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________________ २४० वर्द्धमान ( ४४ ) 'अघाल्य' दी अहि की प्रनान्ति भी अवश्य होना अवशिष्ट है अभी, अपूर्ण आगीविप काल-कूट से प्रपूर्ण देता भय जो त्रिलोक को।" ( ४५ ) भविष्यवाणी सुन अतरिक्ष की नमस्त मिथ्या-मत भागने लगे, अतथ्य ज्योतिर्विद मूक हो गये, असत्य-मापी फलितज मौन थे। ( ४ ) नदैव हिंसा-प्रिय वाम-मार्ग के गये प्रचारी सब भाग भूमि से, कु-ग्रन्य ले ले निज वाम-कुक्षि मे किसी गुफा मे गिरि की ममा गये । ( ४७ ) न्वतत्र जो मात्रिक' दुष्ट धर्म के ग्वा रहे थे वय जीव-जन्तु का नभी अबी वे तज हेति' हल ले छिपे नही भाव-चा त्याग के। 'अघ नामज। 'म । 'म । हटिया।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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