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सुसह्य हेमन्त रवीव पार्थके विनष्ट हेमन्त नलेव शत्रु थे ।
(४५१४३)
" तडाग थे, स्वच्छ तडाग हो यथा सरोज थे, फुल्ल सरोज हो यथा । शशांक था, मजु शशांक हो यथा प्रसन्नता पूर्ण शरत्स्वभाव था | (88018)
"श्रधौत वस्त्रा, श्रमिता प्रशसिता प्रशौच-देहा, श्रभगा, श्रमानिता । प्रदर्शनीया, अनलकृता श्र-भा अभागिनी यो प्रबला श्रमानुषी ।। " ( चन्दनाका वर्णन - ४८६।१८९ )
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निसन्देह इस प्रकारके अलकार संस्कृत साहित्यमे अन्यत्र भी पुन - पुन आये है और खोजने से अलकार साम्य दिखाया जा सकता है पर इस प्रकार देखें तो कालिदास, भवभूति, भारवि और माध तथा गुणाढ्य, विमल, हरिपेण, जिनसेन र धनजय प्रादिके बाद तो कोई उपमा औौर अलकार अछूते नही वचते ? और वाणके विषयमे तो यहाँ तक कह दिया गया है कि - "बाणोच्छिष्ट जगत्सर्वम् " ।
परम्परागत अलकार कौशल के प्रतिरिक्त कविवर अनूपने 'वर्द्धमान' काव्य में अपनी भावमयी कल्पनाने सुषमाके अनेक नये सुमन उपजाये हैं । कही नही शन्दोकी कल्पना में अर्थ और मृदुताका इतना विस्तार भरा है कि परिभाषाएँ औ कल्पनाएँ काव्यमय हो गई है ।
गिता स्वप्न देस रही है । स्वप्नकी परिभाषा और स्नानमा तरह नजीब और सजग हो गया