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भिक्षु, इच्छा होने पर, चार ऋद्धिपादों (छंद, वीर्य, चित्त, मीमांसा) की भावना करने
से अपनी आयु कल्प भर या इससे कुछ अधिक, कर सकता है- यही भिक्षु की 'आयु' होती है ।
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जब भिक्षु शीलवान होता है, प्रातिमोक्ष के संयम से संयत होकर विहार करता है, आचार-विचार से युक्त होता है, थोड़े भी बुरे कर्म से भय खाता है, नियमों (शिक्षापदों ) के अनुसार आचरण करता है - यही उसका 'वर्ण' होता है ।
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* जब भिक्षु प्रथम, द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है. यही उसका 'सुख' होता है ।
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जब भिक्षु मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा- भरे चित्त से सभी दिशाओं में विहार करता है - यही उसका 'भोग' होता है ।
* जब भिक्षु आस्रवों (चित्त-मलों) के क्षय हो जाने से आस्रव-रहित चित्त की विमुक्ति, प्रज्ञा द्वारा विमुक्ति को इसी जन्म में जान कर, साक्षात्कार कर विहार करता है - यही उसका 'बल' होता है ।
४. अग्गञ्ञसुत्त
एक समय भगवान सावत्थी में पुब्बाराम में विहार करते थे। उस समय वासेट्ठ और भारद्वाज नाम के दो ब्राह्मण प्रव्रज्या लेने की दृष्टि से भिक्षुओं के साथ परिवास करते थे ।
एक दिन भगवान ने वासेट्ठ से पूछा कि तुम ब्राह्मण कुल से प्रव्रज्या लेने के लिए आये हो । क्या इस कारण ब्राह्मण लोग तुम्हारी निंदा अथवा परिहास नहीं करते हैं ?
वाट्ट ने कहा ये लोग कहते हैं कि ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, दूसरे वर्ण हीन हैं; ब्राह्मण ही शुक्ल वर्ण हैं, दूसरे वर्ण कृष्ण हैं; ब्राह्मण ही शुद्ध होते हैं, अ-ब्राह्मण नहीं; ब्राह्मण ही ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए पुत्र, ब्रह्मजात, ब्रह्मनिर्मित तथा ब्रह्मदायाद हैं । ये मुंडे श्रमण नीच, कृष्ण, भ्रष्ट और ब्रह्मा के पैर से उत्पन्न हुए हैं । यह उचित नहीं है कि तुम लोग श्रेष्ठ वर्ण को छोड़ कर नीच वर्ण के हो जाओ। इस प्रकार ये ब्राह्मण लोग हमारी निंदा अथवा परिहास करते रहते हैं ।
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