Book Title: Varddhaman
Author(s): Anup Mahakavi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ Wyg जहाँ सूर और तुलसीके समयसे लेकर आधुनिक युग तक 'रामचरितमानस' 'सूर - सागर' 'बुद्ध चरित' 'प्रिय प्रवास', 'साकेत', 'यशोधरा' और 'सिद्धार्थ' लिखे गये वहाँ 'वर्द्धमान' के लिए हिन्दी साहित्यको इतनी लम्बी प्रतीक्षा करनी पडी । इसका मुख्य कारण यह है कि भगवान् महावीरकी जीवनी जिस रूपमे जैनागमोमे मिलती है उसमें ऐतिहासिक कथा भाग और मानवीय रागात्मक वृत्तियोका घात-प्रतिघात गौण है और भगवान्‌की साधना -- मोक्ष प्राप्तिकी प्रयत्न - कथा ही मुख्य है । महाकाव्यके लिए जिस शृगार अथवा वीर रसके परिपाक की आवश्यकता है उनका ऐतिहासिक कथा- सूत्र या तो मूलरूपसे है ही नही या किन्ही अगोमे यदि घटित भी हुआ हो तो उपलब्ध नही । उदाहरण के लिए, दिगम्बर मान्यतानुसार भगवान् महावीरने विवाह नही किया और कुमारावस्थामें ही वैराग्य ले लिया । ब्रह्मचर्यके इस अखड तेजमें उत्कट वल और विजय तो है, पर शृगारके रस - विलासकी भूमिका नही । महाकाव्यमे घटनाओ और भावनाओंके सघात के लिए जिस प्रतिद्वदी ओर प्रतिनायककी आवश्यकता है वह भी नही । फिर जल क्रीडा, उद्यान-विहार, विवाह, यात्रा, युद्ध और विजय प्राप्तिके मानवीय चित्रणो द्वारा रसोकी प्रायोजना- उत्पत्ति हो तो कैसे ? जैनाचार्योने प्राकृत और सस्कृतमे जब कुमारावस्थामे वैराग्य प्राप्त करने वाले तीर्थकरो और महापुरुषोकी जीवनी लिखी तो शृंगार - सर्जना के लिए उन्हे मुक्तिको स्त्री और नायिका तथा काम या मारको प्रतिदी बना कर शृगार और वीर रसके उपादान जुटाने पडे । इससे रीतिकी तो रक्षा हुई, शब्द और अर्थका चमत्कार भी उत्पन्न हुआ, पर पाठककी अनुभूतिको उकसा कर हृदयको भिगोने और गलाने वाला रस कदाचित् ही उत्पन्न हुआ । इस कठिन पृष्ठभूमि पर महाकवि अनूपने 'वर्द्धमान' काव्य लिखा है । काव्यमे १७ सर्ग है और कुल मिलाकर १९९७ चतुष्पद (छद) है । इस प्रकार ग्रन्यको महाकाव्यका पूरा विस्तार प्राप्त है । इसे हरिोधजीके 'प्रियप्रवास' और कविकी अपनी कृति 'सिद्धार्थ' के अनुरूप सस्कृत- बहुल भाषा और संस्कृत वृत्तोमे लिखा गया है । प्राय समूचा काव्य वशस्य वृत्तमे है । केवल घटनामे

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 141