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________________ नवां सर्ग २७५ ( ७२ ) "परन्तु केदार' तथैव वृक्ष भी यही कहानी कहते स-दुख है, कि सौख्य-कारी दिन वे चले गये, मिली हमें सु-स्मृति', स्वप्न खो गया ! ( ७३ ) "विचारता हूँ' यदि मै प्रशान्त हो, न जन्म ही व्यक्त, न व्यक्त मृत्यु ही, नितान्त अज्ञेय, न भूति-गम्य है मनुष्यके जीवन का रहस्य भी। (७४ ) "अतीत मे जीवन-तारिका-समा मदीय आत्मा जब स्वर्ग से चली नितान्त थी सु-स्मृति से न नग्न ही, स्व-कर्म की पुच्छल ज्योति सग थी। ( ७५ ) "मनुष्य-आत्मा उस दिव्यलोक से जभी पधारी... महि मे स्व-कर्म से, चली सु-छाया उस ऊर्व लोक की तभी समाच्छादित हो शिशुत्व पै। 'खेत । स्मरण-शक्ति । 'अनुभव-गम्य । "विना, रिक्त । 'ढकी हुई। -
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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