Book Title: Varddhaman
Author(s): Anup Mahakavi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 138
________________ ५४४ वर्द्धमान ( ७६ ) लखा असतोष मनुष्य-भाल पै भरा हुआ मानस दुख-नीर से, विलोचनो मे उमडे पयोद थे, अधीरता आनन मे विराजती। ( ७७ ) लखी गयी दुख-विना कराह है, सुना गया रोदन हेतु के विना। न रच आवश्यकता प्रपच की अतुष्टि ही है अनुभूत हो रही । ( ७८ ) अहो, असतुष्ट-मनुष्य-चित्त में न प्राप्ति का आदर है, न मान है, जिसे नही इच्छित 'देव-दत्त' हो बने न 'भिक्खूमल' कौन रोकता ? (७९) कृतघ्न प्राणी-मम दुष्ट जीव को परिनि-उत्पत्ति न दे सकी कभी, वसुन्धरा-मध्य अनेक पाप है, यही महा पाप, महा कु-कर्म है। 'जो मनुष्य अपना नाम दिवदन न रखना चाहे, वह 'भिक्यूमन ही रखते ।

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