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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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वर्द्धमान
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ज्ञानपीठ-लोकोदय प्रथमाला हिंदी-ग्रन्थाङ्क-.-१३
वर्द्धमान
रचयिता महाकवि अनूप
LES HURMA MANS AINSI
भा र ती य ज्ञान पीठ का शी
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ज्ञानपीठ लोकोदय ग्रन्यमाला सम्पादक
लक्ष्मीचन्द जैन एम० ए०, डालमियानगर
प्रकाशक
अयोध्याप्रसाद गोयलीय
मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ
दुर्गाकुण्ड रोड, वनारस ४
वीर-शानन जयन्नि
श्रावण कृष्ण १ वी० नि० न० २४७३ जुलाई १९५१
प्रथम संस्करण ३००० मूल्य छह रु०
मुद्रक - जे० के० शर्मा
इलाहावाद लॉ जर्नल प्रेस
इलाहावाद
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प्रामुख
"मिद्धार्थ' महाकाव्यके यशस्वी कलाकार श्री प० अनूपगर्मा एम० ए०, एल० टी०, ने याज अपनी प्रतिभाकी चमत्कृत छैनीसे उन अद्वितीय जन-गणमन अधिनायक भगवान् महावीरकी शान्त और सतेज प्रतिमा गढी है जिनकी मूतिके अभावमें मां भारतीका मन्दिर शताब्दियोसे सूना-सूना लग रहा था। यह भारतीय ज्ञानपीठका सौभाग्य है कि उसे इस कलाकृतिको प्रकाशमे लाने और श्रुत-शारदाके मन्दिरमें प्रतिस्थापन करनेका गौरव मिल रहा है।
भगवान् महावीर जैनधर्मके उन्नायक अन्तिम (२४वे) तीर्थकर थे । उनके ५ नाम थे, जो गुणाश्रित थे-वीर, अतिवीर, महावीर, सन्मति और वर्द्धमान । प्रस्तुत काव्यके शीर्षकके लिए 'वर्द्धमान' नाम ही उपयुक्त समझा गया, यद्यपि प्रारम्भमें कविने मूल पाडुलिपिका 'शीर्षक सिद्ध-शिला' दिया था और हमारे कई प्रकाशनोमे इस ग्रन्थकी योजना इसी नामसे घोषित की गई थी। 'सिद्धशिला' भगवान् महावीरकी जीवन-साधनाका चरम लक्ष्य-मोक्ष-का प्रतीक है, और 'सिद्धार्थ' के साथ लेखककी कृतियोका स्मृति-सरल युग्म बन जाता, पर कठिनाई यह थी कि 'सिद्ध-शिला' का शीर्षक साधारण पाठक को काव्य-विषयका सुबोध सकेत न दे पाता । दूसरी ओर, भगवान् महाधीर का 'वर्द्धमान' नाम इतना प्रचलित है कि भगवानकी विहार और उपदेश-भूमिका एक खड वगालमें इस नामसे ही (बर्दवान वर्द्धमान) प्रसिद्ध है।
'वर्द्धमान' के सम्बन्धमें मुख्य विचारणीय वात यह है कि यह ग्रन्थ न तो इतिहास है न जीवनी। यदि आप भगवान् महावीरकी जीवन-सम्बन्धी समस्त घटनाप्रोका और तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक परिस्थितियो का क्रमवार इतिहास इस ग्रन्थमें खोजना चाहेगे तो निराश होना पडेगा । यह तो एक महाकाव्य है, जिसमें कविने भगवान्के जीवन और व्यक्तित्वको आधार
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फलक वनाकर कल्पनाकी तूलिका बलाई है। यहां इतिहास तो केवल डोरकी तरह है जो कल्पनाकी पतगको भावनाप्रोके आकागमें तली छूट देनेके लिए प्रयुक्त है। उडानका कौगल देवनेने लिए दर्शककी दृष्टि पतग पर रहती है, डोर पर नहीं । हां, पतगके बिलाडीको उननी टोर अवश्य नभालनी पड़ती है जितनी उडानके लिए आवश्यक है।
महाकाव्यके कविके लिए जो एक बन्धन अावश्यक है, वह है माहित्यिपपरम्परा और पद्धतिका। दण्डीने अपने गन्य काव्यादर्शमें महाकाव्य निम्नलिखित लक्षण बतलाये हैं -
"महाकाव्यको कथावस्तु किसी प्राचीन इतिहास अयवा ऐतिहासिक वृत्तके प्राधारपर हो । नायक धीरोदात्त प्रकृतिका हो। महाकाव्यमें नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतु, सूर्योदय, चन्द्रोदय, जलक्रीडा, विवाह, यात्रा, युद्ध आदिका वर्णन होना चाहिए। अति सक्षिप्त नहीं होना चाहिए। इसमें वीररस अथवा शृगाररस प्रवान हो और दूसरे रस भी गौणल्पम हों। सम्पूर्ण काव्य सर्गोमें विभक्त होना चाहिए। प्रतिसर्गमें एक ही वृत्तके छन्द हो, किन्तु सर्गके अन्तमें अन्य वृत्तके
छन्द अवश्य हों" इत्यादि । (काव्यादर्श-११४१४९) महाकाव्यकी उपर्युक्त पम्पनका आधार सम्कृत नाहित्य है । नस्कृनके लगभग नभी महाकाव्य इसी परिपाटीके आधार पर लिखे गये है अत उनके लिए विषय और आल्यान भी ऐसे ही चुने गये है जिनमें महाकाव्यकी कथा वन्नु के प्रमारकी आँ उपयुक्त नामग्री प्रदान करनेकी क्षमता हो । भगवान गम, आनन्दकन्द कृष्ण और महात्मा बुद्धके जीवन-पान्यानोको कवियोने अनुश्रुति और प्रतिभाके वल पर इस प्रकार विकसित कर लिया कि ईस्वी पूर्व चौथी और पांचवी शताब्दीमे 'रामायण' तथा 'महाभारत' और तीसरी शताब्दी, (ईस्वी उत्त) में अश्वघोप द्वारा 'वुद्ध-चरित' नामक महाकाव्योकी रचना हुई । क्या कारण है कि भगवान् महावीरके जीवनवृत्तके आधारपर मतान्दियो बाद तप भी कोई नागोपांग महाकाव्य न लिखा जा सका? हिन्दी साहित्यमें भी
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जहाँ सूर और तुलसीके समयसे लेकर आधुनिक युग तक 'रामचरितमानस' 'सूर - सागर' 'बुद्ध चरित' 'प्रिय प्रवास', 'साकेत', 'यशोधरा' और 'सिद्धार्थ' लिखे गये वहाँ 'वर्द्धमान' के लिए हिन्दी साहित्यको इतनी लम्बी प्रतीक्षा करनी पडी । इसका मुख्य कारण यह है कि भगवान् महावीरकी जीवनी जिस रूपमे जैनागमोमे मिलती है उसमें ऐतिहासिक कथा भाग और मानवीय रागात्मक वृत्तियोका घात-प्रतिघात गौण है और भगवान्की साधना -- मोक्ष प्राप्तिकी प्रयत्न - कथा ही मुख्य है । महाकाव्यके लिए जिस शृगार अथवा वीर रसके परिपाक की आवश्यकता है उनका ऐतिहासिक कथा- सूत्र या तो मूलरूपसे है ही नही या किन्ही अगोमे यदि घटित भी हुआ हो तो उपलब्ध नही ।
उदाहरण के लिए, दिगम्बर मान्यतानुसार भगवान् महावीरने विवाह नही किया और कुमारावस्थामें ही वैराग्य ले लिया । ब्रह्मचर्यके इस अखड तेजमें उत्कट वल और विजय तो है, पर शृगारके रस - विलासकी भूमिका नही । महाकाव्यमे घटनाओ और भावनाओंके सघात के लिए जिस प्रतिद्वदी ओर प्रतिनायककी आवश्यकता है वह भी नही । फिर जल क्रीडा, उद्यान-विहार, विवाह, यात्रा, युद्ध और विजय प्राप्तिके मानवीय चित्रणो द्वारा रसोकी प्रायोजना- उत्पत्ति हो तो कैसे ? जैनाचार्योने प्राकृत और सस्कृतमे जब कुमारावस्थामे वैराग्य प्राप्त करने वाले तीर्थकरो और महापुरुषोकी जीवनी लिखी तो शृंगार - सर्जना के लिए उन्हे मुक्तिको स्त्री और नायिका तथा काम या मारको प्रतिदी बना कर शृगार और वीर रसके उपादान जुटाने पडे । इससे रीतिकी तो रक्षा हुई, शब्द और अर्थका चमत्कार भी उत्पन्न हुआ, पर पाठककी अनुभूतिको उकसा कर हृदयको भिगोने और गलाने वाला रस कदाचित् ही उत्पन्न हुआ । इस कठिन पृष्ठभूमि पर महाकवि अनूपने 'वर्द्धमान' काव्य लिखा है । काव्यमे १७ सर्ग है और कुल मिलाकर १९९७ चतुष्पद (छद) है । इस प्रकार ग्रन्यको महाकाव्यका पूरा विस्तार प्राप्त है । इसे हरिोधजीके 'प्रियप्रवास' और कविकी अपनी कृति 'सिद्धार्थ' के अनुरूप सस्कृत- बहुल भाषा और संस्कृत वृत्तोमे लिखा गया है । प्राय समूचा काव्य वशस्य वृत्तमे है । केवल घटनामे
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४
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तोड देनेके लिए कही-कहीं मालिनी और द्रुतविलम्बित छन्दका उपयोग किया गया है । उन्यका उपसहार शिखरिणीने किया गया है। विषय-क्रमने सर्गोका विभाजन मोटे रूपते इन प्रकार है - वर्णन और प्रकृति-चित्र--प्राय सब सोमे, किन्तु विशेष कर
पहला, तीसरा, सातवां, आठवां, दनवां, और ग्यारहवाँ नर्ग । कथा-भाग
चौया, आठवां, नांवां, बारहवां, चौदह्वा, पन्ह्वा , नोलहवां और नत्रहवां सर्ग। प्रेम शृगार और मनोरजनात्मक
दूसरा, पांचवां और छठा नर्ग। वैगग्य और उपदेगात्मक
दसवां, न्यारवां, तेन्वा और नत्रहवां सर्ग।
महाकाव्योंके अनुरूप 'वर्द्धमान' में वर्णन-नौदर्य पद-लालित्य, अर्थ-गाम्भीर्य, रस-निर्क और काव्य-कौगल सभी कुछ है । पद-पद पर रूपको, उपमाओ और अन्य अलवारोनी छटा दर्शनीय है। इतना प्रम-नाध्य कौगल होने पर भी सगति और प्रवाहकी रक्षाका प्रयत्न है। मारा काव्य भगवान् महावीरके पिता गग निद्धार्थको गज-मनाकी तन्ह नालात् नरवतीका प्रतीक है -
"सुवर्ण-वर्णा, ललिता, मनोहरा मना लती यो पद-न्यास-शालिनी । विरचि-मिद्धार्य यता लखी गई शरीरिणी ज्यों अपरा सरस्वती॥"
(पृष्ठ ४३, द ३३) नावान्को नाता रानी निगला निमें कदिने उपमायोकी मनोहारिणी नडी पिगेई है । निगला कल्य-वन्तरी है -
"सुपुष्पिता दन्त-प्रभा-प्रभावमे नृपालिका पन्लविता सुपाणिसे ।
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सुकेशिनी मेचक' भृगयूथसे अनल्पथी शोभित कल्पवल्लरी ॥
(५०/५९)
इन्ही त्रिशलाके वर्णनमे तरगिनी (नदी) का रूपक देखिए " सरोज सा वक्त्र, सुन्नेत्र मीन-से सिवार से केश, सुकठ कबु सा । उरोज ज्यो कोक, सुनाभि भौंर-सी तरगिता थी त्रिशला - तरगिणी ॥
(५५/८१)
कविकी कल्पनाका कौशल देखिए कि त्रिशलाकी उँगलीको साक्षात् महाभारतकी कथा बना दिया
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" नलोपमा, प्रक्षवती, स ऊम्मका
मनोहरा, सुन्दर-पर्व - 'सकुला । नरेन्द्र-जाया कर-अगुली लसी कथा महाभारतके समान ही ॥
(६०११०२)
त्रिशलाकी वाणीकी मिठास सुन कर कोयल और वीणा, दोनोका मान खडित हो गया । एक वन-वनमें रोती फिर रही है और दूसरी धराशायी हो गई
'नीले,
अत्यन्त
महाभारतके पक्षमें 'राजा नलको चर्चा पासे वाली
"तरग (परिच्छेद)
'खड
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त्रिशलाके पक्षमें
वृन्त-नालके समान चिह्न वाली
रेखा-तरग
पोर ।
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"परन्तु जो नवंद नर्वदा उन्हें विचारते थे, वह मॉ निराश थे। न पोट पाई अरि-वन्दने की न वक्ष देसा पर-नारिने तया ॥ पंक नई न भूमिपान ये - गनने चेइनना क्यापि दे। नारहोतो पिन नातिको हो। मनायको प्राधिनको प्रनागो।
(४४ 13:- )
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सुसह्य हेमन्त रवीव पार्थके विनष्ट हेमन्त नलेव शत्रु थे ।
(४५१४३)
" तडाग थे, स्वच्छ तडाग हो यथा सरोज थे, फुल्ल सरोज हो यथा । शशांक था, मजु शशांक हो यथा प्रसन्नता पूर्ण शरत्स्वभाव था | (88018)
"श्रधौत वस्त्रा, श्रमिता प्रशसिता प्रशौच-देहा, श्रभगा, श्रमानिता । प्रदर्शनीया, अनलकृता श्र-भा अभागिनी यो प्रबला श्रमानुषी ।। " ( चन्दनाका वर्णन - ४८६।१८९ )
C
2,
निसन्देह इस प्रकारके अलकार संस्कृत साहित्यमे अन्यत्र भी पुन - पुन आये है और खोजने से अलकार साम्य दिखाया जा सकता है पर इस प्रकार देखें तो कालिदास, भवभूति, भारवि और माध तथा गुणाढ्य, विमल, हरिपेण, जिनसेन र धनजय प्रादिके बाद तो कोई उपमा औौर अलकार अछूते नही वचते ? और वाणके विषयमे तो यहाँ तक कह दिया गया है कि - "बाणोच्छिष्ट जगत्सर्वम् " ।
परम्परागत अलकार कौशल के प्रतिरिक्त कविवर अनूपने 'वर्द्धमान' काव्य में अपनी भावमयी कल्पनाने सुषमाके अनेक नये सुमन उपजाये हैं । कही नही शन्दोकी कल्पना में अर्थ और मृदुताका इतना विस्तार भरा है कि परिभाषाएँ औ कल्पनाएँ काव्यमय हो गई है ।
गिता स्वप्न देस रही है । स्वप्नकी परिभाषा और स्नानमा तरह नजीब और सजग हो गया
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"निशीयके बालक, स्वप्न नामके, प्रबुद्ध होके त्रिशला - हृदन्जमें । मिलिन्दसे गुंजन-शील हो गए" ( १०५११७ )
"उगा नहीं चन्द्र, समूढ प्रेम है न चाँदनी, केवल प्रेम-भावना । न ऋक्ष' है, उज्ज्वल प्रेम-पात्र है अत हुआ स्नेह-प्रचार विश्वमें ॥" ( १४/६३१ )
और यह श्रनू है
'तारे
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"वियोगको है यह मौन भारती दृगम्बु-धारा कहते जिसे सभी । असीम स्नेहाम्बुधिको प्रकाशिनी समा सकी जो न सशब्द वक्ष में"
(४२११७२)
'वद्धमान' में शृगार और प्रेमका वर्णन राज-दम्पत्ति सिद्धार्थ और गिला के प्रोट गाम्बिक स्नेह पर अवलम्वित है । शृगार-रमकी सहज उत्पत्ति विकासके जो उपादान है और नायक-नायिकाके युवकोचित विभ्रम-विलानके चित्रणके लिए कविको जो चित्र-पट प्राप्त होना चाहिए वह यहाँ नही हूँ । इस लिए इन शृारका सन्तुलन कठिन हो गया है । पर कविने इसे निभानेका प्रयत्न किया है। पांचवे सर्गमें प्रेमकी गरिमा और महिमा सिद्धार्थ और मिलाके स्नेह मवाद रूपमं दिखाई गई है । दार्शनिकताके वीचमें जहाँ कही मानवीय प्राणांकी भाववाग उमटती है वहीं स्थल अविक नरम और सजीव हो जाते हैं । निद्धार्थ कहते हैं
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"वहिन-सा जीवन मध्य-रात्रिके पड़ा रहा चंद्र-विहीन सिंघुर्मे । मिला न दिग्सूचक-यत्र सा जभी प्रिये ! तुम्हारा कर, मैं दुखी रहा।"
(१६०-८४) और त्रिशलाकी भाव-प्रतिध्वनि सुनाई पडती है -
"प्रकाशसे शून्य अपार व्योममें उड़ी, बनो प्राश्रित-एक-पक्ष' मै । मिला नहीं, नाथ ! द्वितीय पक्ष-सा जभी तुम्हारा कर मैं दुखी रही"
(१६०८५) इन सवादका धरातल इतना ऊँचा उठाया गया है कि एक स्थान पर यह अत्यन्त आध्यात्मिक हो गया है -
"प्रभो ! मुझे हो किस भाति चाहते ?" "ययव नि श्रेयस चाहते सुखी ।" "प्रिये । मुझे हो किस भाति चाहतो?" "ययंव साध्वी पद पार्श्वनायके ॥"
(१५८१७६) इस स्थान पर पहुंच कर सहसा ध्यान भाता है कि यहां पांचवे नगमे जो गज-दम्पति इतने ऊँचे उठकर प्रेमवार्तालाप कर न्हे है दूमरे ननमे भी तो वही दम्पति है जो भगवान्के जनक और जननी बनने वाले है। लाता है ने कविने दूसरे मर्ग में इन्हे केवल गज-दम्पतिक म्पने ही मान को निगो ननभिवका वर्णन किया है। यह यद्यपि मात्रामे गम है
मांग
नाव,
पव।
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- १० - के अनुकूल है किन्तु यही-रही इन लिए नहीं पता कि निगला गयी नाविना न होकर नगवान्त्री माता है। नन्नवाया नबिके नामने गा चित्रा* लिए बहन ही नमित फ क ा। इतने ही उसे सब कुछ कहना यां पपराको निभाना था। कविने फ्पी नर्गनाके दोषणा गोरी हर्ट
टेना चाहा है और यही भक्त पायो मन विना पी.कहीगही जुगुना उत्पन्न हा जाती है। गने पाठवा दिवा है कि गेट, नितन्त्र प्रा. जयचली। एक्ने अपिन वा उब न होता तो नी काम च नाना था। इन उनमें व्ही न्हा कार्यानि गयो जोवन पन्न्पगने मान्य है श्री. या प्रनगम प्रमोन्न नदी उसे छोडने तिर पवि वाच्य नहीं। दनरी बात यह भी है वि गिलारा नव-मित्र वर्णन मी प्रेपनी पम् वियाग रहा है। निजायंग मन-मन मान्दयं-बल्लरी जिन नाम दलो और विश्वउनुनगरे प्रति लुब्ध है, उनका गाव वन उन्ही दृष्टि-गान किया गया है । नीनु यह नि ननांग पानिव शृगाः यदि पांचवे नगमें अभावि
प्राध्यामिक हो गया है तो यह कविको सक्न पल्पनाका प्रतीक है।
जंज्ञा कि होना चाहिए, वईमान काय प्रवानत भक्ति प्रो. वैगम्पका काव्य है। नहावीर कुमारावस्याने ही दयानन मीर चिन्ननगील है । पाठ पनी प्रवन्नामें ही वह अपने मन्वायोलो नबोधित करते है -
"सखे ! विलोको वह दूर नामने प्रचण्ड दावा जलता प्ररप्यमें। चलो, वहांके खर जीव जन्तुको नहायता दें, यदि हो सके, अनी ॥" मनुष्य, पक्षी, कृनि, जीव, जन्तुको मदैव रक्षा करना न्वधर्न है। अन चतो काननमें विलोक लें ।
कि कौनती व्याधि प्रवर्द्धमान है ॥" उनी प्रायुमें कुमार वढेगन ऋग्वालिन नदीके तट - पहुंचते -
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" नितान्त एकान्त- निवास - सत्पृही कुमारको थी सरि ददायिनी । कभी-कभी था उसके समीप वे विचारते जीवनका रहस्य थे || "
सोलह वर्षकी अवस्था तक पहुंचन-पहुंचते उन वैराग्य भावना प्रो भवन हो गई और प्रकति सहने प्रभावित क्षेत्र
मानने
नग
"मनुष्यका जोवन है वसन्त-ना हिमर्तु प्रारम्भ, निदाघ श्रन्त । जहाँ सदा भाव प्रसून फूलते विचारके भी फलते प्रनान है ||" "निया जभी जन्म, तुरन्त ने उटे विलोकी ने ये तथा ।
तो उठे
मुहूर्त जा, क्षण सुदीर्घ गोये, तब जागना
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गृहस्यके साधु-समाजके सभी बता चले धर्म तथैव कर्म भी॥"
(५६२-१४९) वैशाली के प्रमुख गण-तन्त्र की परम्पराग्रोमें पले तथा सामान्य मानवसमाजके हित और उद्धारकी भावनामोसे पूरित-हृदय भगवान्के उपदेश सर्वसाधारणके बोधगम्य होने ही चाहिए थे। उनकी शैली, वाणी-माधुर्य और भाषाकी यही विशेषता थी।
श्री अनूप शर्माने इस ग्रथकी रचनामें भगवान्के जिस ऐतिहासिक जीवन वृत्तको आधार बनाया है, उसकी रूप-रेखा उन्होने अपने वक्तव्यमें दी है। महावीरकी जीवनी जैनधर्मकी दो सम्प्रदायो—दिगम्बर और श्वेताम्बर-में भिन्न-भिन्न रूपसे मिलती है । जीवन-वृत्तकी जिन ऐतिहासिक मान्यताप्रोमे दोनो सम्प्रदायोमें अन्तर है उनमें से मुख्य-मुख्य इस प्रकार है।
१ माता --दिगम्बर मान्यताके अनुसार भगवान् महावीरकी माता त्रिशला वैशालीके हैहय वशीय, जैनधर्मानुयायी क्षत्रिय राजा चेटककी पुत्री थी । श्वेताम्बर मान्यतानुसार त्रिशला चेटककी बहिन थी।
२ गर्भावतरण-दिगम्बर मान्यतानुसार भगवान् महावीर आषाढ शुक्ला पष्ठीके दिन रानी त्रिशलाके गर्भमें अवतीर्ण हुए और उन्हीकी कुक्षिसे जन्म हुआ । श्वेताम्बर आगमोकी मान्यता है कि भगवान महावीर प्राणत स्वर्गमे च्युत हो कर ब्राह्मणकुडपुरमे ऋपभदत्त नामक जैनधर्मानुयायी ब्राह्मण-नायककी पत्नी देवनन्दाके गर्भमे प्राषाढ शुक्ला पष्ठीको पाए और ८३ दिन बाद मोधर्मेन्द्रकी इच्छानुसार हिरणगमेष्ठा देव द्वारा ब्राह्मण भार्या देवनन्दाके गर्भसे निकाल कर क्षत्रिय-भार्या त्रिशलाकी कोखमे लाये गये । बदलेमे शिला की गर्भ-गत पुत्रीको देवनन्दाके गर्भ में लाया गया।
३ कुटुम्ब--दिगम्बर मान्यता है कि भगवान महावीर राजा सिद्धार्थके एकमात्र पुत्र थे। श्वेताम्बर मान्यता है कि गजा सिद्धार्यके दो पुत्र थे। भगवान् महावीरके बडे भाईका नाम नन्दिवर्द्धन था और उनकी भाभीका नाम प्रजावती था।
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४ विवाह--दिगम्बर मान्यतानुसार भगवान् का विवाह नही हुआ । श्वेताम्बर मान्यता है कि इनका विवाह समरवीर नामक सामन्तकी कन्या यशोदासे हुआ । इतना ही नहीं, इनके एक पुत्री हुई जिसका नाम प्रियदर्शना था ।
५ दोक्षा--दिगम्बर मतानुसार भगवान्ने ३० वर्षकी अवस्थाम दीक्षा ली जवकि उनके मातापिता जीवित थे । श्वेताम्बर मान्यता है कि जब २८ वर्षकी अवस्थामे भगवान् महावीरके माता-पिताका देहान्त हो गया तो उन्होने दीक्षा लेनी चाही । बडे भाई नन्दिवर्द्धनके समझानेसे वह दो वर्षके लिए रुक गये और इन दो वर्षों में उन्होने गृहस्थ होते हुए भी त्यागी जीवन विताया।
६ निर्गन्य-~-दिगम्बर मान्यता है कि भगवान दीक्षाके समय नग्न दिगम्बर हो गए। श्वेताम्बर मत है कि भगवान सवस्त्र थे और उनके कन्धे पर देव-दूष्य था।
७ उपदेश--दिगम्बर मान्यतामें भगवानने केवलज्ञान प्राप्त होनेसे पहले उपदेश नही दिया और ६६दिन बाद प्रथम समवसरण उस समय हुआ जव उन्हे इन्द्रभूति गौतम गणधरके रूपमे प्राप्त हुआ।
श्वेताम्बर मतानुसार भगवानका उपदेश केवल ज्ञान प्राप्त करनेसे पहले भी हुआ किन्तु प्रथम समवसरणमें केवल देव ही उपस्थित थे मनुष्य नहीं ।
८ रात्रिगमन--जवकि दिगम्बर मतानुसार भगवानका रात्रिगमन नही है, श्वेताम्बर मान्यता इसके विपरीत है।
उपर्युक्त कथानक-भिन्नतामे विशेष महत्वकी घटना भगवानका विवाह और कौटुम्बिक स्थिति है। 'वर्द्धमान' के लेखकने श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताप्रोमें समन्वय उपस्थित करनेका प्रयत्न किया है। उनके बडे भाईने जब विवाहका सदेश भिजवाया -
"विवाह-प्रस्ताव प्रकाशते हुए, संदेश-संवाहक-वृन्दने कहा,
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भगवानने उन दिन
'विवाह,
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"प्रभो । तुम्हारे प्रिय ज्येष्ठ भ्रानुको अभीष्ट है कौतुक प्रापका नये"
(३८६-६)
"कहा किमी ज्योतिष- विज्ञनं कभी विवाह होगा मम तोम वर्षमें
तथा मिलेगी मुनको वधू कि जो सुभाग्यमे ही मिलती मनुष्यको
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xes नौभाग्यवती स्तनका
वाप्त होना कुछ खेल है नहीं, वही वली पा सकता उसे कि जो खपे, मरे, और जिये श्रनेकधा । सुना किसीमे वह दिव्य नायिका, विराजती तेरह खड वामपं । अजल आरोहण रात्रि-वारका सुमार्ग भी दीर्घ त्रयोदशाब्द है ॥ न शीघ्रगामित्व, न नंदगामिता, न यान साहाय्य, न दड धारणा । न पास पायेय, न दात-मंडली तयापि जाना अनिवार्य कार्य है ॥" (४१६ - ५० से ५४ तक )
(३४९-१८)
तेरह गुणस्यान ।
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उसके बाद उनका अन्तिम निश्चय हुआ
"श्रत चलूँगा कल मै अवश्य ही मुझे महा-सिद्धि-विवाह-ध्येय है प्रवृत्त होगी कल मार्ग मासको पवित्र शुक्ला दशमी मनोरमा"
(४१७-५८) सोलहवे मर्गमे इस घटनाको |कवीद्र-कल्पनाने आगे इस प्रकार बढाया ~~
"हुआ उसी काल, अहो । अनन्तमें निदान ऐसा कि जिसे कवीन्द्र ही निशान्तमें है सुनते कभी, यदा समीर हो स्तम्भित, शान्त व्योम हो ।
(५०१-३२)
कुबेर सचालित चार अश्वका समीप हो स्यदन एक पा गया। इतस्तत सैन्धव स्वीय टापसे अ-धूलि धूलिध्वज थे बिखेरते ।
(५०१-३४) XX तुरन्त ही दिव्यरथी शतागसे हुपा महीप अवतीर्ण सामने, विनीत हो, और निबद्ध-पाणि हो यतीन्द्रसे की इस भांति प्रार्थना -- "अवाप्त की है वह उच्च भूमिका, प्रभो! मिला सो वरदान आपको,"
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"प्रत चलो सप्रति दिव्य-लोकमेंनिसर्ग-श्रत पुरमें-- जहाँ प्रभो ! समस्त देवासुर-मौलि-लालिता विराजिता है वह प्रादि-देवता ।
(५०२-४२ )
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मनुष्यके सुन्दर रग-रूप में जिनेन्द्र - श्रात्मा श्रलकेश-सग हो हुई समासन्न, तुरन्त व्योमको विशाल धाराट उडे विमान ले । (५०४-४५)
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जहाँ न पानी पवनानलादिका प्रवेश होता महिका न व्योमका नितान्त एकान्त - निवासमें कहीं जिनेन्द्र थे, और अनन्त शक्ति थी । (५१२ - ७८ )
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पवित्र एकान्त 1 त्वदीय कमें, त्वदीय छाया-मय मजु कुजमें, मुनीन्द्र, योगीन्द्र, किसे न प्रतमें सदैव देवी सहचारिणी मिली ।
(५१२-७९)
"खडा रहा स्यदन एक याम ही जिनेन्द्र लौटे संग दिव्यशक्तिके
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प्रकाशके अन्दरमें छिपे हुए सुव्यक्ति दोनो द्रुत एक हो गए"
(५१३-८०) कविने इस प्रकार भगवानके विवाहका आध्यात्मिक रूप दिया है और श्वेताम्बर तथा दिगम्बर थाम्नायकी मान्यताप्रोमे सामञ्जस्य बिठाया है।
इसी प्रकार कविने भगवानके दिगम्बरत्त्वके विपयमे भी समन्वय किया है। उन्होने माना है कि दीक्षाके समय भगवान निम्रन्थ-निर्वस्त्र हो गए थे, किन्तु देव-दूष्य समीप था --
"अहो अलकार विहाय रत्नके अनूप रत्ल-त्रय-भूषिताग हो तजे हुए अबर अंग-अंगसे दिगम्बराकार विकार शून्य हो । समीप ही जो पट देव-दूष्य है नितान्त श्वेताम्बर-सा बना रहा अप्रय, निर्द्वन्द्व महान संयमी, बने हुए हो जिन-धर्मके ध्वजी।
(४३२-४३३ पृ० ११९-१२०) 'वर्द्धमान' के पाठक यदि ध्यानसे ग्रथका अध्ययन करेगे तो पाएंगे कि कविने दिगम्बर और श्वेताम्बर आम्नायमें ही नही, जैन धर्म और ब्राह्मण धर्ममें भी सामञ्जस्य बिठानेका प्रयत्न किया है। कवि स्वयम् ब्राह्मण हैं। उन्होने अपनी ब्राह्मणत्वको मान्यताप्रोको भी इस काव्यमे लानेका प्रयत्न किया है। वास्तवमें भगवान महावीरके जीवनमें ही सच्चे ब्राह्मणत्वको आदरका स्थान प्राप्त है। दिगम्बर आम्नायानुसार इस वातका कम महत्व नही कि केवल-ज्ञान प्राप्त होन पर ६६ दिन तक भगवानका उपदेश न हो सका क्योकि उनकी वाणीको हृदय-ग्राहय बना कर जन-जनमे प्रचार करनेकी क्षमता रखने वाला व्यक्ति,
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जिसे शास्त्रीय भाषामें 'गणघर' कहते है, प्राप्त न हो पाया और जब यह महाज्ञानी पुरूप प्राप्त हुआ तो वह अपने समयका प्रकाण्ड विद्वान इन्द्रभूति गौतम था जो जन्म और जातिसे ब्राह्मण था। भगवानके उपदेशसे प्रभावित होने वाले और उनके धर्ममे दीक्षित होने वाले प्रारभिक व्यक्तियोमें ब्राह्मणोकी ही बहुलता थी। ___ यद्यपि भगवान महावीरकी साधना और उपदेगका एक प्रधान लक्ष्य वैदिकयज्ञोकी हिंसावृत्तिको रोकना, और वैदिक क्रियाकाडके अर्थहीन और स्वार्यपूर्ण वन्वनोंसे सर्व-सामान्यका उद्धार करना था, किन्तु वेदके जिन दार्शनिक अगोमें तत्कालीन विद्वानोको पूर्वापर विरोध प्रतीत होता था, उस विरोधका निराकरण भी भगवान्ने जैन-दर्शनके मूल-सिद्धान्तोंके आधार पर किया। वेदोंके दार्शनिक भागमें जहां पूर्व तीर्थकरो द्वारा प्रचारित श्रमण संस्कृतिकी विचारधारा ग्रहण की गई है, उसका निदर्शन उसी सस्कृतिके आधार पर किया जा सकता था।
ऊपर जिन इन्द्रभूति गणधरका उल्लेख किया है वह भगवानके प्रधान शिष्य उसी समय वने जब भगवानकी विवेचनासे उनका दार्शनिक सशय नष्ट हो गया। जनागमोमें इस तात्विक चर्चाका जो उल्लेख आया है उससे प्रतीत होता है कि इन्द्रभूति गौतमको आत्मा (पुरूप) के अस्तित्वमें शका थी। उसने वेदमें पढा था -
"विज्ञानधन एवतेभ्यो भूतेभ्य समुत्याय तान्येवान विनश्यति नप्रेत्य सज्ञास्ति। इन्द्रभूतिने इसका अर्थ समझा था
"विज्ञाधन अर्थात् चेतनापिंड, भूतपादों अर्थात् जल, पृथ्वी, अग्नि आदि भूत-समुदायत्ते उत्पन्न होकर उसी भूतसमुदायमें विनष्ट हो जाता है। प्रेत्य अर्थात् परलोकको कोई सजा नहीं-परलोक नामकी कोई वस्तु नहीं। ___और इन्द्रभूतिने वेदमें यह भी पढा था कि “स वै अयमात्मा ज्ञानमय"यह वही ज्ञानमय आत्मा है" । अत उसे शका थी कि विज्ञानधन वाली भूतिशस्तिको ही आत्मा माना जाए जो विनप्ट हो जाती है अथवा ज्ञानमय आत्माका अलग स्वतत्र अस्तिव माना जाए जिमका प्रवक्त्व ऋपिने स वै अयमात्मा
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עג
वर्द्धमान
पहला सर्ग
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[वंशस्थ ]
( १ ) अनूप भू भारतवर्ष धन्य है, धरित्रि कोई इस-सी न अन्य है इसी मही-मध्य अनादि-काल से समस्त तीर्थंकर जन्म ले रहे।
( २ ) प्रसिद्ध नि श्रेयस-प्राप्ति के लिए यही महापावन पुण्य देश है। यही सदा कर्म-विनाश-कार्य के लिए तपस्वी सुर भी पधारते ।
हिमाद्रि-विन्ध्याचल-मध्य भूमि मे हुआ समुत्पन्न न जो न धन्य सो। सुना गया देश पुराण काल से प्रसिद्धि-सवेष्टित' धर्म-क्षेत्र है।
'जीवन-मुक्त अथवा ईश्वर, भवसागर-तारक । मुक्ति । 'गस्त अथवा लिपटा हमा।
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४६
वर्द्धमान
( ४४ ) प्रसन्न लक्ष्मी गृह में विराजती, तथैव चितामणि राज्य-कोष में, वसी विधात्री' मुख-मध्य शोभना, प्रचड बडी भुज-दंड पै लसी।
नरेन्द्र भू पै मलयाद्रि-तुल्य थे महाह-गाखा-सम हस्त में लसी कृपाण सर्पाकृति', जो निकालती सुकीर्ति का कचुक गत्रु-कठ से ।
(४६ ) मुधैर्य, लावण्य, तथा गंभीरता, अनूप तीनो गुण है समुद्र मे, परन्तु जो नेत्र-प्रमोद दे सके नरेन्द्र-सा विग्रह' सो न पा सका।
( ४७ ) न स्वप्नमें भी रण-मध्य भूप को विमोचती थी सुभगा जयेन्दिरा' प्रभाव' से पूर्ण ययंत्र कान्त को न छोटती है वनिता रति-प्रिया ।
मरस्वती। 'बदन । 'मर को प्रारनि की। "तन-प्राण, मन्नाह । शरीर। विमान। “वनंम्ब ।
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पहला सर्ग
( ४८ ) नपाल थे व्यस्त सदैव आर्त के विषाद के भजन मे स-कष्ट' के, न शंखपद्मी न गदी', परन्तु वे यथार्थत दो भुज के मुकुन्द थे।
( ४९ ) सदा द्विजावास तथैव निर्मली विशाल थे जीवन -धाम राज्य के, तडाग-से शोभित पद्म-युक्त वे नरेश तृष्णा हरते अधीन की।
( ५० ) नृपाल कालानल शत्रु-पुज को, लखे गये कल्प-फली कलाढय-से, उन्हे शरीरी रति-नाथ-तुल्य ही विलोकती थी गृह-इन्दिरा प्रिया ।
( ५१ ) नरेश की कीर्ति अराति-ओक' मे, अरण्य मे, अबुधि मे, अहार्य मे, लसी अधो-भूतल-अतरिक्ष में
महा मनोज्ञा बहुरूपिणी-समा । 'दुखी (मनुष्य) गदा-युक्त। पक्षी या ब्राह्मणो का निवास । 'जल। वृक्ष। गृह। पर्वत ।
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४८
वर्द्धमान [ मालिनी]
( ५२ ) जलद-पटल से जो रुद्ध होता नहीं है, त्रसित-प्रसित होता राहु-द्वारा नही जो, अपहृत-छबि नारी-वक्त्र' से भी न होता यश-शशधर ऐसा भूप सिद्धार्थ का था।
[ वंशस्थ ]
महीप सिद्धार्थ प्रतापवान की अनुप भाऱ्या त्रिशला मनोरमा विराजती थी छवि-गेह में शुभा प्रदीप-सी मंजु प्रदीप-दशिनी।
( ५४ ) गुणान्विता, यौवन-सपदन्विता, नु-पडिता, बुद्धि-विवेक-शालिनी, प्रकागती चद्र-कला-समान थी नपाल-चित्तोदवि-मोद-बद्धिनी ।
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'मग 'बद्रमा।
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बर्द्धमान
( १०७ ) न इन्दु भी है त्रिगला-मुखेन्दु-सा, असार सारी कवि-कल्पना हुई, कटाक्ष-भ्रू-भग कहा सुधाशु मे प्रसाद'-कोपादि कहाँ शनाक मे ।
( १०८ ) विलोकते ही त्रिगला मुखेन्दु को नृपाल के नेत्र चकोर हो गये, परन्तु ज्यो ही क्षण-एक के लिये पुन विचारा भ्रम व्यक्त हो गया।
( १०९) कहाँ प्रिया के मुख को महा प्रभा, वराक शुभ्रागु' कहाँ, न तल्यता, कलक से श्रीत्रिशलास्य हीन था स-दोष दोपाकर विश्व-ख्यात है
( ११० ) समुद्र में जन्म, मलीन प्रात मे, सदैव न्यूनाधिक, राहु-ग्रस्त भी, वियोग मे दुखद चक्रवाक को न अब्ज भी था त्रिगला मुखाज-सा।
'प्रसन्नता। 'वेचारा । 'चद्रमा । 'चद्रमा। 'चद्रमा ।
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पहला सर्ग
( १११ ) सरोज-द्रोही, रस-शून्य-देह है, सुगव से हीन शशाक ख्यात है, न साम्य पाती त्रिशला-मुखेन्दु का मलीमसा' प्राकृत चद्र की कला ।
( ११२ ) द्विधा किया चन्द्र विरचि ने यदा मनोहरा की रचना कपोल की, मृगाक-नि 'प्यदित-विन्दु से तदा महा मनोज्ञा रदनावली रची।
( ११३ ) अनूप ताली-दल से मनोज्ञ वे सु-कर्ण थे शाण कटाक्ष-वाण के । मनोज्ञ नासा सित-मौक्तिकान्विता, सुलेख्य तूणीर प्रसून-पुख' का ।
( ११४ ) शशांक के मंडल में सरोज दो प्ररूढ होते यदि, तो अवश्य ही कवीन्द्र पाते बहु कष्ट के बिना महामनोज्ञा त्रिशला-मुखोपमा ।
'मैली। चद्रमा । 'निकला हुआ । 'ताड़-वृक्ष । 'तरकस । 'कामदेव ।
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६४
রদান
अमेत वेणी' बन मागणीनमा निनन्य ने मना नही निंदूर-जिहा अपनी पमाली मुपेन्दु-पीयप-ग्मावहिनी' ।
न प्टि थी प्राकृत अयोनि' की मनोरमा श्री त्रिगन्ना मुलोचना, स्वरूप की लपति और हो बनी अनन्य-चातव्यं-गरपा-मयी।
( ११७ ) अमूर्त, तो भी, कटि मूर्त तत्र थी, अगक, तो भी, तरला सु-दृष्टि थी, अहो, बलकार-विहीन अग की महा मनोहारिणि मगना लसी।
( ११८ ) यथा-यथा भूप धंसे हदन्धि म तया-तथा कज-उरोज भी वढे, यथा-यथा अब्ज-पयोज' यो हंसे तथा तथा नेत्र-सरोज भी वढे ।
'चोटी। 'चाटनेवाली। 'ब्रह्मा । 'तार। 'चद्रमामें उत्पन्न कमल।
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बर्द्धमान
( १९) नगल के निद्रित काम-नान को जगा रहे थे उन काल नेष यो अतीव श्री अजित-घोपण-नरी गो दिनाएं वह धो' नंता ।
(२०) निनन नारा अति-अंव-जन्य ने न-कन नीत-ज्वरगस्त हो गया । नहान नीरव पयोद-व्याज ने विहाय मेरुवल ओह सो गया।
(२१) जि निगलाभासित इन्द्रगोपन्न विरोगिनी के वहसत-वाल-सी. विराजती थी मगह में उतरलत
योगिनी-चित्रित-त्रल-तहसी।
जस्त्र धारा गिन्ती प्योर ने कलापियों के गानन्यालीन थे. अनी करेंगे स्ववा-ममूह के कृतान्नंग गत्तनम्मानित दुद की।
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दूसरा सर्ग
७६
( २३ ) पयोद जैसे निज दान-मान से बना रहे मुग्ध मयूर-वृन्द को, तथैव कदर्प स्व-मान-दान से बना रहा उग्र युवा-समूह को।
( २४ ) अनेक-रागान्वित, स्थैर्य-हीन भी, अजस्र दुष्प्राप्य, गुणादि-हीन भी, नवागना के रस-सिक्त चित्त-सा बना रहा प्रावट इन्द्र-चाप को।
( २५ ) लखो, महा धूसर धूलि से हुआ प्रमोद देता किसको न खेल से, स-पुत्रिका के पट-सा विलोकिये, मलीन है अवर वारि-वाह से ।
( २६ ) महान वर्षा यह हो रही, लखो, सु-वर्ष से वासर दीर्घ हो रहा, सभी दिशा, नीर-तरग-युक्त है, महीप क्यो नीरत-रग हो नही ।
रग-युक्त । वर्षा-ऋतु । 'पुत्रवती । वर्षा अथवा वर्ष । 'काम-हीन ।
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वर्तमान
( २७ ) नरेन्द्र भी यौवन-युक्त है तथा वधू महा-प्रीट-पयोधरा लमी, इसीलिए सगम-लालसान्विता तरगिणी-सी विशला लमी तभी।
(२८ ) कदम्ब मे मुग्ध-लसे प्रसून है, प्रसून मे मजु मरद' सोहता, मरद मे लुब्ब मिलिन्द-यूय है, मिलिन्द मे भी मदनानुभूति है।
( २९ ) प्रहृष्ट है कामुक चक्रवाक भी, प्रकृप्ट नृत्यादित' है कपोत भी, प्रकर्प को है पिक प्राप्त हो रहे, पिकी, कपोती, लख, चक्र-वालिका।
पयोद गजें, जल-धार भी गिरे, तडिल्लता' अवर मे अशान्त हो, महीप को क्या भय था, निकेत मे प्रिया महा ओपधि-सी विराजती।
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'पराग। नृत्य से तरल चित्त। 'विजली।
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दूसरा सर्ग
[ द्रुत विलंबित ]
( ३१ ) जिस प्रकार पयोधर अक मे मचलती तडिता अनुरक्त हो, । उस प्रकार समीप नृपाल के विलसती त्रिशला अति मुग्ध थी।
[वंशस्थ ]
( ३२ ) महीप बोले प्रिय चाटु-उक्ति' से "प्रिये ! धनुर्धारिणि तू विशिष्ट है, कलंब-ज्या-हीन शरास' से, अहो ! बना रही है मन विद्ध मामकी ।
( ३३ ) "सु-दृष्टि कृष्णार्जुन से प्रसक्त है, तथापि जाती यह कर्ण-पास ही, प्रिये ! नही विश्वसनीय चाल है। विलोचनो की चल-चित्त-वेधिनी ।
'खुशामद। वाण। धनुप । काला और सफेद प्रयवा नाम विशेष। "कान या नाम विशेट्र।
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१४
दर्द्धमान
( ८२ ) सु-स्वप्न वर्ग-ऋतु के, अहो ' अहो । कहो प्रिया के जल-जात कर्ण मे "त्वदीय प्रेमी-नप जागरूक' है समीप तेरे अब पाहरू बने ।”
"अये कुरगायत-लोचने । शुभे । त्रिलोक-सौदर्य त्वदीय वित्त है, गुणावली-गोभित अग-अग मे अनग का, योषित | अतरग त् ।
(८४ ) "प्रभा गरच्चन्द्र-मरीचि-तुल्य है, विभा' शरत्कज-समान नेत्र की, शुभा शरद्-हस-समा सु चाल है, विगाल तेरी छवि वाम-लोचने ।
( ८५ ) "अतीत-स्नेह-स्मृति-सी मनोरमा, पवित्र वाल-स्तुति-मी सु-कोमला', सुमानसी तू नवनीत-पेलवा नतागि कान्ते । ललिते। वरागने ।
'जागृत । 'प्रकाश । 'कोमल । 'मुलायम ।
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दूसरा सर्ग
( ८६ ) "नरेश-भावोद्गत-नीर के लिए प्रसुप्त तेरा मुख सिधु-सा बना, नरेन्द्र की जीवन-ह्रादिनी-गता प्रफुल्ल है वृत्ति प्रफुल्ल-कज-सी।
( ८७ ) "समीर से सूक्ष्म विहग-पक्ष है, कृपीट है सूक्ष्म विहग-पक्ष से, परन्तु सु-भ्रू अति भूरि-भाविनी प्रसिद्ध है सूक्ष्म कृपीट-योनि' से।
( ८८ ) कहा गया है, प्रमदा-अपाग ने गिरा दिया मानव को धु-लोक से, परन्तु वामा-हृदयाब्ज ने, अहो । सदा बनाया दिव-तुल्य भूमि को।
( ८९ ) "प्रफुल्लता और पवित्रता, तथा विशुद्धता, शाश्वत प्रेम-भावना, कहे गये जो गुण स्वर्ग-लोक के लखे गये वे ललना ललाम मे ।
'तडाग । 'धुआँ । 'अग्नि । 'स्वर्ग ।
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वमान
'मुलनणा तू निज चाल-ढाल मे, सुदेवता त निज अंग-डंग में, उपा-समा अवर' से ढकी हुई प्रशान-मी अवर में विराजती।
“ययैव तू सुन्दर त्यो स-मिट है, यवैव है मिष्ट, तयव कोमला; ययैव तू कोमल दिव्य भी तया, व्यैव दिव्या उस भांति देवता । - ( १२ ) 'विरचि की केवल तून चातुरी, वरच है मानन-मूर्ति मामकी; नत! अर्गगिनि तू बनी यथा तथैव मेरा मृदु बर्ष-स्वप्न तु ।"
( ९३ ) नरेन, योही कुछ देर रात्रि में प्रसुल-वामांग निहारते रहे, प्रगाढ-तन्द्रा-वन मौलि-मव्यगा अवंव-वेणी-छवि धारते रहे।
'शका !
पड़ा। वार करते।
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दूसरा सर्ग
( ९४ ) ललाट मे आगत स्वेद-बन्द भी नरेश हाथो परिहारते रहे, हटा-हटा आनन से अजस्र ही मिलिन्द की भीड निवारते रहे।
मृगांक-से आनन पै पड़ी हुई पयोद-माला-सम केश-राशि को सहेजते' भूपति बार-बार यो स-जभ शैथिल्य-समेत सो गये।
[ द्रुतविलंबित ]
( ९६ ) मनुज जागृति मे रत-धर्म है, विगत-कर्म तथैव सुषुप्ति' में, यदि कही सुख-स्वप्न प्रतीत हो वह भविष्य-विधान-समर्थ है ।
'सम्हालते। जम्हाई लेकर । निद्रा। 'निर्माण ।
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वर्द्धमान
शशाक के और फणीन्द्र-धाम के सु-मध्य मे शोभित दो विमान थे, कपोत के युग्म-समान दूर से, समीप से दो गृह-तुल्य जो उड़े।
( ४५ ) मृगेन्द्र कूदा पहले विमान से द्वितीय से भी वृप' भूमि पै गिरा चला बलीवर्द' स-दूर्व भूमि को स-शब्द शैलाट' अरण्य को गया।
( ४६ ) पून गिरे दो स्रग यान-यग्म से अलात माला-सम चक्र-युक्त हो, गिरे जभी भू पर शब्द-हीन वे दिखा पड़े दो घट माल्यवान थे।
( ४७ ) उसी घड़ी सूर्य्य उदीयमान हो मनोज्ञ प्राची दिशि को प्रकाशता दिखा पडा चक्रम-युक्त सामने समस्त भू को करता प्रदीप्त था।
'बैल । 'बैल । "सिंह । 'माला। 'चरखी-। 'माला-युक्त ।
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तीसरा सर्ग
( ४८ ) मरीचियाँ उत्थित सूर्य-देव की बना रही थी अनुरजिता' धरा, समस्त कासार, सरोज-पुज' से ढके हुये पीत पराग से, लसे ।
( ४९ ) महान आश्चर्य हुआ उन्हे जभी प्रफुल्ल देखे सर में सरोज, जो निशा तथा वासर मे पृथक्-पृथक् प्रकाशते है, पर सग-सग है ।
( ५० ) पुन वही श्वेत गजेन्द्र पूर्व मे लखा गया जो त्रिशला ललाम से सरोज-सा, भृग-समान व्योम में, उठा बृहत्काय, बना गिरीन्द्र-सा ।
( ५१ ) पुनश्च हो सो लघु अतरिक्ष मे मिलिन्द-सा आ त्रिशला-समीप ही नृपेन्द्र-जाया-मुख-कज मे फंसा यथैव भावी सुत-सूचना , शुभा ।
प्रसन्न । होनेवाले।
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वर्द्धमान
( ५२ ) तुरन्त वन्दी-जन गान गा उठे, मृदग बीणा बहु बाजने बजे समेत-आनद्ध'-सुषीर झल्लरी वजी, जभी पुण्य-प्रभात आ गया।
"उठो, उठो, देवि प्रभात हो गया करो सभी सत्वर योग्य कार्य, वे समृद्धि की जो तति' वश मे करें अशेष कल्याण त्रिलोक में भरे । [ द्रुतविलंवित ]
( ५४ ) "जिस प्रकार, शुभे । दिशि पूर्व के उदर-मध्य दिनेश छिपा हुआ, निहित है सुत यो तव कुक्षि मे सकल लोक-प्रकाशिनि ज्योति ले ।
"अपगता भव-यामिनि हो चली, उदय है शुभ ज्ञान-प्रकाश का, अलस-अवर त्याग उठो, उठो ,
जग गया जग मे जन धन्य सो।" 'ताल देनेवाले वाजे, तवला, मृदग आदि । (सुपीर) मुहसे बजनवात वाजे । 'प्रसार । कोख, उदर । 'व्यतीत ।
को शान नेपाल कान, वसा, मुदत सादि । सुपीर)
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वर्द्धमान
( ४३ ) "सदैव अर्हत-स्वरूप अर्क के प्रकार होते भव-व्योम-अक मे, महा कुलिंगी' खल-तस्करादि भी प्रतीत होते द्रुत भागते हुये ।
( ४४ ) "तथैव साम्राजि | जिनेन्द्र-अर्यमा स्वकीय सवोधन-अशु से मुदा समस्त-प्राणी-भव के विनाश को स्व-जन्म लेते तव देवि ! कुक्षि में।
( ४५ ) "तथैव तीर्थंकर शुद्ध ज्ञान की गभस्तियो' से कर धर्म-मार्ग को प्रशस्त, पाते पद अतरिक्ष में सु-लोचने । लोचन लोक-लोक के ।
( ४६ ) "तथैव तीर्थंकर वाक्य-अशु से सदा खिलाते मन-कज साधु के, तथैव तीर्थेश्वर शब्द-रश्मि से विनागते काम-कुमोद सत के।
'कललणी। मूर्य । 'किरणें । 'दुख या कुमुद ।
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चौथा सर्ग
( ४७ ) "अत उठो, हे त्रिशले | जगो-जगो, विलासिनी-मंडल-मान-मदिनी ! प्रबुद्ध हो, सप्रति शुद्ध हो, शुभे! कुरंग-नेत्रे ! ललिते । मनोरमे !
( ४८ ) "प्रभात मे श्रावक-श्राविका सभी अजस्र-सामायिक-दत्त-चित्त हो, प्रसक्त हो कर्म-अरण्य-होम' मे, सदा उठाते ध्रुव धर्म-धूम है।
( ४९ ) "अनेक सपूजित-पच-देवता प्रवृत्त होते व्रत-जाप मे मुदा; परन्तु जो चित्त-निरोध-लग्न, वे निलीन होते सुख-सिधु ध्यान में।
"तथैव जो धीर विमुक्ति-प्राप्ति के लिए, न लाते ममता शरीर पै, प्रवृत्त व्युत्सर्ग-तपादि में वही विनाशते कर्म, विमोक्ष साधते ।
'जलाना । त्याग।
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वर्द्धमान
( ५१ ) "अत उठो, हे त्रिशले । सुलोचने ! नरेन्द्र-जाये। पति-भक्ति-तत्परे ! प्रसक्त हो सत्वर धर्म-ध्यान में पवित्र आदर्श-चरित्र आप है।"
( ५२ ) मनोरमा श्रोत्र'-सुखावहा तभी हुई महा-मगल-गीति, कामिनी प्रवृद्ध होके, शयनाक छोड़क उठी, लगी नित्य-निमित्त-कार्य मे।
( ५३ ) विशाल-नेत्रा हरिणी-समान सो, सुधाशु-आस्या रजनी-समान सो, उठी चली यो त्रिशला मदालसा सु-मद-पादा करिणी-समान सो।
( ५४ ) समेत-कल्याणक नित्य की क्रिया समाप्त सामायिक आदि ज्यो हये, निवृत्त हो सत्वर प्रातराश' से गयी सभा-मध्य सखी-समेत सो।
'कान । 'प्रभात का भोजन ।
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वर्द्धमान
( २० ) निविप्ट हो पंजर मे मराल ज्यो हिमाद्रि के कदर मे यथा नखी प्रवीर . ज्यों कुंजर के वरंड' मे तथा शशी अवर में प्रविष्ट था।
( २१ ) कि व्योम-वापी-सित-पुंडरीक था, कि मार-गाणोपलाही विराजता कि रात्रि-वामा-कर-रिक्त गेंद-सा शशाक कूदा नभ-वर्ष मे तदा ।
(२२) नभोलता-कुंज-उपागता तथा प्रमोद - पाकुल-तारका - मयी निगागना की तम-पूर्ण कचुकी स-वेग खीची कर से गशाक ने।
( २३ ) मयूख-लेखा प्रथमा शशांक की, कि रात्रि की कुंकुम-चर्चिका लसी', प्रवाल की पक्ति अगोक-व्योम की,
कि मारकी थी मणि-कुंत-वल्लरी। 'होदा। 'कूप । 'शान रखने का पत्थर। 'मैदान । 'किरण। 'तनो मार
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पाँचवाँ सर्ग
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( २४ ) त्रिलोक के मोहक अधकार को सदैव, नित्य-प्रति, खा रहा शशी, इसीलिए उज्ज्वल-देह-कुक्षि' मे समूढ अधतम है, विलोकिये ।
( २५ ) कि प्रेम से तामस-केश-पाश को मरीचि की अगुलि से हटा-हटा, विलोकिये, सपुटिताब्ज-लोचना निशा-वधू का मुख चूमता शशी।
( २६ ) विलासिनी-आनन कुज-कुज मे विलोकता है हँसता हुआ शशी, प्रसारता है कर जाल-जाल में मनोज्ञता की वह भीख मांगता ।
( २७ ) महीध' कैलाश हुये समस्त है सभी पलाशी' सित-आतपत्र' है, समुद्र सारे पय-सिधु से लसे, कु-पक भी है दधि-तुल्य राजता ।
कोख । पर्वत । 'वृक्ष । 'छतरी।
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वर्द्धमान
( २८ ) शशाक प्रत्येक निशान्तराल' में स्वकीय गाथा कहता धरित्रि से, कि जन्म कैसे इस पिंड का हुआ, कि कीति कैसे बढती सु-कर्म से ।
( २९ ) प्रपूर्ण राकेश नमो-निकुज से विकीर्णर जोत्स्ना करता समतत , समीर मानो गति से शने शनैः प्रगाढ निद्रावश हो रहा, अहो
( ३० ) शशाक-जोत्स्ना चलती सुमेरु से महीरुहो से छनती धरित्रि में, नदी बहाती तल मे प्रकाश की, वढा रही प्रेम निशा ललाम से ।
( ३१ ) उगा नही चद्र, समूढ प्रेम है, न चाँदनी, केवल प्रेम-भावना, न ऋक्ष है, उज्वल प्रेम-पात्र है, अत हुआ स्नेह-प्रचार विश्व मे ।
'रात्रि के मध्य का समय । 'प्रसरित ।
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१६०
वर्द्धमान
( ८४ ) "वहित्र-सा जीवन मध्य-रात्रि के पडा रहा चद्र-विहीन सिंधु में, मिला न दिग्सूचक-'यत्र सा जभी प्रिये । तुम्हारा कर, मै दुखी रहा।"
( ८५ ) "प्रकाश से शून्य अपार व्योम मे उडी, वनी आश्रित-एक-पक्ष में मिला नही, नाथ | द्वितीय पक्ष-सा जभी तुम्हारा कर मै दुखी रही।"
( ८६ ) "प्रताप से, जीवन से, प्रकाश से प्रिये । सदा हो अति प्रेयसी मुझे, वहा कभी था अनुराग-उत्स जो प्रवाह-संयुक्त अजस्र' हो रहा।"
( ८७ ) "समीर-सी प्रेम-तरग है, प्रभो। न ज्ञात है आगम-निर्गम-स्थली, अवाघ' तो भी वहता प्रवाह है नसो-नसो में मुझ प्रेम-प्राण के।"
'कम्पास । 'निरतर । 'अप्रतिहत-गति ।
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पांचवा सर्ग
( ८८ ) "दुरूह है प्रेम-रहस्य जानना, न ज्ञात है कंटक है कि डक है, कि अग्नि हो वाडव की, मनोरमे । सुखा रही जीवन' विश्व-सिंधु का।"
( ८९ ) प्रभो । मुझे ज्ञात कदापि है नही, सुधाक्त' है . प्रेम, विषाक्त वस्तु या, अनादि-माधुर्य-भरी विभूति है, अनन्त-काकोल'-मयी प्रसूति है।
"समक्ष स्वर्गीय--प्रभाव प्रेम के समृद्धि सारी अति तुच्छ भूमि की, न प्रेम के है अतिरिक्त प्रेम का सुना गया मूल्य समस्त विश्व मे ।
( ९१ ) "समस्त वृन्दारक देव-धाम के विनाश दे अतर देश-काल का, सुरेश दो प्रेमिक-प्रेमिका मुदा
हिला-मिला दे, मम प्रार्थना प्रभो ।" 'जल । 'अमृत-सिंचित । 'विष । 'देवता ।
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१६२
वर्द्धमान
( ९२ ) "प्रिये । सदा सुन्दर प्रेम-भावना प्रपूर्णता है नियमानुवृत्ति' की, कि हूँत का तात्त्विक मूल-रूप है कि एकता है युग चित्त-वृत्ति की।"
( ९३ ) "विभावना' ईश-प्रदत्त प्रेम की कही अनैसर्गिक सपदा गयी, विलोचनो के, प्रभु! एक वुन्द में प्रतीत सारी वसुवा लखी गयी।"
( ९४ ) "रहस्य से पूर्ण सहानुभूति है, कि प्रेमियो के मन की प्रसूति है, प्रिये ! मुझे प्रेम-स्वरूप भासता सु-लभ्य भू मे विभु की विभूति है।"
( ९५ ) "प्रभो । सदा यौवन-पूर्ण प्रेम की वसन्त-जोभा जग में बनी रहे।" "प्रिये ! सदा प्रेम-रसावलविनी लगी झडी प्रावट की घनी रहे।"
'नियम पलने की प्रवृत्ति । द्वैगभाव । 'विचार। 'जन्म । 'वर्षा ।
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पांचवा सर्ग
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( ९६ ) "सभी प्रजा शासित प्रेम-भूप से विलोकिये मर्त्य-अमर्त्य-लोक मे, कि प्रेम ही, हे प्रभु | देव-लोक है, कि स्वर्ग ही अन्य स्वरूप प्रेम का।"
( ९७ ) "प्रिये । सदा प्रीति प्रशान्ति-काल की बनी स-शक्ता परिवादिनी-समा, अशान्ति मे भ्रान्ति-हयाधिरोहिणी सँवारती आकृति कान्ति-कारिणी।"
"न प्रेम को नाथ । प्रतीति अन्य की, स्वकीय जिह्वा करता प्रयुक्त है, प्रवृत्त हो दो दृग बातचीत में कदापि मध्यस्थ न चाहिए उन्हें ।"
"कराह प्रेमी हृदयाब्धि से, प्रिये । उठी, वनी पुण्य-पयोद-मडली। तथैव प्रेमाग्नि क्षण-प्रभा वनी, दगम्बु-बुन्दावलि धार-सी गिरी।
'वीणा । 'भ्रान्ति के घोडे पर सवार ।
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वर्द्धमान
( १२ ) नवांगना की रति-कामना-समा, तथैव लज्जा इव प्रोट नारि की, कि स्वैरिणी' की नियमानुवृत्ति-सी अन्य होती क्षण में दिन-प्रभा ।
स-भास यो कोरक कुंद-पुष्प के विराजते पल्लव-अंतरिक्ष में, यथैव हो जीत-विभीत तारिका छिपी हुयी कुंद-लता-समूह में।
( १४ ) दिनेन का आतप मंद हो गया, निगेग की भी अति गीत चद्रिका, महान व्यापा निगिरत-शैत्य यो न अग्नि मे तेज रहा विशेष था।
( १५ ) निवेग-वातायन-काच-पी० पै तुषार के चित्र विचित्र हो गये; सुकर्णिका' के, सरसीरहादि के
अनूप थे गुच्छक-से लते हुये । 'पुश्चली स्त्री। कलिया। पाला । गुलाब ।
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छठा सर्ग
( १६ ) तुषार पै वज्र-कपाट बंद हो, निवार दे पुष्ट छते समीर को, हिमांशु वातायन से न आ सके, प्रयत्न-सा था त्रिशला-निवेश मे।
( १७ ) प्रभात मे पादप-शृग पै गिरे, बने रहे, पुष्कल' ओस-बुद यो, रहे दिखाते निज सप्त-रग वे नरेन्द्र-जाया जवलौ जगे नही।
( १८ ) प्रसून सोते हिम-खड के तले वसन्त के स्वप्न विलोकते हुये, पड़ी प्रसुप्ता त्रिशला-निवेश में लिए हुये एक रहस्य गर्भ मे ।
( १९) अतद्र-नि श्वास प्रभात जानके तुषार के शायक छोड़ने लगी, विदारती है हृद' शीत-रात्रि का निशान्त-कारी रवि की शरावली।
'अधिक सस्या में। हृदय ।
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यद्धमान
"जगो, जगो, देवि प्रभात हो गया, उपा गमान्ट हुई निगान्त प, जगज्जयी फेवल एक काल है, अत उठो, है समयानुवनिनी' ।"
( २१ ) सुनी नु-वाणी मग्नि-वृन्द की मुदा जगी मनोगा निगला प्रभात में परन्तु गोनर्नु उपा-नमान ही अनन्प' लेटी निज नल्प' में रही।
(२२) कठोर-गर्भा निगला विलोक के म-प्रेम आयी मसियां ममतत , मनोन प्रश्नोत्तर से न-मोद वे लगी रचाने वहलाव चित्त का।
( २३ ) दिवौकमी, मन्दरि, छद्मवेपिणी स-नर्क गका करने लगी सभी, जिनेन्द्र-गर्भ-स्थित है कि अन्यथा लगी परीक्षा करने अनेकश ।
'समय के अनुसार अनुवर्तन करनेवाली। बड़ी देर । "झूला ।
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छठा सर्ग
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( २४ ) "विरक्त हो कामुक जो महान है, निरीह है, इच्छुक है अवश्य जो, नरेन्द्र-जाये । त्रिशले शुभे । अहो । कहो परात्मा प्रभु कौन विश्व मे ।
( २५ ) "अदृष्ट है कौन, तथापि दृष्ट है ? स्वभाव से निर्मल कौन लोक में ? महार्ह' है किन्तु न देव-रूप है ? दयार्द्र है, देह-दया-विहीन है ?"
( २६ ) नपालिका ने सब प्रश्न यो सुने, दिया नही उत्तर व्यक्त रूप से, परन्तु होके नत-लोचना मुदा विलोकने कुक्षि लगी मदालसा ।
( २७ ) "अगाध-संसार-पयोधि मे, शुभे । न डूबने दे वह पोत' कौन है ? नपाल-भार्ये । कृपया बताइए,-- "वहित्र अर्हत-पदारविन्द का"।
__'इच्छा-हीन । महँगा, दुर्लभ । 'नाव । 'जहाज ।
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वर्द्धमान
( ७६ ) विपचि | तेरे तन' एक तार ने हिला दिया राग-विहीन गर्भ भी, यही प्रशसा भवदीय न्यून क्या कि जो पुन लीन हुई स्व-राग मे ।
( ७७ ) न देव होते अभिभत क्यो, शुभे । संगीत देवालय-योग्य वस्तु है, न युक्त संगीत-प्रभाव से हने कुरंग को ब्याध, अमाप पाप है ।
(७८ ) लिखा गया दिव्य सँगीत सर्वदा दिगंत-पृष्ठो पर नाक-लोक के; कहा गया है उस शब्द में कि जो प्रसिद्ध भाषा सुमना-समाज की।
( ७९ ) समोद गावो अतएव, देवियो । निरतरास्वादन-दत्त-चित्त हूँ, विधान सौधर्म-महेन्द्र का यही, संगीत है दान महान ईग का।
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कोमल । अत्यन्त ! 'देवता ।
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छठा सर्ग
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( ८० ) विपचिके | धात्विक शब्द तावकी' विमोहते जीवित-भृग-मंडली, मनोरमा है ध्वनि भासती मुझे सुकोमला नाद-कला अकथ्य है।
( ८१ ) सरस्वती लेकर बीन स्वर्ग में निसर्ग के आदिम-काल मे पुरा लगी जभी सुन्दर गान छेड़ने हुई स्वयमू-श्रुति अष्ट-श्रोत्र की।
( ८२ ) निनाद होता अति शुष्क पर्ण मे, अजस्र गाती सरि-धार गीति है; मनुष्य के हो यदि कान, तो सुने सँगीत व्यापा वन-अद्रि-व्योम मे।
( ८३ ) सँगीत आत्मा त्रसरेणु'-व्यापिनी त्रिलोक-स्रष्टा विभु से रची गयी; प्रसिद्ध भू मे श्रुतियां न चार ही वरच द्वाविशति है, अनन्त है।
'तेरे । ब्रह्मा। 'वह कण जो वायु में अदृष्ट उडते रहते है। 'वाईस ।
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वर्द्धमान
( ८४ ) अहो! तुम्हारे, सखियो। सँगीत से प्रसन्न आत्मा मम हो रही मुदा, ध-लोक-गामी रथ पै सवार-सी जिनेन्द्र-मार्गाभिमुखी बनी अभी।
( ८५ ) सुनी तुम्हारी मृदु गीतिका जभी पयोद आये घिर प्राच्य व्योम में, अहो | तुम्हारे पट से सुरग ले उगा, हुआ सुन्दरि ! इन्द्र-चाप है ।
(८६ ) हुई प्रतीची अनुरजिता, तथा प्रसन्न होता रवि अस्तमान है, विमुग्ध प्राची-धन मे उगा हुआ सुरेन्द्र-कोदड' विराजमान है।
( ८७ ) नही रंगो से यह है बना हुआ न स्वर्ण से, पारद से न तान्न से, स-जीव कोई घन तत्त्व है कि जो प्रशस्त स्वर्गीय महत्त्व-युक्त है।
पूर्वीय ।
धनुष ।
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२०८
वर्द्धमान
( २८ ) "वजा जभी अश्रुत' काल-यंत्र तो भुका दिया गीस प्रमून-वृन्त ने विलोकिये, है कहते उसे, शुभे! तुरन्त सर्वेग-निदेश-पालना।
( २९ ) "हिरण्य-वर्णे। सुमने मुर-प्रिये ! अये जनेप्ठे वन-चद्रिके ! सहे । अये सुगधे । अयि चन्द्र-वल्लिके । वसन्त ने स्वागत प्रेम से किया।
"प्रभात-ओस-स्नपिता' कुमारिका समीर-सचालित हेम-यूथिका भ-चक्र-सपोपित स्वर्ण-जातिका खिली हुई चित्र-अरण्य'-अक मे
(३१) “न ज्ञात है कौन प्रसून प्रेय है, न जानती सुन्दर पुष्प कौन है, सहा', गवाक्षी अथवा शिखडिनी'
कि मालती, माधविका कि मल्लिका। जो न सुना जा सके। 'चमली। 'वेला। 'माववी। हुये । 'फुलवाडी। गुलाब । वेला। जूही (सफेद) ।
लान दिन
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सातवां सर्ग
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( ३२ ) "कपोल-आरक्त गुलाब के लसे पिशग' सारी पहने वसन्तजा वरांगना है, यह शीतल-च्छदा प्रसन्न सर्वांग-समुज्वला सिता।
( ३३ ) "प्रसून-भाषा- हृदयानुमोदिनी अबोध को भी अति बोध-गम्य है, प्रसून-शोभा चढ कूट-शृग पै, बिछा रही तारक-राशि व्योम मे ।
"प्रसून-भाषा मृदु प्रेम की कथा, प्रसून-माला युग प्रेम की कथा, प्रसून-वर्षा सुर-प्रेम की कथा, प्रसून-आभा प्रभु-प्रेम की कथा।
( ३५ ) "विशाल वल्ली-वन मे, वनान्त में, दिवा-उडु-स्तोमर प्रसून-गुच्छ मे, विहीन हो जो कि अपांग-पात से मुखेन्दु तेरा त्रिशले । विलोक ले।
_ 'पीली । नेवारी। दिन में उगे हये नक्षत्रो का समूह ।
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वद्धमान
( ३६ ) "विलोपने को तमको, नपालिके! अजन्य जागी नव रात कणिका, उपा-समा आनन की प्रभा लवे हुयी महर्षाव महा, न ओम है ।
( ३७ ) "कि अजगलोचन-जनार्यः ही सिरे हुये वारिज है ताग में, कि अप्ना-बोलन-नाम्य के लिये उगे हुये है तर मे गरोनही ।
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सातवाँ सर्ग
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( ४० ) सहेलियो के सग मे यहाँ-वहाँ विलोकती थी त्रिशला प्रसन्न हो चली न डोली निज गर्भ-भार से प्रशान्त बैठी लखती सुदृश्य थी।
( ४१ ) . समीप ही एक गुलाब-वृक्ष था, प्रसून फले जिसमे अनेक थे; नपालिका-स्वागत-हेतु प्रेम से प्रसारता था अपनी सुगंध जो।
( ४२ ) समीर की एक तरग ने कहा, "समीप उत्फुल्ल गुलाब-वृक्ष है" मिलिन्द के मंद निनाद ने कहा, "यही कही पास गुलाब-पाश' है।"
( ४३ ) न पखड़ी शाश्वत' है गुलाब की, दशान है केसर की सनातनी, परन्तु तो भी इसकी सुगध मे चिरतनी अस्थिरता अवश्य है।
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'गुलाब का जाल, झाड़ी। सनातनी
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૨૨૪
वर्द्धमान
( ९२ ) "मनुष्य मिथ्या-मति-अघ-कूप में पडे हुये जो, उनको उवारने पधारते है निज-धर्म-हस्त से प्रकाम देने अवलम्ब विश्व को।
( ९३ ) "पवित्र वाणी जिनकी अजन ही अनुप देगी उपदेश विश्व को , विनाशकारी वह-भाँति कर्म के जिनेन्द्र है भूतल मे पधारते ।
( ९४ ) "प्रसिद्ध जो धर्म-प्रवृत्ति हेतु है, अपार - ससार - समुद्र - सेतु है, समुच्च जो ज्ञान-अनीक'-केतु है, पघारते है महि मे जिनेन्द्र वे।
( ९५ ) "उठो, उठो, सत्वर प्राणियो। उठो, प्रवृत्त हो आश्रित' जीव धर्म में, हुआ सभी का भव नष्ट विश्व मे, महान सौभाग्य उदीयमान है।
सेना।
अधीन । 'अंधकार ।
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सातवा सर्ग [ द्रुतविलंवित ]
( ९६ ) मनुज को अति दुर्लभ सूनु है, मुत कि जो मति-मान प्रसिद्ध हो श्रुति-विहीन वृथा मति जीव की अवधि-ज्ञान-विना श्रुति भी वृथा ।
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पाठवाँ सर्ग
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२४०
वर्द्धमान
( ४४ ) 'अघाल्य' दी अहि की प्रनान्ति भी अवश्य होना अवशिष्ट है अभी, अपूर्ण आगीविप काल-कूट से प्रपूर्ण देता भय जो त्रिलोक को।"
( ४५ ) भविष्यवाणी सुन अतरिक्ष की नमस्त मिथ्या-मत भागने लगे, अतथ्य ज्योतिर्विद मूक हो गये, असत्य-मापी फलितज मौन थे।
( ४ ) नदैव हिंसा-प्रिय वाम-मार्ग के गये प्रचारी सब भाग भूमि से, कु-ग्रन्य ले ले निज वाम-कुक्षि मे किसी गुफा मे गिरि की ममा गये ।
( ४७ ) न्वतत्र जो मात्रिक' दुष्ट धर्म के ग्वा रहे थे वय जीव-जन्तु का नभी अबी वे तज हेति' हल ले छिपे नही भाव-चा त्याग के।
'अघ नामज। 'म । 'म
। हटिया।
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पाठवॉ सर्ग
२४१
। ( ४८ ) निशेश के सम्मुख अधकार ज्यो, दिनेश के सम्मुख भूत-प्रेत ज्यो, जिनेश के सम्मुख वाम-कर्म' त्यो चला गया शीघ्र पलायमान हो ।
( ४९ ) नरेश के प्रागण-मन्य प्रात से मृदग-वीणा-ढफ-मोरचग ले सगीत मे गायक-गायिका लसे स्व-नृत्त मे नर्तक-नर्तकी पगे।
( ५० ) नृपाल - आनद - समुद्र' - वीचियाँ तुरन्त फैली सब ग्राम-ग्राम मे, सभी प्रजा हो मुदिता इतस्तत जिनेन्द्र-जन्मोत्सव थी मना रही।
हिरण्य, हीरा, हय, हस्ति, हेम ले नृपाल थे यानक-वृन्द तोषते, स्व-सेवको को बहु दान-मान दे अनाथ को भी करते स-नाथ थे।
' वाम-मार्ग के कर्म । 'प्रांगन ।
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२४२
वर्द्धमान
( ५२ ) ध्वजा, पताका, स्रग, तोरणादि से • सजा हुआ मदिर भूमि-पालका प्रतीत था गायन-नृत्य-वाद्य से धरित्रि मे सस्थित नाक-लोक-सा।
( ५३ ) महा-समारोह-मयी सभा लगे जुड़े कलाकार नृपाल-राज्य के, दिखा दिखा वे अपनी विशेषता सभी मनोरंजन में निमग्न थे। [ द्रुतविलवित ]
( ५४ ) यह समुत्सव आनन्द-उत्स' को प्रवल था करता इस भांति से जिस प्रकार सु-मूल्य सुवर्ण का शुचि-सुगंध बढा सकती सदा ।
[ वंशस्थ ]
( ५५ ) उसी घडी नर्तक एक आ वहां दिखा चला कोगल स्वीय नृत्य का, जिनेन्द्र-जन्मोत्सव-दृश्य बांध के मभी किये नाटक पूर्व-जन्म के ।
'स्वर्ग । 'करना।
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[ वंशस्थ ]
( १ ) शनै शनै अष्टम वर्ष भी गया, कमार पौगड'-दशाधिरूढ थे, प्रभूत-शारीरिक-कान्ति-युक्त वे पवित्र वाणी-मन-कर्म से बने ।
( २ ) विभूषणो से, व्रत-शील-आदि से, सभी गुणो से परिपूर्ण शोभते, समस्त विज्ञान, सभी कला उन्हे अवाप्त हस्तामलकत्व' को हुई।
सभी सखा-सग कुमार एकदा चले, गये बाहर खेलते हुये, निदाघ का उष्ण प्रभात-काल था, अरण्य था सुन्दर राजता हुआ ।
हाथ में आँवलेके समान ।
'पाँच से दश वर्षकी अवस्था। 'ग्रीष्म ऋतु ।
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वर्द्धमान
सदावगाहक्षत' वारि-राशि मे प्रचंड थे भानु सहस्र-भानु के, नितान्त दुष्प्रेक्ष्य प्रतप्त व्योम था महान-कोपाकुल-भूप-आस्य-सा ।
(५) कही घने भू-रुह नीप' क तले मयूर बैठे दिन काटते लसे, कही किसी शादलों में विराजते कुरग थे सग रंगिनी लिये ।
अरण्य के माहिप पंक जान के स्वकीय छायाश्रय ढूंढने लगे, अलक्त गुंजा लख रक्त-बुन्द-सी स-भ्रान्ति थे वायस चंचु डालते ।
(७) करेणु खाता फल सल्लकी मुदा, वरेणुका थी उसको खिला रही, समीप ही वारण गर्जते हुये
वना रहे कानन शब्द-युक्त थे । । मदा नहाने के कारण उच्छल । कठिनता से देखा जान वाला। 'तमाल । 'हरी-भरी भूमि । 'हाथी का बच्चा। 'हयिनी।
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नवां सर्ग
( ८ ) प्रचड-मार्तण्ड-प्रताप-पुज से विभीत हो हस सरोज के तले स-ताप ले शीत मृणाल' चंच में बिता रहे थे दिन ग्रीष्म-काल के ।
(९) कही-कही हंस तडाग-तीर पै, महान गंभीर जहाँ कमन्ध' था, वही प्रसन्ना ध्वनि थे सुना रहे विलासिनी-नूपुर-तुल्य मंजुला।
( १० ) कही दुखी-चित्त-प्रतप्त थी धरा, कही मही थी खल-वाक्य-दाहिनी, परन्तु धात्रीरुह-पाद-मूल को अपासुला-सी तजती न छाँह थी।
( ११ ) अरण्य गभीर अशब्द से कही, कही महाकोश-युता वनस्थली, कही महा धर्म-प्रतप्त मेदिनी, कही धरा शीतल नीप-छाँह मे ।
'कमल-नाल । जल। 'वृक्ष। 'शब्द, हल्ला ।
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नवा सर्ग
२७३
( ६४ ) "विलोकता पूर्ण शशांक व्योम को अनभ्र'जो, नीलिम जो, प्रशात जो, प्रकाशता दीप्त दिनेश भूमि को प्रबुद्ध जो, सुन्दर जो, प्रसन्न जो।
( ६५ ) "परन्तु भू से, नभ से, दिगन्त से, अहार्य से, कानन से, चतुष्क' से, प्रभूत कोई सुषमा शनै शनैः चली गयी-सी प्रतिभात हो रही ।
"स-मोद गाते पिक आन-वृक्ष पै मयूर आनदित नृत्य-लीन है, प्रमोद सर्वत्र विराजमान है, परन्तु मेरा मन दुःख-पूर्ण है।
( ६७ ) "प्रपात होता जल का महीध्र' से, कदापि मेरे दुख से न रुह है, वितु का नाद हुआ वनान्त में धरित्रि आमोद-प्रपूर्ण हो रही ।
विना बादल का। वेन । 'पर्वत । 'हायो।
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पर्वमान
(६८) "चतुर्दिगा दृग्य वसत-काल के वरित्रि में एक प्रमोद बो रहे, पल्नु कसा अवसाद' चित्त में उठा, मुझे जो नत्र भनि सो न्हा ?
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नवां सर्ग
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( ७२ ) "परन्तु केदार' तथैव वृक्ष भी यही कहानी कहते स-दुख है, कि सौख्य-कारी दिन वे चले गये, मिली हमें सु-स्मृति', स्वप्न खो गया !
( ७३ ) "विचारता हूँ' यदि मै प्रशान्त हो, न जन्म ही व्यक्त, न व्यक्त मृत्यु ही, नितान्त अज्ञेय, न भूति-गम्य है मनुष्यके जीवन का रहस्य भी।
(७४ ) "अतीत मे जीवन-तारिका-समा मदीय आत्मा जब स्वर्ग से चली नितान्त थी सु-स्मृति से न नग्न ही, स्व-कर्म की पुच्छल ज्योति सग थी।
( ७५ ) "मनुष्य-आत्मा उस दिव्यलोक से जभी पधारी... महि मे स्व-कर्म से, चली सु-छाया उस ऊर्व लोक की तभी समाच्छादित हो शिशुत्व पै।
'खेत । स्मरण-शक्ति । 'अनुभव-गम्य । "विना, रिक्त । 'ढकी हुई। -
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वर्द्धमान
( १२ ) कही-कही मौक्तिक-सी उडु-प्रभा खुले दृगो से अवलोकती हुई बनी वशीभूत-विराग-भावना अहो । नदी-अक-निमज्जिता हुई।
( १३ ) कि काटती कानन के तमिस्र को, कि पाटती स्वर्णिम रश्मि तीर मे, तरग-मालाऽऽकुलिता तरगिणी वटा रही क्षत्रिय-कुड की प्रभा।
वहीं चली जा ऋजु-बालिके । प्रिये । वढी चली जा सहसा पयोधिगे । प्रवाह तेरा कमनीय कान्त है, समीप तेरा बहुधा प्रशान्त है।
( १५ ) अये । तुम्हारे नटप दिनान्त में प्रिये ! नविता-विहगी उटी कभी, न घूक आये उपार' गमि में, न तीर जागा भय प्रात-गाल में ।
'उन्ट । 'पारः ।
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दसवां सर्ग
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( १६ ) समीप तेरे सरि | ग्रीष्म मे कभी प्रसून से शोभित भूमि-अक मे, विचारते जीवन के रहस्य को शयान' होते सुख से कुमार है ।
(१७ ) निदाघ मे तापित तीव्र अशु से करी' यहाँ आ अवगाहते सदा, अतीव सक्षुब्ध प्रसारती प्रभा पयस्विनी - तुग -तरग - भगिमा ।
( १८ ) कभी-कभी पूर्ण-प्रकाश चद्र का निशा-समुल्लास' बिखेरता हुआ, कुमार के चिंतन-शील चित्त मे प्रमोद प्यारा भरता अतीव था।
( १९ ) अभी पुरी-मदिर-वाद्य प्रात मे निनादिता थे करते सभी दिशा, अवश्य आवतिनि-अक-बीचि मे अभूरि आघात प्रचारते रहे।
'लेटे हुये । 'हाथी। 'पानद । 'नदी।
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२६०
वर्द्धमान
( २० ) कभी-कभी ले चरवाह वंशिका प्रसन्न गाते सरि के समीप थे, कुमार के भी मन मे अनेका विशुद्वता-सयुत राग' फैलते ।
( २१ ) अहर्निगा एक-रमा प्रवाहिता, महान-पूता, वहु-नीर-सयुता, अजन प्रालेय-गिरीन्द्र-उद्भवा' प्रमोददा थी सरिता कुमार को।
( २२ ) नदी वनी काल-प्रवाह-तल्य ही अहनिना थी वहती जलोत्तमा , अहार्य-कन्या अति गवित-गालिनी नही पयो का योग नाटाती।
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दसवां सर्ग
२६१
( २४ ) नितान्त एकान्त-निवास-सस्पृही' कुमार को थी सरि मोद-दायिनी, कभी-कभी आ उसके समीप वे विचारते जीवन का रहस्य थे।
( २५ ) दिनेश की वारिद की सुता नदी, हिमाद्रि की कानन की प्रिया नदी, अखंड प्रालेय-विनि सता नदी बही महावात-प्रकपिता नदी।
( २६ ) कुमार नि सग नदी समीप मे सदा-महा-चिंतन-शील भाव से विरक्त-नि श्वास-समेत देखते तटस्थ-पुष्पावलि धर्म-मूच्छिता।
( २७ ) महान गभीर तथैव निर्मला, स-शक्त है किन्तु अमन्यु-भाविनी, प्रवाह तेरा सरि। श्रीकुमारको बना समुत्तेजक, किन्तु सात्त्विकी।
'इच्छुक ! 'अकेले।
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३०४
वर्द्धमान
( ७६ ) वने महाद्वीप भविष्य-भूत के समध्य मे जीवन अन्तरीप-सा, सम्हाल ले जो पथ वर्तमान का वही अलक्ष्येन्द्र' समान ख्यात हो।
( ७७ ) लिये चले जीवन-भार शीस प, अके, रुके जो न कदापि मार्ग मे, वही सुधी सवल-युक्त अत में प्रसिद्ध साफल्य-सखा हुआ यहाँ।
( ७८ ) हुआ करे लोमश-मा प्रवद्ध या बना करे रावण-ना सुविक्रमी, परन्तु हो जीवन साधु राम-मा स्वकीय-कल्याण-विधान-मुस्पृही ।
प्रकाग ही हो अथवा तमिम्र हो, नुभाग्य ही हो अथवा कुरवप्न हो, प्रकप-मयुक्त कि स्वयं-युक्त हो,
परन्तु हो जीवन जीविनाश्रयी'। ___ निबदर वादगार। 'मार्ग या पायद । जीदिर मदन लेनेवाला।
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दसवां सर्ग
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३०५
(८०) न प्राण लेना अति क्लिष्ट कार्य है, पिपीलिका भी डसती करीन्द्र को, परन्तु देना वश मे न अन्य के नरेन्द्र के या कि नरेन्द्र-नाथ' के ।
समस्त जो जीवन-रत्न है यहाँ पिरो सका जीवन एक ताग मे, मनुष्य आता जल के प्रवाह-सा, तथैव जाता गति-सा समीर की।
( ८२ ) मरुस्थ कासार मिला जहाँ रुक, पिया वही नीर स्व-मार्ग मे चले, अनिश्चिता आगम की दिशा यहाँ कहाँ गये स्थानक इष्ट है नहीं।
( ८३ ) अहर्निशा की शतरज है विछी, नरेश-प्यादे सब खेल-वस्तु है, गये चलाये कुछ देर के लिए, हुये इकट्ठे फिर एक ठौर मे।
'सम्राट् । 'स्थान ।
२०
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वर्द्धमान
( ८४ ) पयस्य टुटी शिविरस्थली मही, स-सैन्य आये नप के समूह भी, स्के यहाँ केवल एक रात्रि ही विलोक सूर्योदय वे चले गये।
( ८५ ) मनुष्य का जीवन एक पुष्प है, प्रफुल्ल होता यह है प्रभात में, परन्तु छाया लख सांध्य काल की विकीर्ण' होके गिरता दिनान्त में।
( ८६ ) मनुप्य का जीवन रंग-भूमि है, जहाँ दिखाने सब पात्र खेल है, जमी हिलाया कर मूत्र-बार ने हुआ पटाक्षेप तुरन्त मृत्यु का।
( ८७ ) निसर्ग ने दिव्य विभनि जीव को प्रदान की जीवन की अदीपंता, परन्तु जो जीवन मृत्यु ने दिया न-दीघ है, गायत है, समन्न है।
"दियनिता
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३२०
वर्द्धमान
( २० ) चला बँधे हाथ मनुप्य विश्व को, विता दिया जीवन चार साँस ले, चला खुले हाथ जभी श्मशान को, खुला सभी जीवन का रहस्य भी।)
( २१ ) कभी-कभी अतिम वस्त्र' को उठा जभी बिलोका मुख देह-शेप का, लखा जरा-जीर्ण शरीर प्रेत का, गया तिरस्कार किया स्व-वधु से।
( २२ ) पडी हुयी है कुछ श्वेत अस्थियां दिनान्त मे मिल जो विगसती। विचार मेरे यक में गये, तया अजन्त्र देती यह ठोकरे उन्हें ।
प्रभात की पूपण-रदिमयों यहां मदा गिगती कछ बन्द ओग से, परन्तु चो भम्म विलोपनी उन्हें अवष्ट होने पर भम्ममाता ।
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भारहवाँ त
( २४ ) सभी के नादन श्रान्ति पा सके. अशान्त जो दानव शान्ति पा सके, यही-इसी स्थान विशेष मे-सदा पुकारले लोग जिसे श्मशान है।
( २५ ) यही सभी मानव एक्य-भाव से, प्रशान्त यात्री सत्र मृत्यु-मार्ग के, अदृष्ट होते उस दीर्घ पथ मे जहाँ न चर्चा पुनरागमादि की।
( २६ ) यही चिता, भीतिद' काल-द्वार जो, सनातनी नीद मनुष्य की यही-- विचार, है भाव यहाँ न अन्य हे अवाप्त होता अतिरिक्त भस्म के ।
( २७ ) मनुष्य का जीवन नाटय-भूमि है, प्रवेश-निवेश बने हुये जहाँ, अवाप्त होती उसको स्व-कर्म से शिशुत्व - तारुण्य - जरस्व-पात्रता ।
भयकर।
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३२२
वर्द्धमान
( २८ ) मनुष्य वालारुण-सा उगा, जगी पयोज' नेत्रा-सरसी-प्रसन्नता ; प्रगल्भता प्राप्त हुआ कि आ गयी सरोज-संध्यारुण मे विपण्णता।
( २९ ) मनुष्य जीना बहु काल चाहता, न वृद्ध होना वह याचता कभी, गयी, न आयी युवती' दशा वही, न आ गयी, है जरठा दगा वही ।
(३०) न देह होती लकुटावलविता, न ज्योति अस्पष्ट अदीर्घ नेय में, न हास्य में कठितता विराजती, न प्राप्त होती यदि वृद्धता हमे ।
(३१) न आह होती नर की गभीर को, फराह मे भी कटना न व्यापती, न देह को पर्जन्ता व्यमोहनी', न प्राप्त होता स्थविन्य जीव गे।
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ग्यारहवाँ सर्ग
( ३२ ) मनुष्य चाहे जितना सुखी रहे, अनन्त चाहे उसका प्रमोद हो, समाप्त आशा उसकी हुई जभी, ज्वरा' तभी आकर कट दाबती।
( ३३ ) चतुर्दिशा मे धुंधला प्रकाश हो, प्रलम्ब छाया गिर भूमि मे पडे, थकान हो, निर्बलता महान हो, विचार देखो, तब मृत्यु आ गयी।
( ३४ ) तरंगिता काल-नदी बही तथा अनन्त-धामाम्बुधि' पास आ गया, बचा सका, हा! तृण भी न दड का मनुष्य डूबा सहसा भवाब्धि मे।
( ३५ ) कि जर्जरा जीवन की तरी चली तरंग-सपूरित काल-सिधु मे, थपेड कमस्रिव-नीर की लगी तुरन्त डूबी वह मृत्यु-घाट मे।
'मृत्यु । 'अनन्त तेज का समुद्र अथवा अनन्त स्थानवाला समुद्र
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वर्तमान
( ३६ ) करे प्रशसा अति ही मुनीन्द्र या कबीन्द्र चाहे रच दें गुणावली, सुकीर्तिता शेप-सहस्र-मौलि से, भले रहे, किन्तु जग विदूप्य है।
मनुप्य का यौवन भूल से भरा, तथा प्रगल्भत्व त्रिशूल से भरा, जरत्व भी निष्प्रभ धूल में भरा, मस्स्थ भू-खड बबूल से भरा।
( ३८) मनुष्य है जीवन-जात' कज-ना प्रफुल्ल आरम स-रम्य भानता परन्तु होता अनु-हीन मीन ही, विनष्ट होते वन गुप्फ पत्र भी।
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वर्द्धमान
( ८४ ) न वस्तु है भू पर मृत्यु नाम की कदापि नक्षत्र न डूबते कही, विभासते जाकर अन्य लोक में प्रकागते व्योम-किरीट मे सदा।
( ८५ ) घरित्रि मे जीवन आ प्रवेग से कहा स-तार स्वर 'मृत्यु-मृत्यु' ही, दिगत के कदर बोलने लगे, किया प्रतिध्वानित 'मृत्यु-मृत्यु' ही।
महान आश्चर्य, कि जीव जो गये विनाग के अंध-तमिस्र मार्ग मे, कदापि लौटे न, बता सके नहीं, प्रयाण का उत्तम मार्ग कोन है।
(८७ ) अनेक-रपा बह-वेपिणी तथा मिलोप-जेत्री' तुम्-मीन अन्य है, नदंव त हो गवो बना भी कि मनिकापास प्रतिमार।
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ग्यारहवाँ सर्ग
( ८८ ) हटी धरित्री युग-नेत्र से जभी, सुदृश्य आया पर-लोक का तभी, संगीत स्वर्गीय उसे सुना पड़ा, उड़ा जभी मानव मृत्यु-पक्ष पै ।
( ९९ ) यही महा नीद, जिसे न तोड़ती धरित्रि की घोर विपत्ति भी कभी, यही निशा है, जिसको न नाशती प्रभात की दीप्ति किसी प्रकार से ।
( ९० ) न मृत्यु से है मरना अ-वीरता न मृत्यु से है डरना प्रवीरता, न मृत्यु से उत्तम अन्य मित्र है, जिसे न आता मरना, मरे न क्यो ?
( ९१ ) विचारणीया जग-व्यापिनी दशा, यही सभी से परिचिन्तनीय है, कि मानवो का अभिशाप है यही डरे, मरे, आगम देख मृत्यु का।
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वर्द्धमान
( ९२ ) विनष्ट होता पहले प्रमोद है, पुनश्च आशा करती प्रयाण है, विभीति होती फिर नष्ट अंत में, स-धैर्य आती जब मृत्यु सामने ।
( ९३ ) मनुष्य का निश्चित अंतकाल है, न जानते कायर र कल्मपी, पुन. पुन. हो मृत जी रहे वही जिन्हे कि जीना मरना समान है।
( ९४ ) जगज्जयी भूपति भी न जानते, कहाँ-कहाँ विस्तृत मृत्यु-राज्य है, प्रसार मा सप्त-नमुद्र-दोसरी दिनान्त-गव्यन्त-प्रमाण व्याप्ति है।
( ९५ ) विरोट में मड़ित मरले भी निदान होने पर मम्मनात. निदेश देनी जब मृत्यु है नन्द चिनाब होने या प्रीतमाग-।
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३५२
वर्द्धमान
( २८ ) मनुष्य यो ही निज भाव-कर्पटी' स-तर्क होके बुनता अजस्त्र है, विचार का ही करघा बना हुआ, लखो, रही है नुन चातुरी-तुरी।
( २९ ) विचार जो जागृत एकदा हुये, पुनश्च सोना वह जानते नहीं; प्रकागते विद्युत-वेग से जभी प्रदीप्त होती मति-रोदसी सदा ।
( ३० ) विहाय सीमा सव देश-काल की विचार-संचार स्वतंत्र ज्यो हुआ, कि भूमि भी है फिर भासती हमे पवित्र-सी पुण्य-निवास-सी महा।
निमग्न यो गढ़ विचार में सुची धरित्रि को अवर को विलोक्ते वित्रारते थे निज कार्य-योजना, प्रगान्ति वाह्यान्तर वर्तमान थी।
'चादर । भूमि-याकाश के बीच का भाग। 'प्रदर-बाहर।
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बारहवां सर्ग
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( ३२ ) प्रभात के पक्ष-प्रसार पै चढी गभस्तियाँ ज्यो रवि की प्रकाशती कुमार की प्रस्तुत भाव-शैलियाँ विराजती थी हृदयाधिरूढ हो ।
अनादि भू और अनन्त कालके नितान्त निर्मोक' विचार व्याप्त थे, बना रही थी जिन की गभीरता कि सूनु है वे अमृतत्व-कुक्षि के।
( ३४ ) विचार, जो सृष्टि-प्रवाह मोडते, प्रसूत होते वह आत्म-तत्त्व से, कुमार की जो हृदयानुभूति को वना रहे थे परिपुष्ट नित्य ही।
(३५) महान है वे नर जो विचारते कि तत्त्व जो पुदगल' से वरिष्ठ है, प्रसिद्ध आध्यात्मिक है वही कि जो धरिटि-संचालन में समर्थ है ।
नन। भौतिक पदार्य ।
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वर्द्धमान
कुमार-मस्तिप्क-सुमेरु-शीर्ष से विलोकते मानस-वीचि-भंगिमा विचार के अशु' प्रफुल्लता-भरे खिला रहे थे मन-पुडरीक यो।
( ३७ ) सुषुप्ति मे निर्जर' ज्यो कभी-कभी सु-स्वप्न देते शुभ आत्म-बोध के, विचार-कटस्थ कुमार-चित्त मे प्ररोहते आत्मिक भव्य भाव थे।
( ३८ ) . उठे अकस्मात विचार चित्त में निशादि में स्वच्छ निगान्त-स्वप्न-से, जिनेन्द्र-आत्मा ढक तथ्य से गयी यथा जल-प्लावन से अरण्य-भू ।
( ३९ ) परन्तु आयी ध्वनि ढोल झाँझ की विपाण-मजीर-मदग-चग की, विवाह से आ वर लौट ग्राम मे स-मोद आया नृप-द्वार भेट को।
किरण । देवता।
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वर्द्धमान
I
( ९२ )
कठोर था चित्त महान सत्य-सा, विचार-धारा दृढ शुद्ध न्याय-सी, विवाह हो ? दिव्य विवाह-योजना बना रही मानस एक-तन्त्र थी ।
( ९३ ) विवाहहो? दिव्य विवाह क्यो न हो, बरात हो ? देव-समाज क्यो न हो, बने नही पाणि-गृहीत मुक्ति क्यो न देव हो श्रीवर-मडलेश' क्यो।
( ९४ ) अखड भोगी वनता अवश्य, तो अखड ही हो दृढ ब्रह्मचर्य भी, अखड हो प्रेम, अखड ज्ञान, । तो अखड-सौभाग्यवती प्रिया मिले।
( ९५ ) प्रभात मे सवल और आ गया प्रदीप्त तारागण और हो गये, दिवा-धरित्री प्रतिविविता हुई समुच्च आसक्ति, दढा विभावना'।
'दुलह-समाज में श्रेष्ठ । उत्तेजना । 'विचार-धारा ।
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बारहवाँ सर्ग
( ९६ ) धरित्रि की भी करुणामयी गिरा हुई अभिव्यक्त पिकी-निनाद से, चतुर्दिशा शब्द समीर ले चला, समा गयी जागृति भूमि-लोक मे।
( ९७ ) प्रभात मे कोकिल-कट-व्याज से वसन्त के पादप कुजने . लगे, अनूप अध्यात्म-सगीत काकली' उडेलते थे प्रति कर्ण-कुंज मे ।
( ९८ ) निसर्ग-आत्मा बन कुज-कोकिला विवाह-सगीत अलापने लगी। प्रफुल्ल शाखी पर मजरी हुई खिली बनो मे कलिका गुलाब की।
( ९९ ) कि कोकिलाएं रत-काकलीक' है कि लीन केका-रव मे मयूरियाँ, कि वप्र-घाटी-धुनि'-अद्रि-व्योम में विवाह-संवाद-प्रसार हो रहा ।
'कोकिला की ध्वनि । गायन-लग्न । 'नदी।
२४
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वर्द्धमान
( १०० ) पिकी! तुम्हारी यह गीति शाश्वती सुनी गयी संतत राव-रंक से, अत मुझे दो वह तान, जो सदा मुदा सुनी जाय जिनेन्द्र-भक्त से ।
( १०१ ) पिकी ! तुम्हारे स्वर जो मनुष्य मे प्रसन्नता है भरते दिवौकसी' प्रबुद्ध नक्षत्र प्रकाश से हुये सरस्वती के मृदु बीन-राग से।
( १०२ ) प्रसन्न प्रत्येक पलाग वृक्ष का, प्रवुद्ध प्रत्येक तरंग नीर की, वन-प्रिये ! मत्त कुर्क से हुये कुमार-हृत्तन्त्र मधु-प्रभात में।
( १०३ ) अनूप आयोजन स्वीय व्याह का पडे-पडे सोच रहे कुमार थे, कि पूर्व में ब्रह्म-मुहुर्त की विपा स-हर्प आयी उदयाद्रि-शृंगपै ।
देवी। वसन्त ।
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२८४
वर्द्धमान
( ३६ ) न काल ऐसा इह लोक मे वचा, न जीव उत्पन्न हुये, मरे जहाँ, इसी लिए विन-समाज में यहाँ, प्रसिद्ध वैज्ञानिक काल-लोक है।
( ३७ ) न योनि ऐसी इस भूमि में वची जिसे न संप्राप्त हुआ स्व-जीव हो, अत. जिसे पडित विश्व मानते, प्रसिद्ध भू मे भव-लोक है वही ।
( ३८ ) सदैव प्राणी भ्रमते त्रिलोक में स्व-कर्म मिथ्यात्व-समेत पालते, समेटते अर्जित पाप-पुज है, प्रभावशाली यह भाव-लोक है ।
विमुक्ति-दाता जिन-धर्म-श्रेष्ठ है, अत करो पालन यत्न से इसे, अनुप स्न-वय-ल्प मोक्ष का निधान' है केवल-जान सर्वश ।
भाडार।
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३८५
तेरहवां सर्ग [ द्रुतविलंबित ]
( ४० ) सुहृद'-संग सदा रहना हमे वितरता बल-बुद्धि-विवेक है, पर असग-प्रसग परेश का विदित आत्म-समुन्नति-हेतु है ।
[ वंशस्थ ]
सदैव प्राणी इस मयं-लोक मे रहा अकेला, रहता अ-संग है। रहा करेगा यह संग-हीन ही प्रसंग होगा इसका न अन्य से ।
( ४२ ) असग लेता नर जन्म विश्व मे असग ही है मरता पुन पुन , सदा अकेला सुख-दुख भोगता न अन्य साझी उसका त्रिलोक मे ।
( ४३ ) अ-संग ही सौख्यद भोग भोगता, अ-संग ही दु.खद रोग भोगता, सदैव प्राणी यमराज-सग मे असग जाता, फिरता अ-संग है ।
'अय एकत्व-भावना ।
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३८६
वर्द्धनान
( ४४ ) सदा अकेला करता कु-कर्म है कुटुम्ब के पालन-हेतु विश्व मे, इसीलिए पुद्गल-पाप-बंध से अवश्य पाता नरकाधिकार है।
परन्तु जो मानव मुक्त-संग हो लगे हुये सम्यक-दर्शनादि मे, व्यतीत भू मे करते स्व-कर्म है, कहे गये केवल-ज्ञान-संयमी ।
( ४६ ) असंग भू मे करते व्रतादि है, असंग सारे तप-जाप सावते, वही महा विज्ञ मनुष्य अंत मे अतीव पाते सुख पुण्य-वध से ।
( ४७ ) विभूतियाँ, जो सुर-लोक-सिद्ध है, महान नि श्रेयन-संपदा तथा विशुद्ध कैवल्य-प्रदा त्रिलोक में अवाप्त होती गतियाँ विदन्ध' को।
'पडित ।
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४००
दर्द्धमान
( १०० ) स्व-धर्म चिन्तामणि-कल्पवृक्ष है, स्व-धर्म संपूजित कामधेनु भी, स्व-धर्म ही भू-गत स्वर्गलोक मे, स्व-धर्म ही श्रेय, विधर्म हेय है।
( १०१ ) अत: करो पालन नित्य धर्म का, पदान्ज-प्रक्षालन सत्य-धर्म का, न प्राप्त होती जिसके बिना कभी मनुष्य को केवल-ज्ञान-कल्पना ।
[द्रुतविलंबित]
( १०२ ) हृदय-अंबुधि को जिनराज के अति तरगित-सा करता हुआ विरति-पोषक वादग - भावनानिचय' निश्चय ही उठने लगा।
अब महान प्रमत्त, गजेन्द्र का दृढ़ अलान हुआ ब्लय', देखिए, चल न दे यह कानन को कही रह गया ब्वरोव न अंत में।
समूह । 'वधन । 'टोला ।
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चौदहवाँ सर्ग
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[वंशस्थ]
( १ ) न काल जाते लगता विलम्ब है, विहाय चारित्र्य न काल-लब्धि भी, विलोकते विश्व-दशा सनातनी कुमार को त्रिंशति वर्ष हो गये।
(२) दिखा पडे काल-महा-समुद्र में कि वर्ष वे त्रिंशति बुन्द-तुल्य थे, त्रिलोक मे कौन पदार्थ है कि जो न काल के नाशक हस्त मे गया।
कुमार पीछे फिर देखने लगे कि दृष्टि से ओझल भूत ज्यो हुआ; शनै गनै काल-कपाट तीस वे हये सभी मद-विराव' वन्द थे।
'तोस । 'किवाड़े । 'चुपके।
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वर्द्धमान
( ५२ ) "अखंड-सौभाग्यवती कलत्र का , अवाप्त होना कुछ खेल है नही, वही वली पा सकता उसे कि जो खपे, मरे, और जिये अनेकधा ।
( ५३ ) "सुना किसी से वह दिव्य नायिका विराजती तेरह-खड' धाम पै अजस्र आरोहण' रात्रि-वार का, सुमार्ग भी दीर्घ त्रयोदशाब्द' है,
( ५४ ) "न शीघ्र-गामित्व, न मद-गामिता न यान-साहाय्य, न दड-धारणा, न पास पाथेय, न दास-मडली, तथापि जाना अनिवार्य कार्य है।
( ५५ ) "अभूरि-भिक्षा-उपवास - साधना, अवस्त्र से ही फिरना इतस्तत , शयान' होना महि-क्रोड में सदा अजस्त्र आगे बढ़ना विधेय है।
'तेरहवां गुणस्थान । 'चढ़ना। १३ साल का । "सबल । "लेटना।
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४१७
चौदहवाँ सर्ग
( ५६ ) "न सर्प से भीति, न वन्य जन्तु से, न ग्राम से प्रीति, न काम धाम से, न खड्ग से त्रास, न हेति से भिया' नितान्त नि शक प्रयाण ध्येय है ।
( ५७ ) "जिसे सदा अक्षय सिद्धि श्रेय स्व-चित्त निर्वाण-समीप नेय है, अजस्र नि श्रेयस-कीर्ति गेय है, अवश्य कैवल्य उसे विधेय है।
( ५८ ) "अत. चलूंगा कल मै अवश्य ही मुझे महा-सिद्धि-विवाह ध्येय है प्रवृत्त होगी कल मार्ग मास की पवित्र शुक्ला दशमी मनोरमा ।"
( ५९ ) सभी जनो ने बहु खिन्न भाव से कमार-संकल्प सुना अवाक हो, परन्तु लौकाकित देव-मंडली तुरन्त बोली जयकार दे उन्हे -
'डर। मार्गशीर्ष मास ।
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वर्द्धमान
( ६० ) "प्रभो ! तुम्ही क्षत्रिय-श्रेष्ठ ! धन्य हो, तुम्ही प्रतापी जग मे अनन्य हो, सुमार्ग कल्याण समेत आप्त हो, विभो! तुम्हे सम्यक ध्येय प्राप्त हो।
"सदा तुम्हारी जय हो दयानिधे ! समस्त हिंसा क्षय हो, कृपानिधे ! दुरन्त हो नर्तन नष्ट पाप का, तुरन्त हो वर्तन वर्म-चक्र का ।
( ६२ ) "विनाशकारी वन मोह-गत्र के प्रभो! करोगे जग-हेतु कार्य जो, वहित्र' होगा वह विश्व-सिंधु का, दिनेग होगा भव-रात्रि का वही ।
( ६३ ) "स्व-धर्म-रत्न-त्रय-प्राप्त हो, प्रभो । धरित्रि में उन्नत भव्य जीव को, विलीन मिथ्यामत का तमित्र हो दिखा पडे मोन-रमा मनोरमा ।
'जहाज । जगत ।
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वर्द्धमान
( ११६ ) वने सभी सस्तुति-लीन यो तभी मनुष्य बोले कल कोटि कठ से "प्रभो। तुम्हारी जय हो, तुम्ही, विभो । धरित्रि-गामी' परमात्म-रूप हो।
( ११७ ) "मदादि-शत्रुजय हो, जिनेन्द्र हो, गुणाढ्य, रत्नाकर हो, सुरेन्द्र हो, प्रभो । जगत्ताप-प्रशात-कारिणी त्वदीय दीक्षा जन-रक्षिका बने ।
( ११८ ) "नमोस्तु ते, देह-सुखाति-निस्पृही नमोस्तु ते मोक्ष-रमार्ध-विग्रही', नमोस्तु ते हे अपरिग्रही,' प्रभो । नमोस्तु ते भक्त-अनुग्रही, विभो ।
( ११९ ) "अहो ! अलकार विहाय रत्न के अनूप-रत्न-त्रय-भूपिताग हो, तजे हुये अवर अग-अग से, दिगवराकार विकार-शून्य हो।
'पृथ्वी पर चलने वाले । मोक्ष-लक्ष्मी के पति । 'प्रसग्री ।
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चौदहवां सर्ग
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( १२० ) "समीप ही जो पट देवदूष्य है, नितान्त श्वेताबर-सा बना रहा, अ-ग्रथ, निर्द्वन्द्व महाना संयमी, बने हुये हो जिन-धर्म के ध्वजी।
( १२१ ) "समेत हो नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के, निकेत हो चार प्रकार ज्ञान के, उपेत हो वीर ! दया-क्षमादि से प्रचेत' हो हे प्रभु! शुक्ल ध्यान के।
( १२२ ) "नितान्त हो इच्छुक आत्म-सौख्य के निरीह कैसे तुमको कहे, प्रभो ! कि मोक्ष का है अनुराग, जो तुम्हे न ज्ञात, कैसे तुम वीत-राग हो ?
( १२३ ). "प्रसिद्ध-रत्न-त्रय-संग्रही ! तुम्हे नितान्त निर्लोभ कहे, अयुक्त है। त्रिलोक-राज्येश बने प्रयत्न से न कीतिभागी तुम राज्य-त्याग के ।
'ध्वजा वाले । जानने वाले । 'अथ व्याज-स्तुति ।
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वर्द्धमान
( १२४ ) "चला-चला बाण स्व-ब्रह्मचर्य के अभर्तृका' काम-वधू बना दिया अहो । कृपा रचक की न पाप पै कुमार | ऐसे करुणानिधान हो!
( १२५ ) "सदैव आशा रख मोक्ष-प्राप्ति की हुये यशस्वी 'अभिलाष-शून्य हो तुरन्त त्यागा जब वंश-बधु, तो कुमार | कैसे तुम विश्व-बंधु हो ।
( १२६ ) "विहाय भोगावलि सर्प-भोग-सी निपीत-पीयूष-विशुद्ध-ज्ञान हो, प्रभो ! वताये यह जाइए हमें, व्रती | वनें प्रोपध के कि सत्य है।"
( १२७ ) प्रशान्त . बैठे दृढः ग्राव-मूर्ति-से नितान्त ही निश्चल-अग ध्यान में, उसी घडी ज्ञान हुआ कुमार को अवश्य कैवल्य-अवाप्ति ध्येय है।
'विधवा । 'वशके भाई लोग । 'फन । 'प्रत विशेष ।
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वर्द्धमान
( ३६ ) पुन हुआ ध्यान उन्हे कि वे सुधी प्रसिद्ध थे 'स्थावर' नाम से कभी स-वेद वेदाग स-शास्त्र धर्म के महान् ज्ञाता द्विज पूज्य-पाद थे।
( ३७ ) तथैव आयी सुधि वीर देव को कि 'विश्वनदी-सुत विश्व-भूति' के महा प्रतापी वलवान विक्रमी अजेय योद्धा जब वे प्रसिद्ध थे।
( ३८ ) पुन. हुये संसृति में प्रसिद्ध वे "त्रिपिष्ठ नारायण' नाम से कभी मिला उन्हें उत्तम चक्र-रत्न था, प्रतीक' जो धर्म-प्रचार-कार्य का ।
( ३९ ) विलोक होते निज आयु क्षीण वे असार संसार विचार चित्त में, विराग से साघु हुये, तथा गये, स-क्रोध त्यागा तन, देव-लोक को।
'चिह्न।
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पन्द्रहवाँ सर्ग
४४६
( ४० ) रहे कई जीवन भूमि-पाल वे पुनश्च त्यागी निज देह मन्यु मे; अत. हुये कर्म-विपाक से तभी प्रचड पंचानन उच्च अद्रि पै।
( ४१ ) पुन. हुआ ध्यान उन्हे कि पाप से महान हिंसा-मय कर्म से तथा मरे, हुये वीर पुन मृगेन्द्र ही समुच्च जम्बूमय सिद्ध-कूट पै ।
( ४२ ) सुतीक्ष्ण थे दत, कराल मौलि से मराल खाते वह एकदा मिले, मुनीन्द्र मृत्युंजय को वनान्त मे; अत उन्हे शिक्षण साधु ने दिया -
( ४३ ) "मृगेन्द्र ! क्या तू निज पूर्व-जन्म मे त्रिपिष्ठ नारायण नाम भूप था ? समस्त भोगे भव-भोग, तृप्त हो, व्यतीत सारे दिन सौख्य से किये।
'शोध ।
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४५०
यद्धमान
( ४८ ) "नितविनी, मुन्दरि, मत्तकागिनी कुरग-नेया, वर-वणिनी तथा वधू नतागी, ललिता, तुझे मिली विलामिनी, सचिवा,' मनोहग।
( ४५ ) "परन्तु त् जा विपयान्धि में पड़ा, नव्यान हा हा । कुछ धर्म में दिया, महान पापोदय ने घिरा जभी मरा, हुआ एक प्रसिद्ध नारकी।
( ४६ ) "कठोर पाये दुख, कृच्छ' कष्ट भी, विषण्णता, क्लेग तयैव यातना, महान हिमा-प्रिय निह था, अत गरीर काटा बहु खडा गया।
( ४७ ) "मृगेन्द्र-देही बन तीन जन्म यो महान हिंसामय पाप भी किये, न चेतना क्या अब भी तुझे हुई ? न ज्ञान आया, बहु खेद है मुझे।
'भौं ताने हुये । कठिन ।
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बर्द्धमान
कुमार धर्मी बन बाल्यकाल में जिनेन्द्र-मपूजन-दत्त-चित्त था, समस्त सस्कार स्व-धर्म के उने बना रहे थे अति धन्य विश्व में ।
( १०१ ) "मुदा गये नदकुमार एकदा सकान में प्रोफिल साधु के, जहाँ सुनी दशागा जिन-धर्म की कथा पवित्र-आत्मा वह शीघ्र हो गये।
( १०२ ) "उपद्रवी के प्रति भी न कोष हो कही गई सो अति उत्तमा नमा, कठोरता को सब भाँति त्यागना द्वितीय है मार्दव' अंग धर्म का।
"सदा मनो-वाक्य-शरीर-जात जो महान कौटिल्य, उसे विनागना, तृतीय है आर्जव अंग धर्म का प्रसिद्ध जो सावु-समाज में सदा ।
'मृदुता। उत्पन्न ।
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४६५
पन्द्रहवां सर्ग
( १०४ ) "चतुर्थ शोभामय सत्य अग है, असत्यता ही शुभ-धर्म-नाशिनी, प्रसिद्ध है पचम अग शौच जो पवित्रता-मडित धर्म-तत्त्व है,
( १०५ ) "सदा त्रस' स्थावर-रूप विश्व मे समस्त-प्राणी-गण-रक्षणार्थ जो किया गया पालन इन्द्रियार्थ हो, प्रसिद्ध है सयम अग धर्म का।
"पुन तपस्या दश-दो प्रकार की मनुष्य-द्वारा परिपालनीय है, पुनश्च जो त्याग प्रशस्त ख्यात है कहा गया सो शुभ अंग धर्म का।
( १०७ ) "परिग्रहो को बहु भॉति त्यागना कहा गया धर्म-अकिंचनाख्य है, महान जो सौख्यद साध-सत को तथा बनाता भय-हीन भी उन्हे ।
गर्मी से डरकर सर्दी में और सर्दी से डरकर गर्मी में भागनेवाले जीव ।
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૪૬૬
यमान
( १०८ ) "पुन सुनो, अतिम अग धर्म का, कहा गया उत्तम ब्रह्मचर्य है, हस्थ को भोग्य स्व-नारि ही सदा, मस्त-नारी-गण साधु त्यागता।"
( १०९ ) सुना जभी भूपति ने मुनीद्र से महान आदोलित-चित्त हो उठे, विचारने वे सहसा लगे, अहो । असारता-पूर्ण समस्त विश्व है ।
( ११० ) असार होता यह विश्व जो न, तो इसे न तीर्थंकर देव त्यागते, तृषा-बुभुक्षा-रुज'-काम-क्रोध की दवाग्नि प्राणी-बन को न दाहती ।
( १११ ) मनुष्य का जो धन-धर्म-है, उसे स्वतत्र हो इन्द्रिय-चौर लूटते, अभाव में या निज भाव में इसे
अजस्त्र ही है सब भोग भोगते । 'ब्रह्मचर्य का अर्थ है कि गृहस्थावस्था में अपनी स्त्री के अतिरिक्त सभी स्त्रियों का त्याग तथा सन्यासावस्था में सभी स्त्रियो का त्याग। रोग ।
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४८०
वर्तमान
( १६४ ) सरोज-अतर्गत मजु वारि ले स-मत्र ज्यो ही छिड़का रतीश ने, यतीन्द्र ने लोचन खोल के लखा समक्ष कामेश्वर पुष्प-चाप को ।
( १६५ ) ललाट मे दीप्ति प्रशसनीय थी; मुखान्न में सुस्मिति, चाप पाणि में, मनोज्ञ मौर्वी जिसमें मिलिन्द की कटाक्ष-बाणावलि-युक्त , सोहती।
( १६६ ) लसा शिरोभूषण चद्रकान्त का, वसत-शोभा-मय अग-राग था, विलोचनो मे विजयाभिरामता प्रतीत थी श्याम-सरोरुहाक्ष' के।
( १६७ ) रतीश वोला, "अव मै प्रसन्न हूँ, अभेद्य विश्वास हुआ मुझे कि तू विनष्ट-कर्मास्रव सर्वथा तथा अछेद्य सगी शुभ शुक्ल ध्यान का।
शकर।
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पन्द्रहवाँ सर्ग
४८१
( १६८ ) "अत करेगा अब तू निरूपणा कि द्वादशागा गति गूढ ज्ञान की; धरित्रि में सर्व-विराग धर्म की निदेशना' ही तव मुख्य कार्य है ।
( १६९ ) "चतुर्विधा सेवित सघ-शक्ति से चतुर्दशा-देव-निकाय-सेव्य है, अवश्य ही केवल-ज्ञान-युक्त हो मुदा करेगा भव-सिंधु पार तू ।
( १७० ) "त्रिलोक मे निर्मल-कीति-यक्त त प्रचार देगा जिन-धर्म-देशना वृथा न होगे मम वाक्य हे व्रती, अवश्य होगा व्रत पूर्ण अन्त मे।"
( १७१ ) चला गया काम समाज सग ले । परन्तु डोले न यतीन्द्र ठौर से,
वरच सिद्धासन बैठ शान्ति से पुन हुये लीन प्रगाढ ध्यान मे ।
'प्राज्ञा। शरीर।
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४८२
वर्द्धमान [ द्रुतविलंवित ]
( १७२ ) मनुज जो दृढ निश्चयवान है, वह नहीं हटता निज ध्येय से, जिस प्रकार पतग' प्रदीप के निकट ही तजता निज प्राण है।
[वंशस्थ]
( १७३ ) कठोर चा उपवास आदि मे व्यतीत यो वारह वर्ष हो गये, पुन चले वे द्रुत वात-चक्र से सुधी घुमाते निज धर्म की धुरी।
( १७४ ) हिमाद्रि-माला कर विद्ध जान्हवी प्रवाहिता भू-तल में हुई यथा, त्या परीक्षा-परिखा-विलधिनी यतीन्द्र-यात्रा महि-भासुरा चली।
( १७५ ) सहस्र-सर्योदय की प्रभा भरी ललाट मे थी उनके प्रकागती, विलोकते ही नर मुह्यमान की
विमोह-यामा हटती न क्यो भला ? कीट । 'गला । 'खाई । 'प्रकाशित करनेवाली।
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४६६
पढेमान
(१२) शकुन्त' बैठे भव-मुक्त वृक्ष प कलोलते है, मृदु वोल बोलते । किरी-दागा-वस्त' समन्त भूमि में प्रमन्त्र, मानदित, मोद-युक्त है ।
(१३ ) चढे गिला पै जिन काल वे सुची प्रवेग झझानिल का न था कही गिरा अनायास विना प्रहार के सु-दूर टूटा द्रुम एक ताल का ।
(१४ ) प्रशान्त सिद्धानन को लगा सुवी हुये नमासीन विशुद्ध भाव से, अभीत बैठा पिक वाम अघ्रि पै मराल भी दक्षिण जानु पैलसा ।
( १५ ) नदी-किनारे चरता त-हर्ष जो समीप आया वह धेनु-वृन्द भी, सरोज-तीरत्व तडाग के उन्हें विहाय वारेग विलोकने लगे।
'पनी । 'अर । भेट । 'जघा।
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सोलहवां सर्ग
४९७
( १६ ) जिनेन्द्र के उन्नत बाहु-मूल पै गिरे तभी दो स्रग' अंतरिक्ष से परन्तु वे एक तटस्थ' भाव से प्रगाढ बद्धासन ही बने रहे ।
( १७ ) जिनेन्द्र यो तो असहाय-से लसे निरस्र, निष्कचुक', यान-हीन ही। परन्तु तो भी वह कर्म-शत्रु से कराल आयोधन मे समर्थ थे।
( १८ ) अभेद्य सन्नाह सहस्र शील का, निचोल भी कोटि गुणानुभाव का, सवार सवेग-गजेन्द्र पै हुये जिनेन्द्र थे प्रस्तुत सप्रहार को।'
( १९ ) विशाल चारित्र्य अनीक-वप्रथा, महान रत्न-त्रय के कलब थे, कराल कोदंड व्रतोपवास का उन्हे बनाता अरि से अजेय था।
'माला। उदासीन । 'विन वल्तर । 'युद्ध । 'युद्ध । 'टीता या मैदान । 'नाण।
३२
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वर्द्धमान
( २० ) अनीकिनी थी वहु गुप्ति आदि की, स्वय महा सेनप कर्म-संक्षयी, समक्ष था कर्म अमित्र, सिद्धि का महर्त आया अभिसन्निपात का।
(२१ ) दिनेश मे एक विकंप आगया, समीर में एक प्रकप हो गया, तड़ाग के पंकज वेपमान थे पयस्विनी का जल काँपने लगा।
( २२ ) शरीर की रक्त-प्रवाहिनी शिरा समस्त निध्मात हुई तुरन्त ही जिनेन्द्र की लोचन पुत्तली खुली, स-वेग घूमी, फिर वन्द हो गयी।
( २३ ) अचेप्ट है ओप्ठ, अचेत है त्वचा, अहो, अहो! क्या यह अंत-काल है? पिगंग-रगा वन सिंहिनी-समा कि मृत्यु ने ली प्रभु पै उछाल है।
लेना । 'प्राक्रमग । 'कपमाव । 'वजी। पीली ।
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वर्द्धमान
( ७६ ) विलोचनो मे रसना न थी, तथा विलोचनों से रसना विहीन थी, वखानता तो किस भाँति मै, कहो कि क्या हुआ, या किस भाँति से हुआ ?
( ७७ ) मनुष्य से भाषण में मनुष्य की सुबुद्धि होती अति तीव्र तत्परा, परन्तु द्रष्टा कहता स्व-भक्त से सुवाक्य एकान्त-निकेत में सदा ।
( ७८ ) जहाँ न पानी-पवनानलादि का प्रवेश होता महि का न व्योम का नितान्त एकान्त-निवास मे कही जिनेन्द्र थे, और अनन्त गक्ति थी।
( ७९ ) पवित्र एकान्त ! त्वदीय अक में, त्वदीय छाया-मय मजु कुज में, मुनीन्द्र, योगीन्द्र, किसे न अत में सदैव दैवी-सहचारिणी' मिली।
मुक्ति स्त्री।
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सोलहवां सर्ग
( ८० ) खडा रहा स्यदन एक याम यो जिनेन्द्र लौटे संग दिव्य शक्ति के, प्रकाश के अवर मे छिपे हये सु-व्यक्ति दोनों द्रुत एक हो गये।
( ८१।) कुबेर ने सत्वर ही जिनेन्द्र को शताग मे सादर ज्यो बिठा लिया, कि त्यो लगे स्यदन-चक्र धूमने तुरग देवालय-द्वार से मुडे ।
( ८२ ) शताग-चक्राहत-व्योम-मार्ग मे प्रदीप्त होने वहु भस्मनी' लगी पुन पुन. वचिष' व्योम-चचिनी स्फुलिंग-माला बहु फेकने लगी।
( ८३ ) यथा-यथा स्यदन व्योम के तले चला महा आतुर तीन चाल से तथा तथा तारक उच्च धाम के हुये परिक्षाम' प्रकाश-विन्दु-से ।
'किरणे, लपटे । अग्नि । 'दुवले ।
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५१४
वर्द्धमान
( ८४ ) तथा तथा आगत व्योम-चक्र से मनोज्ञ सगीत अश्रूय'माण हो, विलीन होता नभ मे नितान्त ही मुना गया था, न सुना गया तथा ।
( ८५ ) तथा-तथा ही नभ की गंभीरता अनन्त थी, सो फिर सान्त हो गयी; उमी शिला के तट यान आ रुका जिनेन्द्र-आत्मा फिर देहिनी बनी।
( ८६ ) तथैव स्वर्गीय-प्रकाश-मार्ग से चला पुन , न्यदन लुप्त हो गया। जिनेन्द्र ने लोचन खोल जो लखा हुई प्रतीता ऋजुवालिका-तटी।
( ८७ ) महायती के हृदयानुविम्ब से, प्रसन्नता से पृथवी प्रपूर्ण थी, प्रसक्त था आनन मुग्ध भाव में कि मूक प्राणी गुड खा गया कही।
'न सुनी गयी। शरीरिणी।
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५२८
वर्द्धमान
( १२ ) प्रभात से ही नर-नारि-वृन्द मे हुआ समुद्वेलित सिवु हर्ष का, उठी डुबोती गृह-कार्य सर्वग अनुप-आनद-तरग चित्त में।
( १३ ) मनोज्ञ ग्रामोत्तर मे प्रसिद्ध थी जहाँ महासेन-समास्य' वाटिका वही रुके जाकर देवं प्रात मेमिला समाचार समस्त ग्राम को।
( १४ ) तुरन्त नारी-नर का समाज भी चला कृतारण्य समीप मोद मे, न साधु ऐसा, इस ग्राम मे कभी यती न आया प्रभु-सा प्रसिद्ध था।
( १५ ) विलोक शोभा वदनारविन्द की, निहार आभा प्रभु-अग-अंग की, वखानते थे सब एक-कठ हो कि मूर्तिमाना तप-सिद्धि आ गयी।
"महासेन' इस सुन्दर नाम की। 'उद्यान ।
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सत्रहवाँ सर्ग
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जिनेन्द्र थे यद्यपि जानते सभी तथापि पूछा जब वृत्त ग्राम का, पता चला सोमिल' विप्रराज के यहाँ महा उत्तम याग हो रहा।
( १७ ) हुये सहस्रो समवेत' विप्र थे, अशेष ज्ञाता बहु वेद-शास्त्र के, समाज ऐसा न विहार-प्रान्त मे कदापि एकत्र हुआ, न भाव्य' है।
( १८ ) सु-योग ऐसा प्रभु ने विचार के कहा कि "मैं ब्राह्मण-प्रीति-पात्र हूँ, सदैव चिंता इनको स्व-धर्म की रही, रहेगी द्विज त्याग-मूर्ति है ।
( १९ ) "अत. सुने ये उपदेश मामकी, प्रचार भू मे जिन-धर्म का करे, सदैव शिक्षा अपने चरित्र से धरित्रि मे दे नर-नारि-वृन्द को।
'सोमिलाचार्य । इकट्ठा । 'होने वाला।
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वर्द्धमान
( २० ) "विता रहे जीवन अन्य लोग है अजस्र आहार-विहार-मात्र मे, परन्तु है ब्राह्मण सत्य-रूप जो रहस्य-ज्ञाता बहु-धर्म-कर्म के।
( २१ ) "जिसे न आसक्ति, जिसे न गोक ही कदापि आगतुक'से चरिष्णु से, प्रमोद पाता वहु धर्म-भाव में, वही कहा ब्राह्मण विश्व में गया ।
( २२ ) "विशुद्ध जो अग्नि-विदग्ध हेम-सा खरा दिखाता निकपोपलादि' पै, . विहीन है जो भय-राग-द्वेष. से वही कहा ब्राह्मण साधु से गया ।
( २३ ) "तपोधनी, इन्द्रिय-निग्रही तथा महाव्रती, पीडिन लोक-ताप से, जिसे मिला सगम आत्म-शान्ति का कहा गया ब्राह्मण श्रेष्ठ है वही।
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'पानेवाला । 'जानेवाला । 'कमोटी अयवा अन्य परीक्षा-साधन ।
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५४४
वर्द्धमान
( ७६ ) लखा असतोष मनुष्य-भाल पै भरा हुआ मानस दुख-नीर से, विलोचनो मे उमडे पयोद थे, अधीरता आनन मे विराजती।
( ७७ ) लखी गयी दुख-विना कराह है, सुना गया रोदन हेतु के विना। न रच आवश्यकता प्रपच की अतुष्टि ही है अनुभूत हो रही ।
( ७८ ) अहो, असतुष्ट-मनुष्य-चित्त में न प्राप्ति का आदर है, न मान है, जिसे नही इच्छित 'देव-दत्त' हो बने न 'भिक्खूमल' कौन रोकता ?
(७९) कृतघ्न प्राणी-मम दुष्ट जीव को परिनि-उत्पत्ति न दे सकी कभी, वसुन्धरा-मध्य अनेक पाप है, यही महा पाप, महा कु-कर्म है।
'जो मनुष्य अपना नाम दिवदन न रखना चाहे, वह 'भिक्यूमन ही रखते ।
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सत्रहवां सर्ग
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( ८० ) सुतीक्ष्णता मे अथवा विघात' म सुरेन्द्र का वज्र प्रसिद्ध लोक मे, परन्तु सो भी इस-सा न तीक्ष्ण है प्रहार मे, मारण मे कि वेध' मे
( ८१ ) सहस्र-आशीविष-दश तुच्छ है, असख्य भी वृश्चन'-डंक सूक्ष्म है, अगण्य दैवी अभिशाप व्योम से प्रकांड वर्षा करते कृतघ्न पै।
( ८२ ) कृतघ्न है जो कृत को न मानता, कृतघ्न है जो रखता रहस्य है, कृतघ्न है जो बदला न दे सके, कृतघ्न है मानव भूल जाय जो। [ द्रुतविलंबित ]
( ८३ ) इस प्रकार कहे कुछ दोष जो मनुज का करते विनिपात है, फिर लगे कहने गुण जो सदा शुभ-समुत्थित जीवन-हेतु है।
चोट । 'वेधन । 'विच्छू । 'प्रत्युपकार ।
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वर्द्धमान
[ वंशस्थ ]
( ८४ ) प्रशंसको को हम प्रेम-भाव से विलोकते है, करते सु-प्रीति है बने हमारी स्तुति के सु-पात्र जो न सर्वदा वे नर प्रीति-पात्र है।
( ८५ ) सदा प्रशसा करना मनुष्य की, कि जो महा आदरणीय व्यक्ति हो, मनुष्य का उच्च उदार भाव है, गुणावली के लग' का सुमेरु-सा।
( ८६ ) लखा गया मार्दव ही मनुष्य के विनाशता जीवन के कटुत्व को, अशेष अगार, इसे प्रशत्य दो, जला सके चित्त न चित्तवान का।
( ८७ ) कभी हंसाते गिशु साधु-संत को विलोकिये यो हंसते हुये उन्हे, कि खीचते वस्त्र, करस्थ पात्र भी, प्रसन्न होते करते विनोद है।
'माला । 'प्रधान नृरिया।
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________________ सत्रहवाँ सर्ग 561 ( 144 ) परोपकारार्थ प्रसून फूलते, परोपकारार्थ फली' प्ररोहते, परोपकारार्थ नदी-गवादि है, परोपकारार्थ शरीर साधु का / ( 145 ) गजेन्द्र भी खा तृण दान दे रहे, सुरेन्द्र भी धन्य परोपकार से न पुण्य कोई पर-लाभ-सा यहाँ परार्थ' तीर्थकर भी पधारते। [ द्रुतविलंबित ] ( 146 ) सकल विश्व विभाजित है द्विधा विधि-प्रपंच भरा गुण-दोष से / मिल सके यदि मजु मराल तो पय' लहे पय त्याग करे सुधी। [ वंशस्थ ] ( 147 ) प्रवृत्त संध्या उस काल हो गई निशेश-ज्योत्स्ना-मय अतरिक्ष था। अशेष-नक्षत्र-प्रकाशमान हो बना रहे थे नभ अर्क' वृक्ष-सा / 'वृक्ष / दूसरे के लाभ के लिये / 'दूध / 'जल / 'मदार।