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________________ १६२ वर्द्धमान ( ७६ ) विपचि | तेरे तन' एक तार ने हिला दिया राग-विहीन गर्भ भी, यही प्रशसा भवदीय न्यून क्या कि जो पुन लीन हुई स्व-राग मे । ( ७७ ) न देव होते अभिभत क्यो, शुभे । संगीत देवालय-योग्य वस्तु है, न युक्त संगीत-प्रभाव से हने कुरंग को ब्याध, अमाप पाप है । (७८ ) लिखा गया दिव्य सँगीत सर्वदा दिगंत-पृष्ठो पर नाक-लोक के; कहा गया है उस शब्द में कि जो प्रसिद्ध भाषा सुमना-समाज की। ( ७९ ) समोद गावो अतएव, देवियो । निरतरास्वादन-दत्त-चित्त हूँ, विधान सौधर्म-महेन्द्र का यही, संगीत है दान महान ईग का। - कोमल । अत्यन्त ! 'देवता ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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