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________________ ३५२ वर्द्धमान ( २८ ) मनुष्य यो ही निज भाव-कर्पटी' स-तर्क होके बुनता अजस्त्र है, विचार का ही करघा बना हुआ, लखो, रही है नुन चातुरी-तुरी। ( २९ ) विचार जो जागृत एकदा हुये, पुनश्च सोना वह जानते नहीं; प्रकागते विद्युत-वेग से जभी प्रदीप्त होती मति-रोदसी सदा । ( ३० ) विहाय सीमा सव देश-काल की विचार-संचार स्वतंत्र ज्यो हुआ, कि भूमि भी है फिर भासती हमे पवित्र-सी पुण्य-निवास-सी महा। निमग्न यो गढ़ विचार में सुची धरित्रि को अवर को विलोक्ते वित्रारते थे निज कार्य-योजना, प्रगान्ति वाह्यान्तर वर्तमान थी। 'चादर । भूमि-याकाश के बीच का भाग। 'प्रदर-बाहर।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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