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वर्द्धमान
( ८४ ) तथा तथा आगत व्योम-चक्र से मनोज्ञ सगीत अश्रूय'माण हो, विलीन होता नभ मे नितान्त ही मुना गया था, न सुना गया तथा ।
( ८५ ) तथा-तथा ही नभ की गंभीरता अनन्त थी, सो फिर सान्त हो गयी; उमी शिला के तट यान आ रुका जिनेन्द्र-आत्मा फिर देहिनी बनी।
( ८६ ) तथैव स्वर्गीय-प्रकाश-मार्ग से चला पुन , न्यदन लुप्त हो गया। जिनेन्द्र ने लोचन खोल जो लखा हुई प्रतीता ऋजुवालिका-तटी।
( ८७ ) महायती के हृदयानुविम्ब से, प्रसन्नता से पृथवी प्रपूर्ण थी, प्रसक्त था आनन मुग्ध भाव में कि मूक प्राणी गुड खा गया कही।
'न सुनी गयी। शरीरिणी।