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कि हम चोरी, निंदा, मिथ्या-भाषण और दंड-कर्म करते हैं । अतः हम पाप करना छोड़ दें। उन लोगों ने पाप करना छोड़ (बाह) दिया, इससे उनका नाम 'ब्राह्मण' पड़ा । वे जंगल में पर्णकुटी बना कर वहां ध्यान करते रहते थे, इससे उनका नाम 'ध्यायक' पड़ा । इन्हीं में से कुछ लोग ध्यान पूरा न कर सकने के कारण ग्राम या निगम के पास आकर ग्रंथ बनाते हुए रहने लगे | ध्यान न करने के कारण इनका नाम 'अ-ध्यायक' पड़ा। उस समय ऐसा व्यक्ति हीन समझा जाता था, आज वह श्रेष्ठ समझा जाता है।
उन्हीं प्राणियों में से कितने ही मैथुन-कर्म करके तरह-तरह के कामों (विष्वक्-कर्मांत) में लग गए। इससे उनका नाम 'वैश्य' पड़ा । बचे हुए जो प्राणी क्षुद्र आचार वाले थे, वे 'शूद्र' कहलाए।
क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र - इन चार मंडलों से ही श्रमण-मंडल की उत्पत्ति हुई। परंतु इहलोक तथा परलोक में मनुष्यों में धर्म ही श्रेष्ठ है।
भले ही कोई क्षत्रिय हो या ब्राह्मण, या वैश्य, या शूद्र, या श्रमण, वह काया, वाणी और मन से दुराचार कर, मिथ्या-दृष्टि वाला हो, मृत्यु के उपरांत नरक में पैदा होता है; काया, वाणी
और मन से सदाचार कर, सम्यक दृष्टि वाला हो, मृत्यु के उपरांत स्वर्ग में पैदा होता है; काया, वाणी और मन से दोनों प्रकार के कर्म कर, मिश्रित दृष्टि वाला हो, मृत्यु के उपरांत सुख-दुःख दोनों भोगता है। और यदि वह सैंतीस बोधि-पाक्षिक धर्मों की भावना करे तो इसी लोक में निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
चारों वर्गों में जो भिक्षु अरहंत, क्षीणाश्रव, ब्रह्मचारी, कृतकृत्य, भारमुक्त, परमार्थ-प्राप्त, शिथिल भव-बन्धन वाला और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान के कारण मुक्त हो जाता है, वही उनमें श्रेष्ठ कहलाता है । धर्म ही मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है - इहलोक में भी, परलोक में भी ।
'गोत्र लेकर चलने वाले लोगों में क्षत्रिय श्रेष्ठ होता है; विद्या और आचरण से युक्त, देवों वा मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है।'
५. सम्पसादनीयसुत्त एक समय नाळन्दा के पावारिक आम्रवन में भगवान के विहार करते समय सारिपुत्त ने उनसे कहा कि 'संबोधि' (परम ज्ञान) में आप से बढ़ कर न कोई हुआ है, न होगा, न है |
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