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________________ ३८६ वर्द्धनान ( ४४ ) सदा अकेला करता कु-कर्म है कुटुम्ब के पालन-हेतु विश्व मे, इसीलिए पुद्गल-पाप-बंध से अवश्य पाता नरकाधिकार है। परन्तु जो मानव मुक्त-संग हो लगे हुये सम्यक-दर्शनादि मे, व्यतीत भू मे करते स्व-कर्म है, कहे गये केवल-ज्ञान-संयमी । ( ४६ ) असंग भू मे करते व्रतादि है, असंग सारे तप-जाप सावते, वही महा विज्ञ मनुष्य अंत मे अतीव पाते सुख पुण्य-वध से । ( ४७ ) विभूतियाँ, जो सुर-लोक-सिद्ध है, महान नि श्रेयन-संपदा तथा विशुद्ध कैवल्य-प्रदा त्रिलोक में अवाप्त होती गतियाँ विदन्ध' को। 'पडित ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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