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________________ ૪૬૬ यमान ( १०८ ) "पुन सुनो, अतिम अग धर्म का, कहा गया उत्तम ब्रह्मचर्य है, हस्थ को भोग्य स्व-नारि ही सदा, मस्त-नारी-गण साधु त्यागता।" ( १०९ ) सुना जभी भूपति ने मुनीद्र से महान आदोलित-चित्त हो उठे, विचारने वे सहसा लगे, अहो । असारता-पूर्ण समस्त विश्व है । ( ११० ) असार होता यह विश्व जो न, तो इसे न तीर्थंकर देव त्यागते, तृषा-बुभुक्षा-रुज'-काम-क्रोध की दवाग्नि प्राणी-बन को न दाहती । ( १११ ) मनुष्य का जो धन-धर्म-है, उसे स्वतत्र हो इन्द्रिय-चौर लूटते, अभाव में या निज भाव में इसे अजस्त्र ही है सब भोग भोगते । 'ब्रह्मचर्य का अर्थ है कि गृहस्थावस्था में अपनी स्त्री के अतिरिक्त सभी स्त्रियों का त्याग तथा सन्यासावस्था में सभी स्त्रियो का त्याग। रोग ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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