________________
चौदहवां सर्ग
४३३
( १२० ) "समीप ही जो पट देवदूष्य है, नितान्त श्वेताबर-सा बना रहा, अ-ग्रथ, निर्द्वन्द्व महाना संयमी, बने हुये हो जिन-धर्म के ध्वजी।
( १२१ ) "समेत हो नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के, निकेत हो चार प्रकार ज्ञान के, उपेत हो वीर ! दया-क्षमादि से प्रचेत' हो हे प्रभु! शुक्ल ध्यान के।
( १२२ ) "नितान्त हो इच्छुक आत्म-सौख्य के निरीह कैसे तुमको कहे, प्रभो ! कि मोक्ष का है अनुराग, जो तुम्हे न ज्ञात, कैसे तुम वीत-राग हो ?
( १२३ ). "प्रसिद्ध-रत्न-त्रय-संग्रही ! तुम्हे नितान्त निर्लोभ कहे, अयुक्त है। त्रिलोक-राज्येश बने प्रयत्न से न कीतिभागी तुम राज्य-त्याग के ।
'ध्वजा वाले । जानने वाले । 'अथ व्याज-स्तुति ।