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________________ छठा सर्ग १६३ ( ८० ) विपचिके | धात्विक शब्द तावकी' विमोहते जीवित-भृग-मंडली, मनोरमा है ध्वनि भासती मुझे सुकोमला नाद-कला अकथ्य है। ( ८१ ) सरस्वती लेकर बीन स्वर्ग में निसर्ग के आदिम-काल मे पुरा लगी जभी सुन्दर गान छेड़ने हुई स्वयमू-श्रुति अष्ट-श्रोत्र की। ( ८२ ) निनाद होता अति शुष्क पर्ण मे, अजस्र गाती सरि-धार गीति है; मनुष्य के हो यदि कान, तो सुने सँगीत व्यापा वन-अद्रि-व्योम मे। ( ८३ ) सँगीत आत्मा त्रसरेणु'-व्यापिनी त्रिलोक-स्रष्टा विभु से रची गयी; प्रसिद्ध भू मे श्रुतियां न चार ही वरच द्वाविशति है, अनन्त है। 'तेरे । ब्रह्मा। 'वह कण जो वायु में अदृष्ट उडते रहते है। 'वाईस । १३
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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