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________________ पांचवा सर्ग ( ८८ ) "दुरूह है प्रेम-रहस्य जानना, न ज्ञात है कंटक है कि डक है, कि अग्नि हो वाडव की, मनोरमे । सुखा रही जीवन' विश्व-सिंधु का।" ( ८९ ) प्रभो । मुझे ज्ञात कदापि है नही, सुधाक्त' है . प्रेम, विषाक्त वस्तु या, अनादि-माधुर्य-भरी विभूति है, अनन्त-काकोल'-मयी प्रसूति है। "समक्ष स्वर्गीय--प्रभाव प्रेम के समृद्धि सारी अति तुच्छ भूमि की, न प्रेम के है अतिरिक्त प्रेम का सुना गया मूल्य समस्त विश्व मे । ( ९१ ) "समस्त वृन्दारक देव-धाम के विनाश दे अतर देश-काल का, सुरेश दो प्रेमिक-प्रेमिका मुदा हिला-मिला दे, मम प्रार्थना प्रभो ।" 'जल । 'अमृत-सिंचित । 'विष । 'देवता । ११
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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