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________________ ५४६ वर्द्धमान [ वंशस्थ ] ( ८४ ) प्रशंसको को हम प्रेम-भाव से विलोकते है, करते सु-प्रीति है बने हमारी स्तुति के सु-पात्र जो न सर्वदा वे नर प्रीति-पात्र है। ( ८५ ) सदा प्रशसा करना मनुष्य की, कि जो महा आदरणीय व्यक्ति हो, मनुष्य का उच्च उदार भाव है, गुणावली के लग' का सुमेरु-सा। ( ८६ ) लखा गया मार्दव ही मनुष्य के विनाशता जीवन के कटुत्व को, अशेष अगार, इसे प्रशत्य दो, जला सके चित्त न चित्तवान का। ( ८७ ) कभी हंसाते गिशु साधु-संत को विलोकिये यो हंसते हुये उन्हे, कि खीचते वस्त्र, करस्थ पात्र भी, प्रसन्न होते करते विनोद है। 'माला । 'प्रधान नृरिया।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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