SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० वर्द्धमान ( १०० ) पिकी! तुम्हारी यह गीति शाश्वती सुनी गयी संतत राव-रंक से, अत मुझे दो वह तान, जो सदा मुदा सुनी जाय जिनेन्द्र-भक्त से । ( १०१ ) पिकी ! तुम्हारे स्वर जो मनुष्य मे प्रसन्नता है भरते दिवौकसी' प्रबुद्ध नक्षत्र प्रकाश से हुये सरस्वती के मृदु बीन-राग से। ( १०२ ) प्रसन्न प्रत्येक पलाग वृक्ष का, प्रवुद्ध प्रत्येक तरंग नीर की, वन-प्रिये ! मत्त कुर्क से हुये कुमार-हृत्तन्त्र मधु-प्रभात में। ( १०३ ) अनूप आयोजन स्वीय व्याह का पडे-पडे सोच रहे कुमार थे, कि पूर्व में ब्रह्म-मुहुर्त की विपा स-हर्प आयी उदयाद्रि-शृंगपै । देवी। वसन्त ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy