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सुकेशिनी मेचक' भृगयूथसे अनल्पथी शोभित कल्पवल्लरी ॥
(५०/५९)
इन्ही त्रिशलाके वर्णनमे तरगिनी (नदी) का रूपक देखिए " सरोज सा वक्त्र, सुन्नेत्र मीन-से सिवार से केश, सुकठ कबु सा । उरोज ज्यो कोक, सुनाभि भौंर-सी तरगिता थी त्रिशला - तरगिणी ॥
(५५/८१)
कविकी कल्पनाका कौशल देखिए कि त्रिशलाकी उँगलीको साक्षात् महाभारतकी कथा बना दिया
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" नलोपमा, प्रक्षवती, स ऊम्मका
मनोहरा, सुन्दर-पर्व - 'सकुला । नरेन्द्र-जाया कर-अगुली लसी कथा महाभारतके समान ही ॥
(६०११०२)
त्रिशलाकी वाणीकी मिठास सुन कर कोयल और वीणा, दोनोका मान खडित हो गया । एक वन-वनमें रोती फिर रही है और दूसरी धराशायी हो गई
'नीले,
अत्यन्त
महाभारतके पक्षमें 'राजा नलको चर्चा पासे वाली
"तरग (परिच्छेद)
'खड
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त्रिशलाके पक्षमें
वृन्त-नालके समान चिह्न वाली
रेखा-तरग
पोर ।
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