SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ वर्द्धमान ( २८ ) मनुष्य वालारुण-सा उगा, जगी पयोज' नेत्रा-सरसी-प्रसन्नता ; प्रगल्भता प्राप्त हुआ कि आ गयी सरोज-संध्यारुण मे विपण्णता। ( २९ ) मनुष्य जीना बहु काल चाहता, न वृद्ध होना वह याचता कभी, गयी, न आयी युवती' दशा वही, न आ गयी, है जरठा दगा वही । (३०) न देह होती लकुटावलविता, न ज्योति अस्पष्ट अदीर्घ नेय में, न हास्य में कठितता विराजती, न प्राप्त होती यदि वृद्धता हमे । (३१) न आह होती नर की गभीर को, फराह मे भी कटना न व्यापती, न देह को पर्जन्ता व्यमोहनी', न प्राप्त होता स्थविन्य जीव गे।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy