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नवां सर्ग
( ८ ) प्रचड-मार्तण्ड-प्रताप-पुज से विभीत हो हस सरोज के तले स-ताप ले शीत मृणाल' चंच में बिता रहे थे दिन ग्रीष्म-काल के ।
(९) कही-कही हंस तडाग-तीर पै, महान गंभीर जहाँ कमन्ध' था, वही प्रसन्ना ध्वनि थे सुना रहे विलासिनी-नूपुर-तुल्य मंजुला।
( १० ) कही दुखी-चित्त-प्रतप्त थी धरा, कही मही थी खल-वाक्य-दाहिनी, परन्तु धात्रीरुह-पाद-मूल को अपासुला-सी तजती न छाँह थी।
( ११ ) अरण्य गभीर अशब्द से कही, कही महाकोश-युता वनस्थली, कही महा धर्म-प्रतप्त मेदिनी, कही धरा शीतल नीप-छाँह मे ।
'कमल-नाल । जल। 'वृक्ष। 'शब्द, हल्ला ।