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________________ सातवाँ सर्ग २११ ( ४० ) सहेलियो के सग मे यहाँ-वहाँ विलोकती थी त्रिशला प्रसन्न हो चली न डोली निज गर्भ-भार से प्रशान्त बैठी लखती सुदृश्य थी। ( ४१ ) . समीप ही एक गुलाब-वृक्ष था, प्रसून फले जिसमे अनेक थे; नपालिका-स्वागत-हेतु प्रेम से प्रसारता था अपनी सुगंध जो। ( ४२ ) समीर की एक तरग ने कहा, "समीप उत्फुल्ल गुलाब-वृक्ष है" मिलिन्द के मंद निनाद ने कहा, "यही कही पास गुलाब-पाश' है।" ( ४३ ) न पखड़ी शाश्वत' है गुलाब की, दशान है केसर की सनातनी, परन्तु तो भी इसकी सुगध मे चिरतनी अस्थिरता अवश्य है। - 'गुलाब का जाल, झाड़ी। सनातनी
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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