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सत्रहवाँ सर्ग
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जिनेन्द्र थे यद्यपि जानते सभी तथापि पूछा जब वृत्त ग्राम का, पता चला सोमिल' विप्रराज के यहाँ महा उत्तम याग हो रहा।
( १७ ) हुये सहस्रो समवेत' विप्र थे, अशेष ज्ञाता बहु वेद-शास्त्र के, समाज ऐसा न विहार-प्रान्त मे कदापि एकत्र हुआ, न भाव्य' है।
( १८ ) सु-योग ऐसा प्रभु ने विचार के कहा कि "मैं ब्राह्मण-प्रीति-पात्र हूँ, सदैव चिंता इनको स्व-धर्म की रही, रहेगी द्विज त्याग-मूर्ति है ।
( १९ ) "अत. सुने ये उपदेश मामकी, प्रचार भू मे जिन-धर्म का करे, सदैव शिक्षा अपने चरित्र से धरित्रि मे दे नर-नारि-वृन्द को।
'सोमिलाचार्य । इकट्ठा । 'होने वाला।