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________________ १७६ वर्द्धमान ( १२ ) नवांगना की रति-कामना-समा, तथैव लज्जा इव प्रोट नारि की, कि स्वैरिणी' की नियमानुवृत्ति-सी अन्य होती क्षण में दिन-प्रभा । स-भास यो कोरक कुंद-पुष्प के विराजते पल्लव-अंतरिक्ष में, यथैव हो जीत-विभीत तारिका छिपी हुयी कुंद-लता-समूह में। ( १४ ) दिनेन का आतप मंद हो गया, निगेग की भी अति गीत चद्रिका, महान व्यापा निगिरत-शैत्य यो न अग्नि मे तेज रहा विशेष था। ( १५ ) निवेग-वातायन-काच-पी० पै तुषार के चित्र विचित्र हो गये; सुकर्णिका' के, सरसीरहादि के अनूप थे गुच्छक-से लते हुये । 'पुश्चली स्त्री। कलिया। पाला । गुलाब ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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