Book Title: Varddhaman
Author(s): Anup Mahakavi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 130
________________ सोलहवां सर्ग ४९७ ( १६ ) जिनेन्द्र के उन्नत बाहु-मूल पै गिरे तभी दो स्रग' अंतरिक्ष से परन्तु वे एक तटस्थ' भाव से प्रगाढ बद्धासन ही बने रहे । ( १७ ) जिनेन्द्र यो तो असहाय-से लसे निरस्र, निष्कचुक', यान-हीन ही। परन्तु तो भी वह कर्म-शत्रु से कराल आयोधन मे समर्थ थे। ( १८ ) अभेद्य सन्नाह सहस्र शील का, निचोल भी कोटि गुणानुभाव का, सवार सवेग-गजेन्द्र पै हुये जिनेन्द्र थे प्रस्तुत सप्रहार को।' ( १९ ) विशाल चारित्र्य अनीक-वप्रथा, महान रत्न-त्रय के कलब थे, कराल कोदंड व्रतोपवास का उन्हे बनाता अरि से अजेय था। 'माला। उदासीन । 'विन वल्तर । 'युद्ध । 'युद्ध । 'टीता या मैदान । 'नाण। ३२

Loading...

Page Navigation
1 ... 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141