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दसवां सर्ग
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(८०) न प्राण लेना अति क्लिष्ट कार्य है, पिपीलिका भी डसती करीन्द्र को, परन्तु देना वश मे न अन्य के नरेन्द्र के या कि नरेन्द्र-नाथ' के ।
समस्त जो जीवन-रत्न है यहाँ पिरो सका जीवन एक ताग मे, मनुष्य आता जल के प्रवाह-सा, तथैव जाता गति-सा समीर की।
( ८२ ) मरुस्थ कासार मिला जहाँ रुक, पिया वही नीर स्व-मार्ग मे चले, अनिश्चिता आगम की दिशा यहाँ कहाँ गये स्थानक इष्ट है नहीं।
( ८३ ) अहर्निशा की शतरज है विछी, नरेश-प्यादे सब खेल-वस्तु है, गये चलाये कुछ देर के लिए, हुये इकट्ठे फिर एक ठौर मे।
'सम्राट् । 'स्थान ।
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