविमुत्ति ।
"इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन दस धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान'"न्ति ।
३४९. अथ खो भगवा उट्ठहित्वा आयस्मन्तं सारिपुत्तं आमन्तेसि- “साधु साधु, सारिपुत्त, साधु खो त्वं, सारिपुत्त, भिक्खूनं सङ्गीतिपरियायं अभासी"ति । इदमवोचायस्मा सारिपुत्तो, समनुओ सत्था अहोसि | अत्तमना ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दुन्ति ।
सङ्गीतिसुत्तं निहितं दसमं।
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११. दसुत्तरसुत्तं
३५०. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि । तत्र खो आयस्मा सारिपुत्तो भिक्खू आमन्तेसि - “आवुसो भिक्खवे"ति ! “आवुसो''ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स पच्चस्सोसुं । आयस्मा सारिपुत्तो एतदवोच
"दसुत्तरं पवक्खामि, धम्मं निब्बानपत्तिया । दुक्खस्सन्तकिरियाय, सब्बगन्थप्पमोचनं" ।।
एको धम्मो
३५१. “एको, आवुसो, धम्मो बहुकारो, एको धम्मो भावेतब्बो, एको धम्मो परिज्ञय्यो, एको धम्मो पहातब्बो, एको धम्मो हानभागियो, एको धम्मो विसेसभागियो, एको धम्मो दुप्पटिविज्झो, एको धम्मो उप्पादेतब्बो, एको धम्मो अभिनेय्यो, एको धम्मो सच्छिकातब्बो।
(क) “कतमो एको धम्मो बहुकारो ? अप्पमादो कुसलेसु धम्मेसु । अयं एको धम्मो बहुकारो।
(ख) “कतमो एको धम्मो भावेतब्बो ? कायगतासति सातसहगता। अयं एको धम्मो भावेतब्बो।
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२१८
दीघनिकायो-३
(३.११.३५२-३५२)
(ग) “कतमो एको धम्मो परिज्ञेय्यो ? फस्सो सासवो उपादानियो । अयं एको धम्मो परि य्यो।
(घ) “कतमो एको धम्मो पहातब्बो ? अस्मिमानो। अयं एको धम्मो पहातब्बो ।
(ङ) “कतमो एको धम्मो हानभागियो? अयोनिसो मनसिकारो। अयं एको धम्मो हानभागियो।
(च) “कतमो एको धम्मो विसेसभागियो ? योनिसो मनसिकारो। अयं एको धम्मो विसेसभागियो।
(छ) “कतमो एको धम्मो दुप्पटिविज्झो ? आनन्तरिको चेतोसमाधि । अयं एको धम्मो दुप्पटिविज्झो।
(ज) “कतमो एको धम्मो उप्पादेतब्बो ? अकुप्पं आणं। अयं एको धम्मो उप्पादेतब्बो ।
(झ) “कतमो एको धम्मो अभिनेय्यो ? सब्बे सत्ता आहारहितिका। अयं एको धम्मो अभिनेय्यो।
(ञ) “कतमो एको धम्मो सच्छिकातब्बो ? अकुप्पा चेतोविमुत्ति। अयं एको धम्मो सच्छिकातब्बो ।
"इति इमे दस धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
ढे धम्मा
३५२. “द्वे धम्मा बहुकारा, द्वे धम्मा भावेतब्बा, द्वे धम्मा परि य्या, द्वे धम्मा
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११. दसुत्तरसुत्तं
पहातब्बा, द्वे धम्मा हानभागिया, द्वे धम्मा विसेसभागिया, द्वे धम्मा दुप्पटिविज्झा, द्वे धम्मा उप्पादेतब्बा, द्वे धम्मा अभिञ्ञेय्या, द्वे धम्मा सच्छिकातब्बा ।
(क) “ कतमे द्वे धम्मा बहुकारा ? सति च सम्पञ्ञञ्च । इमे द्वे धम्मा बहुकारा ।
(ख) " कतमे द्वे धम्मा भावेतब्बा ? समथो च विपस्सना च । इमे द्वे धम्मा भावेतब्बा |
(३.११.३५२-३५२)
(ग) “ कतमे द्वे धम्मा परिञेय्या ? नामञ्च रूपञ्च । इमे द्वे धम्मा परिञेय्या |
(घ) “ कतमे द्वे धम्मा पहातब्बा ? अविज्जा च भवतण्हा च । इमे द्वे धम्मा
पहातब्बा ।
(ङ) “ कतमे द्वे धम्मा हानभागिया ? दोवचस्सता च पापमित्तता च । इमे द्वे धम्मा हाभागिया ।
२१९
(च) “ कतमे द्वे धम्मा विसेसभागिया ? सोवचस्सता च कल्याणमित्तता च । इमे द्वे धम्मा विसेसभागिया ।
(छ) “ कतमे द्वे धम्मा दुप्पटिविज्झा ? यो च हेतु यो च पच्चयो सत्तानं संकिलेसाय, यो च हेतु यो च पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया । इमे द्वे धम्मा दुप्पटिविज्झा ।
(ज) “ कतमे द्वे धम्मा उप्पादेतब्बा ? द्वे आणानि - खये आणं, अनुप्पादे आणं । इमे द्वे धम्मा उप्पादेतब्बा ।
(झ) “ कतमे द्वे धम्मा अभिज्ञय्या ? द्वे धातुयो- सङ्घता च धातु असङ्घता च धातु । इमे द्वे धम्मा अभिय्या ।
(ञ) “ कतमे द्वे धम्मा सच्छिकातब्बा ? विज्जा च विमुत्ति च । इमे द्वे धम्मा सच्छिकातब्बा ।
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दीघनिकायो-३
" इति इमे वीसति धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा ।
२२०
तयो धम्मा
३५३. “तयो धम्मा बहुकारा, तयो धम्मा भावेतब्बा... पे०... तयो धम्मा सच्छिकातब्बा ।
(क) 'कतमे तयो धम्मा बहुकारा ? धमाधम्मप्पटिपत्ति । इमे तयो धम्मा बहुकारा ।
सप्पुरिससंसेवो, सद्धम्मस्सवनं,
(ख) “ कतमे तयो धम्मा भावेतब्बा ? तयो समाधी - सवितक्को सविचारो समाधि, अवितक्को विचारमत्तो समाधि, अवितक्को अविचारो समाधि । इमे तयो धम्मा भावेतब्बा |
44
(ग) “ कतमे तयो धम्मा परिञ्ञेय्या ? तिस्सो वेदना अदुक्खमसुखा वेदना । इमे तयो धम्मा परिञेय्या ।
(३.११.३५३-३५३)
(घ) “ कतमे तयो धम्मा पहातब्बा ? तिस्सो तण्हा - कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा । इमे तयो धम्मा पहातब्बा |
"
(ङ) “ कतमे तयो धम्मा हानभागिया ? तीणि अकुसलमूलानि - लोभो अकुसलमूलं, दोसो अकुसलमूलं, मोहो अकुसलमूलं । इमे तयो धम्मा हानभागिया ।
सुखा वेदना, दुक्खा वेदना,
(च) " कतमे तयो धम्मा विसेसभागिया ? तीणि कुसलमूलानि - अलोभो कुसलमूलं, अदोसो कुसलमूलं, अमोहो कुसलमूलं । इमे तयो धम्मा विसेसभागिया ।
(छ) “ कतमे तयो धम्मा दुष्पटिविज्झा ? तिस्सो निस्सरणिया धातुयो- कामानमेतं निस्सरणं यदिदं नेक्खम्मं, रूपानमेतं निस्सरणं यदिदं अरूपं, यं खो पन किञ्चि भूतं सङ्घतं पटिच्चसमुप्पन्नं, निरोधो तस्स निस्सरणं । इमे तयो धम्मा दुप्पटिविज्झा ।
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(३.११.३५४-३५४)
११. दसुत्तरसुत्तं
२२१
(ज) “कतमे तयो धम्मा उप्पादेतब्बा ? तीणि जाणानि- अतीतंसे जाणं, अनागतंसे आणं, पच्चुप्पन्नंसे आणं । इमे तयो धम्मा उप्पादेतब्बा ।
(झ) “कतमे तयो धम्मा अभिनेय्या ? तिस्सो धातुयो- कामधातु, रूपधातु, अरूपधातु । इमे तयो धम्मा अभिनेय्या ।
(ञ) “कतमे तयो धम्मा सच्छिकातब्बा? तिस्सो विज्जा- पुब्बेनिवासानुस्सतिञआणं विज्जा, सत्तानं चुतूपपाते आणं विज्जा, आसवानं खये आणं विज्जा | इमे तयो धम्मा सच्छिकातब्बा ।
“इति इमे तिंस धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
चत्तारो धम्मा ३५४. “चत्तारो धम्मा बहुकारा, चत्तारो धम्मा भावेतब्बा...पे०... चत्तारो धम्मा सच्छिकातब्बा।
(क) “कतमे चत्तारो धम्मा बहुकारा? चत्तारि चक्कानि- पतिरूपदेसवासो, सप्पुरिसूपनिस्सयो, अत्तसम्मापणिधि, पुब्बे च कतपुञता । इमे चत्तारो धम्मा बहुकारा ।
__ (ख) “कतमे चत्तारो धम्मा भावेतब्बा ? चत्तारो सतिपट्ठाना- इधावुसो, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। जम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। इमे चत्तारो धम्मा भावेतब्बा।
(ग) “कतमे चत्तारो धम्मा परिनेय्या? चत्तारो आहारा - कबळीकारो आहारो
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२२२
दीघनिकायो-३
(३.११.३५४-३५४)
ओळारिको वा सुखुमो वा, फस्सो दुतियो, मनोसञ्चेतना ततिया, विज्ञाणं चतुत्थं । इमे चत्तारो धम्मा परि य्या ।
(घ) “कतमे चत्तारो धम्मा पहातब्बा ? चत्तारो ओघा- कामोघो, भवोघो, दिट्ठोघो, अविज्जोघो । इमे चत्तारो धम्मा पहातब्बा ।
(ङ) “कतमे चत्तारो धम्मा हानभागिया ? चत्तारो योगा- कामयोगो, भवयोगो, दिट्ठियोगो, अविज्जायोगो। इमे चत्तारो धम्मा हानभागिया ।
(च) “कतमे चत्तारो धम्मा विसेसभागिया ? चत्तारो विसञ्जोगाकामयोगविसञोगो, भवयोगविसंयोगो, दिट्ठियोगविसञ्जोगो, अविज्जायोगविसंयोगो। इमे चत्तारो धम्मा विसेसभागिया ।
(छ) “कतमे चत्तारो धम्मा दुप्पटिविज्झा ? चत्तारो समाधी- हानभागियो समाधि, ठितिभागियो समाधि, विसेसभागियो समाधि, निब्बेधभागियो समाधि । इमे चत्तारो धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) “कतमे चत्तारो धम्मा उप्पादेतब्बा ? चत्तारि आणानि- धम्मे जाणं, अन्वये आणं, परिये आणं, सम्मुतिया आणं । इमे चत्तारो धम्मा उप्पादेतब्बा ।
(झ) “कतमे चत्तारो धम्मा अभिज्ञेय्या ? चत्तारि अरियसच्चानि- दुक्खं अरियसच्चं, दुक्खसमुदयं अरियसच्चं, दुक्खनिरोधं अरियसच्चं, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं । इमे चत्तारो धम्मा अभिनेय्या।
(ञ) “कतमे चत्तारो धम्मा सच्छिकातब्बा ? चत्तारि सामञफलानि- सोतापत्तिफलं, सकदागामिफलं, अनागामिफलं, अरहत्तफलं । इमे चत्तारो धम्मा सच्छिकातब्बा ।
___ “इति इमे चत्तारीसधम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
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(३.११.३५५-३५५)
११. दसुत्तरसुतं
२२३
पञ्च धम्मा
३५५. “पञ्च धम्मा बहुकारा...पे०... पञ्च धम्मा सच्छिकातब्बा |
(क) “कतमे पञ्च धम्मा बहुकारा ? पञ्च पधानियङ्गानि- इधावुसो, भिक्खु सद्धो होति, सद्दहति तथागतस्स बोधिं - 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा"ति । अप्पाबाधो होति अप्पातको समवेपाकिनिया गहणिया समन्नागतो नातिसीताय नाच्चुण्हाय मज्झिमाय पधानक्खमाय । असठो होति अमायावी यथाभूतमत्तानं आवीकत्ता सत्थरि वा विशंसु वा सब्रह्मचारीसु । आरद्धवीरियो विहरति अकुसलानं धम्मानं पहानाय. कसलानं धम्मानं उपसम्पदाय, थामवा दळ्हपरक्कमो अनिक्खित्तधरो कसलेस धम्मेसु । पञवा होति उदयत्थगामिनिया पाय समन्त्रागतो अरियाय निब्बेधिकाय सम्मा दुक्खक्खयगामिनिया। इमे पञ्च धम्मा बहुकारा ।
(ख) “कतमे पञ्च धम्मा भावेतब्बा? पञ्चङ्गिको सम्मासमाधि- पीतिफरणता, सुखफरणता, चेतोफरणता, आलोकफरणता, पच्चवेक्खणनिमित्तं । इमे पञ्च धम्मा भावेतब्बा।
(ग) “कतमे पञ्च धम्मा परि य्या ? पञ्चुपादानक्खन्धा- रूपुपादानक्खन्धो, वेदनुपादानक्खन्धो, सञ्जुपादानक्खन्धो, सङ्घारुपादानक्खन्धो विज्ञाणुपादानक्खन्धो । इमे पञ्च धम्मा परि य्या ।
(घ) “कतमे पञ्च धम्मा पहातब्बा ? पञ्च नीवरणानि- कामच्छन्दनीवरणं, ब्यापादनीवरणं, थिनमिद्धनीवरणं, उद्धच्चकुकुच्चनीवरणं, विचिकिच्छानीवरणं । इमे पञ्च धम्मा पहातब्बा।
(ङ) “कतमे पञ्च धम्मा हानभागिया ? पञ्च चेतोखिला- इधावुसो, भिक्खु सत्थरि कङ्घति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति । यो सो, आवुसो, भिक्खु सत्थरि कङ्घति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय । यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय
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२२४
दीघनिकायो-३
(३.११.३५५-३५५)
पधानाय । अयं पठमो चेतोखिलो । “पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु धम्मे कति विचिकिच्छति...पे०... सो कङ्घति विचिकिच्छति...पे०... सिक्खाय कति विचिकिच्छति...पे०... सब्रह्मचारीसु कुपितो होति अनत्तमनो आहतचित्तो खिलजातो, यो सो, आवुसो, भिक्खु सब्रह्मचारीसु कुपितो होति अनत्तमनो आहतचित्तो खिलजातो, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय । यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय । अयं पञ्चमो चेतोखिलो । इमे पञ्च धम्मा हानभागिया ।
(च) “कतमे पञ्च धम्मा विसेसभागिया ? पञ्चिन्द्रियानि- सद्धिन्द्रियं, वीरियिन्द्रियं, सतिन्द्रियं, समाधिन्द्रियं, पञ्जिन्द्रियं । इमे पञ्च धम्मा विसेसभागिया।
(छ) “कतमे पञ्च धम्मा दुप्पटिविज्झा ? पञ्च निस्सरणिया धातुयो- इधावुसो, भिक्खुनो कामे मनसिकरोतो कामेसु चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति । नेक्खम्मं खो पनस्स मनसिकरोतो नेक्खम्मे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति । तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्टितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं कामेहि । ये च कामपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विधाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि। न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं कामानं निस्सरणं।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो ब्यापादं मनसिकरोतो ब्यापादे चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति । अब्यापादं खो पनस्स मनसिकरोतो अब्यापादे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति । तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्टितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं ब्यापादेन । ये च ब्यापादपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विधाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि। न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं ब्यापादस्स निस्सरणं।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो विहेसं मनसिकरोतो विहेसाय चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति । अविहेसं खो पनस्स मनसिकरोतो अविहेसाय चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति । तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्टितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं विहेसाय । ये च विहेसापच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि। न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं विहेसाय निस्सरणं ।
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११. दसुत्तरसुतं
" पुन चपरं आवुसो, भिक्खुनो रूपे मनसिकरोतो रूपेसु चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति । अरूपं खो पनस्स मनसिकरोतो अरूपे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति । तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं रूपेहि । ये च रूपपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि। न सो तं वेदनं वेदेति । इदमक्खातं रूपानं निस्सरणं ।
(३.११.३५५-३५५)
" पुन चपरं आवुसो, भिक्खुनो सक्कायं मनसिकरोतो सक्काये चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति । सक्कायनिरोधं खो पनस्स मनसिकरोतो सक्कायनिरोधे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति । तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं सक्कायेन । ये च सक्कायपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि । न सो तं वेदनं वेदेति । इदमक्खातं सक्कायस्स निस्सरणं । इमे पञ्च धम्मा दुप्पटिविज्झा |
(ज) “ कतमे पञ्च धम्मा उप्पादेतब्बा ? पञ्च आणिको सम्मासमाधि - "अयं समाधि पच्चुप्पन्नसुखो चेव आयतिञ्च सुखविपाको 'ति पच्चत्तंयेव आणं उप्पज्जति । "अयं समाधि अरियो निरामिसोति पच्चत्तञ्ञेव आणं उप्पज्जति । " अयं समाधि अकापुरिससेवितो 'ति पच्चत्तंयेव जाणं उप्पज्जति । " अयं समाधि सन्तो पणीतो पटिप्पस्सद्धलद्धो एकोदिभावाधिगतो, न ससङ्घारनिग्गय्हवारितगतो 'ति पच्चत्तंयेव आणं उप्पज्जति । “सो खो पनाहं इमं समाधिं सतोव समापज्जामि सतो वुट्ठहामी "ति पच्चत्तंयेव आणं उप्पज्जति । इमे पञ्च धम्मा उप्पादेतब्बा ।
२२५
(झ) “कतमे पञ्च धम्मा अभिज्ञेय्या ? पञ्च विमुत्तायतनानि - इधावुसो, भिक्खुनो सत्था धम्मं देसेति अञ्ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी । यथा यथा, आवुसो, भिक्खु सत्था धम्मं देसेति, अञ्ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी, तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थप्पटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च । तस्स अत्थप्पटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धका सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति । इदं पठमं विमुत्तायतनं ।
“पुन चपरं आवुसो, भिक्खुनो न हेव खो सत्था धम्मं देसेति अञ्ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी, अपि च खो यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति ।
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दीघनिकायो-३
(३.११.३५५-३५५)
यथा यथा, आवसो, भिक्ख यथासूतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति । तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थप्पटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च । तस्स अत्थप्पटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति । इदं दुतियं विमुत्तायतनं ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो न हेव खो सत्था धम्मं देसेति, अञ्जतरो वा गरुठ्ठानियो सब्रह्मचारी, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति । अपि च खो, यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन सज्झायं करोति । यथा यथा, आवुसो, भिक्खु यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन सज्झायं करोति । तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थप्पटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च । तस्स अत्थप्पटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति । इदं ततियं विमुत्तायतनं ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो न हेव खो सत्था धम्मं देसेति, अञ्जतरो वा गरुठ्ठानियो सब्रह्मचारी, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन सज्झायं करोति । अपि च खो, यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं चेतसा अनुवितक्केति अनुविचारेति मनसानुपेक्खति । यथा यथा, आवुसो, भिक्खु यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं चेतसा अनुवितक्केति अनुविचारेति मनसानुपेक्खति तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थप्पटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च। तस्स अत्थप्पटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति । इदं चतुत्थं
विमुत्तायतन।
___ "पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो न हेव खो सत्था धम्मं देसेति, अञ्जतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन सज्झायं करोति, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्म चेतसा अनुवितक्केति अनुविचारेति मनसानुपेक्खति; अपि च ख्वस्स अञतरं समाधिनिमित्तं सुग्गहितं होति सुमनसिकतं सूपधारितं सुप्पटिविद्धं पञाय | यथा यथा, आवुसो, भिक्खुनो अञ्जतरं समाधिनिमित्तं सुग्गहितं होति सुमनसिकतं सूपधारितं
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(३.११.३५६-३५६)
११. दसुत्तरसुत्तं
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सुप्पटिविद्धं पञ्जाय । तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थप्पटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च । तस्स अत्थप्पटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति । इदं पञ्चमं विमुत्तायतनं । इमे पञ्च धम्मा अभिशेय्या ।
(ञ) “कतमे पञ्च धम्मा सच्छिकातब्बा ? पञ्च धम्मक्खन्धा- सीलक्खन्धो, समाधिक्खन्धो, पाक्खन्धो, विमुत्तिक्खन्धो, विमुत्तित्राणदस्सनक्खन्धो । इमे पञ्च धम्मा सच्छिकातब्बा।
___ "इति इमे पास धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
छ धम्मा
३५६. “छ धम्मा बहुकारा...पे०... छ धम्मा सच्छिकातब्बा ।
(क) “कतमे छ धम्मा बहुकारा ? छ सारणीया धम्मा। इधावुसो, भिक्खुनो मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्टितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च, अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो मेत्तं वचीकम्म...पे०... एकीभावाय संवत्तति ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो मेत्तं मनोकम्म...पे०... एकीभावाय संवत्तति ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु ये ते लाभा धम्मिका धम्मलद्धा अन्तमसो पत्तपरियापन्नमत्तम्पि, तथारूपेहि लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी होति सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी, अयम्पि धम्मो सारणीयो...पे०... एकीभावाय संवत्तति ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु, यानि तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विझुप्पसत्थानि अपरामट्ठानि समाधिसंवत्तनिकानि,
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२२८
दीघनिकायो-३
(३.११.३५६-३५६)
तथारूपेसु सीलेसु सीलसामञ्जगतो विहरति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च, अयम्पि धम्मो सारणीयो...पे०... एकीभावाय संवत्तति ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय, तथारूपाय दिट्ठिया दिट्ठि सामञ्जगतो विहरति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च, अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो, सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति । इमे छ धम्मा बहुकारा ।
(ख) “कतमे छ धम्मा भावेतब्बा ? छ अनुस्सतिद्वानानि - बुद्धानुस्सति, धम्मानुस्सति, सङ्घानुस्सति, सीलानुस्सति, चागानुस्सति, देवतानुस्सति । इमे छ धम्मा भावेतब्बा।
(ग) “कतमे छ धम्मा परि य्या ? छ अज्झत्तिकानि आयतनानि- चक्खायतनं, सोतायतनं, घानायतनं, जिव्हायतनं, कायायतनं, मनायतनं । इमे छ धम्मा परि य्या।
(घ) “कतमे छ धम्मा पहातब्बा ? छ तण्हाकाया- रूपतण्हा, सद्दतण्हा, गन्धतण्हा, रसतण्हा, फोठुब्बतण्हा, धम्मतण्हा | इमे छ धम्मा पहातब्बा ।
(ङ) “कतमे छ धम्मा हानभागिया ? छ अगारवा- इधावुसो, भिक्खु सत्थरि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो । धम्मे...पे०...। सङ्घ । सिक्खाय । अप्पमादे । पटिसन्थारे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो । इमे छ धम्मा हानभागिया।
(च) “कतमे छ धम्मा विसेसभागिया? छ गारवा- इधावुसो, भिक्खु सत्थरि सगारवो विहरति सप्पतिस्सो धम्मे...पे०...। सर्छ । सिक्खाय । अप्पमादे । पटिसन्थारे सगारवो विहरति सप्पतिस्सो | इमे छ धम्मा विसेसभागिया ।
(छ) “कतमे छ धम्मा दुप्पटिविज्झा ? छ निस्सरणिया धातुयो- इधावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य - “मेत्ता हि खो मे, चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, अथ च पन मे ब्यापादो चित्तं परियादाय तिकृती"ति । सो “मा हेवं" तिस्स वचनीयो “मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि । न
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(३.११.३५६-३५६)
११. दसुत्तरसुत्तं
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हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य । अट्ठानमेतं आवुसो अनवकासो यं मेत्ताय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुहिताय परिचिताय सुसमारद्धाय । अथ च पनस्स ब्यापादो चित्तं परियादाय ठस्सतीति, नेतं ठानं विज्जति । निस्सरणं हेतं, आवुसो, ब्यापादस्स, यदिदं मेत्ताचेतोविमुत्ती''ति ।
"इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य - "करुणा हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा । अथ च पन मे विहेसा चित्तं परियादाय तिकृती"ति । सो- “मा हेवं" तिस्स वचनीयो, “मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि...पे०... निस्सरणं हेतं, आवुसो, विहेसाय, यदिदं करुणाचेतो विमुत्तीति ।
___ "इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य - “मुदिता हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता...पे०... अथ च पन मे अरति चित्तं परियादाय तिकृती"ति । सो- “मा हेवं" तिस्स वचनीयो “मायस्मा एवं अवच...पे०... निस्सरणं हेतं, आवुसो अरतिया, यदिदं मुदिताचेतोविमुत्ती''ति ।
“इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य - "उपेक्खा हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता...पे०... अथ च पन मे रागो चित्तं परियादाय तिकृती"ति । सो - "मा हेवं" तिस्स वचनीयो “मायस्मा एवं अवच...पे०... निस्सरणं हेतं, आवुसो, रागस्स यदिदं उपेक्खाचेतोविमुत्ती'ति ।
"इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य - “अनिमित्ता हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता...पे०... अथ च पन मे निमित्तानुसारि विज्ञाणं होती''ति । सो- “मा हेवं" तिस्स वचनीयो “मायस्मा एवं अवच...पे०... निस्सरणं हेतं, आवुसो, सब्बनिमित्तानं यदिदं अनिमित्ता चेतोविमुत्ती"ति ।
“इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – “अस्मीति खो मे विगतं, अयमहमस्मीति न समनुपस्सामि, अथ च पन मे विचिकिच्छाकथंकथासल्लं चित्तं परियादाय तिकृती"ति । सो- “मा हेवं" तिस्स वचनीयो “मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि,
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दीघनिकायो-३
(३.११.३५६-३५६)
न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य । अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो यं अस्मीति विगते अयमहमस्मीति असमनुपस्सतो। अथ च पनस्स विचिकिच्छाकथंकथासल्लं चित्तं परियादाय ठस्सति, नेतं ठानं विज्जति । निस्सरणं हेतं, आवुसो, विचिकिच्छाकथंकथासल्लस्स, यदिदं अस्मिमानसमुग्घाटो''ति । इमे छ धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) “कतमे छ धम्मा उप्पादेतब्बा ? छ सततविहारा। इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। सोतेन सदं सुत्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। घानेन गन्धं पायित्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। जिव्हाय रसं सायित्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। कायेन फोटुब्बं फुसित्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। मनसा धम्म विआय नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। इमे छ धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) “कतमे छ धम्मा अभिज्ञेय्या ? छ अनुत्तरियानि- दस्सनानुत्तरियं, सवनानुत्तरियं, लाभानुत्तरियं, सिक्खानुत्तरियं, पारिचरियानुत्तरियं, अनुस्सतानुत्तरियं । इमे छ धम्मा अभिज्ञेय्या ।
(ञ) “कतमे छ धम्मा सच्छिकातब्बा ? छ अभिञा- इधावुसो, भिक्खु अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति - एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति । आविभावं तिरोभावं । तिरोकुटुं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे । पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति सेय्यथापि उदके । उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति सेय्यथापि पथवियं । आकासेपि पल्लङ्केन कमति सेय्यथापि पक्खी सकुणो । इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति । याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति ।
___“दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणाति दिब्बे च मानुसे च, ये दूरे सन्तिके च ।
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(३.११.३५७-३५७)
११. दसुत्तरसुत्तं
२३१
"परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानाति, सरागं वा चित्तं सरागं चित्तन्ति पजानाति...पे०... अविमुत्तं वा चित्तं अविमुत्तं चित्तन्ति पजानाति ।
"सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं एकम्पि जातिं...पे०... इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति ।
“दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति...पे०...।
“आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञाविमुत्तिं दिढेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति । इमे छ धम्मा सच्छिकातब्बा ।
"इति इमे सट्ठि धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा ।
सत्त धम्मा
३५७. “सत्त धम्मा बहुकारा...पे०... सत्त धम्मा सच्छिकातब्बा ।
(क) “कतमे सत्त धम्मा बहुकारा ? सत्त अरियधनानि- सद्धाधनं, सीलधनं, हिरिधनं, ओत्तप्पधनं, सुतधनं, चागधनं, पञाधनं । इमे सत्त धम्मा बहुकारा ।
(ख) “कतमे सत्त धम्मा भावेतब्बा ? सत्त सम्बोज्झङ्गा- सतिसम्बोज्झङ्गो, धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो, वीरियसम्बोज्झङ्गो, . पीतिसम्बोज्झङ्गो, पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो, समाधिसम्बोज्झङ्गो, उपेक्खासम्बोज्झङ्गो । इमे सत्त धम्मा भावेतब्बा।
(ग) “कतमे सत्त धम्मा परि य्या ? सत्त विञआणवितियो- सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया नानत्तसञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्चे च देवा एकच्चे च विनिपातिका । अयं पठमा विज्ञाणट्ठिति ।
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२३२
दीघनिकायो-३
“सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका पठमाभिनिब्बत्ता । अयं दुतिया विञ्ञाणट्ठिति ।
" सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा आभस्सरा । अयं ततिया विञ्ञाणद्विति ।
“सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा । अयं चतुथी विञट्ठिति ।
(३.११.३५७-३५७)
“सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो रूपसञ्जनं समतिक्कमा...पे०... आकासो’ति आकासानञ्चायतनूपगा । अयं पञ्चमी विञ्ञाणट्ठिति ।
" सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म “ अनन्तं विञ्ञाण "न्ति विञ्ञाणञ्चायतनूपगा । अयं छट्ठी विञ्ञाणट्ठिति ।
" सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची" ति आकिञ्चञ्ञायतनूपगा । अयं सत्तमी विञ्ञाणट्ठिति । इमे सत्त धम्मा परिञेय्या ।
(ङ) " कतमे सत्त धम्मा हानभागिया ? सत्त असद्धम्माहोति, अहिरिको होति, अनोत्तप्पी होति, अप्पस्सुतो होति, होति, दुप्पञ्ञ होति । इमे सत्त धम्मा हानभागिया ।
(घ) “ कतमे सत्त धम्मा पहातब्बा ? सत्तानुसया - कामरागानुसयो, पटिघानुसयो, दिट्ठानुसयो, विचिकिच्छानुसयो, मानानुसयो, भवरागानुसयो, अविज्जानुयो । इमे त्
धम्मा पहातब्बा ।
“अनन्तो
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इधावुसो, भिक्खु सद्धो
(च) “ कतमे सत्त धम्मा विसेसभागिया ? सत्त सद्धम्माहोति, हिरिमा होति, ओत्तप्पी होति, बहुस्सुतो होति, आरद्धवीरियो होति, उपट्ठितस्सति होति, पञ्ञवा होति । इमे सत्त धम्मा विसेसभागिया ।
इधावुसो, भिक्खु अस्सद्धो कुसीतो होति, मुट्ठस्सति
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(३.११.३५७-३५७)
११. दसुत्तरसुत्तं
२३३
(छ) “कतमे सत्त धम्मा दुप्पटिविज्झा ? सत्त सप्पुरिसधम्मा- इधावुसो, भिक्खु धम्मञ्जू च होति अत्थशं च अत्तञ्जू च मत्तञ्जू च कालङ्घ च परिसञ्जू च पुग्गलञ्जू च । इमे सत्त धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) “कतमे सत्त धम्मा उप्पादेतब्बा ? सत्त सञ्जा- अनिच्चसञ्जा, अनत्तसञ्जा, असुभसा, आदीनवसा, पहानसा, विरागसा, निरोधसा। इमे सत्त धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) “कतमे सत्त धम्मा अभिनेय्या ? सत्त निद्दसवत्थूनि- इधावुसो, भिक्खु सिक्खासमादाने तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च सिक्खासमादाने अविगतपेमो । धम्मनिसन्तिया तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च धम्मनिसन्तिया अविगतपेमो। इच्छाविनये तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च इच्छाविनये अविगतपेमो । पटिसल्लाने तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च पटिसल्लाने अविगतपेमो। वीरियारम्मे तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च वीरियारम्मे अविगतपेमो। सतिनेपक्के तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च सतिनेपक्के अविगतपेमो । दिट्ठिपटिवेधे तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च दिट्टिपटिवेधे अविगतपेमो । इमे सत्त धम्मा अभि य्या।
(ञ) “कतमे सत्त धम्मा सच्छिकातब्बा ? सत्त खीणासवबलानि- इधावुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो अनिच्चतो सब्बे सङ्घारा यथाभूतं सम्मप्पाय सुदिट्ठा होन्ति । यंपासो, खीणासवस्स भिक्खुनो अनिच्चतो सब्बे सङ्घारा यथाभूतं सम्मप्पआय सुदिट्ठा होन्ति, इदम्पि खीणासवस्स भिक्खुनो बलं होति, यं बलं आगम्म खीणासवो भिक्खु आसवानं खयं पटिजानाति- "खीणा मे आसवा"ति।
___ "पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो अङ्गारकासूपमा कामा यथाभूतं सम्मप्पञ्जाय सुदिट्ठा होन्ति । यंपावुसो...पे०... “खीणा मे आसवा''ति ।
"पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो विवेकनिन्नं चित्तं होति विवेकपोणं विवेकपब्भारं विवेकट्ठ नेक्खम्माभिरतं ब्यन्तीभूतं सब्बसो आसवठ्ठानियोहे धम्मेहि । यंपावूसो...पे०... "खीणा मे आसवा''ति ।
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२३४
दीघनिकायो-३
(३.११.३५८-३५८)
__"पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो चत्तारो सतिपट्टाना भाविता होन्ति सुभाविता । यंपावुसो...पे०... “खीणा मे आसवा'ति ।
“पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो पञ्चिन्द्रियानि भावितानि होन्ति सुभावितानि । यंपावुसो...पे०... “खीणा मे आसवा''ति ।
“पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो सत्त बोज्झङ्गा भाविता होन्ति सुभाविता । यंपावुसो...पे०... “खीणा मे आसवा''ति ।
“पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो भावितो होति सुभावितो । यंपावुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो भावितो होति सुभावितो, इदम्पि खीणासवस्स भिक्खुनो बलं होति, यं बलं आगम्म खीणासवो भिक्खु आसवानं खयं पटिजानाति- “खीणा मे आसवा''ति । इमे सत्त धम्मा सच्छिकातब्बा।
“इतिमे सत्तति धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा ।
पठमभाणवारो निहितो।
अट्ठ धम्मा
३५८. “अट्ठ धम्मा बहुकारा...पे०... अट्ठ धम्मा सच्छिकातब्बा ।
(क) “कतमे अट्ठ धम्मा बहुकारा ? अट्ट हेतू अट्ठ पच्चया आदिब्रह्मचरियिकाय पाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तन्ति । कतमे अट्ठ ? इधावुसो, भिक्खु सत्थारं उपनिस्साय विहरति अञ्जतरं वा गरुट्ठानियं सब्रह्मचारिं, यत्थस्स तिब्बं हिरोत्तप्पं पच्चुपट्टितं होति पेमञ्च
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(३.११.३५८-३५८)
११. दसुत्तरसुत्तं
२३५
गारवो च । अयं पठमो हेतु पठमो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्जाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय । पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति ।
"तं खो पन सत्थारं उपनिस्साय विहरति अञ्जतरं वा गरुट्ठानियं सब्रह्मचारिं, यत्थस्स तिब्बं हिरोत्तप्पं पच्चुपट्टितं होति पेमञ्च गारवो च। ते कालेन कालं उपसमित्वा परिपच्छति परिपहति- "इदं. भन्ते, कथं ? इमस्स को अत्थो"ति ? तस्स ते आयस्मन्तो अविवटञ्चेव विवरन्ति, अनुत्तानीकतञ्च उत्तानी करोन्ति, अनेकविहितेसु च काहानियेसु धम्मेसु कथं पटिविनोदेन्ति । अयं दुतियो हेतु दुतियो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय, वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति ।
"तं खो पन धम्मं सुत्वा द्वयेन वूपकासेन सम्पादेति- कायवूपकासेन च चित्तवूपकासेन च । अयं ततियो हेतु ततियो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्जाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सीलवा होति, पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो, अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु । अयं चतुत्थो हेतु चतुत्थो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु बहुस्सुतो होति सुतधरो सुतसन्निचयो । ये ते धम्मा आदिकल्याणा मज्झेकल्याणा परियोसानकल्याणा सात्था सब्यञ्जना केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं अभिवदन्ति, तथारूपास्स धम्मा बहुस्सुता होन्ति धाता वचसा परिचिता मनसानुपेक्खिता दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा। अयं पञ्चमो हेतु पञ्चमो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु आरद्धवीरियो विहरति अकुसलानं धम्मानं पहानाय, कुसलानं धम्मानं उपसम्पदाय, थामवा दळहपरक्कमो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मसु । अयं
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२३६
दीघनिकायो-३
(३.११.३५८-३५८)
छट्ठो हेतु छट्ठो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्चाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति ।
___"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सतिमा होति परमेन सतिनेपक्केन समन्नागतो । चिरकतम्पि चिरभासितम्पि सरिता अनुस्सरिता। अयं सत्तमो हेतु सत्तमो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु, उदयब्बयानुपस्सी विहरति"इति रूपं इति रूपस्स समुदयो इति रूपस्स अत्थङ्गमोः इति वेदना इति वेदनाय समुदयो इति वेदनाय अत्थङ्गमोः इति सज्ञा इति सञआय समुदयो इति सज्ञाय अत्थङ्गमो इति सङ्घारा इति सङ्घारानं समुदयो इति सङ्घारानं अत्थङ्गमो; इति विज्ञाणं इति विज्ञाणस्स समुदयो इति विज्ञाणस्स अत्थङ्गमो"ति। अयं अट्ठमो हेतु अट्ठमो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति । इमे अट्ठ धम्मा बहुकारा ।
(ख) “कतमे अट्ठ धम्मा भावेतब्बा ? अरियो अटुङ्गिको मग्गो सेय्यथिदं - सम्मादिट्ठि, सम्मासङ्कप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माआजीवो, सम्मावायामो, सम्मासति, सम्मासमाधि । इमे अट्ठ धम्मा भावेतब्बा ।
(ग) “कतमे अट्ठ धम्मा परिज्ञेय्या ? अट्ठ लोकधम्मा- लाभो च, अलाभो च, यसो च, अयसो च, निन्दा च, पसंसा च, सुखञ्च, दुक्खञ्च । इमे अट्ठ धम्मा परि य्या ।
(घ) “कतमे अट्ठ धम्मा पहातब्बा? अट्ठ मिच्छत्ता- मिच्छादिट्टि, मिच्छासङ्कप्पो, मिच्छावाचा, मिच्छाकम्मन्तो, मिच्छाआजीवो, मिच्छावायामो, मिच्छासति, मिच्छासमाधि | इमे अट्ठ धम्मा पहातब्बा ।
(ङ) “कतमे अट्ठ धम्मा हानभागिया ? अट्ठ कुसीतवत्थूनि । इधावुसो, भिक्खुना कम्मं कातब्बं होति, तस्स एवं होति – “कम्मं खो मे कातब्बं भविस्सति, कम्मं खो
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(३.११.३५८-३५८)
११. दसुत्तरसुत्तं
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पन मे करोन्तस्स कायो किलमिस्सति, हन्दाहं निपज्जामी"ति । सो निपज्जति, न वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय । इदं पठमं कुसीतवत्थु ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना कम्मं कतं होति । तस्स एवं होति - “अहं खो कम्मं अकासिं, कम्मं खो पन मे करोन्तस्स कायो किलन्तो, हन्दाहं निपज्जामी"ति । सो निपज्जति, न वीरियं आरभति...पे०... । इदं दुतियं कुसीतवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गन्तब्बो होति । तस्स एवं होति - “मग्गो खो मे गन्तब्बो भविस्सति, मग्गं खो पन मे गच्छन्तस्स कायो किलमिस्सति, हन्दाहं निपज्जामी''ति । सो निपज्जति, न वीरियं आरभति...पे०...। इदं ततियं कुसीतवत्थु ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गतो होति । तस्स एवं होति - “अहं खो मग्गं अगमासिं, मग्गं खो पन मे गच्छन्तस्स कायो किलन्तो, हन्दाहं निपज्जामी'ति । सो निपज्जति, न वीरियं आरभति...पे०... । इदं चतुत्थं कुसीतवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो न लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति-- “अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो नालत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरि, तस्स मे कायो किलन्तो अकम्मो , हन्दाहं निपज्जामी"ति...पे०...। इदं पञ्चमं कुसीतवत्थु ।
___“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति- अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो अलत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं, तस्स मे कायो गरुको अकम्मो , मासाचितं मझे, हन्दाहं निपज्जामी''ति । सो निपज्जति...पे०... । इदं छठें कुसीतवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो उप्पन्नो होति अप्पमत्तको आबाधो, तस्स एवं
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(३.११.३५८-३५८)
होति - "उप्पन्नो खो मे अयं अप्पमत्तको आबाधो अस्थि कप्पो निपज्जितुं, हन्दाहं निपज्जामी''ति । सो निपज्जति...पे०... । इदं सत्तमं कुसीतवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गिलानावुट्ठितो होति अचिरवुट्ठितो गेलञा । तस्स एवं होति - “अहं खो गिलानावुट्ठितो अचिरवुट्टितो गेलञा। तस्स मे कायो दुब्बलो अकम्मो , हन्दाहं निपज्जामी'ति । सो निपज्जति...पे०... । इदं अट्ठमं कुसीतवत्थु । इमे अट्ठ धम्मा हानभागिया ।
(च) “कतमे अट्ठ धम्मा विसेसभागिया ? अट्ठ आरम्भवत्थूनि । इधावुसो, भिक्खुना कम्मं कातब् होति, तस्स एवं होति - 'कम्मं खो मे कातब्बं भविस्सति, कम्मं खो पन मे करोन्तेन न सुकरं बुद्धानं सासनं मनसिकातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाया"ति । सो वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय । इदं पठमं आरम्भवत्थु ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना कम्मं कतं होति । तस्स एवं होति - अहं खो कम्मं अकासिं, कम्मं खो पनाहं करोन्तो नासक्खिं बुद्धानं सासनं मनसिकातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०... । इदं दुतियं आरम्भवत्थु ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गन्तब्बो होति । तस्स एवं होति- मग्गो खो मे गन्तब्बो भविस्सति, मग्गं खो पन मे गच्छन्तेन न सुकरं बुद्धानं सासनं मनसिकातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०... । इदं ततियं आरम्भवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गतो होति । तस्स एवं होति - अहं खो मग्गं अगमासिं, मग्गं खो पनाहं गच्छन्तो नासक्खिं बुद्धानं सासनं मनसिकातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०... | इदं चतुत्थं आरम्भवत्थु ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो न लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरि। तस्स एवं होति- अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो नालत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं
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११. दसुत्तरसुत्तं ..
११. दसुत्तरसुत्तं
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पारिपूरिं, तस्स मे कायो लहुको कम्मो , हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०...। इदं पञ्चमं आरम्भवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं । तस्स एवं होति-- अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो अलत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स मे कायो बलवा कम्मो , हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०...। इदं छटुं आरम्भवत्थु ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो उप्पन्नो होति अप्पमत्तको आबाधो। तस्स एवं होति - उप्पन्नो खो मे अयं अप्पमत्तको आबाधो ठानं खो पनेतं विज्जति, यं मे आबाधो पवड्डेय्य, हन्दाहं वीरियं आरभामि...पे०... । इदं सत्तमं आरम्भवत्थु ।
___ “पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गिलाना वुट्ठितो होति अचिरवुट्ठितो गेलञा। तस्स एवं होति - “अहं खो गिलाना बुट्टितो अचिरवुट्टितो गेला , ठानं खो पनेतं विज्जति, यं मे आबाधो पच्चुदावत्तेय्य, हन्दाहं वीरियं आरभामि अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाया'ति । सो वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय । इदं अट्ठमं आरम्भवत्थु । इमे अट्ठ धम्मा विसेसभागिया ।
(छ) “कतमे अट्ठ धम्मा दुप्पटिविज्झा ? अट्ठ अक्खणा असमया ब्रह्मचरियवासाय । इधावुसो, तथागतो च लोके उप्पन्नो होति अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च देसियति
ओपसमिको परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो । अयञ्च पुग्गलो निरयं उपपन्नो होति । अयं पठमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
“पुन चपरं, आवुसो, तथागतो च लोके उप्पन्नो होति अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च देसियति ओपसमिको परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो, अयञ्च पुग्गलो तिरच्छानयोनिं उप्पन्नो होति । अयं दुतियो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
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दीघनिकायो-३
(३.११.३५८-३५८)
"पुन चपरं...पे०... पेत्तिविसयं उपपन्नो होति । अयं ततियो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
"पुन चपरं...पे०... अञतरं दीघायुकं देवनिकायं उपपन्नो होति । अयं चतुत्थो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
"पुन चपरं...पे०... पच्चन्तिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति मिलक्खेसु अविज्ञातारेसु, यत्थ नत्थि गति भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं । अयं पञ्चमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
"पुन चपरं...पे०... अयञ्च पुग्गलो मज्झिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति, सो च होति मिच्छादिट्ठिको विपरीतदस्सनो- “नत्थि दिन्नं, नत्थि यिटुं, नत्थि हुतं, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, नत्थि अयं लोको, नत्थि परो लोको, नत्थि माता, नत्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेन्तीति । अयं छट्ठो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
"पुन चपरं...पे०... अयञ्च पुग्गलो मज्झिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति, सो च होति दुप्पो जळो एळमूगो, नप्पटिबलो सुभासितदुब्भासितानमत्थमञातुं । अयं सत्तमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय ।
"पुन चपरं...पे०... अयञ्च पुग्गलो मज्झिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति, सो च होति पञवा अजळो अनेळमूगो, पटिबलो सुभासितदुब्भासितानमत्थमातुं । अयं अट्ठमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय । इमे अट्ठ धम्मा दुप्पटिविज्झा ।
(ज) “कतमे अट्ठ धम्मा उप्पादेतब्बा ? अट्ठ महापुरिसवितक्का- अप्पिच्छस्सायं धम्मो, नायं धम्मो महिच्छस्स । सन्तुट्ठस्सायं धम्मो, नायं धम्मो असन्तुट्ठस्स । पविवित्तस्सायं धम्मो, नायं धम्मो सङ्गणिकारामस्स । आरद्धवीरियस्सायं धम्मो, नायं धम्मो, कुसीतस्स । उपद्वितसतिस्सायं धम्मो, नायं धम्मो मुट्ठस्सतिस्स । समाहितस्सायं धम्मो, नायं धम्मो
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(३.११.३५८-३५८)
११. दसुत्तरसुत्तं
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असमाहितस्स । पञवतो अयं धम्मो, नायं धम्मो दुप्पञस्स । निप्पपञ्चस्सायं धम्मो, नायं धम्मो पपञ्चारामस्साति । इमे अट्ठ धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) “कतमे अट्ठ धम्मा अभिनेय्या ? अट्ठ अभिभायतनानि- अज्झत्तं रूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि, “तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी''ति - एवंसजी होति । इदं पठमं अभिभायतनं ।
__“अज्झत्तं रूपसजी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि, "तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी''ति - एवंसझी होति । इदं दुतियं अभिभायतनं ।
___“अज्झत्तं अरूपसझी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि, "तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी''ति एवंसझी होति । इदं ततियं अभिभायतनं ।
"अज्झत्तं अरूपसी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि, “तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी"ति एवंसञ्जी होति । इदं चतुत्थं अभिभायतनं ।
“अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि । सेय्यथापि नाम उमापुष्फ नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं । सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमटुं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं, एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि, “तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी''ति एवंसञी होति । इदं पञ्चमं अभिभायतनं ।
___ “अज्झत्तं अरूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि । सेय्यथापि नाम कणिकारपुष्पं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं । सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमटुं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं, एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्जी एको बाहेद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि, “तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी"ति एवंसझी होति । इदं छठें अभिभायतनं ।
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दीघनिकायो-३
(३.११.३५८-३५८)
"अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि । सेय्यथापि नाम बन्धुजीवकपुष्पं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमटुं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं, एवमेव अज्झत्तं अरूपसजी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि, “तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी''ति एवंसजी होति । इदं सत्तमं अभिभायतनं ।
“अज्झत्तं अरूपसजी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि । सेय्यथापि नाम ओसधितारका ओदाता ओदातवण्णा ओदातनिदस्सना ओदातनिभासा, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमटुं ओदातं ओदातवण्णं ओदातनिदस्सनं ओदातनिभासं, एवमेव अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि, "तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी''ति एवंसञ्जी होति । इदं अट्ठमं अभिभायतनं । इमे अट्ठ धम्मा अभिज्ञेय्या ।।
(ञ) “कतमे अट्ठ धम्मा सच्छिकातब्बा ? अट्ठ विमोक्खा- रूपी रूपानि पस्सति । अयं पठमो विमोक्खो।
"अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति । अयं दुतियो विमोक्खो ।
"सुभन्तेव अधिमुत्तो होति । अयं ततियो विमोक्खो ।
"सब्बसो रूपसञानं समतिक्कमा पटिघसञ्जानं अत्थङ्गमा नानत्तसज्ञानं अमनसिकारा “अनन्तो आकासो''ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । अयं चतुत्थो विमोक्खो।
"सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म “अनन्तं विज्ञाण"न्ति विज्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । अयं पञ्चमो विमोक्खो ।
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(३.११.३५९-३५९)
११. दसुत्तरसुत्तं
२४३
"सब्बसो विज्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची"ति आकिञ्चञायतनं उपसम्पज्ज विहरति । अयं छट्ठो विमोक्खो ।
“सब्बसो आकिञ्चायतनं समतिक्कम्म नेवसझानासज्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति । अयं सत्तमो विमोक्खो।
"सब्बसो नेवसञ्जानासायतनं समतिक्कम्म सञ्जावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति । अयं अट्ठमो विमोक्खो। इमे अट्ठ धम्मा सच्छिकातब्बा ।
“इति इमे असीति धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
नव धम्मा
३५९. “नव धम्मा बहुकारा...पे०... नव धम्मा सच्छिकातब्बा |
(क) “कतमे नव धम्मा बहुकारा? नव योनिसोमनसिकारमूलका धम्मा, योनिसोमनसिकरोतो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति, समाहिते चित्ते यथाभूतं जानाति पस्सति, यथाभूतं जानं पस्सं निबिन्दति, निबिन्दं विरज्जति, विरागा विमुच्चति । इमे नव धम्मा बहुकारा ।
(ख) “कतमे नव धम्मा भावेतब्बा ? नव पारिसुद्धिपधानियङ्गानि- सीलविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, चित्तविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, दिट्ठिविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, कढावितरणविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियॉ, मग्गामग्गजाणदस्सन - पारिसुद्धिपधानियङ्गं, पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, आणदस्सनविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं पञ्जाविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्ग, विमुत्तिविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं । इमे नव धम्मा भावेतब्बा।
(ग) “कतमे नव धम्मा परि य्या ? नव सत्तावासा- सन्तावुसो, सत्ता
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दीघनिकायो-३
(३.११.३५९-३५९)
नानत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्चे च देवा एकच्चे च विनिपातिका । अयं पठमो सत्तावासो ।
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“सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका पठमाभिनिब्बत्ता । अयं दुतियो सत्तावासो ।
" सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा आभस्सरा । अयं ततियो सत्तावासो ।
" सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा । अयं चतुथो सत्तावासो |
“सन्तावुसो, सत्ता असञ्ञिनो अप्पटिसंवेदिनो, सेय्यथापि देवा असञ्ञसत्ता । अयं पञ्चमो सत्तावासो ।
“सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो रूपसञ्जनं समतिक्कमा पटिघसञ्जनं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ज्ञानं अमनसिकारा "अनन्तो आकासो 'ति आकासानञ्चायतनूपगा । अयं छट्टो सत्तावासो ।
" सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म " अनन्तं विञ्ञाणन्ति विञ्ञाणञ्चायतनूपगा। अयं सत्तमो सत्तावासो ।
" सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची "ति आकिञ्चञ्ञायतनूपगा । अयं अट्ठमो सत्तावासो ।
सत्ता सब्बसो
“सन्तावुसो, आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञनासञायतनूपगा । अयं नवमो सत्तावासो । इमे नव धम्मा परिञेय्या ।
(घ) “ कतमे नव धम्मा पहातब्बा ? नव तण्हामूलका धम्मा- तहं पटिच्च परियेसना, परियेसनं पटिच्च लाभो, लाभं पटिच्च विनिच्छयो, विनिच्छयं पटिच्च
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(३.११.३५९-३५९)
११. दसुत्तरसुत्तं
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छन्दरागो, छन्दरागं पटिच्च अज्झोसानं, अज्झोसानं पटिच्च परिग्गहो, परिग्गहं पटिच्च मच्छरियं, मच्छरियं पटिच्च आरक्खो, आरक्खाधिकरणं दण्डादान सत्थादान कलह विग्गह विवाद तुवंतुवं पेसुञ मुसावादा अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति । इमे नव धम्मा पहातब्बा।
(ङ) “कतमे नव धम्मा हानभागिया ? नव आघातवत्थूनि- “अनत्यं मे अचरी''ति आघातं बन्धति, “अनत्थं मे चरती''ति आघातं बन्धति, “अनत्थं मे चरिस्सती''ति आघातं बन्धति; “पियस्स मे मनापस्स अनत्थं अचरीति आघातं बन्धति...पे०... “अनत्थं चरती"ति आघातं बन्धति...पे०... “अनत्थं चरिस्सती"ति आघातं बन्धति; “अप्पियस्स मे अमनापस्स अत्थं अचरी"ति आघातं बन्धति...पे०... “अत्थं चरती''ति आघातं बन्धति...पे०... “अत्थं चरिस्सती'ति आघातं बन्धति । इमे नव धम्मा हानभागिया ।
___ (च) “कतमे नव धम्मा विसेसभागिया ? नव आघातपटिविनया- “अनत्थं मे अचरि, तं कुतेत्थ लब्भा”ति आघातं पटिविनेति; “अनत्थं मे चरति, तं कुतेत्थ लब्भाति आघातं पटिविनेति; “अनत्थं मे चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भाति आघातं पटिविनेति; “पियस्स मे मनापस्स अनत्थं अचरि...पे०... अनत्थं चरति...पे०... अनत्थं चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा"ति आघातं पटिविनेति; “अप्पियस्स मे अमनापस्स अत्थं अचरि...पे०... अत्थं चरति...पे०... अत्थं चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा"ति आघातं पटिविनेति । इमे नव धम्मा विसेसभागिया ।
(छ) “कतमे नव धम्मा दुप्पटिविज्झा ? नव नानत्ता- धातुनानत्तं पटिच्च उप्पज्जति फस्सनानत्तं, फस्सनानत्तं पटिच्च उप्पज्जति वेदनानानत्तं, वेदनानानत्तं पटिच्च उप्पज्जति सञानानत्तं, सञानानत्तं पटिच्च उप्पज्जति सङ्कप्पनानत्तं, सङ्कप्पनानत्तं पटिच्च उप्पज्जति छन्दनानत्तं, छन्दनानत्तं पटिच्च उप्पज्जति परिळाहनानत्तं, परिळाहनानत्तं पटिच्च उप्पज्जति परियेसनानानत्तं, परियेसनानानत्तं पटिच्च उप्पज्जति लाभनानत्तं । इमे नव धम्मा दुप्पटिविज्झा ।
(ज) “कतमे नव धम्मा उप्पादेतब्बा ? नव सञ्जा- असुभसा , मरणसञ्जा,
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दीघनिकायो-३
आहारेपटिकूलसञ्ज्ञ, सब्बलोके अनभिरतिसञ्ञ, अनिच्चसञ्ञ, अनिच्चे दुक्खसञ्ञ, दुक्खे अनत्तसञ्ञा, पहानसञ्ज, विरागसञा । इमे नव धम्मा उप्पादेतब्बा ।
(झ) “कतमे नव धम्मा अभिज्ञेय्या ? नव अनुपुब्बविहारा - इधावुसो, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं ज्ञानं उपसम्पज्ज विहरति । वितक्कविचारानं वूपसमा... पे०... दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । पीतिया च विरागा... पे०... ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सुखस्स च पहाना...पे०... चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो रूपसञ्जनं समतिक्कमा... पे०... आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म “अनन्तं विञ्ञाणन्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची "ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति । सब्बसो नेवसञ्जनासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञवेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति । इमे नव धम्मा अभिञ्ञेय्या ।
(३.११.३५९-३५९)
होति,
(ञ) “ कतमे नव धम्मा सच्छिकातब्बा ? नव अनुपुब्बनिरोधा - पठमं झानं समापन्नस्स कामसञ्ञ निरुद्धा होति, दुतियं झानं समापन्नस्स वितक्कविचारा निरुद्धा होन्ति, ततियं झानं समापन्नस्स पीति निरुद्धा होति, चतुत्थं झानं समापन्नस्स अस्सासपस्सास्सा निरुद्धा होन्ति, आकासानञ्चायतनं समापन्नस्स रूपसञ्ञा निरुद्धा होति, विञ्ञाणञ्चायतनं समापन्नस्स आकासानञ्चायतनसञ निरुद्धा होति, आकिञ्चञ्ञायतनं समापन्नस्स विञ्ञाणञ्चायतनसञ्ञा निरुद्धा होति, नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समापन्नस्स आकिञ्चञ्ञायतनसञ निरुद्धा सञ्ञवेदयितनिरोधं समापन्नस्स सञ्ञा च वेदना च निरुद्धा होन्ति । इमे नव धम्मा सच्छिकातब्बा ।
" इति इमे नवुति धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा |
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(३.११.३६०-३६०)
११. दसुत्तरसुतं
दस धम्मा
३६०. “ दस धम्मा बहुकारा... पे०... दस धम्मा सच्छिकातब्बा |
(क) “ कतमे दस धम्मा बहुकारा ? दस नाथकरणाधम्मा- इधावुसो, भिक्खु सीलवा होति, पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु, यंपावुसो, भिक्खु सीलवा होति... पे०... सिक्खति सिक्खापदेसु | अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
" पुन चपरं आवुसो, भिक्खु बहुस्सुतो... पे०... दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा, यंपावुसो, भिक्खु बहुस्सुतो... पे०... । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
२४७
" पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु कल्याणमित्तो होति कल्याणसहायो कल्याणसम्पवङ्को । यंपावुसो, भिक्खु... पे०... कल्याणसम्पवको । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
" पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सुवचो होति सोवचस्सकरणेहि धम्मेहि समन्नागतो, खमो पदक्खिणग्गाही अनुसासनिं । यंपावुसो, भिक्खु... पे०... अनुसासनिं । अयम्प धम्म नाथकरणो ।
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यानि तानि सब्रह्मचारीनं उच्चावचानि किंकरणीयानि तत्थ दक्खो होति अनलसो तत्रुपायाय वीमंसाय समन्नागतो, अलं कातुं, अलं संविधातुं । यंपावुसो, भिक्खु... पे०... अलं संविधातुं । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
" पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु धम्मकामो होति पियसमुदाहारो अभिधम्मे अभिविनये उळारपामोज्जो । यंपावुसो, भिक्खु... पे०. उळारपामोज्जो । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
" पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेहि चीवरपिण्डपात सेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्ज परिक्खारेहि । यंपावुसो, भिक्खु... पे०... । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
247
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२४८
दीघनिकायो-३
(३.११.३६०-३६०)
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु आरद्धवीरियो विहरति...पे०... कुसलेसु धम्मेसु । यंपावुसो, भिक्खु...पे०... । अयम्पि धम्मो नाथकरणो ।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सतिमा होति, परमेन सतिनेपक्केन समन्नागतो, चिरकतम्पि चिरभासितम्पि सरिता अनुस्सरिता। यंपावुसो, भिक्खु...पे०... । अयम्पि धम्मो नाथकरणो।
“पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पञवा होति उदयत्थगामिनिया पञ्जाय समन्त्रागतो, अरियाय निब्बेधिकाय सम्मा दुक्खक्खयगामिनिया। यंपावुसो, भिक्खु...पे०... । अयम्पि धम्मो नाथकरणो । इमे दस धम्मा बहुकारा ।
(ख) “कतमे दस धम्मा भावेतब्बा ? दस कसिणायतनानि- पथवीकसिणमेको सञ्जानाति उद्धं अधो तिरियं अद्वयं अप्पमाणं । आपोकसिणमेको सञ्जानाति...पे०... । तेजोकसिणमेको सञ्जानाति । वायोकसिणमेको सञ्जानाति । नीलकसिणमेको सञ्जानाति । पीतकसिणमेको सञ्जानाति । लोहितकसिणमेको सञ्जानाति । ओदातकसिणमेको सञ्जानाति । आकासकसिणमेको सञ्जानाति । विज्ञाणकसिणमेको सञ्जानाति उद्धं अधो तिरियं अद्वयं अप्पमाणं । इमे दस धम्मा भावेतब्बा ।
(ग) “कतमे दस धम्मा परि य्या? दसायतनानि- चक्खायतनं, रूपायतनं, सोतायतनं, सद्दायतनं, घानायतनं, गन्धायतनं, जिव्हायतनं, रसायतनं, कायायतनं, फोठुब्बायतनं । इमे दस धम्मा परि य्या ।
(घ) “कतमे दस धम्मा पहातब्बा ? दस मिच्छत्ता- मिच्छादिवि, मिच्छासङ्कप्पो, मिच्छावाचा, मिच्छाकम्मन्तो, मिच्छाआजीवो, मिच्छावायामो, मिच्छासति, मिच्छासमाधि, मिच्छाञाणं, मिच्छाविमुत्ति । इमे दस धम्मा पहातब्बा।।
(ङ) “कतमे दस धम्मा हानभागिया ? दस अकुसलकम्मपथा- पाणातिपातो, अदिन्नादानं, कामेसुमिच्छाचारो, मुसावादो, पिसुणा वाचा, फरुसा वाचा, सम्फप्पलापो, अभिज्झा, ब्यापादो, मिच्छादिट्ठि । इमे दस धम्मा हानभागिया ।
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(३.११.३६०-३६०)
११. दसुत्तरसुत्तं
२४९
(च) “कतमे दस धम्मा विसेसभागिया ? दस कुसलकम्मपथा- पाणातिपाता वेरमणी, अदिन्नादाना वेरमणी, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी, मुसावादा वेरमणी, पिसुणाय वाचाय वेरमणी, फरुसाय वाचाय वेरमणी, सम्फप्पलापा वेरमणी, अनभिज्झा, अब्यापादो, सम्मादिट्ठि । इमे दस धम्मा विसेसभागिया ।
(छ) “कतमे दस धम्मा दुप्पटिविज्झा ? दस अरियवासा- इधावुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति, छळङ्गसमन्नागतो, एकारक्खो, चतुरापस्सेनो, पणुन्नपच्चेकसच्चो, समवयसट्टेसनो, अनाविलसङ्कप्पो, पस्सद्धकायसङ्घारो, सुविमुत्तचित्तो, सुविमुत्तपञो ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति? इधावुसो, भिक्खुनो कामच्छन्दो पहीनो होति, ब्यापादो पहीनो होति, थिनमिद्धं पहीनं होति, उद्धच्चकुक्कुच्चं पहीनं होति, विचिकिच्छा पहीना होति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति ।
___ “कथञ्चावुसो, भिक्खु छळङ्गसमन्त्रागतो होति ? इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिवा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। सोतेन सदं सुत्वा, नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। घानेन गन्धं घायित्वा, नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। जिव्हाय रसं सायित्वा, नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। कायेन फोडब्बं फुसित्वा, नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। मनसा धम्मं विज्ञाय नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। एवं खो, आवुसो, भिक्खु छळङ्गसमन्त्रागतो होति।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु एकारक्खो होति? इधावुसो, भिक्खु सतारखेन चेतसा समन्नागतो होति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु एकारक्खो होति ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु चतुरापस्सेनो होति ? इधावुसो, भिक्खु सङ्खायेकं पटिसेवति, सङ्खायेकं अधिवासेति, सङ्खायेकं परिवज्जेति, सङ्खायेकं विनोदेति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु चतुरापस्सेनी होति ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु पणुनपच्चेकसच्चो होति ? इधावुसो, भिक्खुनो यानि तानि
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२५०
दीघनिकायो-३
(३.११.३६०-३६०)
पुथुसमणब्राह्मणानं पुथुपच्चेकसच्चानि, सब्बानि तानि नुन्नानि होन्ति पणुन्नानि चत्तानि वन्तानि मुत्तानि पहीनानि पटिनिस्सट्ठानि । एवं खो, आवुसो, भिक्खु पणुन्नपच्चेकसच्चो होति।
“कथञ्चावुसो, भिक्खु समवयसढेसनो होति ? इधावुसो, भिक्खुनो कामेसना पहीना होति, भवेसना पहीना होति, ब्रह्मचरियेसना पटिप्पस्सद्धा । एवं खो, आवुसो, भिक्खु समवयसट्टेसनो होति ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु अनाविलसङ्कप्पो होति ? इधावुसो, भिक्खुनो कामसङ्कप्पो पहीनो होति, ब्यापादसङ्कप्पो पहीनो होति, विहिंसासङ्कप्पो पहीनो होति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु अनाविलसङ्कप्पो होति ।
“कथञ्चावुसो, भिक्खु पस्सद्धकायसङ्घारो होति ? इधावुसो, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु पस्सद्धकायसङ्खारो होति ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु सुविमुत्तचित्तो होति ? इधावुसो, भिक्खुनो रागा चित्तं विमुत्तं होति, दोसा चित्तं विमुत्तं होति, मोहा चित्तं विमुत्तं होति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु सुविमुत्तचित्तो होति ।
"कथञ्चावुसो, भिक्खु सुविमुत्तपो होति ? इधावुसो, भिक्खु ‘रागो मे पहीनो उच्छिन्नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो आयतिं अनुप्पादधम्मोति पजानाति । “दोसो मे पहीनो...पे०... आयतिं अनुप्पादधम्मोति पजानाति । “मोहो मे पहीनो...पे०... आयतिं अनुप्पादधम्मो''ति पजानाति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु सुविमुत्तपञो होति । इमे दस धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) “कतमे दस धम्मा उप्पादेतब्बा ? दस सञ्जा- असुभसा , मरणसञ्जा, आहारेपटिकूलसा, सब्बलोकेअनभिरतिसञ्जा, अनिच्चसञ्जा, अनिच्चे दुक्खसञ्जा, दुक्खे अनत्तसा , पहानसा , विरागसञ्जा, निरोधसञआ । इमे दस धम्मा उप्पादेतब्बा ।
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(३.११.३६०-३६०)
११. दसुत्तरसुत्तं
२५१
(झ) “कतमे दस धम्मा अभिज्ञेय्या ? दस निज्जरवत्थूनि- सम्मादिट्ठिस्स मिच्छादिट्ठि निज्जिण्णा होति । ये च मिच्छादिट्ठिपच्चया अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति, ते चस्स निज्जिण्णा होन्ति । सम्मासङ्कप्पस्स मिच्छासङ्कप्पो...पे०... सम्मावाचस्स मिच्छावाचा...पे०... सम्माकम्मन्तस्स मिच्छाकम्मन्तो...पे०... सम्माआजीवस्स मिच्छाआजीवो...पे०... सम्मावायामस्स मिच्छावायामो...पे०... सम्मासतिस्स मिच्छासति...पे०... सम्मासमाधिस्स मिच्छासमाधि...पे०... सम्माणस्स मिच्छात्राणं निज्जिण्णं होति । सम्माविमुत्तिस्स मिच्छाविमुत्ति निज्जिण्णा होति। ये च मिच्छाविमुत्तिपच्चया अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति, ते चस्स निज्जिण्णा होन्ति । इमे दस धम्मा अभिनेय्या।
(ञ) “कतमे दस धम्मा सच्छिकातब्बा? दस असेक्खा धम्मा- असेक्खा सम्मादिट्ठि, असेक्खो सम्मासङ्कप्पो, असेक्खा सम्मावाचा, असेक्खो सम्माकम्मन्तो, असेक्खो सम्माआजीवो, असेक्खो सम्मावायामो, असेक्खा सम्मासति, असेक्खो सम्मासमाधि, असेक्खं सम्माञाणं, असेक्खा सम्माविमुत्ति । इमे दस धम्मा सच्छिकातब्बा ।
“इति इमे सतधम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनजथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा''ति । इदमवोचायस्मा सारिपुत्तो । अत्तमना ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दुन्ति ।
दसुत्तरसुत्तं निहितं एकादसमं।
पाथिकवग्गो निद्वितो।
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२५२
दीघनिकायो-३
(३.११.३६०-३६०)
तस्सुद्दानं
पाथिको च उदुम्बरं, चक्कवत्ति अग्गजकं ।
सम्पसादनपासादं, महापुरिसलक्खणं ।।
सिङ्गालाटानाटियकं, सङ्गीति च दसुत्तरं । एकादसहि सुत्तेहि, पाथिकवग्गोति वुच्चति ।।
पाथिकवग्गपाळि निहिता।
तीहि वग्गेहि पटिमण्डितो सकलो
दीघनिकायो समत्तो।
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अ
- ६५, ६७
अकट्टपाको अकण्हअसुक्कविपाकं - १८३
अकण्हअसुक्कं - १८३
अकथंकथी - ३५
अकनिट्ठा - १८९
अकम्मो - २०२, २०३, २३७, २३८
अकालिको - ४, १८१
अकालो - २६
अकिच्छलाभी - ८४
अकिलन्तकाया - २३
अकिलन्तचित्ता - २३
अकुसलकम्मपथा - ५२, २१४, २४८
अकुसलधातुयो - १७२
अकुसलमूलानि - १७१, २२०
अकुसलवितक्का - १७२
अकुसलसङ्कप्पा - १७२
अकुसलसञ्ञा १७२
अकुसलेहि धम्मेहि - ५७, ९८, १७७, १७८, २११,२४६
अक्कोधनो - ३४,११९
अक्खधुत्तो - १३९
अखिलमनिमित्तमकण्टकं - १०८, १३३
अगतिगमनानि - १८२
अगारवा - १९३, २२८
अगुत्तद्वारता - १७०
अग्गप्पत्ता- ३५, ३६, ३७, ३८
सद्दानुक्कमणिका
1
अग्गबीजं - ३१, ३४ अग्गी - १७४
अग्गं - ५२ अचेलको
- ६,२९
अचेलस्स पाथिकपुत्तस्स आरामो- ११, १२
अचेलो - ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४,
१५, १६, १९
अच्छरियानं रसानं संविभागेन - १४५
अजितो - १०
अज्जवञ्च लज्जवञ्च - १७० अज्झत्तिकबाहिरानि - ७५
अज्झायका- ६९
अज्झासयं - २८, ३८
अज्झोसानं - २४५ अञ्जलिकरणीयो - ४, १८१
अञखन्तिकेन - २५, २८
अञ्ञतित्थिया - २७, ३८, ८५, ९६, ९७,९८, ९९,
१००, १०१, १०२ अञ्ञत्राचरियकेन - २५, २८ अञ्ञायोगेन - २५, २८ अञ्ञथासञ्ञिनोपि - १०३,१०४ अञदत्थुसो - २१, २२, १०० अञ्ञदत्थुहरो - १४१, १४२ अञदिट्ठिन- २५, २८
अञ्ञरुचिकेन - २५, २८
अट्ठङ्गिको मग्गो - ७५, ९४, २३४, २३६ अट्ठानकुसलता - १६९ अट्ठिकस - १८१
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[२]
दीघनिकायो-३
[अ-अ]
अद्वितधम्मा-९९ अण्डजयोनि-१८४ अतप्पा-१८९ अतिक्कन्तमानुसिकाय - २७,२३० अतिरुचिरसुवग्गुदस्सनेय्यं-११४ अस्थकामो- १२३ अत्थक्खायी-१४२,१४३ अत्थङ्गमो-१७८,२३६ अत्थचरियाय-११४,१४४ अत्थधम्मसहितं-११५ अत्थपटिसंवेदी- १९१,१९२ अत्थसंहिता-७२,१६५ अत्तकिलमथानुयोगमनुयुत्तो-८४ अत्तदीपा भिक्खवे विहरथ-४२,५६ अत्तन्तपो-१८५ अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो-१८५ अत्तभावपटिलाभो-१८४ अत्तसरणा-४२, ५६ अत्ता - २४,८१,१०२, १०३, १०४ अदिट्ठवादिता - १८५ अदिन्नादानं - ४९, ५०, ५१, ६८, ६९, १३७, २१४,
अधुनाकालङ्कतो-८७,८८,१६७,१६८ अधोमुखो-३८ अनञ्जसरणा-४२,५६ अनातञस्सामीतिन्द्रियं-१७५ अनतिचरियाय-१४४ अनत्थसंहितं-८४,९४,१०० अनत्तसञ्जा-१९२, १९८,२००, २३३, २४६, २५० अननुतप्पो होति-९०, ९१ अनभिभूतो-२१, २२, १०० अनभिरति-२१ अनरियवोहारा-१८५ अनवज्जसङ्खाता-६१ अनवमाननाय-१४४ अनागामिनो-१८९ अनागामिफलसच्छिकिरियाय-२०२ अनागामिफलं-१८२, २२२ अनागारियतं-१२० अनाथपिण्डिकस्सआरामे-१०६ अनादीनवदस्सावी-३१ अनावटद्वारताय-१४५ अनावत्तिधम्मो-७९,८०,९९ अनाविलसङ्कप्पो-२१४, २१५, २४९,२५० अनासवा-८३ अनिच्चसञ्जा-१९२, १९८, २००, २३३, २४६,
२५० अनिदस्सनअप्पटिघं-१७४ अनिदस्सनसप्पटिघं-१७४ अनिय्यानिके-८७,८८,८९,१६८ अनिस्सरणपञो-३१ अनीकट्ठा - ४७, ११०, ११४, १२७, १२८, १२९,
१३१, १३३ अनीकट्ठानं-१२६ अनुकम्पको-१४२, १४३ अनुतप्पो- ९० अनुत्तरियानि-१७५, १९८,२३० अनुत्तरो-३, ५५, १८१, १८९, २२३
२४८
अदुक्खमसुखा - १७३, २२० अद्वेज्झवाचो-१२८ अधम्मकारो-४४ अधम्मरागो-५१,५२ अधिकरणसमथा-२०१ अधिचित्तसिक्खा-१७५ अधिच्चसमुप्पन्नो-२४,१०३ अधिच्चसमुप्पन्नं आचरियकं अग्गजंपञपेथाति-२४ अधिट्ठानानि-१८३ अधिपञत्ति-१०३,१०४ अधिपचासिक्खा - १७५ अधिमुत्तो-२०७,२४२ अधिवचनं-६२ अधिसीलसिक्खा-१७५
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[अ-अ]
सद्दानुक्कमणिका
[३]
अनुधम्मचारी-८८,८९,९० अनुनयसञोजनं - २०१ अनुपक्किलेसा -३२ अनुपधिका-८३ अनुपरियायपथं-७४ अनुपसमसंवत्तनिके-८७, ८८, ८९, १६८ अनुपादिसेसायनिब्बानधातुया - १०० अनुपियं-१ अनुपुब्बनिरोधा-२११,२४६ अनुपुब्बविहारा -२११, २४६ अनुप्पत्तसदत्थो- ६१,७२,९९ अनुप्पादधम्मोति-२१६,२५० अनुप्पादेाणं- १७१ अनुप्पियभाणी-१४१ अनुभवति-१२०, १२६, १३० अनुयुत्ता - २७, ३९, ६१, ९७, ९८ अनुयोगमन्वाय-२१,२२, २३,२४,७७ अनुरक्खणापधानं -१८०,१८१ अनुसया – २०१ अनुसासनविधादेसना-७९ अनुसासनविधासु-७९,८० अनुस्सतिट्ठानानि-१९८, २२८ अनेळकं-६३,६४ अनोत्तप्पञ्च-१६९ अनोनमन्तो-१०७,१२२ अन्तग्गाहिकाय दिट्ठिया-३२,३४ अन्तरापरिनिब्बायी-१८९ अन्तलिक्खचरा - २०, २१,६२, ६७ अन्तलिक्खे-१५२,१६१ अन्ता-१७३ अन्तेवासिना-१४४ अन्धकारतिमिसा-६३ अन्धकारो-६२ अन्नकथं-२६ अपदानं-६७ अपरन्तसहगता-१०२,१०४
अपरन्तसहगतानं-१०४,१०५ अपरिपुण्णा-२९ अपरिहानधम्मो- १२३ अपरंकारो-१०३ अपस्सेनानि-१७९ अपानकत्तमनुयुत्तो-२९ अपानकोपि-२९ अपायमुखानि-१३७,१३८ अपायसहायो-१४१, १४२ अपुञाभिसङ्खारो-१७४ अपेत्तेय्यता-५१, ५२ अप्पटिकूलसञी-८३ अप्पटिभानं-३९ अप्पटिविभत्तभोगी-१९४,२२७ अप्पणिहितो-१७५ अप्पदुट्ठचित्ता-२३ अप्पमञा-१७९ अप्पमत्तो-५६ अप्पमादमन्वाय-२१, २२, २३, २४,७७ अप्पमादो-२१७ अप्पसद्दकामा-२७ अप्पसद्दविनीता-२७ अप्पहीना-४१ अप्पाबाधो-१२४,१८९,२२३ अप्पिच्छता-८५ अब्याकतं-१०१ अब्यापज्जपरमताय-९६ अब्यापन्नचित्तो-३५, ६१ अब्यापादवितक्को-१७२ अब्यापादसङ्कप्पो-१७२ अब्यापादसञ्जा-१७२ अब्रह्मज्ञता-५१,५२ अभब्बट्टानानि-१८७ अभिज्झादोमनस्सं-४२, ५६, १०५, १७७, २२१ अभिज्झाब्यापादा-५१,५२ अभिञा-४०,४१, ५५, ५६, ५८,७५, ८०, ९४,
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[४]
दीघनिकायो-३
[अ-अ]
९९, २११, २३०, २३१, २४०
अरोगो-१०४ अभिधम्मे-२१३,२४७
अलङ्कारानुप्पदानेन-१४४ अभिनीलनेत्तो-१०७, १२५
अलमरियसङ्खाता-६१ अभिभायतनानि-२०६, २४१
अलसकेन-५,६ अभिभू-२१, २२, १००
अलंपतेय्या-५२, ५५ अभियोगिनो-१२६
अवरुद्धा-१५४,१६३ अभिसम्बुज्झति-१००
अविखेपो-१७० अभिसम्बुद्धो-७४
अविगतच्छन्दो-१९० अमच्चा-४७, ११०, ११४, १२७, १२८, १२९, अविगततण्हो- १९० १३१,१३३
अविज्जा-१६९, १८७, २१९ अमत्त ता-१७०
अविज्जानुसयो-२०१, २३२ अमत्तेय्यता-५१, ५२
अविज्जायोगविसंयोगो-२२२ अमनसिकारा-१७९,२००,२०८,२०९,२४२,२४४ अविज्जायोगो-१८३, २२२ अमायावी-३४, ४०, १८९, २२३
अविज्जासवो-१७३ अमित्तो-१४१,१४२
अविज्जोघो-१८३, २२२ अमूळ्हविनयो-२०१
अविज्ञातवादिता-१८५ अम्बरअम्बरवतियो-१५२,१६१
अवितक्कअविचारो-१७५ अम्बवने-८७,१६६
अविनिपातधम्मो-७९,८०,९९ अयोनिसो-२१८
अविपरिणामधम्मा-२३,२४ अरञ्जवनपत्थानि-३९,१४८,१५७
अविरळदन्तो-१०७, १२९ अरहत्तफलसच्छिकिरियाय-२०२
अविसंवादनताय-१४४ अरहत्तफलं -१८२, २२२
अविहा-१८९ अरहं -३, ३८, ५५, ६१, ७२, ७४, ९०, ९१, ९३, . अविहिंसा - १७० ९९, १०६, १०७, १०८, ११०, १३४, १८१, | अविहिंसावितक्को-१७२ १८९, २१०, २११, २२३, २३९
अविहिंसासङ्कप्पो-१७२ अरिट्ठो नेमि-१५२,१६१
अविहिंसासा -१७२ अरियधनानि-१९९,२३१
अविहेठकजातिको-१२४ अरियवासा-२१४,२४९
अवीचि-५५ अरियवोहारा-१८५
अवेच्चप्पसादेन-१८१ अरियवंसा-१७९
असङ्घता-२१९ अरियसच्चानि- २२२
असञसत्ता-२४, २०९,२४४ अरूपतण्हा-१७२
असञ्जी-१०४ अरूपधातु-१७२,२२१
असद्धम्मा-१९९, २३२ अरूपभवो-१७३
असनिविचक्कं-३१,३४ अरूपरागो-१८७
असमयो-२६, २१०,२११,२३९, २४० अरूपी अत्ता-१०४
असम्पजञञ्च -१७०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[आ-आ]
सद्दानुक्कमणिका
आटानाटिया रक्खा-१५४,१५५,१६२,१६३,१६४,
१६५
असम्पजानो-७५,७६, १८४ असम्पवेधी-९९ असम्मोसाय-१७७ असयंकारो-१०३ असामञता-५१,५२ असुचिनो-७७, ७८ असुरकायो-५,६ असुरा-५, ६, ११०, ११४, १२७, १२८, १२९,
१३१,१३४ असेक्खा धम्मा-२१६,२५१ असेवितब्बसङ्खाता-६० अस्मिमानो-२१८ अस्सयानं-१५२,१६१ अस्सरतनं -४३, ५५, १०६, १०८, १३३ अस्सासपस्सास्सा- २१२, २४६ अहिच्छत्तको-६४ अहिरिकञ्च-१६९
आ
आटानाटियं रक्खं-१४८, १५७, १६५ आतापी-४२,५६,१०५,१७६,१७७, २२१ आदिकल्याणं-५६ आदिच्चबन्धुनं-१४९, १५०, १५१, १५३, १५८,
१५९,१६०,१६२ आदिब्रह्मचरियकं- १०२ आदीनवदस्सावी-३३,१७९, १८० आदीनवसञ्जा-२००, २३३ आदीनवा-१३८,१३९,१८८ आदेसनविधा-७६,७७ आदेसनविधासु-७६,७७ आनन्दो- ८७,८८ आनिसंसा-९९,१८८ आपत्तिकुसलता-१६९ आपत्तिवुट्ठानकुसलता-१६९ आपायिको - ४, ६, ८, २० आपोकसिणमेको-२१४, २४८ आबाधा-५५ आभस्सरकाया - २०,२१,६२ आभस्सरसंवत्तनिका-२०, ६२ आमिसानुप्पदानेन-१४५ आयतनकुसलता-१६९ आयतनपण्णत्तीसु-७५ आयतनानि-७५, १९२, १९३, २२८ आयतपण्हि- १०७,१११ आयतपण्हितादितिलक्खणं-१११ आयुक्खया-२०, २१ आरक्खाधिकरणं-२४५ आरद्धवीरियो-७९,१८९, १९९, २१३, २२३, २३२,
२३५, २४८ आरम्भवत्थूनि-२०३,२३८ आरुप्पा-१७९ आरोपितो-८७,१६७ आलस्यानुयोगे-१३९
आकासकसिणमेको-२१४, २४८ आकासधातु-१९६ आकासानञ्चायतनसञ्जा-२१२, २४६ आकासानञ्चायतनं-१७९,२००,२०८,२१०,२११,
२१२, २३२, २४२, २४४, २४६ आकिञ्चज्ञायतनसआ-२१२, २४६ आकिञ्चज्ञायतनं -१७९, २०८, २१०,२११, २१२,
२४३,२४४, २४६ आगिलायति-१६७ आघातपटिविनया-२०९, २४५ आघातवत्थूनि-२०८,२४५ आघातो-५३ आचरिया-१४३, १४४,१४५ आचामभक्खो - २९ आचारगोचरसम्पन्नो-५७, २१२, २३५,२४७ आटानाटा-१५२, १६१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[६]
दीघनिकायो-३
आलोकफरणता - २२३
इस्सरियवोस्सग्गेन - १४४ आवासमच्छरियं-१८७
इस्सरो-२१,२२ आवाहविवाहकानं-१३९ आविभावं-८३, २३० आसनपटिक्खित्तो-२९ आसभी वाचा-७३,७४
उक्कुटिकप्पधानमनुयुत्तो-२९ आसवा-१७३, १९०, १९१, २२४, २२५
उक्कुटिकोपि-२९ आसवानं संवराय-९६
उच्छिन्नमूलो – २१६, २५० आहतचित्तो-१८९, २२४
उजुप्पटिपन्नो – ४, १८१ आहारट्ठितिका--१६८,२१८
उट्ठानसऑ-१६७ आहारेपटिकूलसञ्जा- २४६, २५०
उट्ठानेन-१४४ आहुनेय्यो-४,१८१
उण्णा-१०७, १२८,१२९ आळकमन्दा-१५२,१६१
उण्हीससीसलक्खणं-१२६ आळकमन्दाय -१५४,१६३
उण्हीससीसो-१०७, १२७ आळवको-१५५, १६४
उतुनियोपि-६० उतुपरिस्सयविनोदनपटिसल्लानारामत्थं - ९६ उतुसंवच्छरा-६३, ६७
उत्तमग्गरसदायको- ११३ इतरीतरपिण्डपातसन्तुट्ठिया-१७९,१८०
उत्तरका-४ इत्थिपुमा-६३
उत्तरकुरुव्हो-१५१,१६० इस्थिरतनं - ४३, ५५, १०६, १०८,१३३
उत्तरिमनुस्सधम्मा-२,३,६,८,९,११,१२,१३, २० इदंसच्चाभिनिवेसो-१८४
उदकमणिको-१६७ इद्धिपाटिहारियानि-८, ९, १२ ।
उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो- २९ इद्धिपाटिहारियं -२, ३, ६, ८, ९, ११, १२, १३, २०, | उदपादि-१२, ६५, ९०, ९१ १७६
उदयत्थगामिनिया-१८९,२१३,२२३,२४८ इद्धिपादा-७५, ९४,१७७
उदयब्बयानुपस्सी-१७८,२३६ इद्धिपादानं-५७
उदायि-८५ इद्धिपादं-५७, १७७
उदुम्बरिकाय – २६,४१ इद्धिविधासु-८३,८४
उदेनं -६ इद्धिविधं-८३,२३०
उद्धग्गलोमो-१०७, ११५ इन्दखीलो - ९९
उद्धच्चकुक्कुच्चनीवरणं - १८७ इन्दनामा-१४९, १५०, १५१, १५३, १५८, १५९, उद्धमातकसङ – १८१ १६०,१६२
उद्धंसोतो- १८९ इन्दो-१२०,१३३,१५५,१६४
उपकारो-१४२,१४३ इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो-७९
उपक्किलेसो-३०,३१, ३२ इस्सरकुत्तं-२०,२२
उपट्ठानेन-१४४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ए ओ ]
उपट्ठितसतिस्सायं - २४० उपपथं - ८, ९, १२, १३, १४, १५ उपरिचरणसोभना - ११६
उपवाणी - १०५
उपसमसंवत्तनिको - ८९, ९०, ९१,९३, १६८
उपसमाय - ९७, ९८, १०२ उपहच्चपरिनिब्बायी - १८९
२५०
उपेक्खासम्बोज्झङ्गो - ७८, १९९, २३१
उपेक्खासहगतेन चेतसा- ३६, ३७, ५७, १७९
उपादानानि - १८४
उपायकोसल्लं - १७६
उपासिकायो - ११०, ११४, १२७, १२८, १२९, १३१, एकंसब्याकरणीयो - १८३
१३४
एणिजङ्घी - १०७, ११६
उपेक्खको - ५७, ८३, ९८, १७७, १७८, १९८, २१४, एतदानुत्तरियं - ७५, ७६, ७७, ७८, ७९, ८०, ८२, ८३ २३०, २४९ एवं लाभग्गयसग्गप्पत्तं - ९३
एसना - १७३
उपेक्खाचेतोविमुत्तीति - २२९ उपेक्खासतिपारिसुद्धिं - ५७, ९८, १७७, १७८, २१५, एसिकट्ठायिट्ठितो - ८१, ८२
एहिपस्सिको - ४, १८१ एळकमन्तरं - २९
ओ
ओजसि- १५२, १६१
ओत्तप्पञ्च - १६९
ओत्तप्पधनं - १२२, १९९,२३१ ओत्तप्पबलं - २०० ओदातकसिणमेको - २१४, २४८ ओपनेय्यिको - ४, १८१
ओपपातिकयोनि - १८४
ओपपातिको ७९, ८०, ९९ ओमञ - १५५, १६४
उपेक्खूपविचारा - १९४
उपोसथुपवासे - १०८, १२७
उप्पन्नुप्पन्नानं - २०१
उप्पादनिमित्तकोविदा - ११८, १२९
उब्बेगउत्तासभयं - ११० उब्भतकं - १६६ उभमुप्पतितलोमवा - ११६ उब्भेगउत्तासभयापनूदनो - ११०
उभतोभागविमुत्तो - ७८, २००
उभयवोकिणे - ६१
उभोलोकविजयाय – १३७
उमापुप्फं - २०६, २४१ उम्मुज्जनिमुज्जं - ८३, २३० उळारपामोज्जो - २१३, २४७
ए
नुक्क
एकत्तकाया - २००, २०९, २३२, २४४
एकन्तनिब्बिदाय - ९७, ९८, १०२ एकागारिको १९-२९
एकारक्खो - २१४, २१५, २४९ एकालोपिको - २९
एकीभावाय - १९४, १९५, २२७, २२८ एकेकलोमूपचितङ्गवा - १२९ एकेकलोमो - १०७, १२८ एकोदकीभूतं - एकोदिभावाधिगतो - २२५
- ६२
7
ओरम्भागियानं संयोजनानं - ७९, ८०, ९९
ओरसा - ६०, ६१ ओसधितारका - २०७, २४२ ओळारिको - १८२, २२२
[७]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[८]
दीघनिकायो-३
[क -क]
ककुसन्धस्स -१४८,१५७ कावितरणविसुद्धि - २४३ कञ्चनसन्निभत्तचो-१०७,११९ कणभक्खो-२९ कणिकारपुष्फं-२०७, २४१ कण्टकापस्सयिकोपि-२९ कण्णसुखा-१३०,१३१ कण्हविपाकं-१८३ कण्हसुक्कविपाकं-१८३ कण्हसुक्कसप्पटिभाग-७४ कण्हसुक्कं-१८३ कण्हं-१८३,१९८ कतकरणीयो-६१,७२, ९९ कतपुञता-२२१ कत्ता-२१, २२ कथापाभतं-८८ कथावत्थूनि-१७६ कप्पासिकसुखुमानं-११९ कबळीकारो-१८२, २२१ कम्बलसुखुमानं -११९ कम्मकिलेसा-१३७ कम्मक्खयाय-१८३ कम्मन्तसंविधानेन-१४५ कम्मानि-१८३ करचरणमुदुतञ्च -११४ करतियो-१५५, १६४ करवीकभाणी-१०७,१३० करुणाचेतो- २२९ करुणासहगतेन-३६, ५७, १७९ कलन्दकनिवापे-१३६ कलम्बुका-६४ कलहजाता-८७,१६७ कलहप्पवड्डनआकिच्चकारिं-१३०
कल्याणपटिभानो-७९ कल्याणमित्तता-१६९, २१९ कल्याणसहायो-२१२, २४७ कसिणायतनानि-२१४, २४८ कसिवन्तो-१५२,१६१ कस्सपस्स-१४८,१५७ कळारमट्टको-६,७ कामगुणा – १८६ कामच्छन्दनीवरणं-१८७,२२३ कामतण्हा- १७२, २२० कामधातु-१७२,२२१ कामपच्चया-१९०, २२४ कामभवो-१७३ कामभोगिनियो- ९२, ९३ कामरागानुसयो-२०१,२३२ कामवितक्को-१७२ कामवितक्कं-१८० कामसङ्कप्पो-१७२,२१५,२५० कामसञ्जा-१७२, २११, २४६ कामसुखल्लिकानुयोगमनुयुत्तो-८४ कामसेट्ठो-१५५, १६४ कामासवो-१७३ कामुपादानं -१८४ कामूपसहिता-१८६, १८७ कामेसुमिच्छाचारा वेरमणिया-१४७ कामेसुमिच्छाचारो-५०, ५२,१३७,२१४,२४८ कामोघो-१८३, २२२ कायकमं-१९४, २२७ कायगतासति-२१७ कायगन्थो-१८४ कायदुच्चरितं-१७१,१७३ कायभावना-१७५ कायमोनेय्यं-१७५ कायविनेय्या-१८७ कायसक्खी-७८ कायसम्फस्सजा-१९३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ख - ग]
सद्दानुक्कमणिका
180
कोणागमनस्स-१४८,१५७ कोरक्खत्तियो-४,५,६ कोसलो-६१, ६२ कोसल्लानि- १७६ कोसेय्यसुखुमानं -११९ कोसोहितवत्थगुरहो- १०७,१२०
कायसुचरितं- १७२ कायसोचेय्यं - १७५ कायानुपस्सी - ४२, ५६, १०५, १७६, २२१ कायिन्द्रियं-१९० कालकञ्चिका-५,६ कालञ्जू-१००, १९९,२३३ कालवादी-१००, १३२ किलन्तकाया-२३,२४ किलन्तचित्ता -२३, २४ कुक्कुटका-१५३,१६२ कुक्कुटसम्पातिका-५५ कुक्कुरवतिको-४ कुम्भण्डसेनाय - १४७,१५६ कुम्भण्डानं अधिपति-१५०,१५९ कुम्भण्डो-१५४,१५५,१६३ कुवेरनलिनी-१५३, १६२ कुवेरो-१५२, १५३,१६१,१६२ कुसलकम्मपथा-५२,२१४,२४९ कुसलधम्मदेसना -७५ कुसलधातुयो- १७२ कुसलमूलानि-१७१, २२० कुसलवितक्का - १७२ कुसलसङ्कप्पा - १७२ कुसलसञा–१७२ कुसलेसु धम्मेसु-३५,७५, १०८, १२६, १७१, १८९,
२१३, २१७, २२३, २३५, २४८ कुसलं-४४, ५४,११७,११८ कुसिनाटा-१५२,१६१ कुसीतवत्थूनि-२०२,२३६ कुहको-७९ कुळीरका – १५३, १६२ कूटट्ठो-८१, ८२ केतुमती-५५ केतुमतीराजधानीपमुखानि-५५ केवलपरिपुण्णं-५६, २१२, २३५ केसमस्सुलोचकोपि-२९
खज्जभोज्जरसलाभिरुत्तमं-११३ खत्तियपरिसा -२०६ खत्तियमहासालं-२०५ खत्तियो-४३,४४,४५,४७,४८,४९,५०,६९,७२,
१२७,१३० खन्ति-१७० खन्धबीजं-३१,३३ खयेञाणं-१७१,१७६ खलमूसिकायो-१८ खिड्डापदोसिका-२२, २३ खिप्पाभिञा-७८,७९,१८२ खीणासवबलानि-२३३ खीणासवो- ६१, ७२, ९९, १८७, २३३, २३४ खुरमुण्डं - ४९ खोमसुखुमानं -११९
गग्गराय-२१७ गणकमहामत्ता-४७,११०,११४,१२७,१२८,१२९,
१३१,१३३ गणकमहामत्तानं-१२६ गतियो-१०६,१०७,१८७ गन्था-१८४ गन्धकथं-२६ गन्धतण्हा-१९३,२२८ गन्धब्बनागा-१११
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[१०]
दीघनिकायो-३
[घ-च]
गन्धब्बसेनाय-१४७,१५६
घानसम्फस्सजा-१९३ गन्धब्बा- ११०, ११४, १२७, १२८, १२९, १३१. | घानायतनं-१९२, २२८, २४८ १३४
घानिन्द्रियं - १९० गन्धसञ्चेतना-१९३ गन्धायतनं-१९३,२४८ गब्भावक्कन्ति-७५,७६,१८४ गब्भिनियोपि-६०
चक्करतनं-४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ५५, १०६, गरहा-६८, ६९
१०८,१३३ गरुकरणो-१९४,१९५, २२७,२२८
चक्कवत्तिवत्तं-४७ गरुको-२०३, २३७
चक्कवत्ती-४२, ४५, ४६, ४७, ५५, १०६, १०८, गहपतिनेचयिका-११,१२,१३,१४,१५
१३३ गहपतिमहासालं-२०५
चक्कानि-१०७,११०,२२१ गहपतिरतनं-४३, ५५,१०६, १०८,१३३
चक्खायतनं-१९२,२२८,२४८ गामकथं--२६
चक्खुना-३७, ८२, ८३, १८०, १८३, १९४, १९८, गामघातम्पि-४९
२१४,२३०,२३१,२४९ गिज्झकूटं-१४७, १५६
चक्खुन्द्रियं-१८०,१९० गिरिगुहं -३५
चक्खुमन्तो-१४६ गिलानुपट्ठानेन - १४५
चक्खुविज्ञाणं-१९३ गिहिपतिरूपका–१२३
चक्खुवि य्या-१८६ गुत्तद्वारो-७९
चक्खुसम्फस्सजा-१९३ गुळो - १५५, १६४
चक्खूनि-१७५ गोतमकं-६
चतुक्कुण्डिको-४,५ गोतमस्स-५,९,१०,११,१४,१५,१६,१९,२६, | चतुत्थं झानं-५७, ९८, १७७, १७८, २११, २१२, २७, २८, ३८
२१५, २४६, २५० गोतमो-८, ९, १२, १३, १४, १५, २२, २३, २४, | चतुन्नं-५७,६१,७२
२५, २७, २८,३८,४०,४१, ६१, ६२,१०० चतुरङ्गिनिया - ४५,४६ गोतमं - १४८, १४९, १५०, १५१, १५३, १५७, चतुरापस्सेनो-२१४, २१५, २४९ १५८,१५९, १६०,१६२
चतुवण्णसुद्धि-६० गोत्तपटिसारिनो-७२
चतूसु वण्णेसु-६१ गोपखुमो - १०७, १२५, १२६
चत्तारीसधम्मा-२२२ गोपालो-१५५, १६४
चत्तारोकम्मकिलेसा-१३७ चत्तालीसदन्तो-१०७, १२९ चन्दनो - १५५, १६४
चन्दिमसूरिया-६३, ६७ घानविज्ञाणं- १९३
चम्पाय--२१७ घानविद्येय्या-१८७
चागधन-१२२,१९९,२३१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[छ -ञ]
सद्दानुक्कमणिका
[११]
चागाधिट्ठानं-१८३ चागानुस्सति-१९८,२२८ चातुमहाराजिका-२०५ चातुयामसंवरसंवुतो-३५, ३६, ३७ चितन्तरंसो-१०७, १२३, १२४ चित्तसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं-५७,१७७ चित्तसेनो-१५५, १६४ चित्तानुपस्सी-४२, ५६, १०५, १७७, २२१ चित्ते चित्तानुपस्सी-४२,५६, १०५, १७७, २२१ चिरट्ठितिकं - ९४, १६८,१६९, १७१, २१६ चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि
-२१३ चुतूपपातञाणदेसना - ८२ चुतूपपातजाणे-८२, ८३ चुतूपपातेजाणं-१७६ चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स-१६६ चुन्दो-८७,८८ चेतोखिला-१८९, २२३ चेतोपणिधि-२०५,२०६ चेतोपरियाणं-७४ चेतोविमुत्ति-१९६,१९७, २१८, २२८, २२९ चेतोसमाधि-२१८ चोदनावत्थूनि - १७४ चोरा- १४९,१५८
जनेसभो-१५५, १६४ जम्बुदीपे - ५५ जम्बुदीपो-५५ जरसिङ्गालो-१७ जवनपञो-११८ जागरियानुयोगमनुयुत्तो-७९ जातिजरामरणिया - ४१ जातिथेरो-१७४ जालहत्थपादो-१०७,११४ जालियो-१५,१६, १७, १८, १९ जिनो-११५, १३९ जिनं-१४९,१५०,१५१,१५३,१५८,१५९,१६०,
१६२ जिव्हायतनं-१९२, २२८,२४८ जिव्हाविञआणं- १९३ जिव्हाविनेय्या-१८७ जिव्हास्स होति विपुला पुथुला-१३१ जिव्हिन्द्रियं-१९० जीवितमदो-१७६ जूतप्पमादट्ठानानुयोगो-१३८ जेतवने-१०६ जोतिपरायनो-१८६
झानानि-१७७ झानं-५७, ६९, ९८, १७७, १७८, २११, २१२,
२१५,२४६,२५०
छन्दसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं-५७१७७ छळङ्गसमन्त्रागतो-२१४, २४९ छळाभिजातियो-१९८
जनतमहेठको - १२५ जनपदकथं-२६ जनपदत्थावरियप्पत्तो-४२,५५,१०६,१०८,१३३
आणदस्सनपटिलाभाय-१७७,१७८ आणदस्सनविसुद्धि- २४३ आणदस्सनं-१०० आणवादो-८, ९, १२, १३ आणानि- १८१, २१९, २२१, २२२
11
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[१२]
दीघनिकायो-३
[ठ-द]
आणं-१००,१८१, २१८, २१९, २२१, २२२, २२५ तमपरायनो - १८६ आतिक्खयं-५४
तमो-१८६ जायप्पटिपन्नो-४,८९,९०,१८१
तस्सपापियसिका-२०१ तारकरूपानि-६३,६७ तावतिसकायम्हि-१०
तावतिसा-२०५ ठपनीयो-१८३
तिक्खपो-११८ ठानकुसलता-१६९
तिणभक्खो-२९ ठितकोव-१०७
तिणवत्थारको-२०१ ठितिभागियो-२२२
तिण्णविचिकिच्छो-३५ तिन्दुकखाणुपरिब्बाजकारामो-१२,१३,१४,१५ तिरच्छानकथं - २६,२७, ३९
तिरच्छानयोनि-१८७ तचपरियन्तं-७७,७८
तिरोकुटुं-८३, २३० तण्डुलप्फलो-६५, ६७
तिरोपब्बतं -८३,२३० तण्हा-६३,१७२, १८२, २२०
तिरोभावं-८३, २३० तण्हाकाया-१९३,२२८
तीणावुधानि-१७५ तण्हामूलकाधम्मा-२४४
तीणिन्द्रियानि-१७५ तण्हुप्पादा- १८२
तुच्छकुम्भीव-२७, ३८ ततियं झानं-५७,९८,१७७,१७८,२११, २४६ तुलाकूट-१३३ ततोजसी-१५२,१६१
तुसिता-१७५, २०५ ततोतला - १५२,१६१
तेजसि-१५२,१६१ ततोला -१५२,१६१
तेजोकसिणमेको-२१४,२४८ तत्तला-१५२,१६१
तेजोधातुं -१९ तथाकारी-१००
तेलपदीपो-१६७ तथागतो-९, २०, २२, २३, २४, २५, ८५, १००,
१०१, १०८, १०९, १११, ११२, ११४, ११५, | ११६, ११७, ११९, १२०, १२२, १२३, १२४, १२५, १२६, १२८, १२९, १३०, १३२, १३३, थिनमिद्धनीवरणं-१८७,२२३ १७३, २१०,२११, २३९
थूलूसु-४ तथारूपाय-१९५,२२८
थेय्यसङ्खातं - ४८,४९, ५०,९९, १८७ तथावादी-१००
थेरा-९१,९२,९३,१७४ तपस्सिनो-३०,३१,३२,१४८, १५७ तपोजिगुच्छा -२८, २९, ३२, ३५, ३६, ३७,३८ तपोजिगुच्छावादा-२८ तपोजिगुच्छासारा-२८
दक्खिणावट्टकजातानि-१०७
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________________
[द-द]
दक्खिणाविसुद्धियो - १८४ दक्खिय्यो - ४, १८१ दण्डादानं - ६८, ६९ भक्खो - २९ दधिमुखो - १५५, १६४ दन्धाभिञ्ञा - ७८, ७९, १८२
दसायतनानि - २४८ दस्सनसमापत्तिदेसना - ७७
दस्सनसमापत्तियो - ७७
दस्सनसमापत्ती - ७७, ७८ दहनेमि - ४२, ४३ दळ्हनेमिचक्कवत्तिराजा - ४२
दळ्हपरक्कमो - १८९, २१३, २२३, २३५
दानवत्थूनि -- २०४
दानसंविभागे - १०८, १२७
दानूपपत्तियो - २०४
दानेन - ११४, १४४
दारुपत्तिकन्तेवासी - १५, १६, १७, १८, १९
दासकम्मकरा - १४३, १४५, १४६ दिट्ठधम्मसुखविहाराय - १७७, १७८ दिट्ठधम्मिकानं – ९६
दिट्ठानुगतिं - ६३, ६६ दिट्ठानुसयो - २०१, २३२
दिट्ठगतं - ५, ७
दिट्ठनिस्सया - १०२, १०३, १०४
दिट्टिप्पत्तो - ७८, २००
दिट्ठियोगो - १८३, २२२
दिट्ठिविपत्ति – १७०
दिट्ठिविसुद्धि - १७१, २४३
दिट्ठिसञ्ञोजनं - २०१
दिट्ठिसम्पदा - १७०, १८८
दिट्ठिसामञ्ञगतो - १९५
दिट्टुपादानं - १८४ दिट्ठोघो - १८३, २२२ दिन्नादायिनो - १४५ दिब्बचक्खु - १७५
दिवाविहाराय - ११ दिवास- १७८
दीघङ्गुलि - १०७, १११ दीघायुकत - २१
दीघो - १५५, १६४
दुक्खक्खयगामिनिया - २२३, २४८
दुक्खक्खयाय - ३, १९५, २२८
दुक्खता - १७३ दुक्खधम्मानं - १३८ दुक्खनिरोधगामिनिया - १८१ दुक्खनिरोधगामिनीपटिपदा - २२२
दुक्खनिरोधोति - १०२
दुक्खनिरोधं - २२२
दुक्खविपाकं - १८३
दुक्खसञ्ञ - १९२, १९८, २४६, २५० दुक्खसमुदयोति - १०२
दुक्खसमुदयं - २२२
दुक्खस्सन्तकिरियाय - २१७
दुक्खा - ७८, १७३, १८२, २२० दुक्खन्द्रियं - १९०
दुग्गतिं विनिपातं - ३७, ७१, ८२, १८७, १८८ दुच्चरितानि - १७१
दुतियं झानं - ५७,९८, १७७, १७८, २११, २४६ दुप्पटविज्झा - २१९, २२०, २२२, २२४, २२५, २२८, २३०, २३३, २३९, २४०, २४५, २४९, २५०
13
दुप्पवेदिते - ८७, ८८, ८९, १६८
दुरक्खाते - ८७, ८८, ८९, १६८ दुरसीलो - १८८ देवतानुस्सति - १९८, २२८
देवमनुस्सपूजितं - १११
देवमनुस्सानं – ३, ५५, ९४, १४८, १५७, १६८, १६९,
१७१, १७६, १८१, १८६, १८९, १९२, १९५,
[१३]
१९८, १९९, २०१, २०८, २१२, २२३
देवसूतो - १५५, १६४
देवा - २२, २३, २४, ८२, ११०, ११४, १२७, १२८,
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________________
[१४]
दीघनिकायो-३
[ध-न]
१२९, १३१, १३४, १७४, १७५, १८७, २००, | धम्मभूतो-६२ २०५, २०९, २३१,२३२,२४४
धम्मयागी-११५ दोमनस्सिन्द्रियं-१९०
धम्मराजा-४२,५५,१०६,१०८,१३३ दोमनस्सूपविचारा--१९४
धम्मवादी- १००,१३२ दोवचस्सता-१६९, २१९
धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो-७८,१९९,२३१ दोवारिका -४७, ११०, ११४, १२७, १२८, १२९, धम्मविनया-४,६,८,२० १३१, १३३
धम्मसञ्चेतना-१९३ दोवारिको-७४
धम्मसञ्जा-१९३ दोसागतिं - ९९, १३७
धम्मसमादानानि-१८३ द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि-१०६
धम्मसंहितं-१०२ द्वयकारी-७१
धम्माधिपतेय्यो-४४ द्वयगामिनीति-९
धम्मानुधम्मप्पटिपत्ति-१८१,२२० द्वागारिको-२९
धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो-८८,८९,९० द्वालोपिको-२९
धम्मानुपस्सी-४२,५६,१०५,१७७,२२१ द्वेधिकजाता - ८७,१६७
धम्मानुसारी-७८,२०० धम्मानुस्सति – १९८,२२८ धम्मायतनं -१९३
धरणी-१५२,१६१ धतरट्ठोति-१४९,१५८
धातुकुसलता-१६९ धम्मकथं-११५
धातुनानत्तं- २४५ धम्मकामो-२१३,२४७
धितिमा--७९ धम्मकायो-६२
धुत्ता-१३९ धम्मकेतु-४४
धुनन्ति-१३५ धम्मक्खन्धा-१८३२२७
धुवा- २२,२४ धम्मचरियाभिरतो-१२७ धम्मञ्जू-१९९,२३३ धम्मतण्हा-१९३,२२८ धम्मथेरो-१७४
नक्खत्तानि-६३,६७ धम्मदायादोति-६२
नगरकथं-२६ धम्मदीपा-४२,५६
नगरघातम्पि-४९ धम्मद्धजो-४४
नच्चगीतं-१४० धम्मन्वयो-७४
नत्थिदानि-१०० धम्मपटिसंवेदी- १९१,१९२, २२५, २२६, २२७ नदीविदुग्गा-५३ धम्मपदानि-१८३
नप्पटिबलो-२११,२४० धम्मपरियायो-१०५
नप्पटिविरूळ्हं-६७ धम्मपरियायं-८६,१०५
नरुत्तमो-१०९
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________________
[न-न]
नळवनं - ५५ नळो - १५५, १६४
नागपारिसज्जो - १५४, १५५, १६३ नागमहामत्तो - १५४, १५५, १६३ नागसेनाय - १४७, १५६ नागो- १५४, १५५, १६३ नाटपुत्तस्स - ८७, १६८
नापुतो - ८७, ८८, १६७, १६८
नाथकरणा- २१२
नाथकरणाधम्मा- २४७ नानत्तकथं- - २६
नानत्तकाया - २००, २०९, २३१,२३२, २४४ नानत्तसञ्ञिनो - २००, २०९, २३१,२३२, २४४
नानत्ता - २४५
नानातित्थिया - ११, १२, १३, १४, १५
नानातित्थियानं - १२
नानातित्थिये - ११ नानुब्यञ्जनग्गाही - १८०
नामगोत्तं - १४७, १५६, १६४
नामञ्च - १६९, २१९
नालन्दायं - ७३
निकामलाभी - ८४
निगण्ठनाटपुत्तकालङ्किरिया- - ८७ निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स - ८७, १६८ निगण्ठो - ८७, ८८, १६७, १६८
निगमकथं - २६
निगमघातम्पि - ४९
निग्गहितो - ८७, १६७ निग्रोधपरिमण्डलो - १०७ निग्रोधो - २६, २७, २८, ३८, ३९ निघण्डु - १५५, १६४
निच्चा - २२, २४ निजिगीसनको - ७९
निज्जरवत्थूनि - २५१ निद्दसवत्थूनि - १९९,२३३ निप्पेसिको - ७९
सद्दानुक्कमणिका
15
निब्बानधातुया - १०० निब्बानाय - ९७, ९८, १०२
निब्बिदाय - ९७, १०२ निब्बिन्नरूपा – ८७, १६८
निब्बुति - २०, २२, २३, २४, २५
निब्बेधभागिया - १९८ निब्बेधिकपञ्ञ - ११८ निमित्तग्गाही - १८०
निम्माता - २१, २२ निम्मानरती - १७४, २०५ नियतो - ७९, ८०, ९९
निरब्बुदं - १०८, १३३ निरयो - १८७
निरामिसोति - २२५
निरुज्झति - १४९, १५०, १५८, १५९ निरोधतण्हा - १७२
निरोधधातु - १७२
निरोधसञ्ज - १९८, २००, २३३, २५०
निसन्तिया - ९५,९६
निस्सरणपञ्ञ - ३३, १७९, १८०
निस्सरणिया धातुयो - १९०, १९६, २२०, २२४, २२८ निस्सरणं - १९०, १९१, १९६, १९७, २२०, २२४,
२२५, २२९, २३० निहितदण्डो - १११
नीलकसिणमेको - २१४, २४८ नीलनिदस्सनानि - २०६, २४१ नीलवण्णानि - २०६, २४१
नीवरणानि - १८७, २२३ नीवारभक्खो - २९
नेक्खम्मछन्दाभिरतो - १०९, १११, ११७, ११९
[१५]
क्खम्मधातु - १७२ नेक्खम्मवितक्को - १७२
नेक्खम्मसङ्कप्पो - १७२
नेक्खम्मसञ्ञ - १७२
नेगमजानपदा - ११०, ११४, १२७, १२८, १२९,
१३१, १३३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दीघनिकायो-३
[प-प]
नेत्ति-१५५.१६४ नेमि-१५२, १६१ नेमित्तिको-७९ नेवसञानासज्ञायतनं-१७९, २०८, २११, २१२,
२४३, २४६ नेवसञीनासजी-१०४ नेवसेक्खानासेक्खा - १७५
पग्गहनिमित्तञ्च -१७० पग्गहो- १७० पच्चवेक्खणनिमित्तं-२२३ पच्चामित्तेहि-१०८, ११२, १३२ पच्चुपट्टितकामा-१७४ पच्चुप्पन्नदुक्खं-१८३ पच्चुप्पन्नसुखं-१८३ पजानाति-३७, ७७, ७८, ८२, ८३, २१६, २३१, ___ २५० पजापति-१५५,१६४ पज्जुन्नो-१५५, १६४ पञ्चक्खन्धा-१८६ पञ्चङ्गविप्पहीनो-२१४,२४९ पञ्चङ्गिकोसम्मासमाधि-२२३ पञ्चन्नं ओरम्भागियानं-७९, ८०, ९९ पञ्चालचण्डो-१५५, १६४ पञ्चिन्द्रियानि -७५, ९४, १९०, २२४, २३४ पञ्चुपादानक्खन्धा-१८६,२२३ पञ्जा-२७,३८,१७५ पाखन्धो-१८३,२२७ पञाचक्खु-१७५ पञाधनं-१२२,१९९,२३१ पाधिट्ठानं - १८३ पापारिपूरिं-४१ पाबलं-१८३, २०० पञ्जाभावना-१७५
पञआविमुत्तो-७८,२०० पञाविमुत्तिं-५८,७५, ८०, ९९, २३१ पाविसुद्धि--२४३ पावुधं-१७५ पचिन्द्रियं - १९०,२२४ पहब्याकरणानि-१८३ पटाकं-८५ पटिकूलसञी-८३ पटिघसानं-१७९,२००,२०७,२०९,२४२,२४४ पटिघसञोजनं-२०१ पटिघाताय-९६ पटिघानुसयो-२०१, २३२ पटिच्चसमुप्पन्नं - २२० पटिच्चसमुप्पादकुसलता-१६९ पटिच्छन्नं वा विवरेय्य-१४६ पटिज्ञाय-२०१ पटिपदा-७८,७९, १८२,२२२ पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धि-२४३ पटिपदादेसना-७८ पटिपदासु-७८,७९ पटिपुच्छाब्याकरणीयो-१८३ पटिराजानो - ४५, ४६ पटिलाभाय-२३४,२३५, २३६ पटिवानरूपा-८७, १६८ पटिसङ्खानबलञ्च-१७० पटिसन्थारो-१७० पटिसल्लीनो -२६ पठमं झानं-५७, ९८, १७७, १७८,२११, २४६ पणिधाय-३५,१९० पणीततरञ्च -३८ पणीतधातु-१७२ पणीतपणीतं-७४ पणुनपच्चेकसच्चो-२१४, २१५, २४९, २५० पण्णकुटियो-६९ पतिरूपदेसवासो-२२१ पत्तयोगक्खेमा-९१,९२, ९३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
[१७]
पथवीकसिणमेको-२१४,२४८ पदक्खिणग्गाही-२१३, २४७ पदुट्ठचित्ता-२३, २४ पधानानि-१८० पधानियङ्गानि - १८९,२२३ पधानेसु-७८ पनादो-१५५, १६४ पन्थदुहनम्पि-४९ पपटिकप्पत्ता-३५ परकुसिटनाटा-१५२,१६१ परकुसिनाटा-१५२,१६१ परनिम्मितकामा -१७४ परनिम्मितवसवत्ती-१७४,२०५ परन्तपो-१८५ परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो-१८५ परपुग्गलविमुत्तिञाणदेसना-८० परपुग्गलविमुत्तित्राणे -८० परसञ्चेतना-१८४ पराभूतरूपो-१३, १५, १६, १९ परिक्खीणभवसंयोजनो-६१,७२, ९९ परिजेय्यो-२१७, २१८ परिणायकरतनमेव-४३, ५५, १०६,१०८,१३३ परितस्सना-२१ परित्ताणं-१४४ परिनिब्बानिको-२१०,२११,२३९ परिनिब्बायी-७९, ८०, ९९ परिपुण्णकोसकोट्ठागारो-१२२ परिपुण्णसङ्कप्पो-३०, ३२ परिपूरकारी-१९५ परिब्बाजकारामे-२६,४१ परिब्बाजको-१, २, २५, २६, २७, २८,३८, ३९ परिमण्डलो-१२२ परिमुखं-३५ परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो-२९ परियुट्टितचित्ता-४१ परियोसानकल्याणं-५६
परिसा-१२, १२९, १३०, २०६ परिसुद्धकायसमाचारो-१७३ परिसुद्धमनोसमाचारो- १७३ परिसुद्धवचीसमाचारो-१७३ परिसुद्धं-५६, २१२, २३५ परिळाहपच्चया-६५ परंकतो-१०२, १०३ पलालपुर्ज-३५ पवत्तफलभोजी-२९ पविवेकावुधं-१७५ पसेनदि-६१, ६२ पस्सद्धकायसङ्खारो-२१४, २१५, २४९, २५० पस्सद्धकायो-१९२,२२५,२२६, २२७,२४३ पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो -७८, १९९, २३१ पस्ससुखं - १९० पहातब्बो-२१७,२१८ पहानपधानं-१८० पहानसा -१९२, १९८,२००,२३३, २४६,२५० पहूतजिव्हो-१०७,१३० पहूतधनधो - १२२ पहूतवित्तूपकरणो-१२२ पाकारसन्धिं-७४ पाणातिपाता वेरमणिया - १४७,१५६ पाणातिपातो-४९, ५०,५२, १३७,२१४, २४८ पातिमोक्खसंवरसंवुतो-५७, २१२, २३५, २४७ पाथिकपुत्तो-८,९,१०,११,१२,१३,१४,१५,१६,
पादतलचक्कलक्खणं-१०९ पानकथं-२६ पापमित्तता-१६९, २१९ पापमित्तानुयोगो-१३८ पापिच्छो-३२, ३४, १९५ पामोज्ज-१९१, १९२, २२५, २२६, २२७, २४३ पारिचरियाय – १४४ पारिसुद्धिपधानियङ्गानि-२४३ पावळा - १३, १४,१६
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________________
[१८]
दीघनिकायो-३
[फ-ब]
पेत्तेय्या-५२, ५४ पोखरसातका-१५३, १६२ पोथुज्जनिका-९७ पोनोमविका-४१
फरुसावाचा-५१, १८५ फस्सकाया-१९३ फस्सो-१८२, २१८, २२२ फळुबीजं-३१, ३४ फासुकामो-१२३ फेग्गुप्पत्ता-३७ फोट्ठब्बतण्हा-१९३, २२८ फोटुब्बसञ्चेतना-१९३ फोटुब्बसञ्जा-१९३ फोट्ठब्बायतनं-१९३, २४८
पावा-१६६ पावायं-८७, ८८, १६६, १६७, १६८ पावारिकम्बवने-७३ पावेय्यका-१६६,१६७ पावेय्यकानं मल्लानं-१६६ पासादिको - ६२, १०५ पाहुनेय्यो-४, १८१ पिञ्जाकभक्खो-२९ पिता भूतभब्यानं-२१, २२ पियचक्खुना-१२५,१२६ पिसुणावाचा-१८५ पीतकसिणमेको-२१४, २४८ पीतिभक्खा-२०,२१, ६२, ६७ पीतिसम्बोज्झङ्गो-७८, १९९, २३१ पुग्गलञ्जू-१९९, २३३ पुग्गलपण्णत्तीसु-७८ पुग्गला-७८,१७४, १८५, १८६, २००, २०२ पुञ्जकिरियवत्थूनि-१७४ पुञक्खया-२०,२१ पुञफलं-१२७, १३१ पुण्णको-१५५, १६४ पुत्तदारा-१४३, १४५ पुथुपो -११८ पुनब्भवोति-१०० पुब्बारामे-५९ पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणं-१७६, २२१ पुब्बेनिवासं-२१, २२, २३, ३६, ३७,८०,८१, ८२,
२३१ पुरिसदम्मसारथि -३, ५५, १८१, १८९,२२३ पुरिसपुग्गला -४, १८१ पुरिसयुगानि-४, १८१ पुरिसविसेसकरो-१२२ पुरिससीलसमाचारे-७९ पुळुवकसनं-१८१ पेता-१५८ पेत्तिविसयो-१८७
बन्धुजीवकपुष्फ-२०७,२४२ बलानि-७५, ९४, १८३, २०० बहुकिच्चा-१५६,१६४ बहुजनअसुखाय-१९५ बहुजनअहिताय - १९५ बहुजनसुखाय-९४,१६८,१६९,१७१,२१६ बहुजनहिताय-९४,१६८,१६९, १७१,२१६ बहुविविधनिमित्तलक्खणञ्जू-१२२ बाराणसी-५५ बीजबीजमेव -३१, ३४ बीरणथम्बके -- ५,६ बुद्धानुस्सति – १९८, २२८ बुद्धो-३,३९,५५, १०८,११०,१११,११२,११३,
११४, ११५, ११७, ११८, ११९, १२०, १२१, १२२, १२३, १२४, १२५, १२६, १२७, १२८, १२९, १३१, १३२,१३४, १८१, १८९, २२३
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________________
[भ-म
सद्दानुक्कमणिका
बुद्धं - १४९, १५०, १५१, १५३, १५८, १५९, १६०, भत्तवेतनानुप्पदानेन -१४५ १६२
भयकथं-२६ बोज्झङ्गा-७५, ९४, १९९, २३४
भयागतिं-९९,१३७, १८२ बोधिपक्खियानं -७१,७२
भरिया पच्चुपट्ठातब्बा-१४४ ब्यसनानि-१८७
भवतण्हा-१६९,१७२, २१९, २२० ब्याकतं-१०२
भवदिट्टि-१६९ ब्यापादवितक्को-१७२
भवयोगविसंयोगो-२२२ ब्यापादसङ्कप्पो-१७२, २१५, २५०
भवयोगो-१८३, २२२ ब्यापादसञ्जा-१७२
भवरागसञोजनं-२०१ ब्यापादो-५३, १८४, १८७, १९६, २१४, २२८, | भवरागानुसयो-२०१, २३२ २२९, २४८,२४९
भवा-१७३ ब्रह्मकायिका-१७४, २००, २०५, २०९,२३२,२४४ भवोघो-१८३,२२२ ब्रह्मकायो-६२
भस्ससमाचारे -७९ ब्रह्मचरियं-४, ४१, ५६, ९०, ९१, ९२, ९३, ९४, भारद्वाजो-५९, १५५, १६४
१६८, १६९, १७१, १९०, २१२, २१६, २३५ भावनमन्वाय-७१,७२ ब्रह्मा -५२, ५४
भावना-१७५ ब्रह्मदायादा-६०
भावनापधानं -१८०,१८१ ब्रह्मनिम्मिता-६०,६१
भावनाबलञ्च -१७० ब्रह्मभूतो-६२
भावनारतो-१८० ब्रह्मविमानं-२०, २१
भाविता-१७७, १७८, १९६, १९७, २२८, २२९, ब्रह्मस्सरो-१०७, १३०
२३४ ब्रह्मजुगत्तो-१०७, १११
भिन्नथूपे-८७,८८,१६८ ब्रह्मनो-६०,६१
भिन्नानुसन्धिजननिं-१३० ब्राह्मणगहपतिका - ११०, ११४, १२७, १२८, १२९, भूतभब्यानं-२१, २२ १३१,१३३
भूतवादी - १००, १३२ ब्राह्मणगहपतिकानं-१२६
भूमिपप्पटको-६४, ६७ ब्राह्मणजच्चा-५९
भेदप्पवड्डनविवादकारिं-१३० ब्राह्मणमहासाला-११, १२, १३, १४, १५
भोगक्खन्धं-१८८ ब्राह्मणा-३१,३३, ५९,६०,६१,६९,८४
भोगसम्पदा-१८८ भोगिया कुमारा-११०, ११४, १२७, १२८, १२९,
१३१,१३३
भग्गव-२, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ११, १२, १३, १४, | म
१५,१६,१७,१८,१९, २०, २२, २३, २४,२५ भग्गवगोत्तस्स -१,२
मगधेसु-४२ भग्गवगोत्तो-१,२, २५
मग्गामग्गजाणदस्सन-२४३
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________________
[२०]
दीघनिकायो-३
[म - म]
मच्छरियानि-१८७
महाब्रह्मा-२१, २२ मज्झिमधातु-१७२
महामत्तकथं --२६ मज्झेकल्याणं-५६
महावने कूटागारसालायं-६,८,१९ मणि-१५५, १६४
महासम्मतो महासम्मतो-६९ मणिरतनं-४३, ५५,१०६,१०८,१३३
महिद्धिको-८५ मत्तञ्जू-७९,१९९, २३३
महिरुहपरिमण्डलो-१२२ मत्तेय्या-५२, ५४
मागधस्स - १५४,१६३ मदा-१७६
माणिवरो-१५५, १६४ मनसिकारकुसलता-१६९
मातलि-१५५, १६४ मनायतनं -१९२, २२८
मातापिता-१४५ मनिन्द्रियं-१८०
मातुकुच्छिम्हा-७५,७६, १८४ मनुस्सधम्मा-९
मातुलायं-४२ मनोकम्मेन-१४५
मानसञोजनं-२०१ मनोदुच्चरितं-१७१, १७३
मानानुसयो-२०१, २३२ मनोपणिधि-२१
मारपरिसा-२०६ मनोपदोसिका-२३, २४
मारबलं-५८ मनोमया-२०,२१,६२, ६७
मारसेनापमद्दिनो-१४८,१५७ मनोविआणं-१९३
मारिस-१५२, १५४, १५५, १६१, १६२, १६३, मनोसञ्चेतना - १८२, २२२
१६४ मनोसम्फस्सजा-१९३
मारो-४२ मनोसुचरितं-१७२
मालाकथं-२६ मनोसोचेय्यं-१७५
मालागन्धविलेपनं-२०५ मन्तस्साजीविनो-४७
मासड्ढमासा-६३, ६७ मन्दियो-१५५,१६४
मिगपक्खीसु-४४ मयूरकोञ्चाभिरुदा-१५३, १६२
मिगसञ्ज-५३ मरणसा -२४५, २५०
मिगारमातुपासादे -५९ मलखिलकलिकिलेसे-१३५
मिच्छत्ता-२०१,२३६, २४८ मल्ला-१६६,१६७
मिच्छाआजीवो-२०१, २३६,२४८ मल्लानं नगरं-१६६
मिच्छाकम्मन्तो -२०१, २३६, २४८ महानिरयं-१०
मिच्छााणं-२४८,२५१ महानेरु-१५१, १६०
मिच्छादिट्ठि-५१, ५२, २०१, २१४, २३६, २४८, महापओ-११८
२५१ महापुरिसलक्खणानि-१०६, १०७, १११, ११४, | मिच्छाधम्मो-५१,५२ ११५, १२२, १२३, १२५, १२८, १२९, १३०, मिच्छावाचा-२०१, २३६, २४८
मिच्छाविमुत्ति-२४८,२५१ महापुरिसवितक्का-२४०
मिच्छासङ्कप्पो-२०१, २३६, २४८
१३३
20
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________________
[ य-र ]
मिच्छासति - २०१, २३६, २४८ मिच्छासमाधि - २०१, २३६, २४८
मित्ता सुहदा वेदितब्बा - १४२ मित्तामच्चा पच्चुपट्टातब्बा - १४४ मुलिन्दो - १५५, १६४
मुट्ठस्सच्चञ्च - १७० मुट्ठस्सति - १९९, २३२ मुण्डके - ६०
मुतं - १००
मुत्ताचारो - २९
मुदुतलुनहत्थपादो - १०७, ११४
मुद्धाभिसित्तो - ४३, ४४, ४५, ४७, ४८, ४९, ५०
मुसलमन्तरं - २९
मुसावादा वेरमणिया - १४७
मुसावादी - ५०, ५२, ६८, ६९, १३७, १८५, २१४,
२४८
मूलघच्चं - ४९
मूलबीजं - ३१, ३३
त्तचित्तेन - १८९ मेत्ताचेतोविमुत्तीति - २२९
मेत्तासहगतेन - ३६, ३७, ५७, १७९
मेत्तेन - १४५
मत्तेय्यो - ५५
मेथुनं धम्मं - ६, ६५, ६६, ७०, ९९, १८७
मोघपुरिसा - ४१
मोनेय्यानि - १७५
मोरनिवापो - २७
मोहागतिं - ९९, १३७, १८२ मंसचक्खु - १७५
य
सद्दानुक्कमणिका
यक्खसेनाय - १४७, १५६
यक्खानञ्च अधिपति - १५३, १६२
यक्खिनी - १५४, १६३ यक्खो - १५४, १५५, १६३, १६४
21
यथाकारी - १००
यथाधम्मं - ४०
यथाबलंकम्मन्तसंविधानेन - १४५
यथाभूतं - ७४, १४८, १५७, १८९, २३३, २४३
यथावादी - १००
यथासन्थतिको - २९
यथासमाहिते - २१, २२, २३, २४, ७७, ७८, ८०, ८१,
८२, ८३
यानकथं - २६
यामा - २०५ यावतक्वस्स- १०७ युगन्धरो - १५५, १६४ यूपो - ५६
भुय्यसिका - २०१ योगक्खेमकामो - १२३
योगा - १८३, २२२ योनियो - १८४ योनिसोमनसिकारमूलका - २४३ योनिसोमनसिकारा - ७९, ८०
रक्खावरणतिं - ४४, ४७, ११० रजोजल्लधरो - २९
रतनानि - ४३, ५५, १०६, १०८, १३३ रत्तिन्दिवा - ६३, ६७ रसग्गसग्गितालक्खणं - १२४
रसतण्हा १९३, २२८
रसपथविया - ६७
रसपथवी - ६३,६७ रससञ्चेतना - १९३
रससञ्ञा - १९३ रसायनं - १९३, २४८ रागदोसमोहानं - ७९, ८०, ९९ राजकथं - २६,३९
राजगहे - २६, १३६, १४७
[२१]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[२२]
दीघनिकायो-३
3
राजगह-४१,१३६ राजिसिम्हि-४३,४७ रामपुत्तो- ९४ रासी-१७३ रूपक्खन्धो-१८६ रूपतण्हा - १७२, १९३, २२८ रूपरागो-१८७ रूपसञ्चेतना-१९३ रूपसञ्जा-१९३, २१२, २४६ रूपायतनं-१९३, २४८ रूपी अत्ता-१०४ रूपुपादानक्खन्धो-१८६,२२३ रूपं - १७४, १७८, १८०, १९४, १९८, २१४, २३०,
२३६,२४९ रोगब्यसनं-१८७
लक्खणञ्जू-१२९ लज्जवञ्च -१७० लपको-७९ लाभग्गयसग्गप्पत्तं- ९२ लिच्छविपुत्तो-२, ४, ५, ६,७,८,११,१९, २० लिच्छविमहामत्तो-१४,१५ लिच्छवी - ११, १२, १३, १४, १५ लोकधम्मा-२०६,२३६ लोकधातुया-८५ लोकविदू-३,५५, १८१, १८९, २२३ लोकानुकम्पाय-९४,१६८,१६९,१७१, २१६ लोको-२०, २४, ५३, ६२, ६३, ८१, १०२, १०३,
१३७,२११,२४० लोमहठ्ठजातो-१२ लोहितकसिणमेको-२१४, २४८
वचीकम्म-१९४ वचीदुच्चरितं-१७१,१७३ वचीपरमो-१४१ वचीसुचरितं-१७२ वज्जिगामे-३, ४, ६,७,८,१० वञ्झो -८१ वण्णवादी-२७,१७९,१८० वण्णातिमानपच्चया-६३,६४,६५ वदञ्जू-१४६ वधकचित्तं-५३ वनमूलफलाहारो-२९ वयोअनुप्पत्तो-९१, ९२, ९३ वरुणो-१५५, १६४ वसवत्ती-२१, २२, १०० वसी-२१, २२ वसुन्धरं - १०९ वाचासुचिण्णफलमनुभवि-१३१ वादप्पमोक्खाय-८७,१६७ वायोकसिणमेको - २१४, २४८ वायोधातु-१८२,१९६ वासेट्ठभारद्वाजा-५९,७२ वासेट्ठो-५९ विकटभोजनानुयोगमनुयुत्तो-२९ विकालचरियाय - १३८ विकालविसिखाचरियानुयोगो-१३८ विगतथिनमिद्धो-३५,१६७ विचक्खणो-१०९,१११,११७,११९ विचिकिच्छा - १७३, १८७, २१४, २४९ विचिकिच्छाकथंकथासल्लं-२२९,२३० विचिकिच्छानीवरणं-१८७, २२३ विचिकिच्छानुसयो-२०१, २३२ विचिकिच्छासञोजनं-२०१ विच्छिद्दकसनं-१८१
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________________
[व-व]
सद्दानुक्कमणिका
विजिते - ४४,४७,१५४, १६३
विरजो-१३० विज्जा-१७१,१७६, २१९, २२१
विरत्तरूपा-८७,१६८ विज्जाचरणसम्पन्नो-३, ५५,७२, १८१, १८९, २२३ विरागसञ्जा-१९२, १९८, २००,२३३, २४६,२५० विणकसिणमेको -२१४, २४८
विरागाय - ९७, ९८, १०२ विज्ञाणकाया-१९३
विरूपक्खोति- १५१,१६० विचाणक्खन्धो-१८६
विरूळ्हो-१५०, १५९ विज्ञाणञ्चायतनूपगा- २००, २१०, २३२, २४४ विवट्टकप्पे-३६, ८२ विज्ञाणञ्चायतनं-१७९, २००,२०८, २१०, २११, | विवट्टि-८१
२१२, २३२, २४२, २४३, २४४, २४६ विवादमूलानि-१९५ विज्ञाणट्ठितियो- १८२, २००, २३१
विसञोगा - १८४, २२२ विआणधातु-१९६
विसमलोभो-५१, ५२ विज्ञाणसोतं-७७,७८
विसारदो-१८८ विज्ञाणुपादानक्खन्धो-१८६,२२३
विसिखाकथं-२६ विले-४०,६१
विसुद्धिया -२१९ वितक्कविष्फारसई-७६,७७
विसेसभागिया-२१९, २२०, २२२, २२४, २२८, विदिसा-१३३
२३२, २३८,२३९, २४५, २४९ विधा - १७३
विहारा-१७६ विनयवादी-१००, १३२
विहिंसति-१५५,१६३, १६४ विनिपातिका-१७४, २००, २०९, २३१,२४४ विहिंसाधातु-१७२ विनीलकसनं-१८१
विहिंसावितक्को-१७२ विपरिणामदुक्खता- १७३
विहिंसासङ्कप्पो-१७२, २१५, २५० विपरीतदस्सनो-२११, २४०
विहिंसासा-१७२ विपस्सना- १७०, २१९
वीतरागस्स-२०६ विपस्सिस्स-१४८,१५७
वीतसारदा- १४८,१५७ विपुलदीघपासण्हिको-११२
वीमंसासमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं - ५७,१७७ विभज्जब्याकरणीयो-१८३
वीरियसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं-५७,१७७ विभवतण्हा- १७२, २२०
वीरियसम्बोज्झनो-७८,२३१ विभवदिट्ठि-१६९
वीरियिन्द्रियं - १९०,२२४ विमलो-१३०
वुत्तवादी-८५ विमिस्सदिट्ठिको -७१
बुसितवा-६१,७२, ९९ विमुत्तायतनानि-१९१, २२५
वूपसन्तचित्तो-३५ विमुत्ति-१७१, २१९
वेदनप्पतिटुं-१८२ विमुत्तिजाणदस्सनक्खन्धो-२२७
वेदना-१७३,१७८, १९३, २१२, २२०, २३६, २४६ विमुत्तिविसुद्धि-२४३
वेदनाकाया-१९३ विमुत्तो-७२, ९९
वेदनाक्खन्धो-१८६ विमोक्खो-२०७, २०८,२४२, २४३
वेदनानानत्तं- २४५
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________________
[२४]
दीघनिकायो-३
[स-स]
वेदनानुपस्सी - ४२, ५६, १०५, १७७, २२१ वेदनाय - १७८, २३६ वेदनारम्मणं-१८२ वेदनासु-४२, ५६, १०५, १७७, २२१ वेदनुपादानक्खन्धो-१८६,२२३ वेदयति-१३४ वेदेति- १९०, १९१, १९२, २२४, २२५, २२६,
२२७,२४३ वेधा -८७ वेपुल्लमगमंसु-५१, ५२ वेय्याबाधिकानं-९६ वेसालियानि चेतियानि-७ वेसालियं-६, ८, ११, १२, १३, १४, १५ वेसालिं-६,११ वेस्सभुस्स-१४८, १५७ वेस्सवणो-१४७, १४८, १५६, १५७ वेस्सा वेस्सा-७० वोस्सग्गपरिणामि-१८१
सङ्खारक्खन्धो-१८६ सङ्खारट्ठितिका-१६८ सङ्घारा - १७४, १७८, २३३, २३६ सङ्खारुपादानक्खन्धो-१८६,२२३ सङ्घो-५५, ५६ सङ्गहवत्थूनि-१८५ सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं - ९४, १६८, १६९, १७१,
२१६ सङ्घानुस्सति - १९८, २२८ सच्चवादी-१२८ सच्चाधिट्ठानं-१८३ सच्छिकरणीयाधम्मा- १८३ सच्छिकिरियाय-२०२, २०३, २०४, २३७, २३८,
२३९ सजिता-२१, २२ सञ्चेतनाकाया-१९३ सञप्पतिद्वं-१८२ सञा-१७८, १९२, १९८, २००, २१२, २३३, ___ २३६, २४५, २४६, २५० साकाया-१९३ सञआरम्मणं-१८२ सञ्जावेदयित-२०८ सजावेदयितनिरोधं-२११, २१२, २४३, २४६ स पादानक्खन्धो-२२३ सञोजनानि-१८७, २०१ सततविहारा-१९८,२३० सतपुञलक्खणं-१११ सतानुसारि जाणं- १०० सति-२२, २३,१७०, २१९ सतिन्द्रियं - १९०, २२४ सतिपट्टाना-७५, ९४, १०५, १७६, २२१, २३४ सतिबलं- १८३, २०० सतिविनयो-२०१ सतिसम्पजाय - १७७,१७८ सतिसम्बोज्झङ्गो-७८,१९९, २३१ सत्थन्तरकप्पो-५३
सउद्देसं--३७, ८१, ८२, २३१ सउपधिका-८३ सकदागामिफलसच्छिकिरियाय-२०२ सकदागामिफलं-१८२, २२२ सकदागामी-७९, ८०,९९, २०२ सक्कायदिट्ठि--१७३,१८७ सक्कायनिरोधो-१७३ सक्कायसमुदयो- १७३ सक्केसु-८७ सक्यपुत्तस्स-१४८,१५७ सक्यपुत्तिया- ९६, ९७, ९८, ९९ सगारवो-१९३,२२८ सग्गं लोकं-३७,७१, ८३, १०८, ११०, १३३,१३७,
१८८
सङ्खता-२१९
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________________
[स-स]
सद्दानुक्कमणिका
[२५]
सत्था-३, ५५, ८८, ८९, ९०, ९१, ९२, ९३, १३७,
१३९, १४२, १४३, १४५, १८१, १८९, १९१,
१९२, २१६, २२३, २२५, २२६ सत्थादान-२४५ सत्तम्बं-६ सत्तरतनसमन्नागतो-४२, ५५, १०६, १०८,१३३ सत्तरतनं -१२० सत्तवतपदानि-६ सत्तागारिको-२९ सत्तानुसया - २३२ सत्तालोपिको-२९ सत्तावासा-२०९, २४३ सत्तुस्सदतालक्खणं - ११२ सत्तुस्सदो-१०७,११३ सद्दतण्हा-१९३, २२८ सद्दसञ्चेतना-१९३ सद्दसञ्जा-१९३ सद्दायतनं -१९३, २४८ सद्धम्मस्सवनं-१८१,२२० सद्धम्मा-१९९, २३२ सद्धाधनं-१२२,१९९,२३१ सद्धानुसारी-७८, २०० सद्धाय - १२३ सद्धाविमुत्तो-७८,२०० सद्धिन्द्रियं-१९०,२२४ सनङ्घमारेन-७२ सनाभिकं-४४, ४५ सनिदस्सनसप्पटिघं-१७४ सनेमिकं-४४, ४५ सन्तुट्टिता-८५ सन्दिट्ठिको-४,१८१ सन्धागारं-१६६,१६७ सन्धानो-२६,२७,३८,४१ सन्निधिकारकं-६६,९९,१८७ सप्पभासं चित्तं-१७८ सप्पाटिहारियं-९१,९२, ९३
सप्पाटिहीरकतं-- ९०, ९१, ९३ सप्पुरिसधम्मा-१९९,२३३ सप्पुरिससंसेवो-१८१, २२० सब्बकामभोगं-११५, १२३ सब्बदुक्खापनूदनं-१४८,१५७ सब्बनिमित्तानं-१९७, २२९ सब्बपाणभूतहितानुकम्पी-३५,१११ सब्बभूतानुकम्पिनो - १४८, १५७ सब्बलोकेअनभिरतिसञ्जा-२४६, २५० सब्बसङ्गाहपदकतं- ९०, ९१,९३ सब्बाकारपरिपूर-४४,४५, ९३,९४ सब्बाकारसम्पन्नं-९३,९४ समग्गनन्दी-१२९ समग्गरतो-१२९ समग्गानं-९५ समङ्गीभूतो- ९७ समज्जाभिचरणे-१३८, १४२ समणपदुमो-१८६ समणमचलो-१८६ समणमण्डलस्स-७० समणा सक्यपुत्तिया-९६, ९७, ९८, ९९ समणुद्देसो-८७, ८८ समथनिमित्तञ्च-१७० समथो-१७०,२१९ समदन्तो-१०७,१३३ समवट्टक्खन्धो-१०७,१२३,१२४ समवयसट्टेसनो - २१४, २१५, २४९, २५० समादियति-३०,३१,३२, ३३ समाधिक्खन्धो-१८३२२७ समाधिजं-५७,९८,१७७,१७८ समाधिनिमित्तं- १८१,१९२,२२६ समाधिन्द्रियं-१९०,२२४ समाधिपरिक्खारा - १९९ समाधिबलं-१८३,२०० समाधिभावना-१७७,१७८ समाधिसम्बोज्झङ्गो-७८,१९९,२३१
25
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________________
[२६]
दीघनिकायो-३
[स-स]
समानसुखदुक्खो-१४२
सम्मासङ्कप्पो-१९९, २०१, २१६, २३६, २५१ समापत्तिकुसलता-१६९
सम्मासति-१८३, १९९, २०१,२१६, २३६, २५१ समापत्तिवुट्ठानकुसलता-१६९
सम्मासमाधि-१८३, २०१,२१६,२२५, २३६,२५१ सम्पजञञ्च-१७०,२१९
सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो-८९, ९०,९१,९३,१६८ सम्पजानमुसा-३२,३४,५०,९९,१८७
सम्मासम्बुद्धो-३,३८,५५,७४,७५, ८९, ९०, ९१, सम्पजानो-३५, ४२,५६, ५७,७६, ८३,९८,१०५, | ९३, १०६, १०७, १०८, ११०, १३४, १८१,
१६७, १७७, १७८, १७९, १८०, १८४, १९८, १८९, २१०,२११, २२३, २३९ २१४, २२१,२३०,२४९
सम्मासम्बोधिं-७४,१०० सम्पजानोति-८३
सम्मियसम्मियो-१३९ सम्पदा-१८८
सम्मुतिथेरो-१७४ सम्परायिकानंयेव-९६
सयनकथं-२६ सम्पसादं-८६
सयंकतो अत्ता-१०२, १०३ सम्फप्पलापो-५१,५२,१८५, २१४,२४८
सयंपभा-२०,२१, ६२, ६३, ६७ सम्फस्सानं-९६
सल्लेखता-८५ सम्बोज्झङ्गा-७८,२३१
सविचारं-५७, ९८,१७७, १७८,२११, २४६ सम्बोज्झने-७४
सवितक्कसविचारो-१७५ सम्बोधाय-९७,९८,१०२
सवितक्कं - ५७, ९८, १७७, १७८, २११, २४६ सम्बोधिपरायणो - ९९
सस्सतवादेसु-८०, ८२ . सम्मत्ता-२०१
सस्सतवादो-८१, ८२ सम्मदक्खातो-१६८
सस्सतो-२२, ८१, १०२, १०३ सम्मदञाविमुत्तो-६१
सहधम्मिको-८५ सम्मप्पधाना-७५,९४,१७७
सहब्यतं-२१, २०५ सम्माआजीवो- १९९, २०१, २१६, २३६, २५१ सहस्सारं-४४,४५ सम्माकम्मन्तो-१९९,२०१,२१६,२३६,२५१ साकभक्खो-२९ सम्मााणं-२१६,२५१
सातागिरो-१५५, १६४ सम्मादिट्ठि-१९९, २०१, २१४, २१६, २३६, २४९, साधारणभोगी-१९४,२२७ २५१
साधुरूपानं-११,१२ सम्मादिट्ठिकम्मसमादानहेतु-७१
साधुसण्ठिता-११६ सम्मादिट्ठिको-७१
सामगामो-८७ सम्मादुक्खक्खयगामिनिया-१८९, २१३
सामञफलानि- १८२, २२२ सम्माननाय -१४४
सामा -५२, ५४ सम्मापटिपन्नो-८७,१६७
सामाकभक्खो-२९ सम्मामनसिकारमन्वाय-२१,२२,२३,२४,७७ सामीचिकम्म-६१, ६२ सम्मावाचा - १९९, २०१, २१६, २३६, २५१ सामीचिप्पटिपन्नो-४,८८,८९, ९०,१८१ सम्मावायामो-१९९, २०१, २१६, २३६,२५१ सारणीया- १९४, २२७ सम्माविमुत्ति-२१६,२५१
सारप्पत्ता-३५,३६, ३७,३८
26
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________________
सद्दानुक्कमणिका
[२७]
सारिपुत्त -७३,७४,८४,८५,८६,१६७, २१६ सारिपुत्तो-७३, ८४, ८६, १६७, १६८,२१६, २१७,
२५१ सालवती-१५२,१६१ सालाहारं-६६ सालिं-६५, ६६, ६७, ६८, १५१, १६० सावकसङ्घो-४, १८१ सावको-२६,८८,८९ सावत्थियं-५९,१०६ साविका-९२,९३ सासवा-८३ सिक्खा - १७५ सिक्खानुत्तरियं-१९८, २३० सिक्खापदानि-१८७ सिखिस्सपि-१४८, १५७ सिङ्गालको गहपतिपुत्तो-१३६, १३७, १४६ सिङ्गालाटानाटियकं - २५२ सिङ्गाले - १७,१८ सिप्पं सिक्खापेन्ति-१४४ सिवको-१५५, १६४ सीलक्खन्धो - १८३,२२७ सीलधनं - १२२,१९९,२३१ सीलब्बतपरामासो-१७३, १८४, १८७ सीलब्बतुपादानं-१८४ सीलमयं-१७४ सीलवा-५७,१८८,२१२, २३५, २४७ सीलविपत्ति-१७० सीलविसुद्धि-१७१, २४३ सीलसम्पदा-१७०,१८८ सीलसम्पन्नो-१४३, १४६,१८८ सीलानुस्सति- १९८, २२८ सीलेन-१२३, १९० सीहनादो-७३,७४ सीहपुब्बद्धकायो-१०७, १२३ सीहपुब्बद्धसुसण्ठितो - १२४ सीहसेय्यं-१६७
सीहहनु-१०७,१३२ सुकतफलविपाकं-१३४ सुक्कविपाकं- १८३ सुक्कं- १८३, १९८ सुखदुक्खप्पटिसंवेदी-७१ सुखल्लिकानुयोगमनुयुत्ता-९६ सुखल्लिकानुयोगो-९६, ९७, ९८ सुखविपाकोति-२२५ सुखविहारीति-५७, ९८,१७७,१७८ सुखा-७८,७९, १७३,१८२, २२० सुखिन्द्रियं-१९० सुखुमच्छवि-१०७, ११८ सुखुमच्छविलक्खणं-११७ सुखुमनयनकुसला-१२६ सुखूपपत्तियो-१७४ सुगतप्पवेदितो-२१०,२११,२३९ सुगतापदानेसु-१७, १८ सुगतो-३,९,५५, १३७,१३९,१४२,१४३,१४५,
१८१,१८९, २२३ सुगन्धो-६५,६७ सुचरितकम्मविपाकसेसकेन-१२२ सुचरितानि-१७२ सुचरितं -७१ सुञतो-१७५ सुञागारहता-२७,३८ सुतधनं-१२२,१९९,२३१ सुतधरो-२१२,२३५ सुतावुधं-१७५ सुतेन-१२३, १७४ सुदस्सनो-१२६, १५१, १६० सुदस्सा - १८९ सुदस्सी-१८९ सुद्धावासा-१८९ सुनक्खत्तो-२,४,५,६,७,८,११,१९, २० सुनिसेधं-४९ सुप्पटिपन्नो-४,७५, १८१
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________________
[२८]
दीघनिकायो-३
सुप्पतिद्वितपादो-१०६, १०८
सोतापत्तियङ्गानि-१८१ सुप्परोधो-१५५,१६४
सोतापन्नस्स अङ्गानि-१८१ सुभकिण्हा-१७५, २००, २०९, २३२, २४४ सोतापन्नो-७९, ८०, ९९, २०२ सुभट्ठायिनो-२०,२१,६२, ६७
सोतायतनं-१९२, २२८, २४८ सुभुजो - ११२
सोतिन्द्रियं-१९० सुभं-२५
सोमनस्सदोमनस्सानं-५७, ९८, १७७, १७८, २१५, सुमनो-१५५,१६४, १९८,२१४, २३०,२४९
२५० सुमागधाय-२७,२८
सोमनस्सिन्द्रियं - १९० सुमुखो-१५५, १६४
सोमनस्सूपविचारा-१९४ सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठाना-१४७,१४८,१५७,१८७ सोमो - १५५, १६४ सुवण्णवण्णलक्खणं-११९
सोरच्चञ्च-१७० सुवण्णवण्णो-१०७, ११९
सोवचस्सता-१६९, २१९ सुविमुत्तचित्तो-२१४, २१५, २४९, २५०
संयोजनानि-१७३ सुविमुत्तपो -२१४, २१५, २१६, २४९, २५० संयोजनानं-७९, ८०, ९९ सुसमारद्धा-१९६, १९७, २२८, २२९
संवट्टविवट्टकप्पे-३६, ८२ सुसुक्कदाठो-१०७, १३३
संवट्टविवढें-८१ सुस्सुसाय – १४४
संवरपधानं-१८० सूरकथं-२६
संविभागेन-१४५ सूरो-१५२, १६१
संसरन्ति-८१,८२ सेक्खो - १७४
स्वाक्खातो-४,७५, ८९, ९०, ९१,९३,१६८,१८१ सेनाकथं-२६ सेनासनानि-२७, ३९, १४८,१५७ सेनासनं -३५, ३६, ३७, ९६, १८० सेय्यथापि-२७, ३८, ३९, ५२, ५३, ५५, ६३, ६४, हटभक्खो-२९
७४,८३, ९९, १४६, १५४, १६३, १७४, १७५, हत्थापलेखनो-२९ १८७, २००, २०६, २०७, २०९, २३०, २३१, | हत्थिरतनं-४३,५५,१०६, १०८,१३३ २३२, २४१, २४२, २४४
हदयगामिनियो-१३१ सेरीसको-१५५,१६४
हदयङ्गमा-१३० सोचेय्यञ्च-१७०
हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना-२२,२३ सोचेय्यानि-१७५
हानभागिया- २१९, २२०, २२२, २२३, २२४, २२८, सोतधातुया - २७,२३०
२३२,२३६,२३८,२४५, २४८ सोतविआणं-१९३
हासपो -११८ सोतविद्येय्या - १८७
हितकामो-१२३ सोतसम्फस्सजा-१९३
हितसुखतं.-११५ सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय-२०२
हिरि-१५५, १६४ सोतापत्तिफलं-१८२, २२२
हिरिकोपीनपटिच्छादनत्थं - ९६
Inc
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सद्दानुक्कमणिका
[२९]
हिरिधनं-१२२,१९९,२३१ हिरिबलं-२०० हिरोत्तप्पं -२३४, २३५ हीनधातु-१७२ हीनसम्मतं-६९ हेवमतो-१६४
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गाथानुक्कमणिका
इन्दो सोमो वरुणो च-१५५, १६४
उट्ठानको अनलसो-१४६ उत्तरेन कसिवन्तो-१५२, १६१ उपकारो च यो मित्तो-१४३ उब्भमुप्पतितलोमवा ससो- ११६ उस्सूरसेय्या परदारसेवना-१३९
अकणं अथुसं सुद्धं - १५१, १६० अक्कोधञ्च अधिट्टहि अदासि-११९ अक्कोसभण्डनविहेसकारिं-१३१ अक्खम्भियो होति अगारमावसं-१०९ अक्खित्थियो वारुणी नच्चगीतं-१४० अक्खेहि दिब्बन्ति सुरं पिवन्ति-१४० अङ्गीरसस्स नमत्थु - १४८, १५७ अञदत्थुहरो मित्तो-१४२ अञदत्थुहरो होति- १४१ अचं अनुचकमनं-१८ अतिसीतं अतिउण्हं-१४० अत्थधम्मसहितं पुरे गिरं-११५ अथ चे पब्बजति भवति विपापो-१३५ अथ चेपि पब्बजति सो मनजो-१२८ अभियोगिनो च निपुणा - १२६ अविवादवड्डनकरिं सुगिरं-१३०
एकेन भोगे भुजेय्य - १४३ एणेय्यजङ्घोति तमाहु पुग्गलं-११७ एते च सङ्गहा नास्सु-१४६ एतेपि मित्ते चत्तारो-१४३ एवं भोगे समाहत्वा-१४३
कुमारिं वाहनं कत्वा-१५२, १६१ कुम्भण्डानं अधिपति-१५०, १५९ कुवेरस्स खो पन मारिस महाराजस्स - १५२, १६१ कोणागमनस्स नमत्थु -१४८, १५७
इतो सा उत्तरा दिसा-१५३, १६२ इतो सा दक्खिणा दिसा-१५०, १५९ इतो सा पच्छिमा दिसा-१५०, १५९ इतो सा पुरिमा दिसा-१४९, १५८ इत्थिं वा वाहनं कत्वा - १५१, १६० इध च महीपतिस्स कामभोगी-१२३
खज्जभोज्जमथ लेय्य सायियं-११३
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[३२]
दीघनिकायो-३
[ग-न]
खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं-७२
गन्धब्बनागा विहगा चतुप्पदा - १११ गन्धब्बानं अधिपति-१४९, १५८ गन्धब्बासुरयक्खरक्खसेभि-१३३ गाविं एकखुरं कत्वा- १५१, १६० गिहिनोपि इज्झति यथा भणतो-१३१ गिहिम्पि सन्तं उपवत्तती जनो-१२९ गिहीपि धनेन धनेन वड्डति- १२४ गेहञ्चावसति नरो अपब्बज्ज - १२० गेहमावसति चे तथाविधो-११६ गोपालो सुप्परोधो च-१५५, १६४
तथेव सो सिङ्गालकं अनदि-१८ तस्स च नगरा अहु-१५२, १६१ तस्सोवादकरा बहुगिही च पब्बजिता च-१३५ तुलिय पटिविचय चिन्तयित्वा-१२२ ते चापि बुद्धं दिस्वानं-१४९, १५०, १५१, १५३,
१५८, १५९, १६०, १६२ ते याने अभिरुहित्वा-१५२, १६१ तेन सो सुचरितेन कम्मुना-११६ तेनाहु नं अतिनिपुणा विचक्खणा-१२५ तेनेव सो सुगतिमुपेच्च मोदति- १२५ तं कत्वा इतो चुतो दिवमुपपज्जि - १३२ तं कत्वान इतो चुतो दिब् - १२० तं कम्मं कुसलं सुखुद्रयं - ११७ तं लक्खणञ्जू बहवो समागता- १२९ तं वेय्यञ्जनिका समागता बहवो-१३४
चविय पुनरिधागतो समानो-११२, ११४
दसुत्तरं पवक्खामि-२१७ दानञ्च पेय्यवज्जञ्च-१४६ दानम्पि चत्थचरियतञ्च -११४ दासकम्मकरा हेट्ठा-१४६
छन्दा दोसा भया मोहा-१३७, १३८
जिनं वन्दथ गोतमं-१४९, १५०, १५१, १५३, | नमो ते पुरिसाजच-१४९, १५०, १५१, १५३, १५८, १५९, १६०, १६२
१५८, १५९, १६०, १६२ जीवजीवकसद्देत्थ -१५३, १६२
न च विसटं न च विसाचि-१२६
न ते बीजं पवपन्ति-१५१, १६० ज
न दिवा सोप्पसीलेन-१४०
न पाणिदण्डेहि पनाथ लेड्डुना - १२५ आतीहि मित्तेहि च बन्धवेहि च-१२४
न सम्फप्पलापं न मुद्धतं-१३२ नागानञ्च अधिपति-१५१, १६०
तथा ही चक्कानि समन्तनेमिनि-१११
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[प-व]
गाथानुक्कमणिका
[३३]
महिञ्च पन ठितो अनोनमन्तो-१२२ मातापिता दिसा पुब्बा-१४५
मारणवधभयत्तनो विदित्वा-११२ पच्चेसन्तो पकासेन्ति-१५२, १६१
मिच्छाजीवञ्च अवस्सजि समेन वृत्तिं-१३४ पापटिलाभगतेन कम्मुना-११८ पटिभोगिया मनुजेसु इध- १२७ पण्डितो सीलसम्पन्नो-१४६ पनादो ओपमञो च-१५५, १६४
यक्खानञ्च अधिपति-१५३, १६२ पब्बजम्पि च अनोमनिक्कमो-११६
यतो उग्गच्छति सूरियो-१४९, १५८ पहूतपुत्तो भवती तथाविधो- १२१
यस्थ चोग्गच्छति सूरियो-१५०, १५९ पाणातिपातो अदिन्नादानं-१३७
यस्थ यक्खा पयिरूपासन्ति-१५३, १६२ पाथिको च उदुम्बरं-२५१
यदि खत्तियो भवति भूमिपति-१३० पापमित्तो पापसखो-१४०
यदि च जहति सब्बकामभोग-११५ पियदस्सनो गिहीपि सन्तो च-१२६
यस्मा च सङ्गहा एते--१४६ पुत्तापि तस्स बहवो-१४९, १५०, १५१, १५३, | | ये चापि निब्बुता लोके-१४८, १५७ १५८, १५९, १६०, १६२
येन उत्तरकुरुव्हो-१५१, १६० पुब्बङ्गमो सुचरितेसु अहु-१२७
येन पेता पवुच्चन्ति- १४९, १५८ पुरे पुरत्था पुरिमासु जातिसु-११०, ११८, १२१ यो वारुणी अद्धनो अकिञ्चनो-१४०
योध सीतञ्च उण्हञ्च -१४१ यं गिहिस्सपि तदत्थजोतकं- ११३
बहुविविधनिमित्तलक्खणञ्जू-१२२ बहूतरा पब्बजितस्स इरियतो-१२१ ब्याकंसु वेय्यञ्जनिका समागता - १०९
रञो होति बहुजनो-१३४ रहदोपि तत्थ गम्भीरो-१४९, १५०, १५८, १५९ रहदोपि तत्थ धरणी नाम-१५२, १६१ राजा होति सुदुप्पधंसियो-१३२
भवति परिजनस्सवो विधेय्यो-११४ भवति यदि गिही चिरं यपेति-११२ भुत्वान भेके खलमूसिकायो-१८ भोगे संहरमानस्स-१४३
लद्धानं मानुसकं भवं ततो-१३४ लाभी अच्छादनवत्थमोक्खपावुरणानं-१२०
मनसो पिया हदयगामिनियो - १३१ महायसं संपरिवारयन्ति नं-१११
विपस्सिस्स च नमत्थु-१४८, १५७
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[३४]
दीघनिकायो-३
[स-ह]
वेदित्वा सो सुचरितस्स फलं-१२७, १३१ वेभूतियं सहितभेदकारं-१३० वेस्सभुस्स च नमत्थु-१४८, १५७
सग्गे वेदयति नरो सुखाप्फलानि-१३४ सङ्गाहको मित्तकरो-१४६ सचे च पब्बज्जमुपेति तादिसो-१०९, ११७, ११९ सचे न पब्बज्जमुपेति तादिसो-११८ सच्चप्पटिञो पुरिमासु जातिसु-१२८ सच्चे च धम्मे च दमे च संयमे-१०९ सत्त चुस्सदे इधाधिगच्छति-११३ सद्धाय सीलेन सुत्तेन वुद्धिया - १२३ समन्तनेमीनि सहस्सरानि च-११० स सीहपुब्बद्धसुसण्ठितो अहु-१२४ सातागिरो हेमवतो-१५५, १६४ सिङ्गालाटानाटियकं-२५२ सिप्पेसु विज्जाचरणेसु कम्मेसु-११७ सीहोति अत्तानं समेक्खियान-१७ सुकसाळिकसद्देत्थ-१५३ सुकसाळिक सद्देत्थ - १६२ सुगतीसु सो फलविपाकं- १२६, १३० सुभुजो सुसु सुसण्ठितो सुजातो- ११२ सेता सुसुक्का मुदुतूलसन्निभा - १२८ सो तेन कम्मेन दिवं समक्कमि-१०९, ११०, १२१
हत्थियानं अस्सयानं-१५२, १६१ हितं देवमनुस्सानं-१४८, १५७ होति पानसखा नाम-१३९
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संदर्भ-सूची पालि टेक्स्ट सोसायटी (लंदन) – १९७६
पालि टेक्स्ट सोसायटी
पालि टेक्स्ट सोसायटी
प्रथम वाक्यांश
वि. वि. वि. वि. वि. वि. पृष्ठ संख्या पंक्ति संख्या
مه به به سه سه ه
* * * แม่ * * * * * * *
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एवं मे सुत्तं अथ खो भग्गवगोत्तो त्वं वा पन कते वा इति किर सुनक्खत्त एवं पि खो त्वं पि नाम कालकतो च कालकञ्जा तं किं मञसि तं नातिक्कमेय्यं न खो पहं कतं वा होति करिस्सामि | चत्तारि चे किं पन मं त्वं अभब्बो भन्ते अचेलो अथ ख्वाह अथ खो भग्गव समणो गोतमो आयामि आवुसोति गच्छामि, अप्पेव नाम सक्कोति आसना पि वुट्ठातुं पे०... सचे पिस्स एवं वुत्ते भग्गव तस्सेव खो आवुसो
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सीहो ति अत्तानं
पि ओपम्मेन नेव
आविज्झेय्यामाति
उत्तरमनुस्म्मा अञ्ञतरो सत्तो
तत्रावसो यो सो
त्याहं एवं वदामि
भो तुम्हे आयस्मन्तो
तम्हा काया
अहं हि पुब्बे
पहोति मे भगवा
एवं मे सुतं
चोरकथं
अनेकविहितं
सुमागधाय तीरे
एवं अवोचुम्हा
नाभिहटं न केसमस्सुलोचनानुयोगमनुयुत्तो मुच्छति पमादमापज्जति
पुन च परं
पुन च परं
अत्तमनो होत
बहुलाजीव सब्ब
अनतिमानी, न पापिच्छो
होति; न अदिन्नं
महग्गतेन अप्पमाणेन जातिसतसहस्सं पि सउद्देसं अनेकविहितं
यदा अञ्ञासि
सच्चं भन्ते भासिता
तरणाय धम्मं देसेति
मासानि चत्तारि
एवं वदामि न पि
एवं तं
भूतपुब्बं
पन मे मानुसका
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संदर्भ-सूची
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कतमं पनेतं सब्बाकारपरिपूरं, अनुयुत्ता अहेसुं यग्घे देव जानेय्यासि न खो ते देव अथ खो भिक्खवे एवं वुत्ते भिक्खवे सुनिसेधं निसेधेस्साम वेपुल्लं अगमासि पञ्चवस्ससहस्सायुकानं वेपुल्लगते द्वे अमत्तेय्या अप्पत्तेय्या आघातो पच्चुपट्टितो वड्डिसन्ति चत्तारीसंवस्ससहस्सायुका मेत्तेय्यो नाम भगवा अगारस्मा अनगारियं पातिमोक्खसंवरसंवुत्तो विहरति कुसलानं भिक्खवे एवं मे सुतं तुम्हे ख्वत्थ वासेट्ठ विजायमाना पि पे०... अनभिज्झालू होति करोति तं राजा आभस्सरकाया चवित्वा खो वासेट्ठ सत्ता पठविया अन्तरहिताय एकिदं सत्ता खिपन्ति अझे गोमयं उपसङ्कमित्वा तं सत्तं तारकरूपानि पातुरहेसुं सण्डसण्डा सालियो अथ खो ते बाहेसुं | पापके अकुसले सत्तानं अनजेसं गरहमानो अनगारस्मा
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खत्तियो सेट्ठी
एवं मे सुतं
..एवं पञ्ञा...
भन्ते रञ्ञो
भगवा तेनुपसङ्कमिं
यद अभिजानं अञ्ञो
अपि च खो वितक्कयतो
च परं भन्ते
धम्मं देसेति पधानेसु
लाभेन लाभं निजिगिंसिता
अपरं पन भन्ते
एवं सुखदुक्खपटिसंवेदी
जानामि संवट्टिस्सति वा विवकप्पे अनेके प
परम मरणा सुगतिं पटिक्कूलसञ्ञी विहारेय्यन्ति वदेव्यं किं पनावुसो
एवं पुट्ठो एवं
अथ खो भगवा
एवं मे सुतं
ओदात वसना ते पि दुप्पवेदिते अनिय्यानिके असम्मासम्बुद्धो
इध पन चुन्द सप्पाटिहीरकतं
सुप्पकासितं अथ नो
मज्झिमा भिक्खुनियो
ब्रह्मचारिनो उपासका
पन मे चुन्द
पस्सं न परसतीति
बोज्झङ्गा अरियो सम्मा रोपेतीति
आसवानं संवराय
एकच्चो अदिन्नं
पे०... अयं चतुथो
दीघनिकायो-३
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अचतित्थिया परिब्बाजका ठानं खो तच्छं अनत्थसंहितं भगवता : होति तथागतो ठानं खो पनेतं असयंकारो अपरंकारो असस्सतं सुखदुक्खं सञ्जी अत्ता होति व्याकता, यथा ते एवं मे सुतं महापुरिसस्स द्वे एकेकलोमो होति पुन च परं भिक्खवे धम्मेसु : सो तस्स वा ब्राह्मणेन वा बहुजन सुखाय सो तेन कम्मेन लक्खणानि पटिलभति तीहि पुरिसवरग्गालक्खणेहि एतमत्थं भगवा अवोच महापुरिसलक्खणानि भगवति परिजनस्स अत्थ धम्मसहितं पब्बजं पिच यतूपघाताय न होति सुखुमच्छवी होति सचे पब्बज्जमुपेति पुरिमतरभवे ठितो पि पुत्तेन समानेता पहूतपुत्तो भवति लभति ? अड्डो होति इध महिपतिस्स अपरिहान धम्मो होति यं पि भिक्खवे सम्पज्जसा रसहरणी गणकमहामत्तानं
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यदि च न भवति वेदित्वा सो
नेगमजानपदा
सहितानं वा अनुप्पादाता
कलहं जनस्स
आदेय्यवाचो होति
आदियन्तिस्स वचनं
तं कत्वान इतो
कम्मस्स कतत्ता
अहितम्पि च अपनुदि
पसव्ह न च
एवं सुतं मे पुथुद्दिसा नमस्ससि
पाणातिपातो अदिन्नादानं
कोपीननिद्दंसनी पञ्ञाय
इमे खो गहपतिपुत्त
निहीनसेवी न च अमित्तो मित्तपटिरूपको
चत्तारो मे गहपतिपुत्त
उपकारो च यो
दक्खिणा दिसा
अन्तेवासिना दक्खिणा
ट्ठमा दिसा
पुत्तदारा तस्मा महत्तं
एवं मे सुतं
हि भन्ते मज्झिमा
नमत्थु ककुसन्धस्स
इतो सा पुरिमा
इतो सा दक्खिणा
यं दिसं अभिपालेति
तुण्डिकी पचित्वान
उत्तरेन कपीवतो
कुकुत्थका कुलीरका
अयं खो सा मारिस
महाराजानं अवरुद्धा
दीघनिकायो-३
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सीवको मुचलिन्दो तत्थेवन्तरधायिंसु एवं मे सुतं तं भन्ते भगवा पुरत्थाभिमुखो निसीदि पावायं अधुना अयं खो पनावुसो विवदितब्बं यथयिदं अज्जवञ्च लज्जवञ्च सीलविसुद्धि तीणि सुचरितानि तिस्सो तण्हा तयो रासी तयो पुग्गला सुखं पटिसंवेदेन्ति तीणि मोनय्यानि अस्थि खो आवुसो विरियसमाधिपधानसङ्घारसमन्नागतं आवुसो समाधिभावना उद्धमधो तिरियं वुच्चतावुसो भिक्खु असंवुतं विहरन्तं अपरानि पि चतस्स धातुयो अपरा पि चतस्सो चत्तारि कम्मानि चत्तस्सो गब्भावक्कन्तियो नो पटिग्गाहकतो अपरन्तपो दिद्वेव वेदनुपादानक्खन्धो पञ्च सिक्खापदानि इधावुसो दुस्सीलो अत्थसंहितेन वक्खामि कङ्घति विचिकिच्छति भिक्खु अञ्जतरं सुगतं सुभावितं
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सो तेहि, न सो तं पस्सद्धकायो सुखं वेदेति सुखिनो सोतसम्फस्सजा वेदना छ दोमनस्सूपविचारा विहरति सब्रह्मचारीहि सन्दिट्ठिपरामासी होति बहुलीकता यानिकता वत्थुकताय अनुट्ठिताय साधु भगवतो कण्हाभिजातिको धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो अविगतपेमो भागविमुत्तो अट्ठ सम्मत्ता पिण्डाय चरन्तो कम्मं कतं होति इदं सत्तम संवत्तति । तं च खो सीलवतो वदामी नीलानि नीलवण्णानि बहिद्धा रूपानि मे चरति तं इधावुसो तथागतो परलोको नत्थि माता समतिक्कम्म नत्थि सीलवा होति आवुसो भिक्खु दस अकुसलकम्मपथा होति अनभावं गतो एवं मे सुतं कतमो एको धम्मो कतमे द्वे धम्मा कतमे तयो धम्मा इति इमे तिस
4223 M420822m 2224264ArmM2-2rrrrm 92.
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कतमे चत्तारो धम्मा चेतोफरणता पच्चत्तं येव पच्चुपट्ठितं होति कतमे छ धम्मा सत्त धम्मा बहुकारा कतमे सत्त धम्मा सुभाविता पटिलाभाय छ8ो हेतु मिच्छत्ता, मिच्छादिट्ठि कतमे अट्ठ धम्मा तण्हामूलका दुक्खे अनत्तसञआ कतमे दस धम्मा कतमे दस धम्मा सम्पसादञ्च पासादं
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[ यह शब्द पेय्याल में से हैं।]
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DEDICATION OF MERIT *****07*XX***$*»-ANO*******
May the merit and virtue
accrued from this work adorn the Buddha's Pure Land, repay the four great kindnesses above,
and relieve the suffering of those on the three paths below.
May those who see or hear of these efforts
generate Bodhi-mind, spend their lives devoted to the Buddha Dharma,
and finally be reborn together in
the Land of Ultimate Bliss. Homage to Amita Buddha! NAMO AMITABHA
Printed and Donated for free distribution by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow South Road Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: 886-2-23951198 , Fax: 886-2-23913415 Email: overseas@budaedu.org.tw
Printed in Taiwan 1998, 1200 copies
IN046-2003
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________________ NON Y ho Corrente Body of the Budde Elsa snahoundation 210 Floor, 55 Heng Chow South Road Soapsi, Teen, ROC, This book is for ikea distanzien, is ze to be soli 1922 :200 Conces IN45-2009 ISDIT 21-7414-952-