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________________ वर्द्धमान I ( ९२ ) कठोर था चित्त महान सत्य-सा, विचार-धारा दृढ शुद्ध न्याय-सी, विवाह हो ? दिव्य विवाह-योजना बना रही मानस एक-तन्त्र थी । ( ९३ ) विवाहहो? दिव्य विवाह क्यो न हो, बरात हो ? देव-समाज क्यो न हो, बने नही पाणि-गृहीत मुक्ति क्यो न देव हो श्रीवर-मडलेश' क्यो। ( ९४ ) अखड भोगी वनता अवश्य, तो अखड ही हो दृढ ब्रह्मचर्य भी, अखड हो प्रेम, अखड ज्ञान, । तो अखड-सौभाग्यवती प्रिया मिले। ( ९५ ) प्रभात मे सवल और आ गया प्रदीप्त तारागण और हो गये, दिवा-धरित्री प्रतिविविता हुई समुच्च आसक्ति, दढा विभावना'। 'दुलह-समाज में श्रेष्ठ । उत्तेजना । 'विचार-धारा ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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