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________________ ३८५ तेरहवां सर्ग [ द्रुतविलंबित ] ( ४० ) सुहृद'-संग सदा रहना हमे वितरता बल-बुद्धि-विवेक है, पर असग-प्रसग परेश का विदित आत्म-समुन्नति-हेतु है । [ वंशस्थ ] सदैव प्राणी इस मयं-लोक मे रहा अकेला, रहता अ-संग है। रहा करेगा यह संग-हीन ही प्रसंग होगा इसका न अन्य से । ( ४२ ) असग लेता नर जन्म विश्व मे असग ही है मरता पुन पुन , सदा अकेला सुख-दुख भोगता न अन्य साझी उसका त्रिलोक मे । ( ४३ ) अ-संग ही सौख्यद भोग भोगता, अ-संग ही दु.खद रोग भोगता, सदैव प्राणी यमराज-सग मे असग जाता, फिरता अ-संग है । 'अय एकत्व-भावना ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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